सृष्टि और प्रलय / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
रह गई सृष्टि की प्रारंभिक दशा तथा प्रलय की बात। जब सृष्टि का विचार करने लगे तो अंत में यह बात उठी कि जब ये चीजें न थीं तो क्या था? आखिर न रहने पर ही तो बनने का सवाल पैदा होता है। यह भी बात है कि जब ये गुण परस्पर विरोधी हैं तो यदि ये कभी स्वतंत्र बन जाएँ और एक दूसरे की न सुनें, तब क्या होगा? यह निरी खयाली बात तो है नहीं। इनके प्रतिनिधि कफ, वायु, पित्त जब स्वतंत्र हो जाते और एक दूसरे की नहीं सुनते तो त्रिदोष और सन्निपात होता है और मौत आती है। वही जो कभी एक दूसरे के अनुयायी थे, आज आजाद हो गए! यही बात गुणों में हो तो? और जब विश्राम का नियम संसार में लागू है तो ये भी तो विश्राम करेंगे ही, फिर चाहे देर से करें या जल्द करें। उस समय क्या हालत होगी और ये किस तरह रहेंगे? और जब विश्राम का समय पूरा होगा तब कैसे, क्या होगा? इसी ढंग के सवाल उठाने पर सृष्टि तथा प्रलय की बात आ जाती है।
दार्शनिकों ने इन प्रश्नों पर बहुत ही उधेड़-बुन करके जवाब दिया कि जब तक ये गुण ऐसे के ऐसे ही रहेंगे तब तक इनका काम जारी रहेगा ही, तब तक तो चूहा बिल खोदता ही रहेगा। इनका स्वभाव ही जो यह ठहरा। इसीलिए, और कभी तन जाने पर भी, तीनों आजाद हो जाएँगे, समान हो जाएँगे। फिर तो कोई काम हो न सकेगा। बिना विषमता के, बिना एक दूसरे की मातहती के तो सृष्टि का काम चल सकता है नहीं और यहाँ तो 'नाई की बारात में सब ठाकुर ही ठाकुर ठहरे।' फलत: आजादी या साम्यावस्था में ही विश्राम होगा और यह सारा पसारा रुका रहेगा। क्योंकि 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी।' उसी साम्यावस्था को प्रलय कहते हैं, प्रकृति कहते हैं और प्रधान भी कहते हैं। ये गुण उसी हालत में जाते और फिर वहीं से लौटते हैं। इनका यह चरखा रह-रह के चालू रहता है। उससे आगे तो इनकी पहुँच है नहीं। वही इनकी अंतिम दशा है। इसीलिए उसे प्रधान कहते हैं। प्रधान कहते हैं उसे जो सबके अंत में हो, आखिर में हो। उसी प्रधान की अपेक्षा इनको गुण कहते हैं। क्योंकि इनकी आखिरी कृति वही है जिसे ये बनाते हैं अपनी प्रधानता, मुख्यता को गँवा के। जब इनकी क्रिया रही ही नहीं तो तने भले ही हों और आजाद भले ही रहें, फिर भी इनका पता कहाँ रहता है? वही प्रधान फिर इन्हीं गुणों के द्वारा अपना विस्तार करती है, सारा पसारा फैलाती है। इसी से उसे प्रकृति कहते हैं। प्रकृति का अर्थ ही है कि जो खूब करे, ज्यादा फैले-फैलाए।
कागज काटने के लिए जो मशीन (Cutting machine) आजकल बनी है। उसकी एक खूबी यह है कि हैंडिल - चलाने वाला भाग - पकड़ के मशीन चलाते रहिए और उसकी तेज धार कागज तक पहुँच के उसे काट देगी। फिर ऊपर वापस भी चली जाएगी। चलाने वाले का काम बराबर एक ही तरह चलता रहेगा। वह जरा भी इधर-उधर या उलट-फेर न करेगा। मगर उसी चलाने की क्रिया - कर्म - के - फलस्वरूप तेज धार ऊपर से नीचे उतर के काटेगी और फिर ऊपर लौट जाएगी। जितनी देर तक चलाते रहिए यही आना-जाना जारी रहेगा। सृष्टि और प्रलय की भी यही हालत है। हमारे काम, कर्म (actions) ही सब कुछ करते हैं। उन्हीं के करते कभी सृष्टि और कभी प्रलय होती है। ये दोनों चीजें परस्पर विरोधी हैं, जैसे मशीन की धार का नीचे आना और ऊपर जाना। मगर उन्हीं - एक ही - कर्मों के फलस्वरूप ये दोनों ही होती हैं। कभी भी जीवों को विश्राम मिल जाता हैं जिसे प्रलय कहते हैं। गीता ने उसी को 'कल्पक्षय' (9। 7) भी कहा है। उसे भूतसंप्लव भी कहते हैं। फिर कभी सृष्टि का काम चालू हो जाता है। प्रलय शब्द भी गीता (14। 2) में आया ही है।
यद्यपि यह खयाल हो सकता हैं कि सबों की दशा तो एक-सी नहीं हैं। सभी के कर्मों, कर्मफलभोगों तथा अन्य बातों में भी कोई समानता तो है नहीं। यहाँ तो 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत,' है। यहाँ तो 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना तुंडे-तुंडे सरस्वती।' फिर यह कैसे संभव है कि सभी जीव किसी समय विश्राम में चले जाए और प्रलय हो जाए? यदि गीता ने ऐसा माना है और अगर दर्शनों ने भी इसे स्वीकार किया है तो इससे क्या? सभी का कार्य-विराम एक ही साथ हो, यह क्या बात? संसार कोई एक कारखाना या एक ही कंपनी के अनेक कारखानों का समूह तो है नहीं, कि निश्चित समय पर काम से छुट्टी मिल जाए, या काम बंद हो जाया करे। यहाँ तो साफ ही उलटी बात देखी जाती है। तब कल्पक्षय की बात कैसे मानी जाए? प्रलय क्यों मानी जाए?
बात तो है कुछ पेचीदगी से भरी जरूर। मगर असंभव नहीं है। ऐसी बातें दुनिया में होती रहती हैं। यों तो रात में विराम और दिन में काम की बात आमतौर से सर्वत्र है। यह तो सभी के लिए है। मगर जहाँ दिन-रात बड़े होते हैं, जैसे उत्तर ध्रुव के आस-पास, वहाँ भी और नहीं तो छह मास का दिन एवं उतनी ही लंबी रात तो होती ही है। प्रकृति की ओर से जब तूफान आता है, बर्फीली आँधियाँ चलती हैं तब तो सभी को एक ही साथ काम बंद कर देना ही पड़ता है। मगर इन सभी को न भी मानें और अगर इनमें भी कोई गड़बड़ सूझे तो भी तो यह बात देखी जाती हैं कि किसी गोल घेरे या रास्ते पर चक्कर लगाने वाले यद्यपि भिन्न-भिन्न चालों वाले होते हैं, फिर भी ऐसा मौका आता है कि कभी न कभी सभी एक साथ मिल जाते हैं। फिर फौरन आगे-पीछे हो जाते हैं। यों तो आमतौर से आगे-पीछे चलते ही रहते हैं। मगर चक्कर लगाते-लगाते बहुत चक्करों के बाद देर या सवेर एक बार तो सभी इकट्ठे हो जाते हैं। फिर आगे-पीछे होके चलते-चलते उतनी ही देर बाद दूसरी-तीसरी बार भी एकत्र हो जाते हैं। यही सिलसिला चलता रहता है। बस, यही हालत प्रलय या कल्पक्षय की मानिए। इसीलिए हिसाब लगा के एक निश्चित समय के ही अंतर पर इसका बारंबार होना गीता ने भी माना है। इस प्रलय को गीता ने रात भी कहा है (8। 17-19 में)।
हाँ, तो उस प्रलय की दशा से सृष्टि का श्रीगणेश कैसे होता है यह बात भी जरा देखें। गीता के (7। 4-6), (8। 17-19), (9। 7-10), (13। 5) तथा (14। 3-5) में यह बात खास तौर से लिखी गई है। यों छिटपुट एकाध बात प्रसंग से कह देने का तो कुछ कहना ही नहीं। आठ और नौ अध्यायों में कुछ ज्यादा प्रकाश डाला गया है। जीवों के कर्मों की मजबूरी से उन्हें बार-बार जनमना-मरना पड़ता है। प्रलय के बाद भी यही चीज चालू रहती है, यही गोलमोल बातें वहाँ कही गई हैं। बेशक, चौदहवें अध्याकय में सृष्टि के श्रीगणेश की खास बात कही गई है और बताया गया है कि यह किस तरह होती है। मगर इसे जब हम सातवें और तेरहवें अध्यााय के वर्णन से मिला के तीनों का अर्थ एक साथ करते हैं और चौदहवें के समूचे गुण-वर्णन को भी उसी के साथ ध्याान में रखते हैं तभी इस बात पर पूरा प्रकाश पड़ता है। चौदहवें अध्याय के 5वें श्लोक में कहा गया है कि 'तीनों गुण प्रकृति से निकलते हैं' - "गुणा: प्रकृतिसम्भवा:।" निकलने का अर्थ तो कही चुके हैं कि साम्यावस्था छोड़ के अपनी विषम अवस्था मंै - अपनी असली सूरत में - आते हैं; न कि पैदा होते हैं। कैसे बाहर आते हैं यही बात उससे पहले के दो श्लोकों में माँ के पेट से बच्चे के बाहर आने का दृष्टांत देकर बताई गई है। उसी का विशेष विवरण सातवें एवं तेरहवें अध्याचय में दिया गया है।
यह तो पहले ही कह चुके हैं कि प्रधान या प्रकृति तो साम्यावस्था है, एकरसता है, अविभिन्नता (homogeneity) है। उसके विपरीत उस अवस्था को भंग करके ही सृष्टि होती है जिसमें अनेकता और विभिन्नता (heterogeneity and diversity) है। यह चीज कैसे होती है, इनकी प्रक्रिया या क्रम क्या है, इस पर भी दार्शनिकों ने सोच के जो कुछ तय किया है वही बात उन दोनों अध्यायों में पाई जाती है। उसमें भी सातवें में बहुत कुछ कमी रह गई है। उसकी पूर्ति तेरहवें में हो जाती है। हाँ, कुछ ब्योरे की बातें वहाँ नहीं कही गई हैं, या एकाध में कुछ फर्क भी मालूम पड़ता है। मगर वह कोई खास चीज नहीं है। असल बातें ठीक-ठीक मिल जाती हैं। ब्योरा कहाँ तक गिनाया जा सकता है? ब्योरे में तो जानें कितनी ही बातें होती हैं। अगर उनमें कुछ छूटें तो फर्क तो मालूम होगा ही।
सांख्यदर्शन की एक कारिका है 'मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृति-विकृतय: सप्त। षोडशकस्तुविकारो न प्रकृतिर्न विकृति: पुरुष:' (3)। इसका आशय यह है कि 'सृष्टि की जड़ में प्रकृति है। वह किसी से भी पैदा नहीं होती। हाँ, उससे महान, अहंकार और आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी के सूक्ष्म स्वरूप - जिन्हें पंचतन्मात्रा कहते हैं - यही सात पदार्थ पैदा होते हैं। फिर उनसे दूसरी चीजें पैदा होती हैं। इसीलिए इन्हें प्रकृति-विकृत नाम से पुकारते हैं। वे दूसरी चीजें हैं सोलह - पाँच कर्म - इंद्रिय, पाँच ज्ञान - इंद्रिय, पाँच महाभूत और अंत:करण। ये सोलहों विकृति कहाते हैं। पुरुष या जीव तो न प्रकृति है और न विकृति।' यद्यपि इस कारिका में महान आदि सातों या शेष सोलह का भी नाम नहीं दिया है; तथापि एक और कारिका 'प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहंकारस्तमाद् गणश्च षोडशक:' (16) आदि में सभी को गिना दिया है और सातों का क्रम भी बताया है कि पहले महान, तब अहंकार, तब पाँच तन्मात्राएँ। आगे का भी क्रम दे दिया गया है। मगर आगे बढ़ने के पहले इन बातों का थोड़ा स्पष्टीकरण जरूरी है।
सांख्यदर्शन ने जीव या पुरुष को तो सबसे निराला कहा है। वह न तो किसी से पैदा होता है और न किसी को पैदा करता है। वह न प्रकृति है, न विकृति। प्रकृति कहते हैं कारण को और विकृति कहते हैं कार्य को। वह दो में एक भी नहीं हैं। रह गए संसार के पदार्थ। सो इन्हें तीन दलों में बाँटा है। पहली है मूल प्रकृति या प्रधान। गीता ने इसी को प्रकृति या महद्ब्रह्म के अलावे भूतप्रकृति भी भूत प्रकृतिमोक्षं च (13। 34) में कहा है। अपरा भी कहा है जैसा कि आगे लिखा है। इससे पंचभूत पैदा होते हैं। इसी से इसे भूतप्रकृति कहा है। यह किसी से पैदा तो होती नहीं; मगर खुद पैदा करती है - यह किसी का कार्य नहीं है। इसीलिए इसे अविकृति भी कहा है। दूसरे दल में महान आदि सात आ जाते हैं। इन्हें प्रकृति-विकृति कहा है। ये खुद तो आगे के सोलह पदार्थों को पैदा करते हैं। इसीलिए प्रकृति या कारण कहाए। मूल प्रकृति से ही ये पैदा होने की वजह से विकृति भी कहे गए। अब इनसे जो सोलह पदार्थ पैदा हुए वह विकृति कहे जाते हैं। क्योंकि वे इनसे पैदा होने के कारण ही कार्य या विकृति हो गए। मगर उनसे दूसरी चीजें बनती हैं नहीं। दस इंद्रियों या पाँच प्राणों से अन्य पदार्थ पैदा तो होते नहीं। अंत:करण या बुद्धि से भी नहीं पैदा होते। चक्षु आदि बाहरी इंद्रियाँ हैं और बुद्धि या मन भीतर की। इसीलिए उसे अंत:करण कहते हैं। करण नाम हैं इंद्रिय का। अंत: का अर्थ है भीतरी। गीता ने पुरुष को मिला के यह चार विभाग नहीं किया है। किंतु सभी को - चारों को - ही प्रकृति कह के जीव या पुरुष को परा या ऊँचे दर्जे की और शेष तीन को अपरा या नीचे दर्जे की प्रकृति 'अपरेयमितस्त्वन्यां' (7। 5) आदि में कहा है।
दोनों में यह दो या चार भेदों का होना कोई खास बात नहीं है। मगर पुरुष को भी प्रकृति कहना जरूर निराला है। क्योंकि सांख्य ने साफ ही कहा है कि वह प्रकृति नहीं है। असल में गीता वेदांत दर्शन को ही मानती है, न कि सांख्य को। इसीलिए सांख्य को जो बातें वेदांत से मिलती हैं उन्हें तो माने लेती हैं। लेकिन जो नहीं मिलती हैं वहाँ स्वतंत्र बात कहती हैं। वेदांत ने तो माना ही है कि पुरुष या भगवान ने ही पहले सोचा; पीछे संसार बनाया। वेदांतदर्शन के दूसरे सूत्र 'जन्माद्यस्य यत:' में साफ ही माना है कि भगवान से ही आकाशादि पदार्थों का जन्म होता है। इसलिए वही कारण है। यदि वह कारण न होता तो उसे सिद्ध करना असंभव था। उसकी तब जरूरत ही क्या थी? वेदांत ने जीव को भगवान का रूप ही माना है और दोनों को ही पुरुष कहा है। हाँ, व्यष्टि और समष्टि के भेद के हिसाब से पर पुरुष एवं अपर पुरुष या पुरुष तथा पुरुषोत्तम यही दो नाम उसने जीव और ईश्वर को अलग-अलग दिए हैं। गीता ने भी 'उत्तम: पुरुषस्त्वन्य:' (15। 17) में यही कहा है। इसीलिए 'मम योनि:' (14। 3-4) आदि में पुरुष को ही सृष्टि का पिता और प्रधान या प्रकृति को माता कहा है। गीता सृष्टि-रचना को अंधे का खेल नहीं मानती। किंतु सोच-समझ के बनाई चीज (Planned creation) मानती है।