सृजन कोई मशीनी कार्य नहीं / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' से कुसुम शर्मा की बातचीत
1-आप हिन्दी साहित्य की बहु विधाओं में लेखन करते हैं, आप इनका एक साथ कैसे समायोजन करते हैं?
हिमांशु: समायोजन हर प्राणी के जीवन की प्रवृत्ति है। दिनभर हम बहुत सारे काम करते हैं। बहुत से लोगों से व्यवहार करते हैं। जीवन को सुगम बनाने के लिए हम मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप आचरण करते हैं। विभिन्न विधाओं में रचना करते समय, उस विधा के स्वरूप, मानदण्ड का ध्यान रखते हुए यह सब सम्भव है। अभ्यास से सब सम्भव है।
2. रचना करते समय ऐसी क्या कुछ बातें हैं, जिनसे आप दूरी बनाना चाहते हैं?
हिमांशु: नकारात्मक सोच, तनावग्रस्त करने वाले व्यक्ति और कारकों से स्वयं को दूर रखना पड़ता है। सर्जन एक पावन कार्य है, जैसे भोर में स्नानादि करके धूप-दीप जलाकर पूजा करना। सर्जन के द्वारा दूसरों को कुछ देना है, उनसे कुछ छीनना नहीं। रचना के माध्यम से भले ही और कुछ न दे पाएँ, बस एक हल्की-सी मुस्कान होंठों पर थिरक जाए, तो सर्जन सार्थक हुआ।
3. आपके विचार से लघुकथा हिन्दी साहित्य की कैसी विधा है?
हिमांशु: हिन्दी साहित्य की विधाएँ सभी महत्त्वपूर्ण हैं, कोई छोटी-बड़ी नहीं। विधा की प्रभवविष्णुता ही उसको महत्त्वपूर्ण बनाती है। नए-पुराने समर्थ लेखकों की रचनाओं ने उपेक्षित विधाओं को भी ऊँचाई प्रदान की है। लघुकथा आज विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का महत्त्व भाग बन गया है। यह इसका सशक्त प्रमाण है। सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के बी. ए. , मध्य प्रदेश के महाविद्यालयों में बी. ए.ऑनर्स के पाठ्यक्रम में स्वतन्त्र प्रश्न-पत्र के रूप में लघुकथाएँ सम्मिलित की गई हैं।
4. आप किसी विधा विशेष में किसी क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करना उचित समझते हैं कि साधारण हिन्दी भाषा का?
हिमांशु: क्षेत्रीय भाषा और बोली तो रचना का प्राणतत्त्व है। इनके बिना कोई भाषा जीवित नहीं रह सकती। क्षेत्रीय भाषा और बोली वे जलधाराएँ हैं, जो भाषा-रूपी गंगा को और अधिक समृद्ध बनाती हैं। जो भाषा जितने शब्द क्षेत्रीय भाषा और बोली से ग्रहण करेगी, वह जनमानस के उतने ही निकट रहेगी। मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि हमारी क्षेत्रीय भाषाओं के मुहावरे और लोकोक्तियाँ भाषा की रीढ़ हैं। हमारी क्षेत्रीय भाषा और बोलियों के शब्दों की जो सामर्थ्य है, वह भारी भरकम भाषा के किसी पर्याय में नहीं मिलेगी।
5. लघुकथा में पात्रों का चयन अथवा नामकरण आप किस आधार पर करते हैं?
हिमांशु: पात्रों का चयन कथा की प्रकृति के अनुरूप करना होता है। पात्र का परिवेश, व्यवहार, प्रकृति मिलकर ही उसे वास्तविक रूप प्रदान करते हैं। उसके संवाद, उसके जीवन-अनुभव सब एक-दूसरे में अनुस्यूत होते हैं।
6. क्या कभी विभिन्न रचनाकारों की विधा विशेष की रचनाएँ आपस में मिलती-जुलती होती हैं?
हिमांशु: एक ही विषय पर दो लेखकों के विचार एक जैसे हो सकते हैं। कुछ तात्कालिक घटनाएँ होती हैं, जो अलग-अलग संवेदनशील व्यक्ति को समान रूप से उद्वेलित करती हैं। प्रस्तुति में अन्तर होता है; क्योंकि प्रस्तुति लेखक का अपना व्यक्तित्व होता है। शैली का यही अन्तर एक जैसे विषय पर लिखने वाले दो व्यक्तियों की रचना में अन्तर करता है। मेरी लघुकथा 'ऊँचाई' की पिछले 11 वर्ष में बहुत बार चोरी हो चुकी है। प्रस्तुति के कारण हर बार कोई न कोई सजग पाठक इस चोरी को पकड़ लेता है।
7. व्यंग्य विधा की रचना करते समय आप किस क्षेत्र विशेष के नज़दीक / क्षेत्र विशेष से दूर रहना चाहते हैं?
हिमांशु: व्यंग्य की रचना करते समय दूरी नहीं, निकटता आवश्यक है। हम जिस व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति के जितना अधिक निकट होंगे, उतना सही लिख सकेंगे। कल्पना के माध्यम से हम व्यंग्य में निखार भले ही ले आएँ; लेकिन उसे विश्वसनीय बनाने के लिए सूक्ष्म पर्यवेक्षण और व्यक्ति / परिस्थिति से निकटता आवश्यक है।
8. बालकथा का सर्जन करते समय क्या कुछ विशेष सावधानियाँ बरतने की आवश्यकता होती है?
हिमांशु: बच्चों के लिए लिखना सर्वाधिक कठिन है। बाल मनोविज्ञान की जानकारी होनी चाहिए। आप किस अवस्था के बच्चे के लिए लिख रहे हैं, उसका परिवेश क्या है, उसका पारिवारिक जीवन किस तरह का है? परिवार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति कैसी है? जो सात साल के बच्चे की भाषा हो सकती है, 12 साल के बच्चे की भाषा उससे भिन्न होगी। उसका अवबोध भी अलग होगा। भालू-बन्दर और गुड़िया पर लिखने का युग चला गया। नवीन परिस्थियों से साक्षात्कार करना पड़ेगा। उसी के अनुरूप रचना-कर्म करना होगा।
9. आपके विचार से एक अच्छे साहित्यकार में क्या-क्या गुण होने चाहिए?
हिमांशु: साहित्यकार को समाज और मानवता का हित-चिन्तक होना चाहिए। प्रसिद्धि के लिए ऐसा कुछ न लिखें, जिससे सामाजिक विघटन हो, मानव-कल्याण अवरुद्ध हो। जो निरन्तर एक दूसरे की टाँग खींचने में लगे हैं, समाज को फूहड़पन परोस रहे हैं, एक-दूसरे के लेखन से ईर्ष्या रखते हैं, वे कुछ भी हों, साहित्यकार तो नहीं हैं।
10. आप बालकथा, लघुकथा या व्यंग्य लिखते समय कैसी भाषा का प्रयोग करना उचित समझते हैं?
हिमांशु: जिस विधा की जैसी विषयवस्तु होगी, वैसी भाषा का प्रयोग करना पड़ता है या यों कहिए विषयवस्तु अपनी अभिव्यक्ति के अनुरूप भाषा का स्वयं अनुसन्धान कर लेती है।
11. आपकी राय के अनुसार बाल साहित्य का मुख्य उद्देश्य क्या होना चाहिए?
हिमांशु: हित-साधन किसी भी साहित्य का विशिष्ट उद्देश्य है। अच्छा बाल साहित्य वही है, जो बच्चों में सही समझ और संस्कारों का बीज वपन कर सके। बच्चे को मिट्टी का लोंदा नहीं समझना चाहिए। उसके भी अपने जन्मजात और अर्जित संस्कार हैं। बच्चे को 'कोरी स्लेट' कहकर अवैज्ञानिक स्थापना करना अनुचित है।
12. बालकथाओं के लिए पात्रों का चयन आप किस आधार पर करते हैं?
हिमांशु: कथा के विकास में पात्र की जैसी भूमिका होती है, उसी के अनुरूप पात्रों का चयन करता हूँ।
13.आपके द्वारा बहुविधाओं में रचना करना मात्र संयोग है, या सोच विचार कर उठाया गया कदम?
हिमांशु: मन को जो अच्छा लगा, अन्तःप्रेरणा से जो उपजा, वही लिखा। सोच-समझकर या योजना बनाकर साहित्य-सृजन नहीं होता।
14. आप स्वयं शिक्षा- जगत् से जुड़े हैं, क्या आपको लेखन के दौरान इससे लाभ मिलता है?
हिमांशु: शिक्षा-जगत् हो या अन्य कोई क्षेत्र, उससे लेखक के अनुभव उर्वर होते हैं। उसका लाभ उसे मिलता है; लेकिन यह तभी सम्भव है, जब उसमें सूक्ष्म पर्यवेक्षण की क्षमता और गहराई से समझने के प्रति उसका रुझान हो।
15. आपको किस विधा विशेष की रचना करने के पश्चात् सर्वाधिक आत्म संतुष्टि मिलती है?
हिमांशु: विधा तो सन्तान की तरह है। किसी भी विधा की रचना हो, सर्जन का सुख सभी में मिलता है; भले ही वह 17 वर्णों में सीमित हाइकु ही क्यों न हो।
16. लघुकथा लिखते समय आप अपना ध्यान लघुकथा के प्रारंभ में, मध्य में या अंत में, किस पर अधिक देते हैं?
हिमांशु: लघुकथा के समग्र स्वरूप पर ध्यान दिया जाता है। गाड़ी चलाते समय आपको सामने से आने वाले पर जितना ध्यान देना होता है, उतना ही पीछे से आने वाले पर भी दृष्टि रखनी पड़ती है। इससे भी आगे बढ़कर कहूँ; जो ग़लत ढंग से गाड़ी चला रहे हैं, उनसे भी स्वयं को बचाना पड़ता है। गाड़ी के संचालन में ब्रेक, स्टियरिंग, स्पीड सभी का सन्तुलन बनाना अनिवार्य है। कोई भी प्रक्रिया महत्त्वहीन नहीं है। प्रारंभ, मध्य औरअन्त किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती
17. क्या आप लघुकथा या अन्य विधाओं में किसी विशेष वर्ग को ध्यान में रखकर लिखते हैं?
हिमांशु: मैं लघुकथा या किसी भी विधा में वर्गवाद के किसी खूँटे से नहीं बँधा हूँ। मेरे लिए सबका महत्त्व है। वर्ग की संकीर्ण दृष्टि साहित्यकार की संवेदना को नष्ट करती है।
18. क्या लघुकथा / व्यंग्य / बालकथा, लिखते समय आप अनुच्छेद या शब्दों की सीमा लगभग पहले से निश्चित कर लेते हैं?
हिमांशु: सर्जन में ऐसे खाँचे या साँचे सम्भव नहीं। सृजन कोई मशीनी कार्य नहीं कि इनमें बँधकर लिखा जाए। विषयवस्तु अपना स्वरूप स्वय निर्धारित करती है। लेखक को विधा की समझ हो, यह आवश्यक है। साहित्य नहर नहीं, नदी है, जो अपनी प्रकृति के अनुसार प्रवाहित होती है।
19. आप साहित्य के भविष्य के बारे में कुछ कहना पसंद करेंगे?
हिमांशु: साहित्य सदा रहा है, सदा रहेगा। इसका कारण हैः मानवता रहेगी, तो साहित्य भी रहेगा। सच्चा साहित्य त्रिकालदर्शी होता है। जो सही रूप में रचेगा, वही बचेगा। जो लोग साहित्य के नाम पर कुण्ठाएँ परोसते हैं, कम से कम वे नहीं रहेंगे। बाढ़ का पानी उतरने पर कीचड़ पड़ी रह जाती है, निर्मल जल आगे बढ़ जाता है, किसी पिपासु कण्ठ की प्यास बुझाने के लिए।
20. आप हिन्दी चेतना का सम्पादन कर रहे हैं। आपके लिए किस प्रकार के रचनाकार महत्त्वपूर्ण हैं?
हिमांशुः मेरे लिए अच्छी रचना महत्त्वपूर्ण है। चाहे वह किसी स्थापित लेखक की हो या नवोदित की। मेरे कहने का आशय है-अच्छी रचना ही रचनाकार का मापदण्ड है।
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12-07-2025