सृजन-यात्रा के प्रेरक प्रसंग और पड़ाव / अज्ञेय / अमृतलाल नागर
अमृतलाल नागर द्वारा सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' को दिया गया साक्षात्कार
अज्ञेय: नागरजी, आपसे कुछ प्रश्नोत्तर चाहता हूँ। आप शायद पहले ही दो-चार सवालों से सोचेंगे कि क्या बेवकूफी के सवाल हैं, इनके जवाब तो मालूम होने चाहिए! लेकिन कुछ सवाल इसलिए पूछूँगा कि आपके मुँह से उनका जवाब मिल जाए 'ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत काम आए'। पहले तो यह बताएँ कि आपने लिखना कब शुरू किया और आपकी सबसे पहली क्या रचना थी?
नागर: फूटी पहले तुकबंदी। तुकबंदी फूटी जब 1928-29 में 'साइमन-कमीशन गो-बैक' का जुलूस निकला था। बड़ा विशाल जुलूस था-कान्यकुब्ज कालेज, रेडियो-स्टेशन रोड से सिटी आते हुए उसी में मैं भी दबा-कुचला था। जुलूस पर लाठी-चार्ज हुआ था, जवाहरलाल जी और पंडित गोविंदबल्लभ पंत को भी चोट आई थी। लोग पीछे हट रहे थे। पीछे वालों को पता नहीं था कि आगे क्या हुआ। बीच में मैं बहुत दबा-कुचला। वहाँ से लौटकर घर आया। आवेश में पहले तुकबंदी फूटी थी। लेकिन उसके साथ-ही-साथ एक बात अच्छी याद से आपको बतला सकता हूँ कि गद्य लिखने की रुझान मेरी लगभग 1927-28 में छोटी उम्र से हो चली थी। तुकबंदी शायद इसलिए फूटी कि माहौल उस समय लखनऊ में या तो शेरो-शायरी की बैठकों का था या कवि-गोष्ठियों का। आश्चर्य स्वयं मुझे भी होता है कि एकाएक कविता क्यों फूट पड़ी, जबकि मैं प्रोज भी लिखता था।
अज्ञेय: फिर आपने और भी छंद लिखे या कि...?
नागर: थोड़े से लिखे। बाद में पैरोडी करने लगा। चकल्लस में पैरोडी काफी की, प्रसाद जी के आँसू की की, हितैषी जी की की, सोहनलाल द्विवेदी के किसान की-की और भी बहुत-सी कीं। फिर कविता करने की रुचि समाप्त हो गई. पर तब अकस्मात तुकबंदी ही क्यों फूटी, कह नहीं सकता।
अज्ञेय: फिर गद्य में शुरू में कहानी लिखी या कि उपन्यास से ही आरंभ किया?
नागर: शुरू में कहानी। कहानियाँ लगभग 29-30 से ही लिखीं, लेकिन छपी नहीं। छपने के नाम पर यह होता कि वापसी के लिए भेज गए टिकट कभी-कभी वापस मिलते थे, कभी तो टिकट भी गायब हो जाते थे। शुरू में मैंने उपन्यास नहीं लिखा था, हालाँकि मैंने उपन्यास उस जमाने में पढ़े खूब थे। एक चीज और है। अंग्रेज़ी के उपन्यास पढ़ने का चाव मुझे क्रिश्चियन कॉलेज में आकर लगा सन 33-34 में।
अज्ञेय: आपको याद है, जो उपन्यास आपने तब पढ़े उनमें से कौन-से आपको अच्छे लगे?
नागर: शुरू तो किया था मोपासाँ की कहानियों से। बाद में उनकी पाँच-छह कहानियों के अनुवाद भी किए. फिर फ्लाबेयर का मदाम बोवरी पढ़ा, उसका भी अनुवाद किया। बाल्ज़ाक का उपन्यास पढ़ा था-बड़ा अच्छा उपन्यास था, 3-4 पढ़े। अलेक्ज़ेंडर ड्यूमा के भी पढ़े। बाद में दोस्तोएव्स्की के पढ़े। तोल्सतोय के और भी बाद में पढ़े। चेखोव की कहानियाँ पढ़ीं, उनका अनुवाद भी किया।
अज्ञेय: ये जो अनुवाद आपने किए थे ये मूल रचना के प्रति आकर्षण के कारण, या अनुवाद करना था किसी चीज के पारिश्रमिक के लिए?
नागर: भाई, दो बातें थीं मन में। शुरू में कहानी लिखने की जो लहर चली उसमें बाहर से कोई चीज छू गई तो कहानी लिख डाली। कभी-कभी चंडीप्रसाद मिश्र 'हृदयेश' और प्रसाद जी की शैली का नशा चढ़ जाता तो उस टाइप की लिख डाली। फिर मन में यह लगा, कॉलेज में आते-जाते कि नहीं, कहानी लिखनी है तो पढ़ो। जब पढ़ा तब यह हुआ कि उनका अनुवाद करो। अनुवाद करने के बहाने खाली भाषा के ऊपर ध्यान देंगे, प्लॉट तो है ही सामने, देखो, कहानी कैसे चल रही है। यह साल-डेढ़ साल किया। कहानी के वर्ल्ड मास्टर पीसेज का संग्रह है-दस जिल्दों में-उसमें से भी बहुत-सी कहानियाँ लीं। दो छपीं भी। मोपासाँ की कुछ कहानियाँ अनुवाद कीं, वे छप गईं। फिर एक संग्रह निकल गया। चेखोव की कहानियाँ काला पुरोहित के नाम से पुस्तक मंदिर ने छापी. तो अनुवाद मूलतः इसलिए किए थे कि हाथ बैठ जाए, किसी आग्रह से नहीं किया।
अज्ञेय: आपकी पहली रचना कौन-सी छपी जिससे आप मानेंगे कि आपका साहित्यिक जीवन वास्तव में आरंभ हो गया?
नागर: देखिए, दो कहानियाँ थीं, पास-पास लिखी हुई. एक थी 'प्रायश्चित्त'-वह हमारे पहले संग्रह में भी है और एक थी 'अपशकुन' । एक सामाजिक घटना से प्रेरित होकर लिखी थी। एक मेरा मित्र अपने घर से भाग गया था, उसके ऊपर 'अपशकुन' लिखी थी। संयोग यह हुआ कि कहानी उस समय हम भेजते थे जहाँ कहीं भी, छप जाए. दिल्ली से एक पत्रिका निकलती थी रंगभूमि। नरोत्तम नागर उसमें बाद में आए. पहले संपादक थे उसके-लेखराज या ऐसा ही नाम था। उसमें 'अपशकुन' पहले छप गई, लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है कि 'प्रायश्चित्त' पहले लिखी थी। यह करीब-करीब सन 33 की बात है।
अज्ञेय: ये तो अंग्रेज़ी के या दूसरे विदेशी उपन्यास आपने बताए. बाकी बाँग्ला के या हिन्दी के भी...?
नागर: हाँ, बाँग्ला के पढ़े थे। बाँग्ला के बंकिम के जो हमारे यहाँ पुस्तकालय में थे करीब-करीब सभी पढ़े। शरत् बाबू के, प्रेमचंद के भी पढ़े। जे.पी. श्रीवास्तव और अन्नपूर्णानंद के पढ़े। हिन्दी प्रदीप की पुरानी फाइल हमको मिल गई थी, उसमें शुरू में बालकृष्ण भट्ट के दो-तीन अधूरे उपन्यास थे, वे भी पढ़े। भारतेंदु नाटकावली पूरी पढ़ ली थी। यों काफी पढ़े। हुआ यह भाई कि बचपन में अकेलापन 5-6 वर्ष की आयु तक रहा। तब था बहुत छोटा। अक्षर-ज्ञान जो हमारा हुआ उसके बाद घर में जो भी पढ़ने-लिखने को मिला उसको पढ़ने का चस्का लग गया। पढ़ने के चस्के ने ही अंततोगत्वा मुझे लेखक बनने की प्रेरणा दी।
अज्ञेय: उर्दू लिपि में पढ़ते थे या उर्दू के उपन्यास देवनागरी में...?
नागर: उर्दू के उपन्यास देवनागरी में पढ़े, बल्कि कुछ सुने भी। तिलिस्म होशरुबा उस समय बहुत ही प्रचलित थे।
अज्ञेय: किससे सुने ये उपन्यास या किस्से?
नागर: एक थे अफीमची। किस्सागो थे पुराने। उनसे बहुत-से किस्से सुने। गुलजार नसीम उनसे सुना, जहरे इश्क उनसे सुना। लगभग साल-डेढ़ साल तक उनको अपने पास रखे रहे। वह सुनाते थे झूम-झूमकर, अजीब तरीके से सुनाते थे। खातिरदारी उनकी करते थे, चवन्नी रोज। बड़ा अच्छा लगता था उनके कहने का ढंग। उर्दू पढ़ नहीं पाए, हालाँकि हमारे सेकेंड फार्म में थी।
अज्ञेय: नागर जी, जब हमने-आपने लिखना शुरू किया तब या उससे पहले पढ़ने के लिए या तो विदेशी उपन्यास थे या बाँग्ला का साहित्य था, नहीं तो अधिकतर इसी तरह की चीजें थीं जिसमें किस्सा प्रधान था। सबसे पहले रोचक कथा होनी चाहिए और बातें बाद में देखी जाएँगी। आपके अपने उपन्यासों में यह पक्ष हमेशा काफी सधा हुआ और प्रबल रहा है। क्या आप सोचते हैं कि जो किस्से आप सुनते रहे उनका यह प्रभाव हुआ था कि आप स्वयं ऐसा मानते हैं कि उपन्यास में सबसे पहली चीज रोचक कहानी होनी चाहिए?
नागर: भाई, सवाल आपका बहुत अच्छा है। इसका जवाब दो-तीन स्टेजेज में दूँगा। पहली यह कि किस्सा सुनने का प्रभाव और उसकी रोचकता मन में कहीं चुभ गई, खूँटे-सी गड़ गई. वह खूँटा और अधिक पुख्ता हुआ फिल्म में, हमारे सात वर्ष के कैरियर में। लेकिन जो सबसे बड़ी चीज फिल्म ने दी हमको, वह रोचकता बाँटने की कला थी। हम ये सोचते हैं कि जैसा हमारे बीच चलता था, किशोर कभी कहते थे कि 'पंडित जी, यहाँ सिगरेट नहीं पिएँगे!' (तब तो सिनेमा हॉल में सिगरेट पी सकते थे, अतः सिगरेट पीने का मौका दे दिया जाता था।) इस तरह बात चल पड़ती थी-तो यह जो रोचकता बाँटने की कला थी वह वहाँ फिल्मी समाज में पुख्ता हुई. लेकिन इसका साहित्यिक रूप बाद में निखरा। समझ लीजिए सन 44-45 में। हालाँकि फिल्म अभी तक छोड़ी नहीं थी, लेकिन फिल्म से उचट गए थे।
दूसरे यह लगने लगा कि जिसको तुम दुकानदारी का माल बनाकर बेचते हो वह खरा माल है, उसको दुसरी दृष्टि से देखो। वस्तुतः हुआ यह कि पहले तो एक धक्का लगा, बंबई में जहाज फटा था-बड़ा भारी विस्फोट हुआ उसका। उससे एक झटका लगा मन को। दूसरा बंगाल का अकाल-
अज्ञेय: वह तो फिर सन 42-43 की बात होगी।
नागर: हाँ, सन 43, हम गए थे कलकत्ता। फिल्म के ही काम से गए थे। कलकत्ता के चौरंगी में एक रेस्तराँ में हम तीन-चार आदमी बैठे हुए थे खाने के लिए. बाहर से एक आदमी शीशे की दीवार से खूनी आँखों से देख रहा था। ...तो यह रोचकता की बात शुरू हुई कहानी से, लेकिन उसका पकड़ाव या उसका औपन्यासिक रूप निखरा बाद में, उपन्यासों में।
अज्ञेय: लेकिन मैंने जो आपके पहले उपन्यास और बड़े उपन्यास पढ़े-अमृत और विष, बूँद और समुद्र-वे रोचक तो बहुत थे, (जिसे मैं गुण ही मानता हूँ, आज भी गुण मानता हूँ) लेकिन उनमें मुझे यह भी लगा कि कहीं-कहीं किस्से को रोचक बनाने के लिए आपने ज़्यादा विस्तार दिया है जो कि अनावश्यक भी है, बल्कि वैसा न होता तो कहानी ज़्यादा जोरदार ही होती। आपको अब पीछे देखते हुए ऐसा लगता है या आप ऐसा नहीं मानते?
नागर: आप जब यह बात सुझाते हैं तब स्वीकार करूँ कि मुझे ऐसे मौके याद आते हैं। मुझे भी लगा कि मैं कहीं अपने उस सिद्धांत से कि किस्सा रोचक होना चाहिए, कहीं ज़रूरत से ज़्यादा बँध गया हूँ। आपके सुझाव से एकाएक हमारे मन में यह बात आई है। इसे स्वीकार करता हूँ और मुझे आशा है कि आगे कुछ लिखूँगा तो शायद यह कमी हट जाएगी। अभी तक किसी ने मुझसे यह बात नहीं कहीं। मन में कहीं पर छिपा चोर था, लेकिन वह उजागर नहीं हुआ था।
अज्ञेय: कई-एक प्रसंग ऐसे हैं जो अपने-आप में बहुत आकर्षक हैं, लेकिन पूरा उपन्यास देखने के बाद लगता है कि वे उसको आगे तो नहीं ले जाते। ...अच्छा, एक बात मैं और आपसे पूछना चाहता हूँ। आपके सब उपन्यासों में मुझको लगता रहा है कि भाषा के प्रति आपके कान बहुत सजग हैं और भाषा का आपके लिए एक स्वतंत्र आकर्षण भी है। एक तो यह दृष्टि है कि भाषा एक माध्यम है, आप कथा कह रहे हैं और उसके लिए भाषा आवश्यक है। लेकिन भाषा की तरह-तरह की ध्वनियाँ हैं, उसके काकु हैं, उन सबको सुनना, उनको पकड़ना भी आपको अच्छा लगता है, सिर्फ़ भाषा के माध्यम के अंग के नाते नहीं, अपने-आप में आकर्षक। आपके बहुत से चरित्र तरह-तरह की बोलियाँ बोलते हैं। क्या ऐसा होता है कि आपका किसी बोली के या लहजे के या ढंग के प्रति आकर्षण है और उसके अनुरूप चरित्र आप गढ़ते हैं, या कि चरित्र जहाँ का है, जिस समाज का या जिस युग का है, उसका निर्वाह करने के लिए आप उसके अनुरूप भाषा का प्रयोग करते हैं?
नागर: नहीं, बोली के आकर्षण से नहीं करता हूँ, चरित्र को देखकर करता हूँ। यह हो सकता है कि चरित्र गढ़ने में मानसिक नक्शे में हमने एक चरित्र समाज से लिया, तो उसकी ठीक वैसे नहीं रखता, उसके साथी-संघाती जो होते हैं तीन-चार ऐसे समानधर्मा कैरेक्टर, उनमें से चुनकर और जोड़कर एक कैरेक्टर बनता है। ये तीन-चार पात्र जो इकट्ठे हो जाते हैं, जैसे उनमें से किसी के बात करने का ढंग आकर्षित करता है तो वह ले लिया, एडाप्ट कर लिया और बाद में उसको कुछ और प्रौढ़ बना लिया। बूँद और समुद्र में ताई थी, दो-तीन कैरेक्टरों में से ताई बन गई. लेकिन, कभी ऐसे नहीं हुआ कि बोली-बानी पहले आ गई हो और फिर चरित्र आया हो।
अज्ञेय: जैसे आगरा की बोली है। आपने तो उसमें पूरा एक उपन्यास लिख डाला-सेठ बाँकेमल। तो उसके मूल में क्या प्रेरणा थी?
नागर: उसमें जो सेठ बाँकेमल हैं वह असल में सेठ सुर्रोमल हैं और चौबेजी हमारे छोटे नाना। उनका बात करने का ढंग-बोली तो स्वाभाविक रूप से आकर्षित करती है, लेकिन उनका बात करने का ढंग, जिस लच्छेदार ढंग से वे बात करते थे वह भी बड़ा प्यारा लगा। पूरा एक जमाना ले गए वे लोग-फिर आ गया दूसरा जमाना।
अज्ञेय: इनके वास्तविक चरित्र ऐसे आकर्षक थे?
नागर: हाँ, उन्हें वैसे का वैसा ढालने का प्रयत्न किया। एक और मजे की बात सुनाऊँ। पुस्तक छपने के समय सोचा, उनका फोटोग्राफ ले लें। सेठजी से कहा कि आप फोटोग्राफ खिंचवाएँ। सवेरे ही वह फतूही, दुपल्ली टोपी और धोती पहने हुए आ गए. बगल में अँगरखा, पगड़ी, दुपट्टा लेकर आए और फोटोग्राफर के यहाँ चलने लगे, "भैया, तू भी ठीक है-मैंने सोची तू भी ठीक कहबे है, मर जाऊँगा तो लौंडे कहेंगे-'हाय बाबू-हाय बाबू' तो कहूँगों, 'जे टँगे हैं तेरे बाबू' !" यानी इस टाइप के आदमी थे, छूते थे मन को।
अज्ञेय: अच्छा, अगर, आपको याद हो तो आप कम से, जिस क्रम से लिखे गए या प्रकाशित हुए, अपने उपन्यासों के नाम बता दीजिए?
नागर: एक जो अप्रकाशित है, अभी तक रखा है कहीं फाइल में, वह सन 37-38 का है 'कामरेड प्रेमदास'। पूरे 'देवदास' की पैरोडी की थी चकल्लस में, क्योंकि वह फिल्म मन पर ऐसी छा गई थी। पूरी पैरोडी की थी। कामरेड प्रेमदास उसका नाम था। दूसरा उपन्यास अधूरा रहा 'खुदा का घर'। अभी भी उसके चार-पाँच परिच्छेद पड़े होंगे। यह शायद सन 39 का लिखा हुआ है। तीसरा सन 41 में लिखा 'बाँकमेल' । यह आगरा की बोली में है। चौथा 'महाकाल' जो बाद में 'भूख' के नाम से प्रकाशित हुआ। 'बूँद और समुद्र' फिर 'अमृत और विष'। 'अमृत और विष' के आस-पास अवध के चक्कर लगाए और 'गदर के फूल' लिखा, गाँव-गाँव से किस्से बटोर कर। उसके बाद 'शतरंज के मोहरे' उपन्यास। फिर वेश्याओं के इंटरव्यूज हैं 'ये कोठेवालियाँ'। 'सुहाग के नूपुर' दक्षिण भारत की कोवलन-कन्नगी की कथा पर उपन्यास है। लेकिन यह उपन्यास मैंने माँग पर लिखा, ईमान से आपसे कहता हूँ। एक बार दिल्ली में डॉ। सावित्री सिन्हा एक मीटिंग में हमसे झगड़ पड़ी थीं कि आप इसको बुरा क्यों कहते हैं। बुरे की बात नहीं है, इतना ही कि वह मैंने अपने मन से प्रेरित होकर नहीं लिखा था। कथा थी पास में पड़ी हुई. पहले ही इस पर रेडियो नाटक लिख चुका था, सत्यकाम विद्यालंकार ने धर्मयुग में माँगा तो मैंने वह लिख दिया बहाने से-'सुहाग के नूपुर'। फिर हम आ गए 'एकदा नैमिषारण्ये' में। एकदा नैमिषारण्ये के बाद 'मानस का हंस'। उसके बाद खाली वक्त में 'चैतन्य महाप्रभु' लिख दिया जीवनी के रूप में। 'नाच्यौ बहुत गोपाल' फिर 'खंजन नयन'। कहानी-वहानी, नाटक-वाटक बीच-बीच में चलते रहे।
अज्ञेय: आपके जो शुरू के उपन्यास थे उनमें ज्यादातर अपने समकालीन समाज के चित्र थे, वहीं से आप रोचक चित्र उठाते थे और उनकी एक बड़ी आकर्षक कहानी होती थी। उसके बाद फिर 'सुहाग के नूपुर' में पहली बार, चाहे किसी भी कारण से-फरमाइश पर ही सही-आप दूसरे युग की कथा में गए. लेकिन बाद के उपन्यासों में 'नाच्यौ बहुत गोपाल' को छोड़कर अधिकतर आप किसी पहले के ऐतिहासिक युग में गए हैं। क्या यह तब से स्थायी परिवर्तन हुआ?
नागर: स्थायी परिवर्तन तो नहीं कह सकते। मन की दोनों ही धाराएँ थीं। यह आपने बिल्कुल ठीक कहा कि एक धारा की शुरुआत कोवलन-कन्नगी की कहानी के बहाने से शुरू हुई. लेकिन जब उदयशंकर की फिल्म लिखने और सुब्बलक्ष्मी की मीरा की डबिंग करने के लिए मद्रास गया तो छह महीने वहाँ रहा था। वहीं पर हमको 'बूँद और समुद्र' के लिए नाम मिला, प्रेरणा मिली। उसके शुरू के नोट्स वहीं बनाए थे। 'एकदा नैमिषारण्ये' भी मन में वहीं उतरा। कपालेश्वर का बहुत बड़ा मंदिर था। वहाँ पंद्रह-बीस सुनने वालों को लेकर बैठता था कथावाचक। तो देखा, कथा-वाचक की बोली अलग हो जाती है, उसके लहजे-लटके तो करीब-करीब वही जो हमारे उत्तर भारत में है। फिर मन में हुआ कि नैमिषारण्ये की कथा ही क्यों कही जाए? अयोध्या है और बड़े-बड़े शहर हैं, गोमती के किनारे नैमिषारण्ये ही क्यों? मन में यह कीड़ा लग गया। धीरे-धीरे उसके बहाने बढ़ता रहा और मैं पढ़ता भी रहा। डोनाल्ड मैकेंजी के मिथ्स एंड लेजेंड्स के भी करीब-करीब सभी वोल्यूमस देख गया-चाट गया। इस तरह एक रुचि तो उधर चली गई और बनी रही।
उसी समय एक बात और भी हुई थी। देश में पहले-पहल बिखराव आ रहा था भाषाओं को लेकर। भाषा वाले प्रदेशों को लेकर तभी झगड़े शुरू हुए थे। जवाहरलाल के जमाने में। काशीप्रसाद जायसवाल से एक सूत्र मिला कि कुषाणों को निकाल देने के बाद वाकाटकों के समय में एक महान सांस्कृतिक आंदोलन हुआ होगा। हमारा नैमिषारण्ये तो भरों का इलाका था। इसलिए वहाँ से वह मिला। तो गंगा, सिंधु, सरस्वती, सारी नदियों के जल से पब्लिक नल के नीचे बाल्टी लगाकर एक व्यक्ति नहा रहा था और यों सारी नदियाँ नहा रहा था! वहाँ से एक यह आइडिया स्ट्राइक हुआ। तुलसीदास तो घुट्टी में मिले ही थे। सीधी बात थी-इसी को लेकर महेश कौल छेड़ते रहते थे, फिर हमने सोचा इसी को लेकर हम उपन्यास लिख डालें तो उसे लिख दिया।
खंजन नयन वस्तुतः लिखना नहीं चाहता था, ऐसी कोई अकुलाहट मन में नहीं थी। पर इधर-उधर बाहर से पाठकों के काफी पत्र आए. फिर चतुःशती आने को थी। विश्वनाथ जी (राजपाल एंड संज के स्वामी) भी कहने लगे, "पंडित जी, आप हमको पहले यह लिख दीजिए." चारों तरफ से खींच-तान होने लगी। ...हमारी दादी थीं, अंधी हो गई थीं। बचपन का पहला शॉक, पहला धक्का दादी का अंधा होना। वह कहीं मन को छूता था। संयोग की बात कि जब हम हाँ-ना की स्थिति में थे तब दादी को सपने में देखा तो और भी मन को लगा। वस्तुतः सूरदास हमारे मन के लायक नहीं हैं। तुलसी में तो कुछ पौरुष था। सूरदास तो बेचारे-पर फिर उनके कुछ पदों में लगा कि वह भी इतना संघर्ष झेलकर आए हैं। फिर पदों से एक और सूत्र हमको मिल गया कि सूरदास वाराणसी भी गए थे। सूरदास के आस-पास बहुत-सी भ्रांतियाँ फैल गई थीं, फैली हुई थीं। उनसे थोड़ी-सी चिढ़ हुई. इन सब बातों की वजह से खंजन-नयन लिख लिया।
अज्ञेय: पढ़ने वालों में बहुत से लोगों को 'मानस का हंस' ज़्यादा अच्छा लगा। आप क्या सोचते हैं कि सूर और तुलसी के चरित्र में जो अंतर था उसके कारण आपकी भी रुचि सूर में कम थी या कि सूर के जो देवता हैं, कृष्ण और तुलसी के हैं राम, उनमें भी अंतर है और उसके कारण भी उपन्यासकार को सुविधा या असुविधा होती है?
नागर: आपने बड़ी पकड़ की बात कही। श्रद्धा तो एक ही जगह से उमगती है, चाहे राम और चाहे कृष्ण को लेकर। लेकिन जो मुझे मिले वह राम मिले। यानी मैं तो शिव का उपासक-शिव-भक्ति से तो संस्कारवश घर से ही नाता था, लेकिन मुझे जो मिले वह राम मिले। वह थे राम बाबा। राम का बोध जाग गया मन में। इस प्रकार से सीता-राम मेरे इष्ट हैं, इसमें कोई शक की बात नहीं।
आपको एक और मजे की बात बताऊँ। खंजन नयन लिखते समय श्याम तो राम बन जाते थे, मगर सीता राधा नहीं बनती थी। लिखते हुए मन उचट जाता। एक तरफ ध्यान न लगता तो फिर उसके बाद वह धारा बहती नहीं थी, सुर नहीं बैठते थे। फिर ऐसे में हमको याद आयी कि गोपीनाथ कविराज की एक पुस्तक 'श्रीकृष्ण प्रसंग' है। वह हमने पढ़ी थी-ध्यान आया कि उसमें राधा के सम्बंध में कुछ विवरण था। अमा कला को उन्होंने डिफाइन किया है। फिर हमको दिक्कत नहीं रही। राधा को हम लोग जो परकीया-स्वकीया के भेद से देखते हैं, लिखते हैं, वह सब लोगों के दिमाग में आलरेडी भरा है। फिर अमा कला में, सीता में कोई अंतर नहीं आया। यह बात ज़रूर बताऊँगा। बाकी राम को श्याम बनाने में हमको दिक्कत नहीं हुई.
अज्ञेय: नागरजी, एक बात और आपसे पूछना चाहता हूँ। आपके उपन्यासों में देखता हूँ कि वैष्णव मंदिरों का संदर्भ ज़रूर रहता है और पुजारियों के ऐसे-ऐसे चित्र आप प्रस्तुत करते हैं जो बड़ा सूक्ष्म पर्यवेक्षण माँगते हैं। इसका आधार क्या है? आपका उन परिवारों से सम्बंध रहा था कि...?
नागर: दादी के साथ गोकुलद्वारा और दूसरे मंदिरों में बहुत घूमा। बचपन में कुछ परिवारों से भी सम्बंध रहा। मुहल्ले में रहिए तो सब रंग मिल जाते हैं। उसका भी एक प्रभाव कह सकते हैं। इस तरह बहुत मिला।
अज्ञेय: नहीं, नागरजी, सिर्फ़ मुहल्ले में रहने की बात तो नहीं, उससे कुछ ज़्यादा है। क्योंकि मंदिर के भीतर के संगठन की बारीक जानकारी भी उपन्यासों में है।
नागर: यह तो स्वाभाविक रूप से है। जैसे कि गोकुलद्वारे का है। वहाँ कीर्तनियों वगैरह की पुष्टिमार्ग की परंपरा चली आई है। मुझे यह नहीं मालूम था कि यह पुष्टिमार्ग की पद्धति है, लेकिन यह शिवा-मंगला ...यह सब करते-करते-और फिर और भी कैरेक्टर्स हैं, मुहल्ले में पास ही रहते हैं, बहुत दूर नहीं-उनकी बातचीत कानों में पड़ती रहती। ...हाँ, शुरू में, भाई, एक गुण ने मुझे उपन्यास लिखने की प्रेरणा दी। आपने जैसा संकेत किया, मेरे कान सचमुच बड़े सजग हैं। बातें सुनने में बहुत तेज हैं और दूसरे साथ-ही-साथ इधर-उधर भाव-भंगिमा देखने में आनंद आता है। सोचता हूँ कि इस तरह यदि मैं लेखक न बनता तो एक्टर अच्छा बनता, डायरेक्टर अच्छा बनता।
अज्ञेय: यह तो है, उपन्यासों में बहुत ही बारीकी से देखी हुई चीजें भी आती हैं और बहुत ध्यान से सुनी हुई भी। इससे ज़्यादा कोई निजी आकर्षण मंदिर के ही वातावरण का भी रहा। पूजा-अर्चना में निजी प्रवृत्ति रही या कि वैसा कुछ नहीं है?
नागर: मन में एक आस्तिक संस्कार तो घर के वातावरण से था ही। जैसे तुलसीदास घुट्टी में मिले-घंटा-भर रोज पढ़ते थे और अभ्यास डालने के लिए नित्य-प्रति सुनते थे। श्लोक भी बहुत याद थे। गंगालहरी मुझे कंठस्थ थी। तो यह संस्कार मिलते रहे। घर में ही बहुत अधिक सात्विक संस्कार था। शुरू में यह था कि जनेऊ के बाद बाहर का खाना हमारे लिए बंद हो गया था। यों एक संस्कार तो आप कह सकते हैं कि हमको घर से मिला।
एक बात मैं अपने लेखक होने के साथ भी जोड़ सकता हूँ। वह आस्था बाद में ज़िन्दगी की मार खाकर बंबई में मिली। सन 43 में बाबा रामजी मिले। साधारण आदमी लेकिन गजब का आदमी। उसकी वजह से बदला, मन में भी बदलाव आया। वह कहें, पागलों का पाखाना-पेशाब उठाओ, उनकी खराब की हुई दरियाँ धुलवाओ-न करें तो 'बाबू' बनें-उनकी नजरों में बुरा। वह टोकें, 'रामजी, आँखों में आँखें डाल के देखो, रामजी झाँकत हैं कि नहीं!' उनकी लड़त ने मुझे छुआ। ये जो चीजें थीं, मन को छू गईं। उनके प्रति दृष्टिकोण बदला। जैसा आपसे शुरू में कहा, फिल्म में रहते हुए रोचकता ज़रूर बढ़ी, क्योंकि वहाँ वह बहुत ज़रूरी थी, लेकिन इन सारी चीजों में जो दुकानदारी का तत्त्व था वह जीवन के सिद्धांत के रूप में गहराई में बाबा रामजी से समझ में आया।
अज्ञेय: अब दूसरी तरह के प्रश्न आपसे पूछना चाहता हूँ जो लेखक से लेखक पूछता है। यह बताइए कि जो उपन्यास आपने लिखे-खासकर इधर के, जिनमें ऐतिहासिक वस्तु थी-उनमें एक ऐतिहासिक युग को लेकर या उस दूसरे युग की प्रतीति कराने के संदर्भ में कुछ खास तरह की समस्याएँ आपके सामने आईं-जैसे युगीन संवेदन की समस्या?
नागर: भाई, जैसे तुलसीदास मान लीजिए. तुलसीदास नायक की तरह से-मन में एक जगह है-उनके सम्बंध में रचनाएँ भी काफी पहले से पढ़ी थीं। जब हम तुलसीदास को नायक बनाकर सोचने लगे तो यह हुआ कि उनका ऐतिहासिक रूप ग़लत न हो, इसलिए सजावट के लिए हमने उसे इस्तेमाल किया। सूरदास के सम्बंध में अपने मन की सच्चाई भी बता दूँ। पकड़ भी है, दोनों ही बातें हैं। सूरदास हमने इतना ही पढ़ा था कि जितना स्कूल में कोर्स में पढ़ाया गया। बाद में उनके पदों के दो चार छोटे-मोटे संग्रह पढ़ लिए थे। पूरा सूरसागर कभी पढ़ने का मौका नहीं मिला था। जैसे रामचरितमानस पहले से पढ़ा था, कवितावली पढ़ी थी, उस तरह सूर-साहित्य का बहुत निकट का परिचय मुझे नहीं था।
जब सूर के ऊपर मन लिखने के लिए बाहर से, भीतर से प्रेरित हो गया तो इस रूप से ऐतिहासिक बैकग्राउंड जानना मेरे लिए अनिवार्य हो गया। सूर का ठीक-ठीक वही समय है जब सूफी और संत हमारे इस टूटे हुए मन को उबार लेते हैं, समाज का उत्थान करते हैं जैसे वाराह ने पृथ्वी को उबार लिया था-तो वह सब पढ़ना ज़रूरी था। एक बार खंजन नयन की रचना से पहले सारा इतिहास पढ़ा, उसके नोट्स बनाए. लेकिन अभी वह जमाना ही खाली दिमाग में कूद रहा है। दूसरी तरफ सूरसागर भी पढ़ा। साथ-साथ पढ़ते थे। उसमें सूर के चित्र मन में आने लगे, कैसे वे वर्णन कर रहे हैं, कैसे वे कहते हैं, मैं जूझूँगा, टरूँगा नहीं। इससे उनके मन के विभिन्न मूड कुछ खुलते हैं। वह देखते हुए जब इतिहास को और निजी चरित्र को साथ में लेता हूँ तब कहानी कहीं बनने लगती है। ...तो इसमें यह ज़रूर हुआ कि पहले इतिहास को मुझे जमकर पढ़ना पड़ा, नहीं तो रास्ता ही नहीं मिल रहा था। इसी बहाने से बहुत पढ़ा, पढ़ता गया। मेरा काम हुआ या कि नहीं हुआ उससे मतलब नहीं, लेकिन उस बहाने पढ़ाई खूब हुई. सत्रह-अठारह बरस तक उस सब्जेक्ट के पीछे रहे। लिखा बहुत बाद में। दोनों बातें होती हैं। इस तरह से पहले एक कैरेक्टर के लिए और बाद में सजावट के लिए या उसके देश-काल की आवश्यकता का अनुभव करते हुए बातें आ जाती हैं।
एक बात और भी आप देखेंगे, चाहे मैं इतिहास में गया हूँ चाहे आज के जमाने में रहा हूँ, व्यक्ति और समाज का नाता मैंने किसी भी हालत में छोड़ा नहीं है। चाहे एकदा नैमिषारण्ये में रहा हूँ तो भी समाज को चित्रित करते हुए उसमें व्यक्तित्व को देखा है, चाहे तुलसी बाबा या सूर बाबा के इतिहास में रहा हूँ, वहाँ भी व्यक्ति को नहीं छोड़ा।
अज्ञेय: तो मेरा जो सवाल था वह वास्तव में इस पक्ष के बारे में था। ऐतिहासिक जानकारी तो एक चीज है, लेकिन आप जब उसके आधार पर लिखते हैं तब आप अपने समय से अलग एक दूसरे देश-काल की रचना कर रहे होते हैं। उसमें भी ऐतिहासिक तथ्य अपनी जगह है, पर बात उतनी भर नहीं है। इसके अलावा आप आज के पाठक के लिए लिख रहे हैं, उसके सामने एक दूसरे देश-काल को मूर्त करना है और दोहरी पहचान बनाए रखनी है कि घटना आज की नहीं है उस समय की है, लेकिन आज सच्ची जान पड़ती है। (उपन्यास की बात सच्चाई तो नहीं होती, 'सच्चाई-जैसी' ही होती है।) यह जो समस्या है दो कालों में समांतर चलने की, इसका सामना कैसे करते हैं?
नागर: देखिए, क्या होता है-मान लीजिए सूर हैं-सूर मेरी रुचि का नायक नहीं था। दूसरे को छोड़ दीजिए, इसी को लीजिए-एक पात्र जब प्रेरित करता है, तब हम उसके मनोविकास के सहारे जितना आवश्यक है उसका परिवेश देखेंगे। सूत्र मेरा व्यक्ति-चरित्र रहेगा, जो जिस समय भी पकड़ में आ जाए. उससे अलग नहीं देखूँगा।
अज्ञेय: अच्छा, इस तरह के लेखन में भाषा की एक खास तरह की समस्या आती है। पहले भी मैंने इस सवाल को आपसे कुछ बाहर-बाहर पूछा था। आप दूसरे देश को, दूसरे काल को, दूसरी बोली को ध्यान में रखते हुए चरित्र को सामने लाते हैं। एक तो उस चरित्र पर पाठक को प्रत्यय हो, इसके लिए कुछ खास तरह की बोली आवश्यक होती है। 'साधु भाषा' से हर काम अनिवार्य हो जाता है, पर दूसरी तरफ ऐसा तो नहीं होता कि आप उपन्यास को एक बोली में लिख रहे हों, उपन्यास तो आप हिन्दी में (या जिस किसी दूसरी भाषा में) लिख रहे होंगे। इनमें जो विरोध पैदा होता है, इसका निर्वाह आप कैसे करते हैं और कैसे सोचते हैं कि करना चाहिए, क्योंकि कुछ लोग तो बोली के तर्क को उसकी चरम स्थिति तक ले गए कि बिल्कुल बोली में ही लिखा। तब सवाल यह आता है कि इसको हम हिन्दी का कैसे मानें, मानें तो किस हद तक मानें?
नागर: भाई, यह आपकी बिल्कुल सही बात है। देखिए, सूरदास हों या तुलसीदास हों, या एकदा नैमिषारण्ये (मैं इतिहास जान-बूझकर ले रहा हूँ) के सोमाहुति हों, बोलते खड़ी बोली में हैं। आप सूरदास को ले लें। सूरदास से मैंने खड़ी बोली ही बुलवाई है।
अज्ञेय: एक तो यह हो सकता है कि आपने खड़ी बोली को रंगत दे दी एक बोली की...
नागर: वह दूसरी चीज है। यह प्रेमचंद करते थे। यह सीख दी है प्रेमचंद ने। सही बात है। अवधी के ऐसे मुहावरे उन्होंने खड़ी बोली में बुलवाए. जैसा हम डॉयलाग लिखते हैं वैसा तो वह नहीं लिखते थे। लेकिन उन्होंने बोली के बहुत से रंग दे दिए अपने पात्रों को खड़ी बोली में।
अज्ञेय: इसको आप श्लाघनीय समझते हैं?
नागर: हाँ, मैं बुरा नहीं मानता।
अज्ञेय: एक दूसरी तरह के प्रयोग भी हैं। रेणु इससे कुछ आगे बढ़े, लेकिन अंत तक तो वह नहीं गए. मालूम नहीं आपने कृष्णा सोबती का उपन्यास देखा है या नहीं?
नागर: जिंदगीनामा!
अज्ञेय: हाँ, जिंदगीनामा। उसमें वह इतनी दूर तक गई हैं। सवाल उठता है कि भाषा को इस रूप में...
नागर: यह सवाल मेरे मन में भी उठता है। देखिए, दो स्थितियाँ मेरे सामने हैं। हिन्दी का पाठक अब केवल हिंदू नहीं रहा, केवल उत्तर भारत का नहीं रहा। बात को बहुत अच्छी तरह से साफ करना चाहूँगा। बाहर के पाठक को ऐसी हिन्दी चाहिए जो उसकी समझ में आए. वैसा हो तब तो गनीमत है किसी हद तक। अगर ऐसी हिन्दी हो जिसे समझने के लिए उसे कुछ कष्ट उठाना पड़े तो फिर भले ही हमने अपना मन खुश कर लिया, लेकिन अनुभूति का दूसरे के साथ जो मिलन हो जाता है-पाठक के मन के साथ-उसके अपने होने से हमारी अनुभूति का जो नाता है, वह टूट जाता है।
अज्ञेय: आपने इतने उपन्यास लिखे हैं। आपको आज सबसे अधिक संतोषजनक कौन-सा मालूम होता है?
नागर: भाई, अभी जवाब नहीं दूँगा इसका। अभी मन में एक-आध और हैं।
अज्ञेय: वह तो रहना चाहिए. असल बात यह है कि जो आगे लिखेंगे वही सबसे अच्छा है, पर मैं अपनी बात को उलटकर यों भी पूछ सकता हूँ कि कोई ऐसा उपन्यास है जिसके बारे में आप सोचते हैं कि इसे आज लिखता तो दूसरी तरह लिखता?
नागर: हाँ, है 'एकदा नैमिषारण्ये'। इसके लिए सचमुच मन में होता है कि एक बार अगर इसको फिर से लिखूँ तो शायद अच्छा लिखूँ। यों पिछले जो भी हैं उनमें कुछ थोड़ा-सा परिवर्तन तो हर जगह करने का जी चाहेगा। लेकिन जैसे 'बूँद और समुद्र' है, उसको मैं चाहूँगा जैसा है वैसा ही रहे, अमृत और विष जैसा है वैसा ही रहे। लेकिन एकदा नैमिषारण्ये के लिए मन में ज़रूर होता है, इसको मैं एक बार फिर से लिख जाऊँ। हालाँकि कह नहीं कह नहीं सकता कि उसका मौका मिलेगा।
अज्ञेय: लेकिन क्यों? किस दृष्टि से?
नागर: इस दृष्टि से हमको यह अनूभव हुआ कि जो पौराणिक कथाएँ हमको घुट्टी में मिली थीं-मुहल्ले में कथा-वार्ता बहुत-सी होती थीं-उनके पास या उनसे जो रंग मिले, उनके पास हमारा जो नया पाठक है-यानी जिसने तुलसी को पढ़कर भी मुझे पत्र लिखे वह पाठक, मेरा नया पाठक-उसके पास नहीं आ पाता। वह एकदा नैमिषारण्ये के पास भी नहीं आ पाया। उसका कारण क्या है? हम जो बात सहज ढंग से पौराणिक बेस बनाकर लिख गए, कह गए, हमारे मन में तो इस तरह से है, पर उस बेचारे पाठक के पास वह बेस नहीं है। वह बड़ा खटकता है। कहीं-कहीं पर उसको पढ़कर अच्छा नहीं लगता। यानी ऐसा लगता है कि मेरा जो उद्देश्य था वह...
अज्ञेय: अगर यह बात, आपका अनुमान सही है कि पाठक के पास वह आधार नहीं है तो उसका आप क्या इलाज कर सकते हैं?
नागर: उन कहानियों को थोड़ा और रोचक ढंग से इलैबोरेट करूँ। जिस बात पर आपने टोका उस बात का इस्तेमाल ज़रूर करूँगा ताकि थोड़ा और अधिक रोचक ढंग से कहानियाँ पाठक तक पहुँच जाएँ, यानी उनका बेस लेकर वे मेरी बात आगे देखें।
अज्ञेय: लेकिन उसका मतलब क्या यह नहीं हो जाएगा कि आप उपन्यास में कथा रचने के अलावा पाठक को कुछ जानकारी देने का भी काम कर रहे हैं-जो वास्तव में उपन्यासकार का उद्देश्य नहीं है?
नागर: उद्देश्य नहीं है, यह सही बात है। मैं मानता हूँ। लेकिन कभी-कभी सोचता हूँ कि वे कहानियाँ क्यों नहीं पहुँचतीं पाठक तक।
अज्ञेय: जैसे आजकल बहुत-से लोग लिखते हैं और उनके मन में कहीं यह खयाल रहता है कि इसका अंग्रेज़ी अनुवाद होगा, इसका विदेशी पाठक होगा तो वे कुछ टूरिस्टी किस्म की, टूरिस्ट के उपयोग की जानकारी उसमें दे दें।
नागर: हाँ, हाँ। नहीं, उस तरह का मन नहीं है।
अज्ञेय: तो फिर कैसे हल करेंगे इस समस्या को?
नागर: अब यही हल है कि उन कहानियों को, ऐसे कहा जाए कि पाठक के मन को पकड़ लें। जैसे मान लीजिए 'हरिहर' है। उसका उदाहरण लूँ। हरिहर की कथा जिसने शैवों और वैष्णवों को जोड़ा-जिसकी लड़ाइयों से शैविज्म और वैष्णविज्म को जोड़ते हैं-उसमें कथा बना ली कि नारद ने बहुत तप किया अपने मानस-पिता ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए. वह प्रसन्न हुए, उनसे वरदान माँगा कि जिसको चाहूँ मैं लड़ा दूँ। ब्रह्मा को मजबूरन वर देना पड़ा। उसके बाद नारद ने हरि की हर से शिकायतें कीं और कुछ शिकायतें हर की हरि से कीं और दोनों को लड़वा दिया। यह तो पुराण कथा है। अब नारद को मैं द्वंद्व का प्रतीक मानता हूँ जो मन के द्वंद्व को उजागर कर देता है। इस बात को ज़रा और सफाई से लिख जाऊँ तो शायद वह जो पकड़ है-उपदेश देने की बात नहीं है-उस चीज को लिखने की सफाई अगर और आ जाए तो शायद मैं नए पाठक के मन को किसी हद तक पकड़ लूँगा, ऐसा मैं सोचता हूँ।
अज्ञेय: यह जो आपने नए पाठक के साथ लेखक के संवाद की समस्या बताई, इसके लोगों ने कई तरह से उत्तर दिए हैं। उदाहरण के लिए, यशपाल ने अगर दिव्या लिखी, या राहुल जी ने दूसरे युग की घटना लेकर कुछ उपन्यास लिखे तो उनके सामने यह समस्या उस रूप में नहीं आती क्योंकि विशेष रूप से राहुल जी ने (जो कि विद्वान थे) उस समय से सामग्री तो प्रामाणिक ली। वह सामग्री तथ्य या घटना की दृष्टि से तो प्रामाणिक है, लेकिन संवेदन और मनेाविज्ञान की दृष्टि से ग़लत हो जाती है। उन्होंने सब चरित्रों को आधुनिक बना दिया। इससे एक तरफ तो आज के पाठक को सहायता मिलती है, वह उन भावनाओं को पहचानता है। लेकिन उस युग में उस स्थिति से वह भावनाएँ उत्पन्न नहीं होती थीं। इस दृष्टि से वे चरित्र झूठे हो जाते हैं। एक दूसरी तरह की चीज हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेखन में थी। वह तो इस मामले में सजग थे कि जानकारी भी देनी है-मुझसे उन्होंने स्वयं कहा था कि 'मैं ऐसे उपन्यास लिखना चाहता हूँ जिनमें मैं पाठक को जानकारी भी दूँ।' और यह काम उन्होंने किया भी। उनके उपन्यासों में दूसरे युग के जो चित्र आते हैं वे इस दृष्टि से झूठ नहीं होते। उनमें बहिरूप जो है वह भी उस युग का है और जो भावनाएँ उन्होंने व्यक्त की हैं वे भी युगानुरूप हैं, इन्हें आधुनिक नहीं बनातीं। चीजों को ऐसे जोड़ा ज़रूर है, ऐसी चीजें अवश्य ली हैं जो...
नागर: जो मन को भी छू जाती हैं।
अज्ञेय: हाँ। तो दोनों में आपको कौन-सा रास्ता...
नागर: आपने जो दूसरी बात कह दी, वही मेरे पास भी है। कुछ भावनाएँ ऐसी होती हैं। हर काल में एक प्रकार का मनोचक्र नहीं घूमता। फिर भी, बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं जो आज भी हमको छूती हैं, चार हजार वर्ष पहले भी छूती थीं। मान लीजिए, शकुंतला की विदाई और कण्व का दुखी होना। आज भी घर में ऐसे क्षण आ जाते हैं। उनको लेकर अगर हम आगे बढ़ जाते हैं, उनकी थोड़ी-सी छाया ज़रूर स्पर्श करते हैं। कहीं आप उस काल की मनोभावनाओं तक भी जाएँगे, क्योंकि ऐसा तो नहीं हो सकता कि हम खाली मनोभावनाओं को ही छूकर चले जाएँ। यह दिक्कत भी है। तो हम छुएँगे ज़रूर, लेकिन उस छूने के साथ-साथ हम आगे भी बढ़ेंगे, उस काल की मनोभावनाओं को चित्रित करने का लक्ष्य रखेंगे। अगर हम खाली छूकर रह जाएँगे तो वह लक्ष्य अधूरा रह जाएगा।
अज्ञेय: नागरजी, मैंने जो दो नाम लिए-राहुलजी और द्विवेदी जी का-यह दोनों तो पहले पंडित थे और बाद में उपन्यासकार। आप तो पहले किस्सागो हैं। (मेरी बात ग़लत न समझें) उनकी समस्याएँ तो काफी अलग-अलग रहीं। आप फिर कुछ और विस्तार से बताएँगे कि आप क्या सोचते हैं? ऐसी स्थिति में क्या करना ठीक होगा पाठक से संवाद बनाए रखने के लिए और वस्तु के प्रति सच्चे बने रहने के लिए?
नागर: देखिए, लिखते समय तो हम न पाठक, देखते हैं, न अपना मन देखते हैं, उस समय तो मन बहता है। जो चरित्र हमने अपने मन में पचा लिया, जो स्थिति या जो विचार-पद्धति पचा ली, वह चलता है। वैसी बहुत-सी समस्याएँ आती हैं। पांडित्य से लगाव है, उसको छुए बिना हम कहीं भी आगे नहीं बढ़ सकते, पात्र को आगे नहीं बढ़ा सकते। पर भाई, जब तक वह हमको पच नहीं जाएगा हम नहीं लिखेंगे। एक-आध जगह ऐसा हुआ कि हम स्वयं भी अगर छाँटें तो आपको उदाहरण दे सकेंगे कि-एक दृश्य लिखते हुए जिसमें इतिहास बल्कि पूरी चीज जैसे घुलकर शरबत बन गई है-लिखते-लिखते हमको नई बात सूझी और फिर ध्यान आया कि अमुक किताब में उसका 'रेफरेंस' इस तरह मिलता है। अब अगर कल मैं लिखने वाला हूँ और आज शाम को मैंने उसको देखा है तो यह पची हुई बात नहीं है, वहाँ वह जस-की-तस आ गई है। कई जगह ऐसी किरकिरियाँ मुझको अपने-आप महसूस होती हैं। लेकिन अधिकांश में, चाहे दर्शन है या इतिहास है या राजनीति है, जब तक मैं घोख नहीं लूँगा तब तक नहीं लिखूँगा। वह कथा का पार्ट बनना ही चाहिए, वह अलग से नहीं आना चाहिए.
अज्ञेय: अच्छा, नागरजी, एक सवाल आपसे पूछना चाहता हूँ जो पहली बार सुनने पर झूठा सवाल भी लग सकता है। आप जो पात्र रखते हैं उनको बाहर से देखते हैं या कि अलग-अलग प्रत्येक पात्र के साथ एकात्मकता भी आवश्यक मानते हैं पहले से। यानी एक तो यह है कि स्थिति पूरी आपके सामने है, आप उसको बाहर से देख रहे हैं और स्थिति के प्रति सच्चे होने के लिए प्रत्येक पात्र के साथ अलग-अलग एकात्मकता आवश्यक नहीं जान पड़ती।
नागर: यह आवश्यक तो नहीं होता कि वैसी एकात्मकता मैं हर एक को दूँ। एकात्मकता तो छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े को चाहिए-कहीं-न-कहीं मन में रस रहेगा। जो परिस्थिति आपने पहले रखी उसको ही लीजिए. सर्जक मन में जो विस्फोट हुआ, किसी चीज को उसने छुआ, उसमें अनुभूति भी होती है और कल्पना भी होती है, दोनों साथ-साथ होती हैं-'कहियत भिन्न न भिन्न'। मेरी मोटी बुद्धि जो पहचान पाई है वह यही कि उसमें भी कहीं पूरापन देखते हैं। ऐसा होता है कि उपन्यास, बड़ा उपन्यास लिखेंगे लेकिन कहीं पर एकाएक जो फ्लैश आया, जहाँ से सूझ मिली, उसी में पूरा विस्तार होता है, अलिखित या अचिंतित पूरा विस्तार होता है। उस विस्तार को हम क्रमशः ग्रहण करने का धीरे-धीरे प्रयत्न करते हैं। जब वह मेरे हाथ में आ जाता है तब उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए अगर इतिहास में कोई चीज है तो उसका भी मैं अध्ययन करूँगा। वह अध्ययन हो जाए, पच जाए तो कैरेक्टर तो मेरा एक होगा जिसमें कहीं मैं बोल जाऊँगा-क्योंकि ऐसा भी होता है कि दो-तीन पात्रों में कहीं अलग-अलग बोलूँ। एकात्मकता हर एक से ज़रूर होगी, चाहे छोटा हो या बड़ा-किसी एक में बहुत ज़्यादा हो जाती है, वह बात दूसरी है।
अज्ञेय: लेकिन आग्रह की बात है यह तो। एक तो जो लोगों के बीच सम्बंध है, वही प्रधान है। आप सोच सकते हैं कि पात्रों में आपस में जो सम्बंध हैं उन्हें हम सामने ले आएँ, उतना काफी है। नहीं तो ऐसा भी सोच सकते हैं कि उसके लिए भी यह अनिवार्य है कि प्रत्येक के भीतर, प्रत्येक के मन में अलग-अलग भी पैठ सके. इन दोनों के आग्रह में ज़रूर कुछ फर्क हो जाता है।
नागर: फर्क तो ज़रूर हो जाता है पर दिक्कत ज़्यादा नहीं होती। दिक्कत इसलिए ज़्यादा नहीं होती कि उसमें एक तो बोली-आपने दो-तीन बार इस बात को उठाया है-बोली कहीं सहायता करती है। बोली के बहाने हम दूसरे के मन में प्रवेश करने की राह बना लेते हैं।
अज्ञेय: अच्छा, आपने प्रारंभिक तुकबंदी और पैरोडी का जिक किया था। विनोद की यह प्रवृत्ति आपकी रचनाओं में शुरू से रही है। उपन्यासों में जहाँ सीधे-सीधे आप व्यंग्य नहीं भी लिख रहे हैं वहाँ भी कुछ विनोद का भाव तो दीखता है। आपने क्या कभी गद्य में भी पैरोडी लिखने की बात सोची?
नागर: 'कामरेड प्रेमदास' में पैराडी की थी। यह प्रकाशित नहीं हुआ, लेकिन चकल्लस के 'फूल' अंक में... जैनेंद्र कुमार की थी, जवाहरलाल की पैरोडी की थी, कुछ हमने, कुछ-नरोत्तम ने, कुछ दोनों ने मिलकर पैराडी की थी।
अज्ञेय: इस संदर्भ में एक और उपन्यास की याद आई. आपने मनोहर श्याम जोशी का कुरु-कुरु स्वाहा देखा है?
नागर: हाँ, कुरु-कुरु स्वाहा देखा है।
अज्ञेय: उसक बारे में आपकी क्या राय है?
नागर: देखिए, उसने एक बात पकड़ने की कोशिश की। एक व्यक्तित्व के अंदर कई व्यक्तित्व होते हैं जो एक-दूसरे के पूरक होते हैं, एक-दूसरे को सहारा देते हैं। यह पकड़ उसकी ठीक थी लेकिन उसने निबाहा नहीं।
अज्ञेय: उपन्यास का अंत तो कुछ ऐसा किया है मानो वह थक गए हों कि बस, अब बहुत फैला लिया, अब समेंटे इसे।
नागर: हाँ निबाहा नहीं। एक कैरेक्टर का नाम है पहुँचेली, उसे पकड़कर वह चलता है। उस समय था क्या, खंजन नयन हम लिख रहे थे, एक दिन लौटकर आए तो देखा, मेरे यहाँ किताब रखी हुई थी। तो देखकर हमने कहा, "यार, एक मनोहर श्याम, मनोहर श्याम जोशी और मनोहर ये जो तीन हैं और हमारे भी सूर और सूर स्वामी चल रहे हैं, मौके की बात थी, लेकिन हमने कहा, कोई हर्ज नहीं, इसको हटाओ. इसने छुआ ज़रूर है, लेकिन पाया नहीं। हमारा जो खेल है हम चल रहे हैं, पर उसने छुआ ज़रूर है, यह हम कहेंगे।"
अज्ञेय: मुझे भी उपन्यास अच्छा लगा।
नागर: ऐसे ही नरेंद्र कोहली का है। उसने कम-से-कम शुरू में 'अवसर' अच्छा लिख दिया था और 'दीक्षा' भी ताहम गनीमत है। जो तीसरा है-संघर्ष की ओर-उसमें बहुत अधिक हाथ जो नापने लगा। हमारा जो नाता था पाठक से-हम स्वयं भी तो पाठक हैं-पाठक से एक अजीब नाता होता है, वह नहीं रहा। जो पुराना किस्सा हम कह रहे हैं, उससे एक हद तक हमारा अपनापन आज भी जुड़ा रहे, एक हद तक पुरानेपन का नाता भी रहे, तभी वह प्यारा लग सकता है। नहीं तो वह कैरेक्टर प्यारा नहीं लगता। अगर उससे पुरानेपन का नाता आप बिलकुल छुड़वा देते हैं तो उसकी रोचकता, उसका सारा रस समाप्त हो जाता है।
अज्ञेय: नागरजी, आपने बताया कि तुलसी की रचनाओं से तो आपका सम्बंध बचपन से था। सूर की पदावली के साथ ऐसा नहीं था। संस्कार के कारण इतना तो अंतर होता ही। उसके अलावा मैं कभी-कभी सोचता रहा हूँ कि तुलसी के रामचरितमानस को अगर हम तुलसी द्वारा ही आरंभ की गई रामलीला का वाचिक अंग मानें तो बहुत दूर तक उसकी इतनी व्यापक लोकप्रियता की बात समझ में आती है। अगर वह केवल छपा हुआ ग्रंथ होता और रामलीलाएँ न हुई होतीं तो शायद देश में वह वहाँ तक न पहुँचा होता, लोकमानस में ऐसे बस न गया होता। लेकिन सूर के पद भी तो गाए जाते थे और उनकी झाँकिया भी प्रस्तुत की जाती थीं और बहुत-से-लोगों के कंठ में वह अब भी बसे हुए हैं। दोनों के प्रसार और प्रभाव में इतना असर क्यों रहा है? यह कह सकते हैं कि सूर के पद लगातार कथा कि तरह नहीं प्रस्तुत किए जाते थे या प्रायः नहीं किए जाते थे। लेकिन एक तो भगवान के जो रूप हैं, अपने-अपने क्षेत्र में दोनों ही मन में बहुत गहरे बसे हुए थे और दूसरे रामलीला में और सूर की झाँकियों में दोनों का जीवन जिस तरह प्रस्तुत किया जाता है, वह भी नाटक या उपन्यास की तरह नहीं, वह तो भगवान की लीला है जिसके अलग-अलग अंश आपके सामने आते हैं-फिर भी दोनों में इतना अंदर क्यों रहा? रामायण और रामलीला का अभिन्न सम्बंध तो हम देखते हैं, लेकिन झाँकियों से सुर को उतना लाभ नहीं हुआ।
नागर: भाई, दो बातें थीं। हमने जैसा तुलसी को देखा है और जो हमारी समझ में आता है, तुलसी केवल संत नहीं था, केवल कवि नहीं था। वह समाज में बढ़ता भी था। देखिए, बड़े पकड़ की बात की है, बाबा ने-रामलीला शुरू कराने के पहले तीन लीलाएँ बच्चों की कराई थीं बनारस में-एक नागनथैया, एक ध्रुवलीला और एक प्रह्लाद की। आप इन तीनों के सब्जेक्ट देखिए. बच्चों के लिए ये लीलाएँ-दो अब भी होती हैं, ध्रुव की अब नहीं होती। एक बात और भी थी। उस जमाने में मेघा पंडित संस्कृत में वाल्मीकि रामायण पर लीला किया करते थे, हालाँकि वह छोटे-से रईसों के जमावड़े में, किसी बगीचे में बारादरी में होती थी। मैं तो यही समझता हूँ कि तुलसीदास ने उसी चीज को अधिकतर लड़त के लिए किया, उनसे लड़त के लिए जो कट्टरपंथी थे और चाहते थे कि नई व्यास परंपरा न आए. उस लड़त के लिए रामलीला जगह-जगह शुरू कराई. देखिए बड़े मजे की बात। बनारस की रामलीला में हमने दो चीजें देखीं। चौपाइयों का प्रयोग होता था, बाद में झाँकियों में भी आई गई. झाँकियों की परंपरा पुष्टिमार्गी परंपरा होता था, बाद में झाँकियों में भी आ गई. झाँकियों की परंपरा पुष्टिमार्गी थी। यह पुष्टिमार्गी परंपरा बाद में सूर से जुड़ी, फैली, जिसमें डायलाग होता ही नहीं, बस खाली-खाली आए, मिले, वह जमावड़ा अकस्मात-सा हो गया और चले गए. दो-तीन घंटे पहले से शुरू होती थी। तुलसीदास में शुरू में एक उनकी गायकी है-'एहाँ-एहाँ' करते गाते हैं-बनारस वाले खास तौर से। मुझे लगता है कि वह तुलसी के समय की परंपरा है। मुझे यह भी लगता है कि जायसी ने दोहे-चौपाई का इस्तेमाल किया, वह उस जमाने में बहुत ज़्यादा पापुलर रहा होगा जिसको उसने पकड़ा। सूरदास यह सब-कुछ नहीं कर सकता था बेचारा। वह तो पुष्टिमार्गी सेवा की रौ में चला है। उसमें लीला-वर्णन करते हैं, करनी है, तो उसी में लग गया। जितना अच्छा राधा-कृष्ण की लीला का वर्णन है, वह कमाल का है। खाली भागवत जो है उनकी, उनमें नवम स्कंध में रामकथा वाला जो अंश है, बड़ा अच्छा लगता है। ऐसा ताज्जुब होता है कि श्याम के भक्त ने राम के ऊपर इतनी सुंदर रचनाएँ कीं, पर बाकी उनका भागवत रेडियो टेक्नीक-सा लगता है, जैसी आवाजें-कथाएँ बाँध दी गई, तसवीरें कोई उभरती हैं, कोई खास नहीं उभरतीं। जो कहने का ढंग है उससे होता है। लेकिन सुर की चित्रमयता बहुत अधिक थी। मैं समझता हूँ कि तुलसीदास ने उससे प्रेरणा ली।
अज्ञेय: अच्छा, आपने रामलीला से पहले की तीन लीलाओं का जिक्र किया। क्या इस अनुमान का कोई आधार है कि तुलसी ने या तो पहले प्रयोग के रूप में ये लीलाएँ कीं और उसके बाद मर्यादा पुरुषोत्तम राम की लीला प्रस्तुत की। समाज में एक अस्मिता का भाव जगाने के लिए, उसको कुछ उत्तेजना देने के लिए ऐसा किया। या कि आप यह सोचते हैं कि यह अस्मिता जगाने की बात सिर्फ़ हम लोगों की बाद की कल्पना है।
नागर: नहीं, तुलसी में दोनों बातें थी। 'स्वांतः सुखाय' भी है ज़रूर, लेकिन उसका लक्ष्य अपने जन-समुदाय पर प्रभाव रखने का भी है। पाठक को पकड़कर रखने की ललक भी उसमें खूब थी।
अज्ञेय: पकड़कर रखने की बात एक, लेकिन उसको किसी एक दिशा में प्रेरित करने का भी भाव था।
नागर: निश्चित रूप से था। देखिए, अखाड़े उसने खोले हैं। तुलसीदास के समय में प्लेग का प्रकोप हुआ। दस दिशाओं में तुलसी ने हनुमान बाँधे, संकटमोचन बाँधा है। आप देखिए, जनता के टूटे हुए मन को कैसे ढाँढ़ता देकर के, बाँध करके आगे बढ़ावा है। यह तुलसीराम की लड़त का उदाहरण है।
अज्ञेय: केवल इतना ही था कि वह टूटे हुए मन को फिर से नया जीवन देना चाहते हैं या कि तत्कालीन शासन के प्रति कोई विरोध का भाव भी था?
नागर: स्वाभाविक रूप से शासन के प्रति विरोध का भाव भी आ जाता है, इसको आप अस्वीकार नहीं कर सकते; क्योंकि कलि-वर्णन में रामचरितमानस में बहुत-सी ऐसी चीजें आती हैं जो उनके जमाने को बतलाती हैं। दूसरी एक चीज है-एक बड़े मौके की बात हमको सूझी थी-कि राम-रावण युद्ध के हथियारों के उनके जितने वर्णन हैं, वह सब मुगलिया हथियारों के हैं, यानी वे पुराने हथियार नहीं हैं। यह शासन के प्रति भी कहीं न कही विरोध है-
हम चाकर रघुवीर के पढ़ो-लिखो सरकार,
तुलसी अब क्या होयेंगे नर के मनसबदार!
वह सब भी है ' तीन गाँठ कौपीन में बिन भाजी बिन लोन। तुलसीमन संतोष जो, इंद्र बापुरो कौन? यह अकड़ भी है। यह एक जगह कहीं पर शासन से उनको विरक्त भी करता है। स्वाभाविक रूप से समीप नहीं लाता।
अज्ञेय: और सूरदास में ऐसा भाव बिलकुल नहीं है?
नागर: है, एक जगह है। अकबर के दरबार में जब गए हैं। तब जैसा पुष्टिमार्गी साहित्य में लिखा हुआ है, अकबर को सुनाया उन्होंने। कहा कि 'अब क्या माँगना चाहता है' तो कहा कि 'फेर मती बुलैयो'। लेकिन वह कहीं विवश भी है। जैसे तुलसी हैं।
अज्ञेय: लेकिन इसको तो आप दूसरी तरह भी देख सकते हैं। सारे समाज को किसी एक तरह के प्रेरणा देने की बात उसमें नहीं है।
नागर: ना, ना, यह बात नहीं है। ऐसा तो हम नहीं कर सकते। उनके समकालीन गोपनदास थे। (टेप से उतारने में कुछ गड़बड़ लगती है)
अज्ञेय: सत्ता के प्रति उदासीन भाव तो है, लेकिन समाज में उसके अन्याय के प्रति विरोध जगाने की बात नहीं है।
नागर: ना, ना, वहाँ तुलसी दूसरे हैं। सूरदास में वह बात नहीं है, पर हाँ, सूरदास का जमाना पिटा बहुत है। तुलसीदास का जमाना अपेक्षाकृत-बहुत बुरा होकर भी-फिर अच्छा हो गया था। सूरदास का जमाना पिटा बहुत था।
अज्ञेय: क्या इसको इस बात से भी जोड़ सकते हैं कि सूर की पदावली गाई जाए या उसकी झाँकियाँ प्रस्तुत की जाएँ। इसको मुगल शासन से भी प्रोत्साहन मिलता था, जबकि रामलीला को प्रोत्साहन मिलता था जबकि रामलीला को प्रोत्साहन मिलता रहा हो, ऐसा हमने नहीं सुना।
नागर: आपकी बात नहीं समझा।
अज्ञेय: सूर के पद जगह-जगह गाए जाएँ, इसको तो तत्कालीन शासन प्रोत्साहन देता था, सहायता भी करता था। यानी चाहता था कि उन पदों को प्रचार हो। लेकिन रामलीला के बारे में ऐसा कोई अनुकूल भाव नहीं था।
नागर: लेकिन, कोई भी मुगल जमाना रहा हो, रामलीला चलती आई.
अज्ञेय: लीला होती रही, वह अलग बात है। लेकिन राज्य से उसको प्रोत्साहन मिलता रहा हो-ऐसा नहीं-पर पद गायन को तो मिला।
नागर: पद-गायान को तो शुरू से मिला। असल में तो सूरदास कीर्तनिया हैं। तुलसी की तरह वह स्वतंत्र उतने नहीं थे। पुष्टिमार्गी सेवा में उनको आठ पहर कलेऊ, इसकी-उसकी सेवा रहती-एक तरंग थी उनकी जो 'अष्टछाप' के दूसरे कवियों से उन्हें अलग करती है। यहाँ पर सूरदास अलग हो जाते हैं। लेकिन तुलसी एक समाज के रचयिता थे। वह अपनी रचना कर रहे थे, अपने समाज की रचना कर रहे थे।
अज्ञेय: एक प्रश्न और आपने सूर और तुलसी पर तो लिखा, कबीर के बारे में भी लिखने की इच्छा होती है?
नागर: इच्छा होती है। लेकिन हो क्या गया है-सिकंदर लोदी का जमाना, कबीर का जमाना और सूर का जमाना बहुत दूर नहीं है। इतिहास का पूरा जो रंग है वह तो एक-सा ही है। कबीर की बात ज़रूर लगती है-कबीर बुलाए गए थे जौनपुर-सिकंदर लोदी ने बुलवाया था-किस तरह से डटकर कबीर दोनों को गाली देते हैं-'हिंदुअन की हिंदुआई देखी, तुरकन की तुरकाई'-यानी जिस तरह से डटकर ललकारते हैं, वह अपील तो करता है।
अज्ञेय: बहिरंग में या स्थितियों में यह समानता हो भी तो कबीर का चरित्र तो बिल्कुल दूसरा है?
नागर: बिल्कुल अलग है। मन होता है। एक-आध सामाजिक उपन्यास लिख लें, फिर कबीर पर भी लिखने का जी चाहता है।
अज्ञेय: नागरजी, आपने रंगभूमि और चकल्लस का जिक्र किया। इसके अलावा भी आप पत्रकारिता में रहे और अगर रहे तो आप क्या सोचते हैं कि उपन्यासकार को उससे सहायता मिलती है या कि पत्राकारिता बाधक होती है?
नागर: पत्र तो चकल्लस भी निकाला। उसके बाद प्रसाद मासिक भी निकला। तीन अंक निकले थे। शुरू में अपने मुहल्ले का ही, अपने लोगों का क्लब था, उसके लिए बाई मंथली (सुनीति) भी निकाला। मैं यह समझता हूँ कि पत्रकारिता विशेष रूप से उपन्यासकार या कथाकार के लिए एक हद तक अनुचित नहीं होती, बल्कि सहारा देती है, इंसपायर करती है क्योंकि उसकी एक व्यवस्था है। वह हमको भी, हमारे सर्जक मन को भी व्यवस्था देती है। पं। रूपनारायण पांडेय थे। मैंने कुछ थोड़े से गुर उनसे सीखे थे कि पत्रकारिता में कैसे चीजे अरेंज करें। माधुरी के मैटर का थैला शाम को गुरुजी हमको पकड़ा जाते, कुछ आलसीपन से, कुछ उनका एक दूसरा भी था चिनिया बेगम का, उसके कारण फिर किन लेखों की कहाँ व्यवस्था हो, यहाँ तक कि कौन-से विज्ञापन ऐसे जाएँ कि अच्छे लेख के साथ न जाएँ, पीछे जाएँ-यह सब मैं करता। तो एक व्यवस्था उससे मिली। विचारों का बातों का, जानकारियों का फैताव मिलता है। सब मिलाकर मैं समझता हूँ, पत्रकारिता उपन्यासकार को प्रेरणा ही देती है, थकाती नहीं।
अज्ञेय: व्यवस्था देती है यह बात तो समझ में आई. यह भी हो सकता है कि आधुनिक उपन्यास की एक प्रवृत्ति, एक ऐसा उपन्यास चल रहा है जो समकालीन समाज की आलोचना करता है कि इसको जर्नलिस्टिक उनन्यास कहते हैं, उसमें वह सहायक भी हो सकती है। लेकिन दूसरी तरह उसके कारण साहित्यिक पत्रकारिता में, साहित्य में एक हल्कापन भी आ सकता है और फिर दूसरे साहित्यकारों से सम्बंधों पर जैसा असर पत्रकारिता का पड़ता है, उससे एक मानसिक तनाव ऐसा भी तो बन सकता है जो कि सहायक न हो।
नागर: यह बात संभव हो सकती है। दोनों ही बातें हैं। इस तरह के भी अनुभव हुए जब मैंने तनाव महसूस किया और रुपये का जो घाटा हुआ या जो कुछ भी उसमें लगाया, वह सब छोड़कर अखबार बंद कर दिया।
अज्ञेय: वह भी है और वातावरण अनुकूल बनता है या प्रतिकूल बनता है, उसका...
नागर: उसके आधार पर भी प्रभाव पड़ता है। लेकिन सब मिलाकर हमने देखा कि हमको अड़चन नहीं थी। तनाव आया। चकल्लस बंद कर दिया। खासकर सन 37-38 में साढ़े पाँच हजार रुपया लगना बात होती थी। ...तनाव होता था। आप बात सही कहते हैं। लेकिन जब तक जो खिलंदड़ा मन-मैं उसको आर्टिस्ट-वार्टिस्ट नहीं कहूँगा-जब तक कहीं पर खिलंदड़े मन को वह पंखी झलता रहता है, तो वहाँ तक मेरे खयाल में बुरा नहीं, अच्छा ही है।
अज्ञेय: आपने रंगभूमि का और चकल्लस का जिक्र किया, एक उच्छृंखल नाम का पत्र भी तो निकलता था।
नागर: रंगभूमि तो मैंने नहीं निकाला था। आपने जिक्र किया-संयोग से पहली एक कहानी उसमें छपी थी। रंगभूमि से और मतलब नहीं। चकल्लस ज़रूर निकाला था। एक और भी लाभ हुआ। चकल्लस के रचना-काल में रामविलास शर्मा (तब डॉक्टर नहीं थे) , नरोत्तम नागर थे और हम दो-दो तीन-तीन नामों से लिखते थे। अच्छा मैटर आता नहीं था तो वहीं बराबर-बराबर बैठकर लिखते थे। उसका एक मजा रहता था। उसी रौ में नरोत्तम ने उच्छृंखल का प्रस्ताव किया। किसी कारणवश वह मेरे मन को रुचा नहीं। वह फ्रायडवाद के साथ नए-नए जुड़े थे, वे और अतिरंजना कर जाते थे। वह मातृभावना को, कहीं हमारे आस्तिक मन को पिंच करता था। मेरा मन वैसा नहीं है। एक विचार या संस्कार का सौंदर्य-बोध शुरू से रहा। वह नहीं पसंद कर सका। तो मैंने मना कर दिया। उच्छृंखल नरोत्तम ने अलग से निकाला था।
अज्ञेय: अच्छा, उससे आपका सम्बंध नहीं था?
नागर: नहीं, मेरा कोई सम्बंध नहीं था।
अज्ञेय: कुछ ऐसा भी तो है कि नाम में चकल्लस और उच्छृंखल में जो अंतर है, वही आपके और नरोत्तमजी के स्वभाव में अंतर है। आप भी चुहल करते हैं और वह आपका विनोद है, दूसरों को तकलीफ देने का उद्देश्य नहीं होता, लेकिन उनका जितना मेरा परिचय था-व्यक्ति का भी और उनके काम का भी-दूसरे को कष्ट होता तो उन्हें मजा आता था।
नागर: जी हाँ, आप ठीक कहते हैं।
अज्ञेय: अच्छा, सिनेमा के बारे में आपका क्या अनुभव रहा?
नागर: सिनेमा अब तो जैसा वातावरण सब जगह है, वैसा वहाँ है। मतलब कि उखड़ाव हर एक के मन में है। हर आदमी अपनी जगह लेना चाहता है और दूसरे को ढकेलता है। वैसा वहाँ भी है। उस वक्त इतना नहीं था, था ज़रूर लेकिन इतना नहीं था। दो-तीन चीजों से हमको लड़ना पड़ा। भगवती बाबू और नरेंद्र शर्मा एक बड़ी बँधी-बँधाई और शरीफ संस्था से जुड़ गए थे, से जुड़ गए थे, वहाँ उनको वातावरण अच्छा मिला। हम जब गए थे तब यह मन में नहीं था कि हम सिनेमा में आ जाएँगे। प्रदीप चार-पाँच महीने पहले नए-नए पहुँचे थे। उनकी पिक्चर भी तुरंत लग गई थी तो सफल हो गए. मैं, प्रदीप के यहाँ गया था। प्रदीप ने अपने घर पर ठहरा लिया। वहीं पर डागा से भेंट हुई, द्वारकादास रामनाथ डागा। ये लोग पिक्चर बना रहे थे किशोर साहू को साथ लेकर। वहाँ शूटिंग-शूटिंग देखने के बहाने एक-आध जगह डायलॉग में हमने टोका-बोलचाल के रंग की बात तो आपने कही ही-तो मैंने कहा कि यह इस तरह से होता तो मजा आ जाता। उन्होंने कहा कि किशोर से कहिए. हमने किशोर से कहा। किशोर से चार-पाँच दिन में मित्रता हो चुकी थी। किशोर ने वैसा कर लिया, जैसा मैंने सुझाया था। फिर किशोर ने और द्वारका ने मिलकर तय किया, पंडित जी, तुम रह जाओ यहीं। इस तरह रह गए. उसके बाद मेरा और महेश कौल का साथ रहा। वह कुछ रेगिस्तान में नखलिस्तान की तरह से रहा। उसने मजा दे दिया। किशोर साहू अच्छे थे, लेकिन किशोर में एक खराबी थी कि वह सिर्फ़ अपने तक ही सीमित रहते थे। आपको प्रसंगवश याद दिलाऊँ होमवती देवी के 'गोटे की टोपी'। हमसे शुरू में कहा-" पंडितजी, सिनेरियो बनाया, स्क्रीन प्ले बनाया। स्क्रीन प्ले बनाने में हम लोग यानी किशोर, मैं और महेश थे। पहले की जितनी फिल्मी कृतियाँ थीं उनमें कहानी प्लॉट, प्रायः हर क्षेत्र में किशोर बोलते थे। हालाँकि कहानी-लेखन में नाम उनका ही जाता था, पर हम तीनों साथ रहते थे। यह ज़रूर रहता था कि आपस में एक-दूसरे से लड़त लेते कुछ बातें ऐसी कह देते थे कि यह ऐसे कर दो, अब ऐसा टर्न दे दो। नाटकीय क्षणों के विवेचन, हास्य कहाँ आए, करुणा कहाँ आए-यह बैलेंस करने का खेल फिल्म में सीखा। हमारे नाम से अठारह तो स्क्रीन प्ले, डायलॉग गए. दस-बारह और भी बिना नाम के लिखे। मतलब कि ठोक-पीटकर फैक्टरी चला दी। अजीब-अजीब कहानियाँ आती थीं और हमसे यह आशा करते थे कि सुथरापन दे दें। इतना ज़रूर नाम कमा लिया था। लेकिन दुख होता था, घुटन बहुत ज़्यादा होती थी... यह फायदा फिल्म से ज़रूर हुआ, भाई कि उसके बिना हम उतना पैसा न खर्च कर पाते, कुछ घूम लिए, मन की किताबें उन जमाने में खरीद लीं, इसलिए मन में पछतावा नहीं है।
अज्ञेय: लेकिन तनाव बहुत रहा!
नागर: बहुत अधिक रहा।
अज्ञेय: कोई उससे स्थायी लाभ भी हुआ।
नागर: कुछ नहीं। खाली यह कि अपना काम और सुथरा हुआ। जो तड़प थी उसमें सुथरापन कुछ और आया। ज़िन्दगी से लड़ते-हुए बहुत-सी बातें मन में आती हैं न; तो वह सुथरापन आया, लेकिन फिल्म में दुख अधिक पाया, सुख कम।
अज्ञेय: अच्छा, साहित्य में तो आपकी रुचि है ही-दूसरी कलाओं में भी आपकी कोई रुचि रही? एक तो कोई रुचि रही या नहीं, दूसरे किस और कला में रुचि होने से उसका किसी-न-किसी तरह का पूरक असर होता है साहित्य के लिए-संगीत हो, नृत्य हो, चित्रकला हो...
नागर: हुआ यह कि मेरे पिता बड़े अजीब थे। दुर्भाग्य कि उनके सब गुण हम तीन भाइयों में नहीं आए. वह बढ़ई भी थे, लुहार भी थे, मशीन भी बना लेते थे। नक्खास से लाकर। एक भाई को मैंने कैमरामैन बना दिया। एक मन वहाँ पर पूरा हो गया। उससे छोटे भाई को चित्रकार बना दिया। दोनों ने अपने-अपने क्षेत्र में तरक्की की। संगीत का शास्त्रीय ज्ञान नहीं, परंतु एक अजीब समझ है। जहाँ कहीं सुर लगता तो मन को छू जाता और अक्सर सुनने को जी चाहता। शास्त्रीय संगीत, उम्दा गाने वाला-प्योर गलेबाजी नहीं, रस के साथ-अच्छा लगता है। जैसे अक्सर सुना है हमने, रेकार्ड हैं हमारे पास पुराने-मिरज वाले उस्ताद, बड़े प्यारे हैं, 'बाबुल मेरो नैहर छूटो जाए'-नाम भूला जाता है। हीराबाई बड़ोदकर के पिता-बड़े मशहूर हैं। खैर इस तरह से सुनने का रस है। लेकिन यह नहीं कह सकता कि उनकी समझ है पूरी।
एक बहाने ने 'टीलेबाजी' का शौक ज़रूर छुटपन में। उसमें लक्ष्मन टीले के किनारे सीवर लगा तो इसमें रस लग गया। हम करीब-करीब लखनऊ जिले के जितने भी ऐसे स्थान हैं, सब घूम चुके हैं, सब घूम चुके हैं। सरकार को लिस्टें लिखकर बताई. यह एक रस लगा।
बच्चों के नाटक कराने का रस लगा। यह मेरा बहुत बड़ा रस था। सन 50 से 56 तक शहर में नाटक ही कराता घूमता था शाम के वक्त। बच्चों के सैकड़ों प्ले कराए है। बड़ों के नाटक कराए, यूनिवर्सिटी में कराए हैं। यह हमारा बड़ा शौक था।
अज्ञेय: कई तो लिखने बैठते हैं तो चाहते हैं कि कहीं पृष्ठभूमि में कुछ संगीत बजता रहे-उससे उन्हें सहारा मिलता है, या कभी-कभी संगीत सुनकर आते हैं और उससे प्रेरणा पाते हैं। लिखने से ऐसा कोई सीधा सम्बंध?
नागर: भाई, हमारा लिखने से दूसरा नाता है। जब हम लिखते हैं तब कोई ढोल बजाता रहे, हमको ढोल-बोल असर नहीं करता। बड़ी क्राउड में भी हूँगा तो हम पर असर नहीं करेगी। हम अपने में रस जाते हैं।
अज्ञेय: नागरजी, इससे पहले आपसे कुछ पुराण कथा की नई व्याख्याओं की बात हुई थी। पुराण कथा की या मिथ की। एक तो यह है कि आप ऐतिहासिक दृष्टि से उसकी नई व्याख्या करते हैं। ज़रूरी नहीं है कि उसको आधुनिक युग में लाएँ, लेकिन यह दृष्टि हो कि एक आधुनिक संवेदना पुराने इतिहास को, पुराने संदर्भ को न भूलते हुए उसे कैसे देखता है। एक हद तक यह मिशन पर तर्कबुद्धि का आरोप हो जाता है। लेकिन मिथ में अगर हम यह पहचानें कि उसमें कुछ ऐसी सच्चाई है जिसका शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता, आज भी नहीं बाँधा जा सकता, लेकिन उसकी जो सत्ता या शक्ति है, उसका आज एक नए ढंग का, दूसरी तरह का शब्दातीत उपयोग हो सकता है, तो एक मिथ दुबारा जी जाता है। मिथ की कथा को यों दोबारा लिखने को उसकी नई व्याख्या नहीं कह सकते, न यही कह सकते हैं कि वह इनका ऐतिहासिकीकरण है। वह मिथ को मिथ ही मानता है। लेकिन आपके संदर्भ में कुछ शब्दातीत और कुछ तर्कातीत सत्ताएँ एक नए रूप में दिख जाती हैं। मिथक के इस नवीनीकरण के बारें में आपकी क्या राय है?
नागर: जितने मिथ हैं उनके बारे में, आपको बताऊँ, मेरे सोचने के दो तरीके रहे। पहले वाला न बता दूँ तब तक दूसरे वाले का समर्थन करना ग़लत होगा। पहला यह है कि हम गदर के पुराने किस्से बटोरने जाते थे तो मिथ जैसी किंवदंतियाँ हमको मिलती थीं। कुछ तो तत्काल लग जाती हैं, कुछ सौ वर्ष पीछे आदमी के साथ लग जाती हैं, पुराने से पुराने के साथ भी लगती हैं। कभी-कभी यह देखा कि एक ही कहानी थोड़े-थोड़े अंतर के साथ कई लोगों के साथ लगी है यानी मिथ का अजब समाँ है। लेकिन मन में एक विश्वास शुरू में हुआ कि इसमें किसी-न-किसी प्रकार का सत्य कहीं कुछ ज़रूर रहता है। तो दिशाओं को खोजो, वह सत्य कहाँ हो सकता है; जैसे पुराणों में ज्योतिष के हैं, पुराणों में जितने विवरण हैं, वे प्रतीक हैं। पुराण में इतिहास की झलकियाँ भी हैं। चार-पाँच ढंग से हैं। जैसे भागवत् पुराण में विशेष रूप से अग्नि पुराण में इसके सम्बंध में हमको मिल गया है जिसको आप पढते हैं और गूँगे के गुड़ की तरह से मजा लेते हैं, मतलब तर्क-वर्क वहाँ नहीं लगाया जा सकता। भागवत् में तो अनेक-मान लीजिए चूहे काट रहे हैं, वह पुरखा गया है तो चूहे लगे हैं, डाल-डाल कटती चली जाती है वंश परंपरा में। दस इंद्रियों की उन्होंने एक चमत्कारी एक नई नगरी बनाई है। थोड़ी देर आप पढ़िए तो लगता है, ऐसे मिथ हमको बाहरी झलक दिखलाते हुए कहीं बहुत भीतर ले जाते हैं। वह कैसे भीतर ले जाते हैं यह हम आपको समझा नहीं सकते।
अज्ञेय: मेरा सवाल मिथक की इसी तरह की शक्ति के बारे में है। अब रामायण की कथा को आप दो सभ्यताओं के संघर्ष के रूप में भी देख सकते हैं।
नागर: बिल्कुल देखते हैं।
अज्ञेय: यह तो ऐतिहासिक दृष्टि हो जाती है। या कृष्ण को आप बिलकुल राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से भी देख सकते हैं। कैसे उन्होंने एकीकरण किया, क्षत्रियों और यादवों को मिलाया, केंद्रीय सत्ता का विस्तार किया, वगैरह। लेकिन मनुष्य के और नियति के एक दूसरी तरह के ऐसे सनातन सम्बंध हैं जिनको शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। हम पहचानते हैं कि वह रिश्ते वैसे ही हैं।
नागर: आपको मैं बताऊँ-अयोध्या मैं लगभग, कम-से-कम बीस-पच्चीस बार गया हूँगा। जब मौज आती थी तब निकल जाता था, टीले-टीले देखता था। राम की एक अयोध्या है-वह भी मेरे मन में है। उसके बारे में बहुत कुछ इधर-उधर पढ़ता रहा-कहाँ, क्या... एक राम है जो मेरा अर्जित है, इतिहास से उसका सम्बंध हो या न हो, उससे मतलब नहीं, लेकिन उसका सीधा सम्बंध मुझसे है।
अज्ञेय: एक उदाहरण समुद्र-मंथन का भी है। वहाँ ऐतिहासिक सवाल उठाना कुछ माने नहीं रखता। हाँ, सृष्टि के 'इतिहास' की बात हो तो और बात है। समुद्र-मंथन आज भी हमारे भीतर होता है। यह मिथक का दूसरा आयाम है।
नागर: देवासुर-संग्राम चलता ही रहता है। शेष एक जगह शेष। वह है। यह सही है।
अज्ञेय: नागरजी, बातचीत में पहले जिन पुस्तकों के नाम लिखे गए थे उनमें ज्यादातर ऐतिहासिक व्याख्या की बात थी। मिथ के इस पक्ष को लेकर काव्य से तो कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। उधर कवियों का ध्यान भी गया है। लेकिन क्या आप सोचते हैं कि उपन्यास में भी मिथक का यह रूप आया है या आ सकता है या आना चाहिए. या नाटक में?
नागर: आ सकता है। आया भी है। मैटलिंक के 'ब्लू बर्ड' में तो...
अज्ञेय: मैं हिन्दी की बात कर रहा हूँ, विदेशी साहित्य की नहीं।
नागर: हिन्दी में भी इसी तरह हो सकता है। हम अब तो नाटक वालों से अकसर कहने लगे हैं कि भाई, देखो, दो स्टेज मान लो, उसमें करो, हिन्दी में शौकिया रंगमंच तुम्हारे पास है, तुम्हारा पेशेवर रंगमंच तो चला गया बंबई में पारसियों के पास। तुम घाटे में हो, तो अपने यहाँ प्रयोगशील रहो ज़रूर। लेकिन बहुत से प्रयोग बिलकुल सरसरे ढंग से होते हैं। प्रयोग हों, आप कीजिए, लेकिन प्रयोग जब पच जाएँगे तभी हम उनको लेंगे। तो नाटक में तो मैं समझता हूँ कि किसी हद तक यह प्रयोग पूरी तरह सफल नहीं हो सकता, लेकिन उपन्यास में हो सकता है। अगर आपने पढ़ा हो तो मैंने एकदा नैमिषारण्ये में कई जगह ऐसा प्रयत्न करने का साहस किया।
अज्ञेय: लेकिन अगर मैं कहूँ कि उससे उलटा होना चाहिए और फिर आपकी तो औपन्यासिक दृष्टि भी है, सिनेमा में भी आपकी पैठ रही, तो क्या ऐसा नहीं सोचा जा सकता कि कुछ ऐसे यथार्थ भी हैं जो काव्य-नाटक में ही आ सकते हैं, जो उपन्यास में नहीं आ सकते?
नागर: हाँ, ऐसे हो सकते हैं। मान लीजिए, (बहुत ही मोटी बात कहूँगा) कौरवों के दरबार में द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था। हम उपन्यास लिखेंगे, बहुत सँभाल कर लिखेंगे तो उस दृश्य का प्रभाव ही खत्म कर देंगे। अगर हम उसको यथावत लिखने की कोशिश करेंगे तो वह काला रस उपजाएगा। काव्य में सँभाल ले जाएँगे। कालिदास की शकुंतला क्या है? राजा को कैसे समझाया कि तुम इस तरह का व्यभिचार बंद करो। महाभारत की स्टोरी है। लेकिन कालिदास कितने सुंदर ढंग से कह गए. काव्य में कह सकता था, सिद्धहस्त था, गुरु था, नाटकों में भी इसीलिए कह गया बड़े मजे में। हम समझते हैं कि काव्य में हो सकता है। उपन्यासकार भी कर सकता है, शायद, लेकिन मैं अभी कह नहीं सकता।
अज्ञेय: अच्छा, मैंने जो सवाल आपसे पूछे उनमें और पहले भी जो कुछ कहा है उसमें, मैंने कहीं न कहीं निहित रूप से प्रेमचंद से ही आपकी तुलना की है। कुछ चीजें तो समान दीखती हैं। किस्सागोई का उल्लेख हुआ ही था, पर कुछ चीजें बहुत स्पष्ट से असमान हैं। उनमें से कुछ का विशेष उल्लेख करना चाहता हूँ। एक बात तो यह लगती है कि समकालीन समाज को आप भी देखते हैं, प्रेमचंद ने भी देखा, लेकिन प्रेमचंद की रचनाओं में लगता है कि वह कहीं न कहीं उस समाज को बदलने की प्रेरणा भी देना चाहते हैं-यानी समाज सुधारक भी उनके उपन्यासकार में कहीं हमेशा मौजूद रहता है। आप में मुझे लगता है ऐसा नहीं। आप समाज की स्थिति सामने लाते हैं, उसमें दर्द है वह भी दीखता है, लेकिन आपका अपना उद्देश्य यह नहीं है कि उस उपन्यास के सहारे आप अपने पाठक से कहें कि तुम समाज को बदलो। वह क्या आग्रह की भिन्नता है या उपन्यास को ही आप दूसरी दृष्टि से देखते हैं, साहित्य को ही...
नागर: उपन्यास को तो कम से कम इस दृष्टि से देखना ही हूँ कि व्यक्ति की और समाज में एक मनःस्थिति का चित्र आपको दे दूँ। उसके बाद निर्णय आप करें। मैं अपना निर्णय आप पर लादूँगा नहीं। उपन्यास में, साहित्य में हम कैसे यह बँधन लगा सकते हैं। उपन्यास में या जो सर्जनशील साहित्य है उसमें तो किसी हद तक सध भी जाएगा, लेकिन आप विचारशील साहित्य में नहीं ला सकते। या केवल दोनों को देखें और फिर अपना रास्ता निकालें। कम दिखाई पड़ता है ऐसा।
अज्ञेय: साहित्य को देखने की भी तो दो तरह की दृष्टि हो सकती है। एक तो यह हो सकता है कि साहित्य सीधे-सीधे समाज को बदलने की प्रेरणा देता है और यह उपन्यासकार का या साहित्यकार का लक्ष्य है और होना चाहिए. आजकल कमिटमेंट की भी बहुत चर्चा है। दूसरी दृष्टि यह भी है, जो कि मेरी भी धारणा रही है कि सीधे-सीधे समाज को बदलना साहित्यकार का या कि साहित्य का उद्देश्य नहीं होता लेकिन साहित्य जैसी नई पहचान कराता है और संवेदना का जो एक संस्कार कर देता है, उसके कारण व्यक्ति अपने-आप समाज को बदलने के लिए प्रेरित होता है और वह प्रेरणा ठीक उसी दिशा में न होकर, किसी दूसरी दिशा में भी हो सकती है। लेकिन क्योंकि पाठक का संवेदन बदल जाएगा, इसलिए वह समाज को दूसरी दृष्टि से देखे, ऐसा तो साहित्यकार चाहेगा और उसको चाहना चाहिए. लेकिन कोई उपदेश का व्याख्यान जैसे प्रेरणा देता है-वैसा यह नहीं चाहेगा। यह साहित्य को ही दूसरी दृष्टि से देखना है। मैं यह सवाल पूछना चाहता हूँ कि आप साहित्य की और उपन्यास के बारे में किस तरह की धारणा रखते हैं।
नागर: भाई देखिए, जब मन में एक विचार उपन्यास के लिए आता है, फ्लैश आता है तो, जैसा मैंने आपसे पहले निवेदन किया था, मन में पहली बार जो स्फोट होता है उसमें एक जगह न कहते हुए भी पूरा उपन्यास आ जाता है, पहले प्रकाश में पूरा विस्तार दिखलाई पड़ता है, गूँज जाता है, कहीं पकड़ भी लेता है। उसमें कल्पना और अनुभूति दोनों चलती हैं। कल्पना के पीछे कहीं-न-कहीं मिशन आ जाता है अगर उसमें वह चेतना है, क्योंकि ग्रहण करने वाला भी तो समाज के अंदर मनुष्य है। तो उसमें आग्रह होता है। यह मेरा अनुभव रहा है। न चाहते हुए भी, भी अपनी तरफ से यह कोशिश करते हुए भी कि तटस्थ रहूँ-लेकिन ऐसा लगता है कि अनुभूति का एक रूप होता है, कल्पना उसको एक रंग दे देती है। तो वह रंग देने के लिए मैं समझता हूँ कि कहीं पर वैचारिक आग्रह या सैद्धांतिक आग्रह अलक्ष्य में लगता है, जिसको मिशनरी भी आप कह सकते हैं, यानी कमिटमेंट भी आप कहते हैं। अब कहाँ तक लगता है, कहाँ तक लगाया जाए, यह बात हो सकती है।
अज्ञेय: यह तो आपकी तरफ से स्पष्ट उत्तर नहीं हुआ या मेरा प्रश्न स्पष्ट नहीं था। आप कह रहे हैं कि वह अलक्ष्य रहता है या कि रह सकता है और आपका प्रयत्न तटस्थ होने का है। एक तो यह है कि आपका प्रयत्न तटस्थ होने का है, लेकिन क्योंकि आप उसी समाज की उपज हैं इसलिए कहीं-कहीं ऐसा आग्रह होगा। दूसरा यह है कि आप सजग और सचेत रूप से चाहते हैं कि ऐसा आग्रह हो। यानी-तटस्थता नहीं चाहते। यह तो फर्क है।
नागर: एक मोमेंट कभी होता है जब हम चाहते हैं, आरोपित करना चाहते हैं। कभी ज़रूर था, अस्वीकार नहीं कर सकता। आज नहीं है। आज आग्रह नहीं कि मैं आरोपित करूँ। आपके साथ ही घुल-मिलकर के जैसे जानना चाहता हूँ। उसमें जिसके लिए, जिस बात के लिए मैंने मिशनरी कहा था-वह एक प्रकार का कमिटमेंट है। यह प्रतिबद्धता मन के संस्कारों में इतने दिनों में क्या कलाकारों में आती नहीं है। लगता है उससे अछूता तो नहीं हूँ।
अज्ञेय: किसके प्रति प्रतिबद्धता?
नागर: यह अलग-अलग हो सकती है, मेरी है। मैं बकौल अकबर के 'अकबर नाम लेता है खुदा का इस जमाने में।' आप इसको अपने ढंग से समझ लीजिएगा। लिखते समय इस बात की जिम्मेदारी लेखक के साथ में मेरी है कि मैं राम का चपरासी हूँ, फिर जो कुछ भी खिलवाड़ करता हूँ, जो कुछ भी करता हूँ, उसको करते हुए वहाँ मुक्त होत हुए भी एक जगह मैं हूँ। यह अजीब चीज है मेरे साथ, जो बहुत गहरे में बाँध ली है। मैंने उसे चपड़ाव का नाम दे रखा है।
अज्ञेय: कबीर ने तो और भी ज़्यादा कहा है-'मैं तो कूता राम का' कहा है।
नागर: कहीं एक जगह यह तो जाता है। बहुत अरसे पहले सन 45 की बात है, मन में यह आ गया कि लिखने के लिए यहाँ आए हो, जैसा मन आए वैसा करो, जैसे भी रहो जो करना है करो-बाल बच्चेदार हो, बारह आना समझौता कर लोगे, पर कहीं खींचतान करके चवन्नी तुम्हारी ही है। यह शुरू से साफ रहा है। उसमें बहुत-सी अड़चनें आईं, पर भगवान की कृपा से रहीं नहीं। यही होता है मेरे खिलंदडे मन के साथ भी क्योंकि वह बँधा नहीं है।
अज्ञेय: यह फर्क तो फिर भी रहा कि एक यह मैं हूँ और ऐसा ही मैं रहूँगा, या यह मेरी मूल्य-दृष्टि है, यह हैं नहीं बदलता हूँ और एक यह कि इसके साथ आप 'खुदाई फौजदारी' जोड़ दें कि तुमको ऐसे सोचना होगा...
नागर: यह बहुत मुश्किल है। मैं इस तरह से नहीं कहता हूँ। आप कहें, बताएँ कि मैंने जबरदस्ती यह कहा हो कि तुमको ऐसे सोचना है।
अज्ञेय: मैं तो ऐसा नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मैं तो समझता हूँ कि ऐसा आपने नहीं किया। लेकिन इसके बारे में आपने स्पष्ट।
नागर: मैं बहुत स्पष्ट हूँ। आप किसी को किसी विचार से दबा नहीं सकते प्रेरित करना तो दूसरी चीज है। लेकिन आप चाहें कि यही हो...
अज्ञेय: मैंने यह सवाल इसीलिए पूछा कि प्रेमचंद के बारे में मेरी धारणा यह है-सही या ग़लत-कि काफी अरसे तक मनोभाव ऐसा था कि लोग समाज को, सामाजिक स्थितियों को, बुराइयों को उन्हीं की दृष्टि से देखें और अंतिम दिनों में वह खुद इससे ऊपर उठें।
नागर: ठीक बात है। मैं समझता हूँ, यह ठीक बात है।
अज्ञेय: अच्छा, एक बात और पूछना चाहता हूँ। अपने समकालीन समाज की एक चेतना होती है साहित्यकार में, जिस समाज में जीता हूँ वह ऐसा है। वह तो उपन्यासकार के लिए अनिवार्य है। लेकिन उससे अलग समकालीन साहित्य की भी चेतना होती है कि आज ऐसा लिखा जा रहा है और साहित्यकार या तो उससे अपने को अलग करना-चाह सकता है या उसके साथ अपने को जोड़ना चाह सकता है। इस बारे में आप कुछ कहेंगे?
नागर: भाई, यह सही बात है कि साहित्यकार अपने समय, समाज और साहित्य के साथ जुड़ना चाहता है। साहित्य में आप कह सकते है कि शुरू में बहुत प्रभाव पड़ते थे सीधे-सीधे। अब आपकी अनुकंपा से, भगवती की कृपा से उस स्टेज से बहुत आगे निकल गया हूँ। तो प्रभाव बयार की तरह बहुत-सी चीजों के डोलते हैं, यही नहीं होता कि वह भीतर जाकर कहीं छुए. बहुत कम ऐसी बात होती है जो तड़ से लग जाती है और काफी अरसे तक भीतर जमी रहती है।
बहुत कम ऐसा होता है। लेकिन समय का भी कहीं प्रभाव पड़ता है। मैं समझता हूँ कि इनको 'कहियत भिन्न न भिन्न' मानता हूँ, लेकिन साहित्य का और समाज का-ये अलग-अलग दो प्रकार के प्रभाव नहीं पड़ते-मेरा ऐसा खयाल है।
अज्ञेय: उपन्यास में यह बात उतनी स्पष्ट न होती हो, काव्य में तो बहुत ज़्यादा हो जाती है। कुछ लोग तो एक समकालीन काव्य-धारा से जुड़े हुए रहना चाहते हैं और उसके साथ जुड़े रहते हुए भी अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व तो स्थापित करना चाह सकते हैं। ऐसी भी हो सकता है कि कुछ लोग उस धारा से जुड़े हुए न हों और उनको इस बात को लेकर कष्ट हो कि मैं कहीं अकेला पड़ता जा रहा हूँ। काव्य में तो यह बात बहुत स्पष्ट आ जाती है। आज आप देख ही सकते हैं कि बहुत से लोग इस धारा के साथ जुड़े रहना चाहते हैं और कुछ हैं जो जुड़े हुए नहीं हैं और उनमें यह भी देख सकते हैं कि उन्हें इस बात को लेकर कुछ तकलीफ है कि हम अकेले पड़ रहे हैं। उपन्यास में आपने अपने समय के उपन्यासकारों को देखा तो कभी इस तरह की कोई बात आपके सामने आई. एक तो यह होगा कि 'लोग ऐसा लिख रहे हैं, मेरा लिखना इससे अलग है या कि होना चाहिए और पहचाना जाना चाहिए.' एक यह है कि मैं तो...
नागर: कि मैं किसी धारा में बह करके लिखता जाऊँ!
अज्ञेय: या कि 'मैं तो अकेला पड़ गया' ?
नागर: नहीं, अकेलेपन की समस्या इसीलिए नहीं आती है कि उससे जोड़ने के लिए मेरे पास साहित्य से अधिक पुष्ट साधन हैं। अपने समाज में बहुत गहरे रूप में, आस-पास से खूब जुड़ा रहता हूँ। उनके सुख-दुख, शादी-ब्याह, सभी बहुत सहज भाव से सबसे जुड़ा हुआ हूँ। छोटा हो, बड़ा हो। तो यह सशक्त माध्यम चौबीस घंटे रहता है। वहाँ अलग या अकेलापन तो कभी महसूस नहीं किया। कभी-कभी ऐसा लगता है... खैर, बहुत-से ऐसे काम मैं करने गया था। कभी आपको बताऊँगा, पर एक काम था-सुचेता कृपलानी तब चीफ मिनिस्टर थीं, उस जमाने में हिन्दी के साथ अंग्रेज़ी को जोड़ने का भी कुछ कानून बनाया जाने वाला था। हमने सोचा कि हम अनशन करेंगे और घोषित किया। फिर यह देखा कि 'यहाँ चढ़ जा बेटा सूली पर, भली करेंगे राम' कहने वाले तो बहुत होते हैं, पर खुद आगे नहीं आएँगे। पहली बार हमको झटका लगा कि हम व्यावहारिक नहीं हैं। एक ने हमसे कहा, "पंडित जी, आप जो चाहो करो, पर एक नौकर रख लो जो तुम्हें पानी वगैरह दे सके." तब हमको लगा, इसके पीछे कितनी व्यवस्था चाहिए. व्यवस्था तो हर काम के लिए करनी होती है, पर यह व्यवस्था खलने वाली होती है। मैं एक काम कर रहा हूँ, उसमें बहुत से लोगों का बल लेकर नहीं चला, तो करूँगा क्या! हवा देने वाले बहुत-से होते हैं, लेकिन काम करने को नहीं होते। खैर, संयोग से लाज रखनी थी भगवान को-और क्या कहूँ-खाली अनशन की धमकी से ही काम निकल गया और बात रह गई. ...वहाँ हमको पहली बार अनुभव हुआ अकेलेपन का। ऐसा अकेलापन हमको साहित्य में अभी तक नहीं मिला। उसका कारण है। देखिए, सीधी बात है, बिल्कुल आपके सामने ही कह रहा हूँ-कितने हैं जिनको आपके लेखक से विरोध है और उनके साथ बैठकर भी मैं एक बात बिलकुल सीधी-साफ कहता हूँ, "तुम्हारा वैसा मन हो सकता है, पर एक आर्टिस्ट के नाते, एक सर्जक के नाते मैं जानता हूँ कि मुझे वह व्यक्ति कितना इंसपायर करता है।" अनेक प्रकार के विरोधों के बावजूद मैं अपने मिलने के पॉइंट बहुत इकट्ठे कर लेता हूँ। कुछ सहज स्वभाव है या कि कहिए शुरू से आदत पड़ी हुई है। इसकी वजह से अकेलापन मैंने कभी नहीं अनुभव किया।
अज्ञेय: वैसे, दूसरे साहित्यकारों में, जो आज लिख रहे हैं, उनमें तो बहुत चर्चा है।
नागर: खूब है।
अज्ञेय: आपने अपने शुरू के प्रभावों में या पहले जो साहित्य पढ़ा उसमें बहुत-से लोगों के नाम लिखे थे। तोल्सतोय का नाम तो आपने लिया था, लेकिन कहा कि बहुत देर से पढ़ा। कब पढ़ा और क्या अच्छा लगा?
नागर: तोल्सतोय की सबसे पहली चीज हमने पढ़ी थी, ऐना केरेनिना। पुस्तक मंदिर से उसका हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित हुआ था। ऐना केरेनिना फिर अंग्रेज़ी में पढ़ी। तोल्सतोय की कहानियों ने भी हमको बहुत प्रभावित किया। उनमें कई चीजें देखीं। उनमें लगता था कि कैसे वह एक प्रतीक उठा करके बड़ी बात को रसमय बनाकर कह लेते हैं। ...बाल्ज़ाक का प्रभाव था, वह चित्रण बहुत गहरा करते हैं। बाल्ज़ाक के बाद आ करके डिकेंस में हमें वह मिला। वह पूरा चित्र खींचता है एक तरह से। डेविड कापरफील्ड पढ़ा था बहुत अरसा पहले, लेकिन अभी तक मेरे मन पर उसका प्रभाव है। चेखोव की कहानियों ने भी बहुत प्रभावित किया। वार एंड पीस तोल्सतोय की हमने पढ़ी-करीब-करीब सन 40-41 में और पढ़ी ही नहीं, खूब घोखी। एक और भी पढ़ा-सन 39-40 में जॉयस का यूलिसिज। वह बहुत नीरस ढंग से पढ़ा। लेकिन एक मित्र का साथ मिल गया था। महेश कौल का हमारे फिल्म में जाने के बाद नाता इसीलिए गहरा हुआ कि महेश अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ते थे। यहाँ (लखनऊ में) रामविलास शर्मा थे। रामविलास से बहुत शेक्सपियर सुना। जो नहीं जाना उसके लिए किसी-न-किसी का सहारा ले लेता हूँ। आज तक यह आदत छोड़ी नहीं।
अज्ञेय: आपने जितने साहित्यकार पढ़े, प्रत्यावलोकन करते हुए आपको उनमें से कौन-कौन से खास तौर से बड़े साहित्यकार लगते हैं?
नागर: तोल्सतोय मेरे मन में बहुत बड़ा है। उसके प्रति मन में बहुत श्रद्धा है। वह बहुत बड़ा है। वह लेखक से बढ़कर संत हो जाता है। एक अजीब चीज है उसमें। लेखक तो बहुत बढ़िया है ही। इतनी सादगी के साथ वह बात को लिखता है जो वाकई कमाल की बात है। वैसे तो सभी अपनी जगह पर हैं, तुर्गेनेव अपनी जगह पर है। चेखोव उनसे अधिक गहरे लगते हैं। दोस्तोएवस्की में ऐसा कि कहीं विकृत मन में डूब जाते हैं। उनका ईडियट पढ़ा था, याद है, क्राइम एंड पनिशमेंट पढ़ा था और हाँ, द ब्रदर्स कारामोजोव... अलेकजेंडर कुप्रिन का यामा द पिट पढ़ा था-इसके बारे में प्रेमचंद से सुनकर आया तभी उसके बाद खरीदा और पढ़ा। हिन्दी में छपे हुए उपन्यास करीब-करीब सभी पढ़े-पुराने, नए, बहुत पुराने भी।
अज्ञेय: आपने जब 'ये कोठेवालियाँ' लिखी तब यामा द पिट या प्रेमचंद जी के सेवासदन की कोई स्मृति या कि छाप आपके मन पर थी?
नागर: नहीं। वह पढ़े हुए थे। असल में क्या था-1949-50 में हुई कल्चरल कांग्रेस। तो (तत्कालीन) राष्ट्रपति राजेंद्रप्रसाद ने वहाँ पर अपने भाषण में कहा कि एक बार चाहता था कि इंटरव्यू उन बहनों का हो, कोई लेखक यह काम कर दे। हमारे मित्र रुद्रनारायण शुक्ल थे दिल्ली में-वह उस वक्त ब्लिट्ज़ के संवाददाता थे। उन्होंने वह खबर छपने को दे दी। यहाँ तक ही नहीं, प्रोग्राम भी बनाकर पी.टी.आई. से फ्लैश करवा दिया कि यहाँ-यहाँ यह जाएँगे। जब घोषित हो गया तब हमने कहा कि यह ग़लत बात है। उसके बाद हमने स्वीकार कर लिया। ये कोठेवालियाँ लिखते समय कोई प्रभाव की बात नहीं थी। एक और उपन्यास भी पढ़ा था हाउस ऑफ द लास्ट। ऐसा कुछ नाम था-अच्छी-खासी किताब थी और भी बहुत-सी थीं...
अज्ञेय: अच्छा, आप अपने समकालीनों की रचनाएँ पढ़ते हैं या कि उनको पढ़ने से बचते हैं।
नागर: बिल्कुल पढ़ता हूँ। छोटों को भी पढ़ता हूँ, बड़ों को भी पढ़ता हूँ, बराबर वालों की भी पढ़ता हूँ।
अज्ञेय: जो नए साहित्यकार आज लिख रहे हैं उनमें क्या बात आपको विशेष मार्के की लगी है?
नागर: नए साहित्यकारों में दो तरह के लोग नजर आते हैं। एक जो अपने सर्जक मन की प्रेरणाओं से लिखने के लिए वास्तव में मशगूल हैं, दूसरे वह जो फैशन में चलते हैं। जो फैशन में लिखते हैं, उनकी चर्चा करने की ज़रूरत नहीं, लेकिन जो सचमुच लिखने की प्रेरणा से आगे बढ़कर लिखते हैं वैसे भी कई हैं। जैसे भीष्म साहनी का 'तमस' मुझे अच्छा लगा, काफी हद तक। एक-आध शिकायत भी है, कुछ कैरेक्टर्स छूट गए, आगे नहीं बढ़ पाए, लेकिन बहुत अच्छा लगा। एक 'जुगलबंदी' भी मुझे काफी अच्छा लगा गिरिराज किशोर का। बाद में उसका विवाह नहीं हो पाया, लेकिन अच्छा लगा था। नरेश मेहता का 'यह पथबंधु' और 'उत्तर कथा' हमको अच्छा लगा। आप कह सकते हैं कि वह अपने समाज को देखने की कोशिश कर रहे हैं, उनके मन के समझने की कोशिश कर रहे है, उनके मन को कहीं शायद आगे बढ़ने का संकेत भी दे रहे है। 'तमस' के बारे में यह कह सकता हूँ, लेकिन जुगलबंदी के बारे में यह बात नहीं कह सकता। लेकिन यह तो कहा जा सकता हैं-पं। जगदंबाप्रसाद दीक्षित-उनका है। मछली-नहीं, मुर्दाघर (मछली वाला तो बेचारा मर गया, कोई था चौधरी। मछली वाले से यह मुर्दाघर मुझको अच्छा लगा।) मुर्दाघर में कहीं पर ऐसा लगा कि ये चित्र मेरे भी जाने-पहचाने हैं। यह लगता है कि उसमें कहीं जान है, वह लिखने के लिए लिख रहा है, फैशन में नहीं लिख रहा है। यह बात दूसरी है कि यह कितना फैशन से प्रभावित है, कितना बात से, यह आप आँकें, मुझे इसमें दिलचस्पी नहीं। हाँ, 'हुजू़र दरबार' गोविंद मिश्र का है, यह भी अच्छा लगा।
यह नहीं कि नए (उपन्यास) जो आए हैं, अच्छे नहीं हैं, ऐसा नहीं है कि हम आप कहीं इस समय बिलकुल रेगिस्तान से जा रहे हैं, कहीं-न-कहीं हरियाली फूटती नजर आती हैा राह अभी तो पूरे देश को नहीं मिल रही, तो एक बेचारे कलाकार का क्या दोष!
अज्ञेय: उपन्यास में यथार्थ को देखते हैं। जैसे-जैसे उपन्यास का विकास होता गया, हम देखते हैं कि यथार्थ को देखने की दृष्टि भी कुछ बदलती गई. घटनाओं का कम देखते थे, या जो पारस्परिक रिश्ते हैं उन्हीं की बात करते थे, फिर कुछ यह प्रवृत्ति बढ़ी कि मानवीय सम्बंधों के पीछे जो उनके आर्थिक आधार हैं, सामाजिक आधार हैं, उनकों टटोलें, या एक आभ्यंतर जगत् में प्रवेश करके एक दूसरे स्तर पर मानवीय सम्बंधों की बात सोचें। आपका किस पर जोर है, या नए उपन्यासों में किस चीज की तलाश करते हैं, आप, किसको महत्त्व देते हैं?
नागर: आपकी बात को थोड़ा-सा अपने ढंग से बढ़ाकर कहूँ। उपन्यास, उपन्यास विधा, अगर जिएगी तो उसको बाहर के जीवन से तो जुड़ना ही पड़ेगा। लेकिन मनुष्य के अंतरंग से अधिकाधिक परिचित होना पड़ेगा। यानी उपन्यास के सर्जन के क्षण और मोटे तौर पर उसके लिए दूसरा शब्द अच्छा नहीं मिलता-अध्यात्म के क्षण (क्योंकि 'दर्शन' तो काफी व्यापक शब्द हो जाता है) -सर्जन के क्षण और अध्यात्म के क्षण एक जगह पर जुदा नहीं रहेंगे। अगर उपन्यास की विधा रहती है, उस रूप में सशक्त रहती है, नहीं तो वह क्लासिकी चीज हो जाएगी। आज अच्छी नीति की बात कहिए तो बहुत-से लोगों को-आज आप और हम बराबर देखते हैं। उन्हें उससे चिढ़ उत्पन्न होती है। कम्यूनिस्ट की बात नहीं, जिसका वैसा कोई लगाव नहीं उसके मन में चिढ़ होती है नैतिकता से, सौंदर्यबोध से। क्यों चिढ़ होती है? क्योंकि ऐसे वातावरण में वह रहता है कि ये सब बातें उसको मिथ-सी लगती हैं, अविश्वसनीय। ऐसे व्यक्ति को यह सब नहीं छुएगा। लेकिन उपन्यास यदि जिंदा रहेगा तो इसी मुद्दे पर जिंदा रहेगा कि वह अंततः भीतर को खोलता है, अपने-आपको 'एनलाइज' करने का मौका देता है। इसलिए वह तो रहेगा, उसी सीमा तक रहेगा, इससे अधिक नहीं बढ़ेगा। उसमें उपन्यासकार ने ढील दी तो वह बहुत 'ही क्लास' की चीज हो जाएगा। मेरा अपना विश्वास है कि क्रमशः यह होगा।
अज्ञेय: अच्छा, उपन्यास के भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं?
नागर: मैंने आपसे निवेदन किया, अब लोग उपन्यास पढ़ने से अधिक सुनने के जमाने में आ गए हैं। अब कैसेट लगा लेते हैं, वीडियो लगा लेते हैं, देखते हैं, सुनते हैं।
अज्ञेय: आप सोचते हैं कि जहाँ तक उपन्यास का सवाल है, हम फिर उस किस्सागोई वाली सामाजिक स्थिति में आ जाएँगे?
नागर: ढाई सौ पेज के उपन्यास भी आज के पाठक को बड़े लगते हैं। यानी वह कहानी ही अधिक लेगा, उपन्यास कम लेगा।
अज्ञेय: लेकिन तथ्य तो यह नहीं है। प्रकाशक भी ऐसा नहीं समझते कि कहानी ज़्यादा बिकती है। वे तो यही जानते हैं कि उपन्यास...
नागर: देखिए, इस समय उपन्यास बिक रहा है, हिन्दी में बिक रहा है। यह सही बात है। अधिकतर लोग जो बाहर से आते रहते हैं मुझसे अक्सर पूछते हैं कि आपके यहाँ कितने बिकते हैं। अधिकतर आप देखिए, रूस को छोड़कर, बाकी बाहर का लेखक वर्ग जो है, वह किसी-न-किसी संस्था से सम्बद्ध हैं तब वे जीते हैं, उपन्यास के बल पर नहीं जीते। यहाँ हम ज़रूर कहेंगे कि इस समय हिन्दी में वह स्थिति है। आज मुझको हिन्दी नोन-रोटी से पालती है बाइज्जत, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। लेकिन मेरा अपना खयाल है कि यह स्थिति ज़्यादा दिन नहीं रहेगी।
अज्ञेय: लेकिन आज भी कहानी का प्रचार उपन्यास से ज़्यादा तो नहीं है?
नागर: कहानी का प्रचार मैगजीन में है। किताबें खरीदने की तरफ... हमसे विश्वनाथजी (राजपाल एंड संज के) एक बात कह गए कि आगे कौन-सा उपन्यास कैसे आएगा? उपन्यास ज्यादातर ऐसे आ रहे हैं कि छाप दिया तो बेचना मुश्किल हो रहा है। अगर इस तरह से लिखेंगे तो मुश्किल हो जाएगा और प्रकाशक उसको छोड़ता जाएगा। जब तक बिकते हैं और कुशवाहा कांत और गुलशन नंदा नहीं बनते, उपन्यास की हैसियत बनी रहती है वैचारिकता की, कलात्मकता की, तब तक तो बस न्यारी है। लेकिन यह कितने दिन रहेगा, यह सोचना पड़ रहा है।
अज्ञेय: क्या आप इससे यह परिणाम निकाल रहे हैं कि भविष्य में रेडियो या वीडियो पुस्तक का स्थान ले लेगा?
नागर: मेरा अपना खयाल है कि पुस्तकें तो रहेंगी, लेकिन पुस्तकों को पढ़ने वाला बहुत ही सीमित क्लास हो जाएगा। मुझे ऐसा लगता है कि अभी जो पुस्तकें पढ़ते हैं उनमें से आधे को वीडियो और कैसेट छीन लेंगे, क्योंकि उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिनकी अच्छा सुनने की तबीयत है, अच्छा देखने की तबीयत है। लेकिन कौन पढ़ेगा? लगा लिया, सुन लिया, मजा ले लिया।
अज्ञेय: भाषा का संस्कार अभी जिस तरफ जा रहा है उससे और इससे तो बिलकुल विरोध है, क्योंकि भाषा के बारे में लोग बहुत उदासीन हो रहे हैं जबकि पुरानी वाचिक स्थिति में तो ऐसा बिलकुल नहीं था। लोगों के बड़े सधे हुए कान थे।
नागर: आज तो कान-आँख से ज़्यादा नाक पहुँची हुई है। अपने बचपन की छोटी-सी बात बताऊँ। हमारे ग्रैंड फादर मुहर्रम का जुलूस देखने जाते थे। उसमें कितनी हरी झंडी थी, कितनी पीली झंडी थी, कितने ऊँट थे, कितने हाथी थे-इसमें भी मजा आता था, लेकिन घर जाकर वह सब गिनते थे। अच्छा श्री अरविंद की एक पुस्तिका नेशनल सिस्टम ऑफ एजुकेशन में एक बड़े मजे की बात बताई गई है कि सेंसेज की ट्रेनिंग हमारे यहाँ होती ही नहीं। हम कितना सुनते हैं, देखते हैं।
अज्ञेय: यह तो शिक्षा ही खत्म होती जा रही है। ऐंद्रिय संवेदनों की तो...
नागर: हुल्लड़ का जमाना जहाँ तक रहेगा वहाँ तक पढ़ाई खत्म हो जाएगी, सुनाई ज़्यादा हो जाएगी। उसके बाद एक फिर जमाना आएगा, पढ़ाई होगी। दृष्टि से अक्षर का योग अधिक होता है बनिस्बत श्रव्य के, यह ठीक बात है; और वह हुल्लड़ में नहीं हो पाता। हद है कि दो-ढाई सौ पृष्ठ के उपन्यास को आप 'बड़ा उपन्यास' कहें। लोग तो चाहते हैं कि सौ-सवा सौ सफे में बात आ जाए, खत्म हो जाए.
अज्ञेय: जहाँ तक रेडियो और वीडियों की बात हैं, टी.वी. से यह तो संभव है कि किताब आपके लिए दृश्य रूप में सामने आ जाए. शायद आप उसको मन-ही-मन पढ़ेंगे तो ज़्यादा तेजी ग़्रहण कर सकेंगे। श्रव्य से ज़्यादा महत्त्व दृश्य अक्षर का रहेगा।
नागर: निश्चित रूप से। लेकिन अभी तो 'केआस' का बड़ा भारी तूफान है। मैंने आपसे कहा कि एक क्लास रहेगा जो पढ़ने वाला रहेगा। स्थायी रूप से नहीं। दृष्टि और अक्षर का जो नाता है वह लैला-मजनूँ का होता है, जिससे पढ़नेवाले कम-से-कम होते चले जा रहे हैं। अभी तो फिलहाल सुनेंगे, देखेंगे। ठीक है। लेकिन वह जो अंतरंग नाता है इस समय तो एक क्लास का है जाएगा, छोटे-से क्लास का हो जाएगा, बहुत अधिक व्यापक नहीं होगा। ऐसा मेरा अपना अनुमान है।
अज्ञेय: नागरजी, अभी आपका पीछे देखने का समय तो नहीं आया है, अभी तो आगे ही देखने का समय है। लेकिन प्रौढ़ता का एक पक्ष तो है कि आदमी जो कुछ लिखता रहा है, उसका थोड़ा-बहुत पुनर्मूल्यांकन करता चलता है। आप कभी पहला लिखा हुआ देखते हैं तो आपको लगता है कि कोई अनिवार्यता थी कि आप उपन्यासकार ही बनते, या कि ऐसा लगता है कुछ भी बन सकते थे, कुछ और भी कर लिया होता?
नागर: भाई, मैंने शायद कल भी आपसे कहा था। एक ही दिशा और हो सकती थी। मैं डायरेक्टर या एक्टर या मास्टर हो सकता था, लेकिन उपन्यासकार बने बिना दूसरी और कोई गति ही नहीं थी मेरी। जिस तरह से मन में उमड़ रहा था अकेले में, जैसे बातें करते हुए, अभिनय करते हुए शुरू में 6-7 वर्ष तक अकेलापन ज़्यादा रहा, बहुत दिनों तक ऐसा रहा कि मित्रो से कम भेंट हो पाती थी, बाहर जाना कम होता था। लखनऊ का वह जमाना दूसरा था। कायदा था कि चिराग घर पर जले। स्थिति ही दूसरी थी। यों अक्षरों से दोस्ती हो गई. उस दृष्टि से मैं समझता हूँ कि उपन्यासकार...
अज्ञेय: उस स्थिति में तो कवि बनने की ज़्यादा संभावना थी नहीं...?
नागर: अब नहीं बना तो उसके कारण भी हो सकते हैं। चारों तरफ बहुत से किस्से सुनता था, गदर के किस्से बहुत सुनता था उस जमाने में। पूरा मुहल्ला था, तरह-तरह के चरित्र आते थे। अब मैं कह नहीं सकता कि मैं कवि क्यों नहीं बना। ढैया छुई ज़रूर वहाँ पर। मैं प्रोज ही लिखता था। उस समय कवि-गोष्ठिया़ँ अधिक होती थीं, इसलिए मैंने कविताएँ शायद लिख दी थीं, लेकिन गद्य से ही जुड़ा रहा।
अज्ञेय: अच्छा, नागरजी, उस समय का लखनऊ खास तौर से बड़ा अतीतजीवी शहर रहा होगा, कहना चाहिए आज भी है और शहरों की अपेक्षा और यह जो गदर के किस्से वगैरह आप सुनते थे उससे आपके मन में एक तरह का 'नौस्टल्जिया' ज़रूर रहा होगा। मेरे भी बचपन के कुछ वर्ष तो लखनऊ में बीते ही-मुझे याद है कि लोग जब गुजरे हुए जमाने की या गुजिश्ता लखनऊ की याद करते थे तो एक स्वर्णकाल की-सी कल्पना करते थे। वह कितनी सच थी इस बात को छोड़िए, लेकिन उसके साथ रिश्ता कुछ इसी तरह का था। तो आपने भी जो ये किस्से सुने उसमें भी कुछ इसी तरह का मनोभाव रहता होगा। आप पर उसका कितना असर पड़ा?
नागर: लखनऊ के किस्से तो सुनता रहा और ब्रिटिश राज्य को आए उस समय तक पचास एक वर्ष हुए होंगे सन 1857 ई. से सन 1924-25 ई. तक। तो माहौल नवाबी था। वही किस्से सुनाई पड़ते थे। फिर और बड़े हुए तो आशिक और माशूक के किस्से सुने। बचपन में क्यों चिराग घर पर जलें, क्यों बाहर नहीं जाने दिया जाएगा, कहीं जाएँगे तो बुड्ढा नौकर साथ जाएगा, बाद में इसका अर्थ भी समझ में आने लगा। इस लखनऊ में ऐसे कठोर प्रतिबंध क्यों लगाए गए, यह समझ में आने लगा। लखनऊ का गंदा रूप भी देखा, लखनऊ का सुखद रूप भी देखा। जितना भाईचारा आपको यहाँ मिलेगा, उतना कहीं नहीं मिलेगा। यह ज़रूर था कि बचपन में ऐसे मुसलमान सुने जो अच्छे-अच्छे हिंदुओं के मुँह पर अपना बड़प्पन दिखला देते थे; हिंदू क्या कर सकेंगे, इस तरह के कह जाते थे। लेकिन आमतौर से हिंदू-मुसलमानों का नाता उम्दा था, बहुत अच्छा था-होली-दिवाली मिलते थे। आप देखिए, हम यह जानते हैं कि मुसलमानों के यहाँ लड़कियाँ मुहर्रम में विदा नहीं होंगी। आजकल कोई नहीं जानेगा। बहुत-सी ऐसी चीजें हैं। लखनऊ में उस समय बिलकुल घुलाव-मिलाव था, इसमें कोई शक नहीं और यह अच्छा लगता था। नाकारा भी था-खोटी बातें भी थीं-बहुत काफी तादाद में वह भी था। लेकिन गिरावट के लखनऊ पर जो उपन्यास शुरू किया था-चार-पाँच चैप्टर लिखकर रह गया, 'खुदा का घर'-उसमें एक ऐसे परिवार की लड़की है जो अच्छे घर की है। वसीका भी मिलता है। खानदान के बँटते-बँटते उसके माँ के पास और वह मजबूर है बहुत-से काम करने के लिए. उनके दलाल अलग होते थे। वह रंग भी देखा, कैसे अच्छे घरों की लड़कियों आर्थिक दृष्टि से मजबूर हो दूसरी तरफ जाने लगीं। लखनऊ का वह रंग भी देखा। ...यह ज़रूर था कि इश्क-हुस्न का माहौल उस लखनऊ को ज़रूर मिला देता था। विलासिता में हिंदू-मुसलमान एक हो जाते थे। उसका एक पक्ष यह भी होता है। कि जहाँ उदात्तता में एक होते हैं वहाँ गिरावट में भी एक होते हैं।
अज्ञेय: तो आपके बचपन में पुराने के प्रति जो एक आकर्षण था, व्यामोह की जो स्थिति थी आप सोचते हैं कि जब भी है?
नागर: अब नहीं है। अब वह कोठे नहीं हैं, हुजुर तो वह कहाँ!
अज्ञेय: लेकिन उसके साथ रागात्मक ...
नागर: अब नहीं है। आपको बताऊँ, एक छोटा-सा उदाहरण दूँगा। विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक' का 'माँ' अपने जमाने में बहुत प्रसिद्ध उपन्यास था। हमने किसी एक लड़के से कहा कि विश्वंभरनाथ कौशिक की 'माँ' पढ़ो। कहानी सीधी-सादी है, लेकिन वह आकर्षण, वह बात जो साथ चली आई है कि अमीनाबाद में सवारियों के लिए आवाज लगाते हैं 'चले आइए चौक के इश्क में'-वह रंग तो है नहीं। वह बात नहीं रही।
अज्ञेय: नागरजी, आपने हमारी बातचीत के आरंभ में अपनी पहली रचना, एक तुकबंदी का उल्लेख किया था। वह आपको याद है क्या?
नागर: नहीं। एक-आध लाइन याद है-'कब लौं यहाँ लाठी खाया करैं... कब लौं जेल सहा करिए...' आखिर है-'अमरित पर ईश दया करिए.' (सवैया)
अज्ञेय: आपने ऐसे बँधे हुए छंद और भी लिखे हैं?
नागर: कुछ लिखे उस समय लेकिन ध्यान नहीं। कुछ कवि-गोष्ठियाँ होती थीं। उनको बैठकर सुना। उस ललक में, शुरू में आग बढ़ने की ललक में कुछ लिखा, पर हमारा दिमाग प्रोजाइक टाइप का था।
अज्ञेय: प्रोजाइक टाइप क्यों कहते हैं? बतरस के जैसे आप शौकीन हैं उसको प्रोजाइक टाइप तो नहीं कहना चाहिए? अच्छा, एक बात आप अपनी तरफ से बताइए. आप क्या सोचते हैं कि कोई ऐसा सवाल हो सकता था जो मुझे पूछना चाहिए था, जो मैंने नहीं पूछा?
नागर: नहीं, आप तो खोद-खोदकर पूछते रहे हैं। हम तो आपसे सच बताएँ, दो दिन से मैंने अपने मन को बिलकुल छोड़ दिया था कि कुछ नहीं सोचूँगा। ध्यान दो तरह के होते हैं...
अज्ञेय: मैं इसलिए पूछ रहा हूँ कि कभी-कभी ऐसा होता है कि लेखक अनुमान करता है कि यह सवाल मुझसे पूछा जाएगा या इस सवाल का जवाब मैं देना चाहता, अगर कोई पूछता।
नागर: ऐसा कुछ नहीं। आप तरह-तरह के अलग-अलग कोनों में हमको घुमाते गए, खोजते गए, हम खोजते गए, हम भी आपके साथ-साथ में घूमते गए मजा भी आया और अच्छा लगा।
(अभिरुचि, अगस्त-नवंबर 1981)