सृजन संसार में श्मशान वैराग्य / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 08 अक्टूबर 2018
सूरत इंदौर से डेढ़ गुना बड़ा शहर है और अत्यंत साफ-सुथरा भी है। सूरत के कुछ डॉक्टर और अन्य सुसंस्कृत व्यक्तियों ने एक संस्था का निर्माण किया है, जिसका नाम है 'शब्द, काव्य संपदा।' उनकी महत्वाकांक्षा है कि वे मुंबई में शशि कपूर द्वारा स्थापित 'पृथ्वी थिएटर्स' की तरह एक सांस्कृतिक मंच का निर्माण करें और इसके लिए वे पृथ्वी थिएटर्स के संचालक कुणाल कपूर से संपर्क स्थापित करने जा रहे हैं। उन्होंने 5 अक्टूबर को एक आयोजन किया था, जिसमें सूरत के रहने वाले सौम्य जोशी ने रंगमंच के अवाम पर पड़े प्रभाव के साथ ही रंगमंच की समस्याओं पर अत्यंत सारगर्भित बातें बताईं। वे गहरी सोच-समझ वाले कलाकार हैं। ज्ञातव्य है कि सौम्य जोशी ने अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर अभिनीत फिल्म '102 नॉट आउट' लिखी थी। सूरत में रंगमंच की परम्परा रही है। गुजराती भाषा के नाटक मुंबई में भी सफलता के साथ प्रस्तुत किए जाते हैं। एक समय ऐसा भी था, जब गुजराती नाटकों में दोहरे अर्थ वाले संवाद का समावेश किया गया था गोयाकि मामला कुछ हद तक दादा कोंडके नुमा हो गया था परंतु वह दौर अधिक समय तक नहीं टिका। इस तरह के दौर किशोर वय में चेहरे पर आए मुंहासों की तरह होते हैं।
पूरे गुजरात में ही 10 अक्टूबर से गरबा उत्सव प्रारंभ होगा। गरबा केंद्रित फिल्म 'लवयात्री' को मिली-जुली प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है। भारत सदैव ही उत्सवप्रेमी देश रहा है। साधनहीन आम आदमी आनंद प्राप्त करने के लिए अवसर का निर्माण करता है। वर्तमान समय में गरबा अन्य प्रांतों में भी खेला जाता है। देश में साधनहीन अवाम और मुट्ठीभर साधन संपन्न लोगों ने उत्सव भी आपस में बांट लिए हैं। गणपति उत्सव साधनहीन वर्ग में लोकप्रिय है और गरबा साधन संपन्न वर्ग ने हथिया लिया है परंतु अवाम अपनी सीमाओं में उत्सव मनाता है। साधन संपन्न वर्ग के युवा नवरात्रि में गरबा खेलने के लिए अनेक जोड़ी पोशाक खरीदता है। गरबा ने एक बाजार रच दिया है। गुजरात के गरबा विशेषज्ञों को अमेरिका में बसे गुजराती लोग आमंत्रित करते हैं।
इस समारोह में 'समाज, साहित्य और सिनेमा' पर गहन चर्चा की गई। विषय में यह पक्ष भी है कि अवाम के जीवन पर साहित्य और सिनेमा का कितना प्रभाव पड़ता है। सारे प्रभाव कुछ समय के लिए होते हैं। इसका प्रमाण यह है कि वाल्मीकि की रामायण का प्रभाव लंबे समय तक होता तो राम राज्य की स्थापना हो जाती और सतयुग के बाद द्वापर, कलयुग नहीं घटते और कल्की की कोई आशा नहीं होती। रामायण के बाद महाभारत की रचना हुई परंतु युद्ध तो घटित हुए। दो महायुद्ध मानवता ने झेले हैं और तीसरा महायुद्ध स्याह घटा की तरह परे आसमान पर छाया हुआ है। साहिर लुधियानवी ने आशंका जाहिर की थी, 'गुजश्ता जंग में तो घर बार ही जले/अजब नहीं इस बार जल जाएं तन्हाइयां भी/गुजश्ता जंग में तो पैकर (शरीर) ही जले/अजब नहीं कि इस बार जल जाएं परछाइयां भी'। सच तो यह है कि तीसरा विश्वयुद्ध चुपके-चुपके दबे पांव जाने कब से आ भी चुका है परंतु इस बार कुरुक्षेत्र बाजार है, जहां गलाकाट प्रतिस्पर्धा में माल बेचने की होड़ है। बाजार का जादू कुछ ऐसा काम कर रहा है कि अनावश्यक चीजें खरीदी जा रही हैं। भांति-भांति किस्म के मोबाइल उपलब्ध हैं परंतु संवादहीनता बढ़ती जा रही है। सारे आधे-अधूरे कही-अनकही के बीच गुम हैं और याद आता है 'प्यासा' का गीत 'जाने क्या तू ने कही, जाने क्या मैंने सुनी बात कुछ बन ही गई'। यह गीत 1956-57 की फिल्म का है परंतु वर्तमान में बात बन ही तो नहीं पा रही है।
इस विषय में युद्ध की बातें इसलिए जायज है कि युद्ध पर अनगिनत किताबें और फिल्में बनी हैं। यहां तक कि दूसरे विश्वयुद्ध के सारे दस्तावेज अनउपलब्ध भी हो जाएं तो फिल्मों के आधार पर ही युद्ध के दिन-प्रतिदिन का लेखा-जोखा बनाया जा सकता है। युद्ध की आग मनुष्य को उसका सर्वश्रेष्ठ खोजने और जाहिर करने में सहायक सिद्ध होता है। साहित्य से प्रेरित फिल्मों को बनाते समय कुछ परिवर्तन करने होते हैं। कोई भी रचना एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाते समय बदल जाती है। इसी तरह अनुवाद करने की प्रक्रिया में भी मूल रचना में कुछ परिवर्तन हो जाते हैं। एक फिल्म का तो नाम ही था 'लॉस्ट इन ट्रांसलेशन'। शब्द भाषा का यूनिट अक्षर है, सिनेमा का यूनिट है शॉट। परंतु शॉट जितना अभिव्यक्त करता है उतना एक शब्द नहीं कर पाता। सिनेमा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। \
साहित्य के पाठक को बहुत कुछ कल्पना करनी होती है कि पात्र की पोशाक क्या है, शरीर संचालन किस तरह कर रहा है। सिनेमा दर्शक को इतना परिश्रम नहीं करना पड़ता। साहित्य में कपड़ा काटना और सीना पड़ता है। सिनेमा रेडीमेड कपड़ा है। यहां तक कि 'सुई धागा' फिल्म देखने से ही उसका महत्व ज्ञात होता है। सिनेमा के पहले कवि चार्ली चैपलिन ने आम आदमी का पात्र अभिनीत करते हुए तंग कोट कमीज और ढीला पेंट पहना, क्योंकि अवाम का सीना जकड़ा हुआ है और पैर ढीली पेंट में उलझ जाते है, इसलिए आम आदमी गिरता ज्यादा है, चल कम पाता है।