सृजन के आलोक में लघुकथाओं की तलाश / सुकेश साहनी
ऐसे लेखकों की कमी नहीं है; जो कसम खाकर रोज एक लघुकथा लिखने का दावा करते हैं। कुछेक ने तो इसी अंदाज में नित्य प्रति लिखते हुए विभिन्न विषयों पर संग्रह भी प्रकाशित करा लिये हैं। इस तर्ज पर हो रहे यांत्रिक लेखन को लघुकथा की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है?
आकारगत लघुता, लघुकथा की विशेषता है, दोष नहीं। लघुता के कारण कोई रचना सशक्त नहीं हो पाती तो दोष रचनाकार का है। कुछ लेखक लघुता के कारण इसे आसान विाा समझकर यांत्रिक लेखन करने लगे हैं। लघुकथा लेखकों को आकारगत लघुकथा के मायाजाल से बचना होगा। लघुकथा में एक या दो घटनाओं वाले कथानक आदर्श होते है। कभी–कभी संयोगवश लेखक के सामने दोनों घटनाएँ कुछ ही पलों में घट जाती है और पलक झपकते ही मुकम्मल रचना का जन्म हो जाता है। यहाँ दूसरी घटना, पहली घटना की पूरक होती है और उसे मायने (दृष्टि) देती है। पुरस्कृत लघुकथाओं में अभ्यास (एस.एन.सिंह) को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। यदि कथाकार इस संयोग आधारित रचना प्रक्रिया को आदर्श मानकर लघुकथा की आकारगत सीमा तय कर लेगा तो उन कथानकों के साथ न्याय नहीं कर सकेगा; जिनके लिए लम्बी सृजन–प्रक्रिया की ज़रूरत होती है।
भूपिन्दर सिंह की 'रोटी का टुकड़ा' याद आ रही है, जिसमें भोले–भाले बच्चे का प्रश्न, "माँ, एक टुकड़ा उनके घर का खाकर क्या मैं भंगी हो गया?" माँ के हाँ कहने पर बच्चा फिर पूछता है, "और काकू भंगी हमारे घर पर पिछले दस सालों से रोटी खा रहा है तो वह क्यों नहीं 'बामन हो गया।" इस लघुकथा में हम देख सकते हैं कि रचनाकार द्वारा कच्चे माल के रूप में ग्रहण किया गया एक संवाद एक मुकम्मल रचना के सर्जन के लिए पर्याप्त है। ऐसी रचना अपने कांटेंट के कारण सराही भी जाती है। इसी श्रेणी में द्वितीय पुरस्कार प्राप्त लघुकथा' टूटे बटन' (शुभा श्रीवास्तव) का उल्लेख किया जा सकता है–"महत्त्वपूर्ण क्या है? पाँच मीटर का सलवार कुर्ता, टूटा बटन या फिर ...निगाहें?" यहाँ राधा के मस्तिष्क में कौंधा प्रश्न गली मुहल्लों दफ्तरों में प्राय: देखी जाने वाली घटना को मायने देता है।
अनेक ऐसी रचनाओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं, जहाँ बिजली की कौंध की तरह मुकम्मल रचनाएँ खुद लेखक तक आती है या जीवन यात्रा में अकस्मात् वह उन्हें पा लेता है; लेकिन यह भी सच है कि किसी भी लघुकथा लेखक के जीवन में कुछ ही क्षणों में जन्मी ऐसी रचनाओं की संख्या बहुत सीमित होती है।
साहित्य की दूसरी विधाओं की तरह लघुकथा का जन्म लम्बी सर्जन–प्रक्रिया के बाद होता है। सर्जन–प्रक्रिया से गुज़रे बिना हम मुकम्मल रचना नहीं दे सकते, भले ही हमारा हाथ समाज की नब्ज़ पर हो। सर्जन के लिए लम्बी तैयारी और साधना की ज़रूरत होती है। लेखक की साधना की आँच से पककर जन्मी लघुकथाओं का प्रभाव पाठक के मन पर स्थायी रहता है और वह उसे लम्बे समय तक याद रहती है। प्रतियोगिता हेतु प्राप्त रचनाओं के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में सृजित लघुकथाओं की संख्या नगण्य ही है। ऐसी लघुकथाएँ जिनमें रचयिता के तप के ताप को महसूस किया जा सके, यदा कदा ही देखने को मिलती हैं। जल्दबाजी में लिखी गई आधी अधूरी रचनाएँ ही बहुतायत में दिखाई देती हैं।
किसी लघुकथा के सर्जन में बरसों भी लग सकते हैं। चुटकियों में लघुकथा लिख लेने वालों को इस पर हैरानी हो सकती है। लघुकथा की ओर प्रवृत्त नई पीढ़ी को इसे समझना होगा। यहाँ अपना अनुभव साझा करने से पूर्व स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं यहाँ किसी उत्कृष्ट या कालजयी रचना का जिक्र नहीं करने वाला हूँ। फोकस इस बात पर है कि किस तरह एक लघुकथा लिखने में वर्षों लग सकते हैं और इसके लिए रचनाकार को धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए. वर्ष 1989 की बात है। मैं मेरठ में पदस्थापित था। सुबह सोकर उठता तो रोज ही एक तोता मेन गेट पर आकर बोलता, "जल्दी उठो...गेट खोलो!" लखनऊ जाना हुआ तो मैंने वैसे ही बात–बात में माँ को उस तोते के बारे में बताया। माँ ने हँसते हुए कहा, "तोते तो तोते, जो पढ़ाओं पढ़ जाते हैं।"
उन्होंने आगे बताया, "मैं दूध लेने जाती हूँ, अब्दुल ग्वाले का तोता 'अल्लाह हो अकबर' बोलता है।"
बात आई–गई हो गई. मेरा तबादला बरेली हो गया। उन दिनों अयोध्या विवाद चर्चा में था। भगवा ब्रिगेड और उनके कार सेवकों ने नमस्कार की जगह 'जय श्री राम!' बोलना शुरू कर दिया था। उनके जय श्री राम के पीछे जो बल काम कर रहे थे, उसके चलते मैंने कभी भी प्रत्युार में जय श्री राम नहीं कहा। मुलायम सिंह के कार्यकाल में अयोध्या कूच करने वाले बहुत से कार सेवक मारे गए. दूर दराज से कारसेवक के रूप में आए उन युवकों के बारे में जानकर मन बहुत दुखी हुआ। पहली बार मुझे तोतों का ध्यान आया; लेकिन इस पर कभी लघुकथा लिखूँगा, तब नहीं सोचा था।
6 दिसम्बर 1992 की बात हैं। बाबरी मस्जिद ढहाई जा रही थी। अखबारों ने अपने विशेष बुलेटिन निकाले थे। टीवी पर लाइव टेलीकास्ट हो रहा था। बाजा़र बंद हो गए थे। दहशत में लोगों ने खुद को अपने घरों में कैद कर लिया था। हर जगह अफरा–तफरी का माहौल था। मैं पेपर लेने बाहर निकला तो भगवा चोला पहने मेरे पड़ोसी उत्तेजना में चिल्लाए, "जय श्री राम!" मैं खिन्न था और गहरी सोच में डूबा हुआ था, पर न जाने किस शक्ति के पराभूत मेरे मुँह से निकल पड़ा, "जय श्री।"
उनका उत्साह दूना हो गया, "जय श्री राम, हो गया काम (यानी मस्जिद ढहा दी गई)" मैं हैरान था कि मेरे मुँह से वह उद्घोष कैसे निकला, जिससे मुझे चिढ़ थी। इस घटना ने फिर मुझे तोतों की याद दिला दी। माँ के शब्द भी याद आए, "तोते तो तोते, जो पढ़ाओ पढ़ जाते हैं।"
उस दिन मुझे लगा थोड़ी देर पहले मैं आदमी से तोता हो गया था, न चाहते हुए भी तोतों की जमात में शामिल हो गया था। विचार जन्मा–दंगों के दौरान एक आम आदमी कब कैसे तोते में तब्दील हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। मुझे इस विषय पर लघुकथा लिखनी है, उसी क्षण तय हो गया था। पर रचना को मुकम्मल करने में मुझे दो वर्ष और लगे। रचना का समापन कैसे करूँ यह नहीं सूझ रहा था। कुछ समय बाद एक घटना और जुड़ी मुहल्ले के बच्चे एक अध्यापक को तोता–तोता कहकर चिढ़ा रहे थे। बस यहीं लघुकथा का समापन सूझ गया। इस तरह इस लघुकथा की सर्जन प्रक्रिया में 6 वर्ष लगे। प्रस्तुत है लघुकथा–
भंडारे का समय था। मंदिर में बहुत लोग इकट्ठे थे। तभी कहीं से एक तोता उड़ता हुआ आया और मंदिर की दीवार पर बैठकर बोला, "अल्लाह–हो अकबर...अल्लाह–हो–अकबर..."
ऐसा लगा जैसे वहाँ भूचाल आ गया हो। लोग उोजित होकर चिल्लाने लगे। साधु–संतों ने अपने त्रिशूल तान लिए. यह खबर आग की तरह चारों ओर फैल गई, शहर में भगदड़ मच गई, दुकानें बंद होने लगीं, देखते ही देखते शहर की सड़कों पर वीरानी–सी छा गई.
उधर मंदिर–समर्थकों ने आव देखा न ताव, जय श्री राम बोलने वाले तोते को जवाबी हमले के लिए छोड़ दिया।
शहर रात भर बंदूक की गोलियों से गनगनाता रहा। बीच–बीच में अल्लाह–हो–अकबर और जय–श्री–राम के उद्घोष सुनाई दे जाते थे।
सुबह शहर के विभिन्न धर्मस्थलों के आस–पास तोतों के शव बिखरे पड़े थे। किसी की पीठ में छुरा घोंपा गया था और किसी को गोली मारी गई थी। जिला प्रशासन के हाथ–पैर फूले हुए थे। तोतों के शवों को देखकर यह बता पाना मुश्किल था कि कौन हिंदू है और कौन मुसलमान, जबकि हर तरफ से एक ही सवाल दागा जा रहा था–कितने हिंदू मरे, कितने मुसलमान? जिलाधिकारी ने युद्ध–स्तर पर तोतों का पोस्टमार्टम कराया जिससे यह तो पता चल गया कि मृत्यु कैसे हुई है परंतु तोतों की हिंदू या मुसलमान के रूप में पहचान नहीं हो पाई.
हर कहीं अटकलों का बाज़ार गर्म था। किसी का कहना था कि तोते पड़ोसी दुश्मन देश के एजेंट थे, देश में अस्थिरता फैलाने के लिए भेजे गए थे। कुछ लोगों की हमदर्दी तोतों के साथ थी, उनके अनुसार तोतों को ' टूल बनाया गया था। कुछ का मानना था कि तोते तंत्र–मंत्र, गंडा–ताबीज से सिद्ध ऐयार थे, यानी जितने मुँह उतनी बातें।
प्रिय पाठक! पिछले कुछ दिनों से जब भी मैं घर के बाहर निकलता हूँ, गली मुहल्ले के कुछ बच्चे मुझे " तोता! तोता! ' ...कहकर चिढ़ाने लगते हैं, जबकि मैं आप–हम जैसा ही एक नागरिक हूँ (हंस, मई, 1995)
प्रथम पुरस्कार प्राप्त मानुस गंध (सरोज परमार) में रचनाकार के सर्जन श्रम को महसूस किया जा सकता है। नपे तुले शब्दों के माध्यम से एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त वृद्धा की पृष्ठभूमि का मार्मिक चित्रण हुआ है। हत्या / लूट के इरादे से घर में घुसे लुटेरे को देखकर ममतामयी चेहरे पर फैली कर्णचुम्बी मुस्कराहट आज लुप्त प्राय: हो रही मनुष्यता (मानुस गंध) की वापसी का आह्वान करती है।
ट्रेन में भीख माँगने वाले बच्चों और गिटार वाले डेली पैसेंजर की दुर्लभ जुगलबंदी से उत्पन्न 'जीवन संगीत' को अखिल रायजादा की लघुकथा में सुना जा सकता है।
लघुकथा में प्रयोग की असीम संभावनाएँ हैं। कहानी की–सी विराट शक्ति निहित है। इसे हरि मृदुल की तिल में देखा जा सकता है।
गंतव्य (धर्मेन्द्र कुशवाहा) मशीनीकरण की दौड़ में शामिल भावी पीढ़ी पर आसन्न संकट को बहुत प्रभावी ढंग से पेश करती है।
फांस (हरभगवान चावला) , पेड़ (दिनेश सिंहल) , बरसी (के.एस.एस.कन्हैया) , कुाा (चंदर सोनाने) , नासमझ (के.पी. सक्सेना ' दूसरे) , जैसी रचनाओं को, विषय पुराने होने के बावजूद, सोद्देश्य एंव प्रभावी प्रस्तुति के लिए रेखांकित किया जा सकता है।
सॉरी, डियर चे (महेश शर्मा) , बीच का रास्ता (गौतम) विषय वस्तु में नवीनता के कारण ध्यान खींचती हैं। प्रस्तुति और प्रभावी हो सकती थी यदि अनावश्यक विस्तार से बचा जाता।
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