सृजन और रचना-कौशल: सुकेश साहनी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सृजन और रचनाकौशल पर 'अपनी बात' लिखते हुए प्रसिद्ध कथाकार रमेश बतरा याद आ रहे हैं। उनकी प्रत्येक लघुकथा आज भी मॉडल के रूप में प्रस्तुत की जाती है। लघुकथा के सन्दर्भ में उन्हें जो कहना होता था, अपनी लघुकथाओं के माध्यम से कहते थे।लघुकथा के शास्त्रीय पक्ष को लेकर लिखे गए उनके लेखों की संख्या सीमित है। लघुकथा के वर्त्तमान परिदृश्य में विषय वैविध्य और प्रयोग की दृष्टि से सुकेश साहनी ने अलग पहचान बनाई है, वह भी लघुकथा पर स्वतंत्र आलेख लिखने में कृपणता बरतते हुए अपनी बात लघुकथाओं के माध्यम से करते दिखाई देते हैं। इन परिस्थितियों में समय-समय पर उनके द्वारा व्यक्त विचार अतिमहत्त्वपूर्ण और सहेजने योग्य हो जाते हैं। इस दृष्टि से प्रस्तुत पुस्तक बहुत ही मूल्यवान् हो जाती है।

पुस्तक में प्रस्तुत सुकेश साहनी के लेखों को मुख्यत: 4 भागों में बाँटा जा सकता है-1 लघुकथा के रचनात्मक पहलू पर विचार और मन्तव्य 2 विभिन्न विषयों पर केन्द्रित लघुकथाओं की गुण-धर्म के आधार पर समालोचना, 3 कथादेश की वार्षिक लघुकथा प्रतिगोगिता में निर्णीत रचनाओं के माध्यम से सृजन-प्रक्रिया और रचना कौशल पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ, 4 स्थापित कथाकारों की चुनिंदा लघुकथाओं की गुण-दोष पर आधारित समीक्षा।

अपनी सृजन-प्रक्रिया और सम्मेलनों में पढ़े गए अपने आलेखों में सुकेश साहनी ने लघुकथा-विषयक अपने व्यावहारिक अनुभव और सार्थक विचार प्रस्तुत किए, जो लघुकथा-जगत् (पुरानी और नई पीढ़ी) दोनों के लिए सदा निर्णायक और अकाट्य सिद्ध हुए. मंचों पर इनके विचारों को गम्भीरतापूर्वक लिया गया और अपनाया गया।

विषयों के आधार पर सम्पादित संग्रहों में रचनाओं का चयन सुकेश साहनी का है। इनमें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की लघुकथाएँ, महानगर की लघुकथाएँ और देह व्यापार की लघुकथाएँ प्रमुख हैं। इन संग्रहों के अग्रलेख किसी आम पाठक से लेकर शोधार्थियों तक के लिए बहुत ही रोचक, ज्ञानवर्धक और उपयोगी हैं। यह 1992-1994 का वह दौर था, जब लघुकथा उपेक्षित थी और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थी। अन्तर्जाल जैसे माध्यम नहीं थे। केवल प्रकाशन एकमात्र सहारा था। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों का अवगाहन करके साहनी जी ने विषय वैविध्य की दृष्टि से इन संग्रहों का सम्पादन करके लघुकथा की रचनात्मक शक्ति, व्यापक सामाजिक दृष्टि और साहित्य के क्षेत्र में गम्भीर अवदान को प्रस्तुत किया। एक ओर विषयानुरूप विभिन्न आयामी रचनाओं का चयन और सम्पादन (निर्ममतापूर्वक) करके लघुकथा की शक्ति और व्यापकता को उजागर किया। दूसरी ओर सस्ता साहित्य मण्डल के यान्त्रिक अनुवाद से हटकर ख़लील जिब्रान का पूरा पारायण करके उनकी कथाओं का 'ख़लील ज़िब्रान की लघुकथाएँ' नाम से किया गए सर्जनात्मक एवं साहित्यिक अनुवाद की प्रस्तुति की, जिसने हिन्दी-जगत् को समृद्ध किया। कथा के सन्देश और कथारस को ग्रहण किए बिना किसी कथा का शब्दश: अनुवाद करना यान्त्रिकता है। अच्छा अनुवाद अपने आप में एक सर्जन है। इस लेख में सुकेश साहनी ने विशेष रूप से उन लघुकथाओं का उल्लेख किया है, जो आज भी प्रासंगिक है और जिनसे गागर में सागर भरने की तकनीक सीखी जा सकती है।

कथादेश मासिक द्वारा आयोजित लघुकथा-प्रतियोगिताएँ लम्बी यात्रा तय कर चुकी हैं। विभिन्न निर्णायकों के साथ सुकेश साहनी भी इसके एक निर्णायक रहे हैं। अपने दो टूक अभिमत के माध्यम से साहनी जी ने लघुकथा का जो व्यावहारिक रूप प्रस्तुत किया है, वह सचमुच अनुकरणीय है। निर्णीत लघुकथाओं का सांगोपांग विवेचन सर्जन की बारीकियों को उजागर करता है, साथ ही उस रचना-कौशल के झरोखे भी खोलता है, जिससे रचना को संजीवनी मिलती है। लघुकथा के निष्पक्ष रचनाकारों ने इन लेखों में किए गए सांगोपांग विवेचन को खूब सराहा है। सुकेश साहनी द्वारा किया गया यह विवेचन गरिष्ठ साहित्यिक विवेचन से कोसों दूर है। इसका आधार बनी हैं अपनी कमियों और विशेषताओं से युक्त प्रतिभागियों की रचनाएँ। बिना रचना के हवाई सिद्धान्त कभी कारगर नहीं हो सकते। शास्त्रीय सिद्धान्तों की यही सबसे बड़ी कमज़ोरी है। रचनाओं के गुण-दोष पर गहन विश्लेषण से व्यावहारिक सर्जन के द्वार खुलते हैं। इन लेखों में प्रस्तुत किया गया दृष्टिबोध लघुकथा के सर्जन-पक्ष के साथ उसके नित्य परिवर्तित और विधा के रचना-कौशल की सूक्ष्मता को भी रेखांकित करता है। स्पष्टतया कहूँ तो इन लेखों के माध्यम से सुकेश साहनी ने लघुकथा जगत् में फैली अराजकता, फ़ेसबुकिया आपा-धापी, अखबारों द्वारा रचनात्मक उपेक्षा और नासमझ रचनाकारों के बड़बोलेपन की भी खबर ली है। रचनात्मक-मंथन को आधार बनाकर किया गया विश्लेषण ही व्यावहारिक होता है। कोरी शास्त्रीयता से विधा का कोई हित नहीं हो सकता।

राजेन्द्र यादव और रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की कुछ चुनिंदा लघुकथाएँ और डॉ श्याम सुन्दर 'दीप्ति' के संग्रह की भूमिका के रूप में आपने अपने विचार बेवाकी से प्रस्तुत किए. आपने विशेषताओं के साथ कमियों की भी बेझिझक निशानदेही की।

जो लेखक लघुकथा को अपने लेखन की प्रिय और समर्थ विधा बनाना चाहते हैं, उनके लिए यह पुस्तक दैनन्दिन स्वाध्याय का ग्रन्थ बन सकती है।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

05-06-2019