सूर की कृष्ण-भक्ति / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने दास्य, सख्य, वात्सल्य व दाम्पत्य सभी प्रकार के भावों से श्रीकृष्ण की उपासना का विधान किया, परन्तु उनका झुकाव मुख्यतः वात्सल्य भाव की ओर ही रहा। वात्सल्य भाव के साथ भक्त अलौकिक सुख का अनुभव करता है। विट्ठलनाथ ने अपने ग्रंथ 'शृंगार रस मंडन' में मधुर रस की स्थापना की। लेख में जो शृंगार रस है, भक्ति में वह मधुर रस कहलाता है। सूर ने गुरु वल्लभाचार्य की प्रेरणा से अनुप्राणित होकर बालरूप से तादात्म्य स्थापित करके अपनी भावानुभूति व्यक्त की, तो दूसरी ओर अपने साहित्य में मधुरता का भी अधिष्ठान किया।
भारतीय भक्ति-परम्परा के अनुसार ईश्वर के दिव्य रूप के तीन गुण हैं-अनन्त शक्ति, अनन्त शील और अनन्त सौन्दर्य। सूर की वृत्ति अनन्त सौन्दर्य में रखी है। यह सौन्दर्य सख्य वात्सल्य और दाम्पत्य तीनों भावों का आधार है। भक्ति के लिए सौन्दर्य है भी आवश्यक। सौन्दर्य से आकर्षण को स्थिरता प्राप्त होती है। आकर्षण पर आधृत होती है श्रद्धा और श्रद्धा पर भक्ति। कृष्ण का सौन्दर्य अद्वितीय और अलौकिक है-सोभा-सिन्धु न अन्त रहो री।
सूरदास भक्त थे। भक्त के लिए साहित्य केवल साधन होता है। सूर ने पुष्टि मार्ग के अनुयायी होते हुए भी अपनी शक्ति का अपव्यय सिद्धीत विवेचन से नहीं किया। तन्मयता में उनकी वाणी ने जो शब्द विधान किया वह उनके भक्त हृदय की सहज अभिव्यक्ति थी। जहाँ पुष्टि मार्ग की विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं, वे सायास नहीं, अनायास हैं।
इस प्रपंचात्मक संसार से हरि-भक्ति की मुक्ति दिला सकती है। हरि नाम के बिना प्राणी संसार-सागर से पार नहीं हो सकता। नवधा भक्ति को साधन रूप में सूर ने स्वीकारा किन्तु साध्य प्रेम लक्षणा भक्ति ही है। यही आत्मा-परमात्मा के ऐकान्तिक मिलन में सहायक है। प्रेम में यदि कामुकता कि झलक मिलती है तो वह लौकिकता के लिए है। सगुण-उपासना के लिए यह लौकिक आधार नितान्त आवश्यक है। सूर, कृष्ण भक्ति को ही अपना प्राप्य मानते हैं। भक्ति विहीन सारे सुख तुच्छ हैं-
तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान।
छूटि गऐं कैसे जन जीवन ज्यौं पानी बिनु पान।
सच्चे भक्त को प्राण और भक्ति में अन्तर नहीं दिखाई देता। भक्ति भाव उसके लिए व्यसन बन जाता है। ईश्वर के प्रति उसका पूर्ण समर्पण हो जाता है–'हमैं नन्द-नन्दन बोल लियो।' अपनत्व की भावना भक्त के सब दोषों का परिहार
कर देती है, भक्त कह उठता है-जो हम भले-बुरे तो तेरे'-भक्त और हरि दो नहीं होते। वे तो अभेद और अभिन्न होते हैं। सूरदास जी ने यही बात कृष्ण जी से कहलवाई-' हम भक्तनि के भक्त हमारे। '-भक्त और भगवान की निकटता का
यह सबसे बड़ा प्रमाण है–'जो भक्तनि को बैर करता है, सो बैरी मिल मेरौ।' आत्मा व परमात्मा भक्त व भगवान की अभिन्नता बिरले लोग जानते हैं-
' हरि हरि-भक्त एक, नहिं दोई।
पै यह बिरला जानत कोई। '
इस अभिन्नता में एक पल का वियोग भी असह्य हो जाता है। सूर ने अपने हृदय की विकलता यशोदा के शब्दों में प्रकट की है-'पलक ओट भावत नहिं मोकौं कहा कहौं तेहिं बात।' कृष्ण राधा से हाथ छुड़ाकर भाग जाते हैं। यह अलगाव शारीरिक है। तभी तो राधा ने कहा–'तौ जानौं जौ अब एकौ छन सकौ हृदय तैं जाइ।' भक्त के हृदय से भला कैसे निकलकर भागा जा सकता है? कृष्ण निर्बन्ध एवं मुक्त हैं; परन्तु वे भी भक्तों के वश में हो जाते हैं। भक्तों को रिझाने के लिए उन्हें निर्गुण निराकार से सगुण साकार बनना पड़ता है-
भक्ति के बस स्याम सुन्दर देह धरे आवै।
कृष्ण ब्रह्म से लेकर कीट तक सबके राजा हैं। भक्तों के कारण उन्हें प्रकट होना पड़ता है। धन्य है कृष्ण की यह परवशता-
भक्त हेत अवतार धरौं।
कर्म-धर्म कै बस मैं नाहीं, जोग जज्ञ मन मैं न करौं।
सूरदास जी ने कृष्ण की भक्ति के लिए भाव को अधिक महत्त्व दिया है। जिस भाव से कोई उनका भजन करता है, वे उसी भाव से अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। उनके मन को भाने वाली क्रीड़ाएँ एवं लीलाएँ करते हैं। भक्त इनकी लीलाओं के सहचर है। सूर की भक्ति-पद्धति को न जानने के कारण इन पर शृंगारिकता और विलासिता कि उद्दाम चेतना का आरोप लगता रहा है। भक्ति वस्तुतः भावाभ्रित है। सौन्दर्य में शृंगारिक चेष्टाएँ अनिवार्य होने के साथ-साथ सहज और लौकिक हैं। लोकधर्म की उपेक्षा उसमें नहीं। कृष्ण के यहाँ–'जाति-पाँति कोउ पूछत नाहीं श्रीपति के दरबार' की स्थिति है। पुरुष और नारी का भेद भी उनके लिए नहीं है-
हरि-हरि-हरि सुमरौं सब कोई।
नारी-पुरुष हरि गनत न कोई॥
वे पूर्णकाम होते हुए भी भक्त की कामनाएँ पूर्ण करने के लिए कामातुर रहते हैं। इसीलिए सूरदास, कृष्ण के साथ उन्हीं जैसा आचरण करना चाहते हैं। यही तादात्म्य की स्थिति है। वृन्दावन उनसे छोड़ते नहीं बनता-
अब तो यह बात मन मानी।
छाड़ौं नाहिं स्याम, स्याम की वृन्दावन रजधानी॥
सूर के कृष्ण किसी भेद को मानते ही नहीं; इसीलिए वे सूर को प्रिय है–'भजै जिहिं भाव जो, मिलैं हरि ताहि त्यों, भेद भेदा नहीं पुरुष नारी' प्रमुखता भाव की है, पुरुष या नारी होने का भेद नहीं। जिस भाव से कोई कृष्ण को चाहता है, वे उसे उसी भाव से मिलते हैं। गोपियों ने काम-भाव से कृष्ण का ध्यान किया तो कृष्ण ने-'अधर सुधारस चाखी।' परन्तु यह लीला है। सूर के कृष्ण को भक्तों के कारण ही ऐसा करना पड़ता है-
यह लीला सब स्याम करत हैं, ब्रज जुवतिनि कैं हेत।
सूर भजै जिहिं भाव कृष्ण को, ताकौं सोइ फल देत॥
सूरदास जी ने बार-बार भक्ति-भाव पर बल दिया है। वे कृष्ण के प्रति सभी भावों से समर्पित हैं। राधा के माध्यम से उनकी मधुरा भक्ति उमड़ पड़ती है। राधा कहती है–'हे कृष्ण, तुम में तरुणाई प्रकट होने लगी है।' कुछ गोपियाँ तो यहाँ तक कह देती है कि तुम हो तो दस बरस के पर बातें बहुत गढ़-गढ़कर कहते हो। दस बरस के कृष्ण का यौवन-दान माँगना लौकिक होते हुए भी अलौकिक है। कृष्ण जी राधा तथा अन्य गोपियों से कहते हैं-
जो मौकौं जैसे कि भजै री, ताकौं तैसे ही मानौ।
तुम तप कियौ मोहिं को मन दै, मैं हौं अंतरजामी।
जोगी को जोगी ह्वै दरसौं, कामी को ह्वै कामी॥
कामी और योगी दोनों समान हैं। लीलाधारी कृष्ण योगी के लिए योगेश्वर हैं तो कामी के लिए अति कामातुर हैं। गोपियाँ कृष्ण को अनन्य भाव से प्रेम करती हैं। अनन्यता में ही भक्ति की एकाग्रता और समर्पण है। इसीलिए तीनों लोकों को वशीभूत करने वाले कृष्ण उनके वश में हैं-
सुनहु सूर त्रिभुवन बस जाकैं, सो प्रभु भए जुवतिनि बस आई
ये युवतियाँ सौन्दर्य और प्रेम की मधुर मूर्त्तियाँ हैं। मधुरा भक्ति में ही पूर्ण समर्पण की संभावना है।
वल्लभाचार्य के सम्पर्क में आने से पूर्व सूरदास की भक्ति में निर्गुण-निराकार, अगम-अगोचर ईश का ही स्मरण मिलता है। विनय की यह भावना अन्तर्धारा के रूप में उनके भक्ति-काव्य में प्रवाहित होती है। अवतारों में सम्यक श्रद्धा-भाव होते हुए भी उन्हें सौंदर्यपूर्ण लीलामय कृष्ण ही आते हैं। यही कारण है कि उनका शक्ति और शील वाला रूप सूर को अधिक पसन्द नहीं। लोकरक्षक के रूप में कृष्ण की लीलाओं और शौर्य-कथाओं को सूर संक्षेप में कहकर आगे बढ़ जाते हैं।
सूर ने सगुणोपासना को वरीयता देते हुए भी निर्गुण का एकदम विरोध नहीं किया। निर्गुण और निराकार स्वरुप जन साधारण की पहुँच से परे है। जो पहुँच से परे है, उसके साथ तन्मयता कैसे स्थापित हो सकती है? सरलता के कारण उपासना के रूप में सगुण रूप ही स्वीकार्य है। भ्रमरगीत में गोपियाँ ने उद्धव से कहा है-
काहे कौं रोकत मारग सूधो
सुनहु मधुप निर्गुन कंटक तैं राजपंथ क्यों रूँधौं।
उद्धव को भी सगुण के आगे नतमस्तक होना पड़ता है। वे कृष्ण से अपने वैचारिक परिवर्तन की बात स्पष्टतया कह देते हैं-
अब अति पंगु भयो मन मेरो।
गयो तहाँ निर्गुन कहिबे को भयो सगुन को चेरो॥
लीला-गान में सूर, कृष्ण के उस निराकार रूप की याद दिलाया नहीं भूलते। ऐसा न हो कि उन्हें साधारण गोप-बंधु या राधा-गोपियों का प्रेमी मान लिया जाए।
सूर के अनुसार गोलोक गोकुल के रूप में अवतरित हुआ। जीव गुपाल (परमात्मा) का ही अंश है। कृष्णमय हो जाना ही जीवन की सार्थकता है। कृष्ण के समान और कोई नहीं है-
हरि सौं ठाकुर और न जन को।
जिहिं-जिहिं विधि सेवक सुख पावै, तिहिं विधि राखत मन को॥
वे अनाथों के संगी हैं, नाथ हैं। दीनदयाल और परम करुणामय हैं। इनकी माया को कोई नहीं जान पाता। वे सगुण रूप में देह धारण करते हैं-
जाकी माया लखै न कोई। निर्गुन सगुन धरै बपु सोई॥
बलराम कृष्ण के सर्वव्यापी स्वरूप को जानते हैं। कृष्ण का आदि-अन्त नहीं है। वे अक्षर, अच्युत, अविकार और निराकार हैं। वे ही सृष्टि का कारण और कार्य (अंतिम फल) दोनों हैं। ब्रह्म कारण, जगत् कार्य। ब्रह्म सत्य है, तो उसका कार्य भी सत्य है। वेदों की प्रार्थना पर ईश्वर ने अपने त्रिगुणातीत रूप का रहस्य समझाया, जो मन और वाणी की पहुँच से परे है। वेदों ने गोपियाँ बनकर क्रीड़ा करने का वरदान माँगा। सौ कल्प बाद जब हरि ने कृष्ण का अवतार लिया, तो वेद की ऋचाओं ने गोपियाँ बनकर हरि के साथ निहार किया-
भार भयो जब पृथी पर, तब हरि लियौ अवतार।
बेद ऋचा ह्वै गोपिका, हरि संग कियौ बिहार॥
वात्सल्य, सख्य और दाम्पत्य तीनों प्रकार के भावों का पर्यवसान दैन्य में ही होता है। बल्लभाचार्य से दीक्षित होने के पश्चात् त् भी इन्होंने विनय के पद रचे, जो और परिष्कृत रूप में हैं। इन पदों में एक भक्त की विह्वलता द्रष्टव्य है। सूर ने भक्ति-भावना को विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त किया। बाल-वर्णन में वात्सल्य-भाव यशोदा माता के हृदय से एकाकार हो जाता है। बाल लीलाओं की मनोमुग्धकारी छटाओं में उनका मन रम जाता है। बालकृष्ण की क्रीडा़एँ, उनका सौन्दर्य, सूर के लिए दुर्निवार आकर्षण है। वात्सल्य भाव में विरक्ति, इन्द्रिय सुख की कामना का अभाव होता है। लोकधर्म का उल्लंघन भी नहीं हो पाता। अतः वात्सल्य को भक्ति का सर्वशुद्ध भाव कहा जाएगा–
सुत-मुख देखि यशोदा फूली।
हर्षित देखि दूध की दँतियाँ, प्रेम मगन तन की सुधि भूली॥
बाल-क्रीड़ाएँ देखने के लिए सूर स्वयं ब्रजभूमि पर उतर आए। 'कर पग गहि अँगूठा मेलत'-शिशु कृष्ण जैसे ही मुँह में अपने पैर का अँगूठा दबाकर चूसने लगते हैं, जगत् में प्रलय का दृश्य उपस्थित हो जाता है। कृष्ण जब किलकते हैं, तो अपना मुख खोलकर तीनों लोक दिखला देते हैं। यशोदा चकित रह जाती है। सूर ने वात्सल्य भक्ति में कृष्ण की बाल्यावस्था का क्रमिक विकास दिखाया है।
कृष्ण को यशोदा राम की कहानी सुनाती है। सीता-हरण प्रसंग सुनते ही कृष्ण अचानक बोल उठे–'लछिमन धनुष देहु कहि उठे हरि'। अपना पूर्व अवतार उन्हें अचानक याद आ जाता है। पूतना कृष्ण को मारने आई, तो स्तन पान करके उसे स्वर्ग लोक पहुँचा दिया। स्तनपान करने के कारण उसे मातृ-पद प्रदान किया। इसके बाद कृष्ण की बाल सुलभ मनोवृत्तियाँ यशोदा को परेशान कर देती है। कृष्ण में कौतूहल, जिज्ञासा, उच्छृंखलता, चातुर्य का सहज विकास दिखाई पड़ता है। मक्खन चुराने के लिए दूसरे के घर में घुस जाते हैं; पकड़े जाने पर भोलेपन से उत्तर देते हैं-
मैं जान्यौं यह घर अपनौं है, ता धोखैं मैं आयो।
देखत हौं गोरस मैं चींटी, काढ़न कौ कर नायो॥
सूर का हृदय इस भोलेपन में सराबोर हो जाता है। केवल चींटी निकालने के लिए मक्खन में हाथ डाला है। बाल कृष्ण का यह चातुर्य मुग्ध कर लेता है। चोरी करने पर उलाहने आते हैं। यशोदा तंग होकर उन्हें ओखल से बाँध देती है और गुस्से में कहती है-
सुनहु बात मेरी बलराम।
कर देहु इनकी मोहिं पूजा, चोरी प्रगटत नाम॥
'पूजा' करने में यशोदा का क्रोध जैसे उफन पड़ा हो। लेकिन क्रोध शान्त हो जाने पर उसी यशोदा के हृदय से तादात्म्य करके सूर द्रवित हो जाते हैं-'बरै जेंवरी जिहिं तुम बाधै, परै हाथ भहराइ' ऊखल से बाँधने वाली रस्सी जल जाए, हाथ टूटकर गिर जाएँ। इन पंक्तियों में वात्सल्य का उदात्त रूप प्रकट होता है। कुबेर के पुत्रों-नल कुबेर और मणिग्रीव का उद्धार करने के लिए कृष्ण जान बूझकर स्वयं को ऊखल से बँधवाते हैं। वह माता धन्य है जो सर्वेश्वर को भी बाँध लेती है-
अखिल ब्रह्मण्ड जीवन के दाता।
माखन कौं बाँधति है माता॥
कृष्ण बड़े हुए तो गाय चराने के लिए जाने लगे। सब ग्वाले उन्हें चिढ़ाते हैं, गाएँ भी उन्हीं से घिरवाते हैं। कृष्ण घर आकर यशोदा से शिकायत करते हैं। यशोदा का हृदय पिघल जाता है। वह ग्वालों के प्रति अपना रोष प्रकट करती है-
मैं पठवति अपने लरिका कौं आवै मन बहराइ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक मारत ताहि रिंगाई॥
कृष्ण को रिंगा-रिंगाकर मारने से यशोदा झल्ला उठती है।
ग्वालों के साथ कृष्ण तरह-तरह की क्रीड़ाएँ करते हैं। पराक्रम के कार्यों को भी सखा सहज रूप में लेते हैं और उनकी अलौकिकता को भूले रहते हैं। रास लीला में सखाओं से भी परामर्श होता है। गोपनीय लीलाओं से भी सखा अनभिज्ञ नहीं हैं। सूर तो भक्ति-भाव में मग्न होकर अभिन्न मित्र की तरह कह उठते हैं-
छबीले मुरली नैकु बजाउ।
बलि-बलि जात सखा यह कहि-कहि अधर-सुधारस प्याउ॥
सखाओं से तादात्म्य स्थापित करके सूर कृष्ण के निकट ही बने रहना चाहते। ग्वाल-बालों की क्रीड़ा आध्यात्मिकता से समन्वित है-'गोपी, ग्वाल स्याम द्वै नाहीं, ये कहुँ नैक न न्यारे।' गोप बालक विभिन्न आत्माओं के प्रतीक हैं, जिन्हें आनन्दमयी क्रीड़ा करने का अवसर प्राप्त हुआ है। शुरू-शुरू में गोप-बालक कृष्ण से चिढ़ते हैं। खेल-खेल में विवाद भी होता है। कृष्ण भी कम नहीं हैं तभी उन्हें सुनना पड़ता है-
जाति-पाँति हम तैं बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैंया।
अति अधिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक तुम्हारै गैया॥
बाद में गोप-बालक इनके अनन्य भक्त बन जाते हैं। मुरली 'शब्दब्रह्म' की प्रतीक है। उसका आनन्द लोकोत्तर व्यापी है। त्रिगुणातीत श्याम सुन्दर ने रीझकर तीनों को-ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय को एक कर दिया है।
माधुर्यभाव में सूर ने प्रेम की महत्ता स्थापित की। यह सौन्दर्य दुर्निवार है, रोम-रोम में बस जाने वाला है-
निकसति नहीं बहुत पचि हारी, रोम-रोम अरुझानी।
अब कैसे निरवारि जाति है, मिली दूध ज्यौं पानी॥
इसी सौन्दर्य से प्रेम का आधार परिपुष्ट होता है। कृष्ण प्रेम के वश में रहते हैं। सूर ने स्वकीया और परकीया रति में से स्वकीया रति को ही वरीयता दी है। राधा, श्याम की परिणीता थी। परिणय बिना परमात्मा से मिलन कैसा?
ता परि पानिग्रहन बिधि कीन्ही
तब मंडप भ्रमि भाँवरि दीन्हीं॥
सूर ने माधुर्य-भाव का जो चित्रण किया है, उससे वासना कि गंध आ सकती है, परन्तु गहनता से देखने पर पता चलता है कि वहाँ वासना का शमन हो गया। स्पर्श मात्र से ही तन की तृष्णा बुझ गई। चीर-हरण के समय कृष्ण की अवस्था आठ-नौ वर्ष की थी; अतः कामुकता का प्रश्न नहीं उठता। श्री कृष्ण आत्मा, गोपियाँ वृत्तियाँ। वृत्तियों का अनावृत्त होकर आत्मा के समक्ष आना ही चीरहरण है और आत्मा में रम जाना ही रास है। निरावरण और अभेदता से ही साधना को पूर्णता प्राप्त होती है। रास लीला में यह अभेदता गहनतर हो जाती है।
जिससे रस की अभिव्यक्ति हो, उसे ही रास कहते हैं। रास-क्रीड़ा में मानसिक रस का उद्रेक होता है। देहजन्य अनुभव से उस रस की उत्पत्ति नहीं होती। रस की उत्पत्ति हेतु उसमें नृत्य का समावेश अनिवार्य है। इस प्रकार रास नितान्त अलौकिक एवं मानसिक क्रिया है। रास लीला में 'कियौ स्याम सबको मन भायौ निसि रति रंग जगी।' सबके मन के अनुसार आचरण किया-जितनी नारियाँ थी, कृष्ण ने भी उतने ही वेश बना लिये। उन्होंने किसी से भेदभाव नहीं किया।
कृष्ण की छेड़छाड़ की शिकायत जब यशोदा से होती है तो उसे कैसे विश्वास होगा-'मेरौ हरि कहँ दसहि बरस को, तुमरी जोबन मद उमदानी।' इस पर गोपियाँ हरि का लीलाधारी रूप बनाती है-
बन में तरुन कन्हाइ, घरहिं आवत ह्वै छौना।
लीला-वर्णन सूर के हृदय से ओझल नहीं होता है। कृष्ण परब्रह्म हैं, तो राधा उनकी आदि शक्ति है।
सूर का वियोग वर्णन भी वात्सल्य से ही प्रारम्भ हुआ है। विरह ही प्रेम की कसौटी है। भ्रमर-गीत में गोपी-विरह को सूर ने मुखर रूप दिया है। परमात्मा से विमुक्त होने पर आत्मा कि व्याकुलता स्वाभाविक है। लरिकाई का प्रेम विप्रलम्भ में पहुँचकर परिपक्व और पुष्ट हुआ है। यह तन्मयता विरह में ही संभव है। कृष्ण मथुरा चले गए, विरहानुभूति सघन हो गई। गोपियाँ नेत्रों को उपालम्भ देती हैं-
अब काहे जल मोचत-सोचत, सभौ गए तै सूल गई।
जो कृष्ण सर्वस्व थे, वे चले गए। अब तुम्हारा कष्ट भी हट गया। कृष्ण-दर्शन से तुम्हें कष्ट होता था न? अब नहीं होगा। इस पंक्ति में बहुत गहरा उपालम्भ है। आँखों पर ही सारा क्रोध उतर रहा है।
सूर का विरह एकपक्षीय नहीं है। कृष्ण भी व्याकुलता में कह उठते हैं-'ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।' ब्रज में मानव एवं प्रकृति सभी का समावेश है। भगवान भक्तों को भूल भी कैसे सकते हैं। एक घड़ी के लिए भी भूलना संभव नहीं-'जो जन ऊधौ मोहि न बिसारत, तिहिं न बिसारों एक घरी।' राधा स्वयं माधुर्य भाव की प्रतीक है। संयोग की मुखरा राधा वियोग में शान्त हो जाती है।
सूर स्वयं को कृष्ण के चरणों में समर्पित कर देते हैं। वात्सल्य, सख्य और माधुर्य भाव के अतिरिक्त इन्होंने नम्रतापूर्वक अपनी अनन्यता कि भावना प्रकट की है-'हरि बिनु मीत नहिं कोउ तेरे' अनन्यता का यह भाव विविध रूपों में विविध पदों में बिखरा है-'आन देव सपनेहुँ न जानौ, दंपति को सिर नाऊँ।' सूर ने प्रेम-भक्ति की याचना कि है; क्योंकि राधा-कृष्ण प्रेम के प्रतीक हैं। सूर का यह प्रेमभाव और सख्य भाव सीधे कृष्ण से है। राधा से उन्होंने इस भाव को सीधे नहीं जोड़ा है-
प्रेम भक्ति बिनु मुक्ति न रोई।
नाथ कृपा कर दीजै सोई॥
प्रेम से ही ऐहिक और पारलौकिक कार्य सिद्ध होते हैं। प्रेम, प्रेम से ही होता है।
सूर का कृष्ण के प्रति दास्य वात्सल्य, सख्य, माधुर्य कोई भी भाव क्यों न रहा हो; लेकिन प्रत्येक भाव में वे कृष्ण से बँधे हैं। लोकातीत अति प्राकृत रूप के वर्णन का लोभ संवरण नहीं कर पाने पर भी सूर ने कृष्ण के सहज मानवीय रूप की ही स्थापना की। चाहे कृष्ण गोपियों के साथ क्रीड़ा कर रहे हों, चाहे मक्खन चुरा रहे हों, उनका अलौकिक रूप भी सूर के हृदय-पटल पर रहा है। भक्ति, सूर का अस्तित्व है, भक्ति ही उनका प्राण है। शास्त्रीय विवेचन की जड़ता से हटकर सूर ने भक्ति को सरस सर्वग्राही रूप प्रदान किया। कृष्ण-भक्ति की यह पुण्यसलिला जनमानस को अनवरत आप्लावित करती रहेगी। -0-
(21-07-1980 आकाशवाणी गौहाटी से प्रसारण) रचना -तिथि(18 अप्रैल-1980)