सृजन संसार का अजब-गजब रंग / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 20 जून 2014
'जॉनी मेरा नाम' और 'गीता मेरा नाम' जैसी सफल फिल्मों के लेखक के.आर. नारायण 'गाइड' के लेखक आर.के. नारायण के भाई नहीं हैं। बहरहाल के.आर. के लिखने का ढंग अजीब था। वे मुंबई से मद्रास और मद्रास से मुंबई की गाड़ी में फस्र्ट क्लास का एक केबिन बुक करते थे जिसमें अपने सहायक और एक चाकर के साथ सफर के दरमियान पटकथा लिखते थे। इस यात्रा के एक सप्ताह में पटकथा कमोबेश पूरी हो जाती थी। संभवत: उन्हें चलती रेलगाड़ी की रिदम प्रेरणा देती थी। वे बड़े स्टेशनों के प्लेटफार्म पर चहल-कदमी भी करते थे, शायद आम आदमी में अपने किरदार खोजते थे।
लेखकों के लिखने और संगीतकारों के माधुर्य रचने के तौर तरीके अजीब होते हैं। बिस्मिला खान साहेब बाबा विश्वनाथ के आंगन में सुर साधना करते थे। सृजनकार कोई खास टेबल, पेन या कागज पर ही लिख सकते हैं। कुछ लोग पहाड़ों पर जाते हैं, कुछ के लिए कोई शहर प्रेरणादायक होता है। दरअसल, ये सृजनधर्मी लोगों के टोटके हैं जैसे पहली शतक जिस शर्ट या अंडरवियर पहन कर लगाया, उसे ही धोकर हर बार बैट्समैन खेलना चाहता है। अवाम के बीच अपने को अंधविश्वास और कुरीतियों से मुक्त घोषित करने वालों के भी व्यक्तिगत जीवन में टोटके, गंड़े ताबीज होते हैं। वामपंथी कलाकार भी रंगमंच को प्रणाम करके अपनी प्रस्तुति देता है। विज्ञान का छात्र परीक्षा पूर्व हनुमान चालीसा दोहराता है।
इन्हें टोटके इसलिए कहते हैं कि सृजन तो नदियों की तरह पहाड़ का सीना फाड़कर निकलता है। रांगेय राघव छाती के बल लेटकर एक कोहनी पर उठंग मुद्रा में लेखन करते थे। ताराशंकर बंदोपाध्याय अलस भोर लिखने बैठते और विचार नहीं आने तक कागज पर रामनाम लिखते थे। शैलेन्द्र ने सिगरेट पैकेट पर मुखड़ा लिखा था 'जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां' और वाशरूम से लौटे राजकपूर ने मुखड़ा देखा, शैलेंद्र जा चुके थे। उन्हें क्या पता था कि शैलेंद्र कुछ ही दिनों में समय की नदी के उस ओर जाने वाले हैं। सृजन संसार एक अजब-गजब संसार है। हमारे महानतम कबीर को कभी कागज, स्याही की आवश्यकता नहीं हुई। सत्यजीत रॉय कागज के दाहिने ओर दृश्य का रेखाचित्र बनाते थे। संसद में नेहरू बहस सुनते हुए अपने सामने रखे कागज पर अजीबोगरीब रेखाएं खींचते थे। जयशंकर प्रसाद गंगा के तट पर विचारहीनता के निपूते क्षणों में दंड़ बैठक लगाते थे। सआदत हुसैन मंटों मित्रों के बीच गजल पढऩे की तरह गालियां देते हुए अफसाना सोच लेते थे।
अर्नस्ट हेमिंग्वे एक छोटे से अविकसित द्वीप पर घर लेकर लिखने बैठे। खबर मिली एक क्षतिग्रस्त जहाज का माल नीलाम हो रहा है। वे सारी शराब खरीद कर लाए और आधी से अधिक बोतलें वहां के निवासियों को भेंट दे दी। कुछ समय बाद अभावग्रस्त उसे क्षेत्र में गोरी चमड़ी वालों के खिलाफ हिंसामय क्रांति हुई परंतु हेमिंग्वे एक मात्र गोरे थे जिन्हें नहीं मारा गया, उनलोगों ने मुफ्त शराब जो पी थी। शराबी शायर मुफ्त में ही बदनाम होते हैं। कासिफ इंदौरी के एक शेर का आशय कुछ ऐसा था कि 'सरासर गलत है मुझपे इल्जाम ए बलानोशी का, जिस कदर आंसू पिए हैं, उससे कम पी है शराब'।
फिल्मी पटकथा लेखक प्राय: निर्माता के खर्च पर महीनों फाइव स्टार हॉटल में कमरा लेते हैं, लिखने के लिए। वातानुकूलित कमरों में अय्याश जीवन शैली में आम गरीब आदमी का फसाना लिखा जाता है। करण जौहर प्राय: लंदन या न्यूयॉर्क में बैठकर लिखते हैं, इसीलिए उनकी फिल्मों में भारत कम नजर आता है और उनके अनचाहे ही चुटकी भर भारत उनकी नजर बचाकर घुसपैठ कर लेता है। विष्णु खरे का मुंबई फ्लैट चार शयन कक्ष वाला है परंतु वे लेखन के लिए अपने जन्म स्थान छिंदवाड़ा चले गए हैं। विष्णु खरे ने कमसिन उम्र में स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर टी.एस.इलिएट की 'वेस्टलैंड' का अनुवाद 'मरुभूमि और अन्य कविताओं' के नाम से किया था और प्रतिभा के उस विस्फोट से जन्मी संभावनाएं बहुत कुछ लिखने के बाद भी पूरी तरह उजागर नहीं हुई हैं और वे संभवत: उम्र के थके मांदे पड़ाव पर उस वादे को पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं। वे दबंग आलोचक के रूप में उभरे और मुंहफट वक्ता भी रहे हैं। वर्तमान भारत अनगिनत रचनाओं के लिए कच्चा माल है, जाने क्यों इस बांझ काल खंड ने अपने प्रतिनिधि साहित्यकार नहीं रचे। उपन्यास विधा कोमा में है। छिंदवाड़ा के साहित्य अनुरागी विद्यार्थी विष्णु खरे की मौजूदगी का लाभ उठा सकते हैं और उसे माले मुफ्त न समझे, न दिले बेरहम हो।