सूर्य का संकीर्ण प्रकाश-वृत्त और आपाधापी / जयप्रकाश चौकसे

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सूर्य का संकीर्ण प्रकाश-वृत्त और आपाधापी
प्रकाशन तिथि :01 जनवरी 2016


नव-वर्ष में फिल्म उद्योग और देश की आम जनता की सुख-सुविधाएं एक साथ जुड़ी हैं, क्योंकि आम जनता पर पड़ने वाले आर्थिक-सामाजिक एवं पारिवारिक दबावों का प्रभाव फिल्म उद्योग पर भी पड़ता है। दरअसल, किसी भी क्षेत्र को अलग द्वीप की तरह नहीं देखा जा सकता परंतु दवा का कारोबार बीमार देश में उज्जवल हो जाता है। विगत निराशावादी वर्ष की छाया से नव-वर्ष मुक्त नहीं हो जाता, क्योंकि समय गुजरकर भी पूरी तरह नहीं गुजरता और आने वाला समय आकर भी पूरी तरह नहीं आता। हर वर्तमान क्षण में भूत और भविष्य मौजूद होते हैं। हमारा आशावाद एक अजूबे के घटने की आकांक्षा मात्र है। दशकों पूर्व बनी फिल्म 'ए मिरेकल इन मिलान' में सूर्य का प्रकाश कभी-कभी सीमित क्षोत्र में प्रकट होता है और ठंड से ठिठुरते लोग उस धूप-वृत्त में खड़े रहने के लिए धक्का-मुक्की करते हैं। फिल्म उद्योग के 103 वर्ष के इतिहास में सफल फिल्मों का प्रतिशत किसी भी वर्ष 15 प्रतिशत से अधिक नहीं रहा और देश में उच्च मध्यम वर्ग और श्रेष्ठि वर्ग का प्रतिशत भी इतना ही है और 'मिरेकल इन मिलान' की तरह धूप अर्थात खुशहाली के सूर्य-वृत्त के लिए मारामारी होती है गोयाकि इतने हजार वर्षों के बाद भी जंगल नियम अर्थात 'सबसे मजबूत व्यक्ति ही बचा रहेगा' कायम है।

यह हमारी पूरी मानवता के लिए दु:ख का विषय है। धरती मां के पास अपनी सभी संतानों के पेट भरने और खुश रहने के संसाधन है परंतु मनुष्यों द्वारा उनका दोहन और बंटवारा कभी समान नहीं रहा और अंधी व्यवस्था ने जंगल कानून को जीवित रखा है। इसके अपवाद भी दो तरह से दिखाई पड़ते हैं। एक यह कि किसी को संयोगवश कोई अवसर मिलता है, जिसका वह दोहन करता है। दूसरे कुछ असाधारण प्रतिभाशाली लोग सारे चक्रव्यूह तोड़कर अपनी प्रतिभा से सबको चौंका देते हैं।

नए वर्ष में भी फिल्म उद्योग में सफलता का प्रतिशत बदलने की कोई आशा नहीं है और यह भी सही है कि संयोगवश किसी को अवसर मिलेगा और वह सफल फिल्म बना लेगा और यह भी सही है कि असाधारण प्रतिभाशाली लोग फिर कोई 'मसान' प्रस्तुत कर दे, कहीं से कोई 'कहानी' या 'विकी डोनर' आ जाए। विगत 103 वर्षों में ये दोनों धाराएं हर वर्ष मौजूद रही हैं। दरअसल, फिल्म उद्योग की मूल समस्या सरकार का स्लीपिंग पार्टनर होना नहीं है। मूल समस्या यह है कि सवा सौ करोड़ की आबादी में किसी भी सफल फिल्म को 2.25 करोड़ लोगों ने ही सिनेमाघर में देखा है, क्योंकि पूरे देश में मात्र 9 हजार एकल सिनेमा हैं। अनगिनत कस्बों और छोटे शहरों में सिनेमाघर ही नहीं है। भारत में 30 हजार छोटे एकल सिनेमाघरों की आवश्यकता है ताकि पहले सप्ताह की आय भी मौजूदा सौ करोड़ से बढ़कर 3000 करोड़ की हो जाए। सबसे बड़ा भ्रम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने सौ, दो सौ और तीन सौ करोड़ की आय के आंकड़े प्रकाशित करके फैलाया है। वास्तव में यह ग्रॉस यानी सकल आय है और इसका 45 फीसदी ही शुद्ध आय है। उदाहरण के लिए 'दिलवाले' और 'बाजीराव मस्तानी' ने छुटि्टयों से भरे बारह दिनों में 130 करोड़ की ग्रॉस आय अर्जित की है अर्थात शुद्ध आय पचास के ऊपर नहीं है और दोनों की लागत 150 करोड़ प्रति फिल्म है तथा अब आने वाले दिनों में वे अपनी लागत तक नहीं पहुंच पाएंगे।

डेढ़ सौ सीटों के एकल सिनेमा घरों की वृद्धि परम आवश्यकता है। मल्टीप्लेक्स टिकिट बिक्री के आधार पर नहीं टिके हैं, जो बमुश्किल औसतन 30 प्रतिशत से अधिक नहीं है वरन् पॉपकॉर्न, शीतल पेय और पार्किंग लॉट से वे मुनाफे में हैं। एकल सिनेमा निर्माण की राह में सबसे बड़ा रोड़ा लायसेंसिंग नियमावली है और प्रदर्शन के क्षेत्र में कॉर्पोरेट धन नहीं आने से कुछ भी संभव नहीं है। अब इस देश के हर क्षेत्र में कॉर्पोरेट भागीदारी आवश्यक कर दी गई है। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि कॉर्पोरेट और औद्योगिक घरानों को अभी तक भारत की विराट संभावनाओं की कल्पना तक नहीं है। आप टूथपेस्ट या साबुन केवल महानगरों और मध्यम शहरों में बेचकर खुश हैं, जबकि ग्रामीण और आंचलिक विराट मार्केट की आपको कल्पना ही नहीं है। समर्थ लोगों की सोच यही है कि सूर्य का प्रकाश-वृत्त छोटा ही बना रहे और उस पर उनका कब्जा रहे। अगर प्रकाश-वृत्त चहुं ओर पहुंच जाए तोपृथ्वी जगमगा उठेगी। इन घरानों में फिल्म निर्माण में धन लगाया और इसमें पूंजी निवेश बढ़ाने पर भी वे सितारों की दासता करते रहेंगे परंतु डेढ़ सौ सीट के हजारों सिनेमाघर बनाकर वे फिल्म उद्योग के राजा हो सकते हैं। अभी तक देश के सारे उद्योगों का हाल यह है कि वे अपनी कूप मंडूकता के शिकार हैं। उनकी अपनी संकीर्णता उन्हें आगे नहीं बढ़ने देती।

सारे मामले को शैलेंद्र ने क्या खूबी से प्रस्तुत किया है, 'मन का घायल पंछी उड़ने को है बेकरार, पंख हैं कोमल, आंख है धुंधली, जाना है सागर पार, अब तू ही हमें बता, कौन दिशा से आए हम।'