सूर-साहित्य की प्रासंगिकता / हरेराम समीप

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महात्मा सूरदास हिन्दी वांङमय के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, भक्त कवि हैं, कालजयी कवि हैं। काव्याभिव्यक्ति में हिन्दी में उनके जैसा दूसरा कवि नहीं है, उन्हें कृष्ण भक्तिधारा के उद्भव और प्रवर्तन का श्रेय भी जाता है। वास्तव में अपने काव्य से उन्होंने भक्तिधारा की दिशा ही बदलकर रख दी, उन्होंने पहली बार भक्ति को ईश–वंदन से लीला–वर्णन में तब्दील कर दिया और तब से ईश-भक्ति कृष्ण के प्रेम–रंग में रंगने लगी। उत्तर भारतीय समाज में यह 'लीला वर्णन' एक अद्भुत क्रान्तिकारी परिवर्तन के रूप आया। पिछले पांच सौ साल में यह परिवर्तन एक सुदृढ़ परम्परा के रूप में विश्व व्यापी होता रहा लेकिन स्वयं इस क्रान्तिकारी कवि की छवि नहीं बदली और लगभग वही की वही रही-एक ऐसे भंक्त कवि की-जो कृष्ण की बाल–लीला' के गान में मग्न रहता था और जो नेत्रहीन होते हुए भी ब्रजधाम में प्रतिदिन नए पदों के गायन से भक्तों को कृष्ण–लीला का दिव्य साक्षात्कार कराता रहता था।


-या फिर यह मान कर चला गया कि उसने आजीवन गोकुल तथा वृंदावन में रहकर लगभग सवा लाख पदों की रचना की जिन्हें आज भी मंदिरों में गाया जाता है।


-या फिर यह कह दिया गया कि इन सवा लाख पदों में से लगभग 8000 पद उनके उस मूल ग्रंथ 'सूरसागर' में संकलित हुए हैं, जो एक 'लीला प्रबन्ध' है और जिसमें उन्होंने बाल कृष्णकाव्य को अपना मुख्य विषय बनाया है। कहा यह भी है कि यह 'सूरसागर' ग्रंथ श्रीमदभागवत के दशम् स्कन्ध के आधार पर रचा गया है, जो एक स्वतंत्र काव्य है। इसमें भ्रमरगीत सबसे मर्मस्पर्शी अंश है, जहाँ कविता और शास्त्र का सुंदर समन्वय प्रस्तुत किया गया है। -या यह कि भ्रमरगीत में सगुण और निर्गुण का अदभुत विमर्श प्रस्तुत किया गया है। भ्रमरगीत में निर्गुण पर सगुण, शुष्कता पर सरसता और दर्शन पर प्रेम ने विजय पायी है। भ्रमरगीत में सूर की उत्कृष्ट वाक्पटुता और विद्वता का जो परिचय मिलता है, वह उनकी जीवन–दृष्टि, उनके सूक्ष्म धर्म-ज्ञान व विराट दर्शन से आलोकित हुआ है। बड़े-बड़े अध्येता अपने पांडित्य से उनकी कलात्मक प्रतिभा पर यूँ अचरज भी व्यक्त कर देते हैं कि बाल–लीला वह भी ठेठ अभिधा शैली में । । । गजब के हैं ये सूरदास जी आदि ...आदि और बात ले-दे के समाप्त हो जाती है । । ।

कभी-कभार यह भी बता दिया जाता है कि सूरसागर के अतिरिक्त दो संग्रह 'सूरसारावली' और 'साहित्य लहरी' में भी उनकी रचनाएँ संगृहीत हैं। 'सूर सारावली' में होली के दृश्यों के माध्यम से जीवन के सर्जन के पद हैं। साहित्य लहरी में परब्रह्म को समर्पित गीत तथा काव्यांगों को लेकर काव्य शृंगारिक पंक्तियाँ संगृहीत की गई हैं।

मित्रो! मुझे विश्वास है कि आपने हिन्दी के इस महाकवि को स्कूल में ही सही लेकिन जरुर पढ़ा होगा। नहीं पढ़ा तो गूगल से पूछ कर अब आपका काम चल जाएगा, लेकिन मित्रो गूगल आपको यह नहीं बता पाएगा कि सूरदास के पद तो कब के आपकी आत्मा में, आपके संस्कारों में आपके बचपन से ही रचे–बसे हैं। हुआ बस यही है कि हम उन्हें भूलते जा रहे हैं। यदि हम अपने भीतर झाँककर देखें तो सूरकाव्य का वैराट्य हमारे सामने पुन: खुलने लगेगा।

सूर-साहित्य के वैराट्य का मूल तत्व हैं-प्रेम और भक्ति। यह प्रेम और भक्ति का चित्रण इतना हृदयस्पर्शी और भावपूर्ण है कि इसे सुनते या पढ़ते हुए यह मन में जीवंत होने लगता है। उनके पदों में जो लयात्मकता है, जो संगीतात्मकता है वह हमारी स्मृति में स्थायी रूप से जगह बना लेती है। सबसे बड़ा सौभाग्य और गौरव की बात है कि सूरदास के पदों की भाषा हमारी ब्रज भाषा है, जो हमारे क्षेत्र की जनभाषा है। यही कारण रहा कि सूरकाव्य ने सहज ही लोककाव्य का रूप लिया और इसलिए भी कि इन पदों में ग्राम्य–जीवन और प्रकृति के सुंदर सजीव चित्र मिलते हैं, जिनमें 'गो' तत्व अर्थात गौ संस्कृति अत्यंत मुखर होकर चित्रित हुई है, तब ब्रजबासी उनकी ओर क्यों न खिंचे चले आए होंगे। कहा जाता है कि एक बार तानसेन और बादशाह अकबर भी सूरदास जी को सुनकर मुग्ध हो गए थे।


माना जाता है कि जब सूरदास जी की उम्र 18 वर्ष की रही होगी तब वे महाप्रभु वल्लभाचार्य के संपर्क में आए थे। यह भी कि इस उम्र तक आते-आते वे अपने आसपास हो रहे सामाजिक अन्याय, सामाजिक विघटन और सांस्कृतिक उथल पुथल से गहरे स्तर पर बावस्ता हो चुके थे। वे इन त्रासद स्थितियों को व्यक्त करने और इन्हें बदलने के लिए बेचैन रहते थे। उनकी इस मनःस्थिति के पर्याप्त प्रमाण उनकी विनय व दास भाव वाली प्रारम्भिक रचनाओं में मिल जाते हैं। उनके मन पर ब्रज की सामाजिक सांस्कृतिक रंग का गहरा प्रभाव पड़ा था। अर्थात सूरदास जी ने जो समाज पाया था उसमें विषमताएँ और विसंगतियाँ कदम–दर–कदम भरी पड़ी थीं। ऊँच–नीच, वर्णव्यवस्था की विकृति से उपजे निम्न वर्ण में बढ़ती हीन भावना, दलितों व स्त्रियों पर होते अनगिनत अत्याचार, यातना, शोषण व दमन तथा अंधविश्वास व धार्मिक पाखण्ड के जाल में फंसी जनता खुद को हताश और असुरक्षित महसूस कर रही थी। मायावाद से समाज में लोकविमुखता और निष्क्रिय भाव पनपने लगा था। वर्तमान जीवन की विसंगतियों को लेकर उनका यह पद बहुत लोकप्रिय है–

ऊधो कर्मन की गति न्यारी

सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी

उज्जवल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी

सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी

मूरख मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी

सूर स्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी

ऐसे में सूरदास ने कृष्ण–लीला वर्णन से ब्रजधाम में समानता और आशा का संदेश दिया और जनता में नवजीवन का संचार किया। तभी तो उनके काव्य में गोप, गोपी व गोपाल सब एक समान हैं, न कोई छोटा है न कोई बड़ा।

'भक्ति आंदोलन' जब दक्षिण से आकर उत्तर भारत में उभरा तो इसने यहाँ धीरे–धीरे जन–सांस्कृतिक–चेतना का रूप ले लिया, जिसने समाज में हो रहे अधःपतन को रोक कर मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा का प्रयास किया। बारहवीं से सोलहवीं सदी तक पुराण सम्मत कृष्ण चरित के आधार पर अनेक सम्प्रदाय खड़े हुए थे, जिनमें सबसे प्रभावशाली पुष्टिमार्ग ही रहा, जिसके प्रमुख कवि सूरदास जी थे। हमारे देश पर इस्लाम के बढ़ते प्रभाव और हिन्दू समाज में बलात धर्मांतरण को देखकर विद्वानों में लम्बे समय से ऐसे आन्दोलन की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। दूसरी ओर सूफी कवियों ने हिन्दुओं की लोककथाओं के आधार पर ईश्वर के प्रेममय रूप का व्यापक प्रचार प्रारम्भ किया था। इसी के समन्वित रूप में कृष्ण भक्ति शाखा के कवियों ने कृष्ण के मधुर रूप की प्रतिष्ठा कर जीवन के प्रति गहन राग की चेतना जगाई। कृष्ण के बालरूप की जैसी मोहक, सजीव और बहुविध कल्पना सूरदास ने की है, उसका कोई सानी नहीं है। कृष्ण और गोपियों के स्वच्छन्द प्रेम प्रसंगों द्वारा सूरदास ने मानवीय राग का बड़ा निष्छल व सहज रूप प्रस्तुत किया है। यह प्रेम सहज परिवेश में सहयोगी भाव वृतियों से संपृक्त होकर यहाँ विशेष अर्थवान हो गया है। कृष्ण से कवि का सम्बन्ध साख्य–भाव का है। इस काल के साहित्य में धार्मिकता से अधिक मानवीय भाव की अभिव्यक्ति मिलती है। वात्सल्य भाव के अंतर्गत बाल–लीलाएँ वास्तव में माँ यशोदा के हृदय की सम्पूर्ण झांकी प्रस्तुत करती है। सूरदास वात्सल्य रस के तो सम्राट माने जाते हैं। सचमुच वात्सल्य वर्णन का इतना श्रेष्ठ कवि संसार में दूसरा नहीं दिखाई देता। इसी वात्सल्य का एक अदभुत चित्र देखें–

जसोदा हरि पालने झुलावै

हलरावै, दुलरावे, मल्हावै जोई सोई कछु गावै

मेरे लाल कौं आऊ निंदरिया काहे न आनि सुवावै

काहे नहिं बेगहि आवै तोकौं कान्ह बुलावै

कबहूँ पलक हरि मूंद लेत हैं कबहू अधर फरकावै

सोवत जान मौन हुई कै रहि करि-करि सेन बतावै

इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरै गावै

जो सुख सूर अमरमुनि दुरलभ सो नंद-भामिनि पावै...

उनका प्रत्येक पद बताता है कि सूर मूलतः भक्ति चेतना के कवि हैं। वे भक्त पहले हैं, दार्शनिक बाद में हैं तथा समाज सुधारक या कुछ और उसके बाद में । ... । इसलिए उन्होंने दार्शनिकता व समाज सुधार का प्रतिपादन भी अपने भाव–भीने रसात्मक काव्य के माध्यम से ही किया है।

यह बात यहाँ उल्लेखनीय है कि सूरसाहित्य में अपने देशकाल और आसपास के बहुत संकेत मिलते हैं।। वे दैनिक जीवन के इन्हीं संकेतों से लोकसंस्कृति का चित्रण करते हैं। अनेक प्रसंगों में ब्रज के लोक–संस्कारों का वर्णन मिलता है, जैसे–जन्मोत्सव, नामकरण संस्कार, अन्नप्रासन संस्कार, यज्ञोपवीत, विवाह आदि में लोक परम्पराओं का बरीकी से वर्णन किया गया है। यहाँ जो लोकमंगल की भावना है, वह ब्रज के उत्सवों व त्यौहारों में सर्वत्र दिखाई पड़ती है। चूँकि ब्रज अधिकांशतः गौ–पालन बहुल क्षेत्र है उन दिनों यहाँ गो, गोप, गोपी और गोपाल रहते थे। उनके भोजन थे–दूध, दही, मक्खन मिश्री कलेवा का बेहद आकर्षक वर्णन मिलता है। अतः कह सकते हैं कि सूरदास जी लोक–संस्कृति के भी कुशल चितेरे हैं। 'सूरसागर' के पाठ से मैंने पाया है कि उन्होंने अपने काव्य में लोकसंस्कृति के चित्रण में भावात्मकता को प्रधानता दी है।

मेरा मानना है कि सूरदास जी को अपने काव्यसृजन के दो ही प्रयोजन मिले थे–एक कृष्ण भाव का जनसामान्यीकरण, जिसे जनता का स्वीकार्य मिला और दूसरा त्रस्त आदमी के भीतर बैठे भय, हताशा, यातना और बेबसी से लड़ने के लिए एक अलौकिक महानायक का आश्वासन, सहारा या कहें उम्मीद मिली। कृष्ण से उनके साख्यभाव का यह प्रचलित पद देखिए–

प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो

समदरसी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो

एक लोहा पूजा में राखत एक रहत ब्याध घर परो

पारस गुण अवगुण नहिं चितवन कंचन करत खरो

एक नदिया एक नाल कहावत मैलो ही नीर भरो

जब दौ मिलकर एक बरन भई सुसरी नाम परो

एक जीव एक ब्रहम कहावै सूर श्याम झगरो

अब की बेर मोंहे पार उतारो नहिं पन जात टरो

इसके लिए उन्होंने शास्त्रों और रूढ़ियों के वर्चस्व को भी पूरी तरह नकार दिया और नगरीय लीला या महलों के भीतर के वैभव का वर्णन करने से भी उन्होने गुरेज किया। इसकी बजाय उन्होंने ग्रामांचल को चुना, नदी तट चुना, चारागाह चुना या कुंज गलियाँ चुनीं, ये सभी लोक जीवन की कर्मस्थलियाँ हैं।

मेरा यह अब कहने का आशय यही है कि कवि सूरदास कोई एकान्त साधक तो थे नहीं कि केवल ईश भजन या साधना में रमे रहते, बल्कि उन्हें तो अपने आसपास के अपने लोगों, अपने समाज के हित की इच्छा रहती थी। प्रतिदिन पदों का गायन उनके समाज चिन्तन और लोकमंगल की भावना से ही जुड़ा था। वे जनता के बीच प्रतिदिन नए पद लिखकर लोकचेतना को विकसित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी करते जाते थे। आप पाएँगे कि अपने समय की विडम्बनाएँ इन पदों में बार-बार प्रतिध्वनित होती हैं। इस तरह उनकी कविता भी लोकचेतना को ही समर्पित थी। ब्रज उनकी कविता का क्षेत्र रहा। यही उनका गो लोक है, जहाँ कृष्ण उसके राजा हैं और राधा उनकी रानी हैं और वृंदावन उनके गोलोक की राजधानी है। वे जानते हैं कि यह ब्रज क्षेत्र हर तरह की दीनता, हीनता, शोषण, उत्पीड़न, दमन आदि से उत्पन्न कुण्ठाओं या हीनग्रंथियों से मुक्त है, क्योंकि इसके राजा कृष्ण हैं। इसीलिये वे उन्हें कभी ब्रजनाथ, कभी गुसांई, कभी भक्तवत्सल, कभी गोकुलपति आदि सम्बोधनों से पुकारते हैं। उनके राज्य की जनता के प्रतीक वास्तव में गोप व गोपियाँही हैं।


सूरदास को नारियों का सबसे बड़ा हितैषी कवि माना जा सकता है। सूरदास के लिए नारी काम या वासना का प्रतीक कभी नहीं बल्कि कोमलता, प्रेम, सर्जन और संवेदना की मूर्ति के रूप में व्यक्त हुई है। नारियों पर हो रहे अत्याचार और भेदभाव को समाप्त करने के लिए सूरसाहित्य से आज इ कवियों को प्रेरणा लेना चाहिए। सच तो यह है कि तत्कालीन शासन व्यवस्था में नारियों की बहुत दुर्दशा थी, जिसके प्रतिकार में और मुस्लिम शासन के बढ़ते वर्चस्व के सामने 'भक्ति आंदोलन' के माध्यम से एक नयी वैकल्पिक लोकधर्मी समाज व्यवस्था की यह अवधारणा सूरदास की ही देन है।

सूरकाव्य की प्रासंगिकता या अर्थवत्ता इस बात पर निर्भर होती है कि वह जीवन से कितनी सम्बद्ध है। यह माना जाता है कि जीवन के प्रति व्यापक दृष्टि से ही कोई रचना सर्वकालिक होती है। उत्तर भारत के भक्ति आन्दोलन के उद्भव के जो सामाजिक और सांस्कृतिक कारण रहे वह सभी सूर के काव्य के अभीष्ट बने और चूंकि वे सभी सामाजिक सांस्कृतिक कारण हैं बल्कि आज जो पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के साथ घृणा, हिंसा और आतंकवाद भी बढ़ रहा है, तब सूरकाव्य न केवल हमारा सम्बल है बल्कि अत्यंत प्रासंगिक भी है। भारतीय साहित्य में सूरदास एक ऐसे दिव्यदृष्टा हैं, जो भारतीय संस्कृति और परम्परा को व्यापकता से प्रभावित करते हैं। वे एक साथ एक कवि, एक दार्शनिक, एक संत और एक संगीतज्ञ के रूप में हमारे सामने आते हैं। इतिहास साक्षी है कि ब्रजभाषा को परिष्कृत कर उसे पूरे क्षेत्र की प्रमुख साहित्यिक भाषा बनाने का कार्य सूरदास ने ही किया था।

समकालीन परिदृश्य में जब हमारी सोच और संवेदना में आमूलचूल बदलाव आ गए हैं तब हमें सूरकाव्य को समझने के लिए उसके अध्ययन की परम्परागत पद्धति को भी बदलना होगा। वास्तव में सूर-साहित्य ने धर्म व साहित्य का एक अदभुत सामंजस्य प्रस्तुत किया है। आश्चर्य है कि इसमें कहीं कट्टरता या सांप्रदायिक अतिवाद का अंश नहीं मिलता है। सूर की कविता ने औपचारिक पूजा अर्थात कर्मकाण्ड का विरोध करते हुए मंदिरों में पूजा–अर्चना को सीधे भक्त और भगवान की लीला वर्णन से जोड़ा था और इस तरह सूरदास जी 'भक्ति' को किसानों, मजदूरों, चरवाहों अहीरों और ग्राम्यजीवन के हर तबके से जोड़ देते हैं।

यही वजह थी कि महाप्रभु वल्लभाचार्य ने सूरकाव्य को 'भक्ति का सागर' और सूरदास को 'साहित्य के आकाश का सूर्य' कहा था। 'यह उनकी महानता का सटीक प्रतीक भी है। वे अष्टछाप के प्रथम भक्त कवि थे । इसी तरह उनके निधन के समय गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने सूरदास जी के बारे में कहा "देखो' पुष्टिमार्ग का जहाज'डूब रहा है, कोई बचा सके तो बचाए।" यह सच है कि सूर काव्य से हिन्दी साहित्य को शिखर गौरव मिला है। गुरु ग्रन्थ साहब में भी उनके अनेक पद समाहित हैं। इस ग्रंथ में उन्हें' भगत सूरदास' कहा गया है।

अर्थात् सूर-साहित्य आज भी जीवन के सत्य, जीवन के संरक्षण और जीवन के विकास की ओर उन्मुख कालजयी काव्य है, जो किसी युग की सीमाओं में सिमटकर समाप्त नहीं हो सकता। वह तब भी प्रासंगिक था, अब भी प्रासंगिक है और सतत प्रासंगिक रहेगा। हाँ, इस इलेक्ट्रानिक और डिजिटल संस्कृति के समय में सूरकाव्य के मूल्यांकन के प्रति अध्येताओं के एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता अवश्य है। इस साहित्य को डिजिटाईज होकर जन-जन को उपलब्ध होना चाहिए. यह हमारी जवाबदारी भी है और जिम्मेदारी भी है कि हम 'भक्तिकाल' के उस सर्जन को प्रकाशित करें जिसे हमारे महान भक्त कवियों ने संघर्ष और साधना से अर्जित किया है।


यह भी विचारणीय है कि आज के परिप्रेक्ष्य में उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का सम्यक मूल्यांकन नहीं हो पाया है। उम्मीद है कि इस ओर अकादमी की पहल होगी और हरियाणा के किसी विश्वविद्ध्यालय में 'सूरदास पीठ' या 'सूर अध्ययन संस्थान' की स्थापना हो ताकि सूरदास तथा अन्य महाकवियों के अमर काव्य पर सतत अध्ययन, मूल्यांकन और अध्यापन हो सके।