सेंसरशिप अंधा कानून है / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
सेंसरशिप अंधा कानून है
प्रकाशन तिथि : 08 अप्रैल 2019


नेशनल फिल्म आर्काइव ने ऑनलाइन जानकारी दी है कि 1920 से 1950 के बीच सेंसर द्वारा फिल्मों से कौन-से दृश्य हटाए गए हैं। यह रपट ढाई हजार पृष्ठों की है। भारत में अंग्रेजों के राज में वही दृश्य काटे जाते थे, जिनमें देश प्रेम का अलख जगाने का प्रयास किया जाता था। भारतीय फिल्मकार आंख में धूल डालकर साफ निकल जाना जानते थे। उन्होंने धार्मिक आख्यानों की कथाओं में राष्ट्र प्रेम के दृश्य रखें। मसलन संपतलाल शाह की फिल्म 'महात्मा विदुर' में नायक को महात्मा गांधी जैसी पोशाक भी पहनाई गई। यहां तक कि विदुर चश्मा भी लगाते हैं, जबकि उस काल खंड में आंख के रोग नहीं होते थे परंतु नज़रिया तब भी संकीर्ण था और आज भी संकीर्ण है। विदुर को राजा नहीं बनाया गया, क्योंकि वे दासी की कोख से जन्मे थे। अगर विदुर राजा बनाए जाते तो कुरुक्षेत्र में इतना रक्तपात नहीं होता।

एक दौर में सेंसर द्वारा काटे गए दृश्य पुणे फिल्म संस्थान में भेजे जाते थे। खाकसार सेंसर पर एक शोध के लिए पुणे संस्थान गया, जहां सभी चीजें बेतरतीब कबाड़ की तरह उपेक्षित पड़ी थीं। काटे गए किसी भी अंश पर फिल्म का नाम तक नहीं लिखा था। नेहरू द्वारा स्थापित पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित छात्रों की सूची लंबी है। जया भादुड़ी, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी ने फिल्म अभिनय में क्रांति कर दी। संस्थाओं को तोड़ने के सिलसिले में पुणे में एक ऐसे व्यक्ति को प्राचार्य बनाया गया, जिसकी एकमात्र योग्यता उसका एक धार्मिक कथा प्रेरित सीरियल में अभिनय करना था। कुछ समय तक पंकज राग नियुक्त हुए थे। उन्होंने 'तीसरी कसम' और शैलेंद्र पर तीन दिन का समारोह आयोजित किया था। विष्णु खरे और खाकसार भी वक्ताओं में शामिल थे। पंकज राग ने शैलेंद्र के परिवार को आमंत्रित किया था। कुछ रिश्तेदार अमेरिका से भी आए थे।

साहित्य और सिनेमा में सेंसरशिप के मामले में जस्टिस वूल्जे जी. द्वारा जेम्स जॉयस की 'यूलिसस' पर दिया गया फैसला ऐतिहासिक महत्व रखता है। जस्टिस वूल्जे के फैसले में यह लिखा गया है कि किसी भी रचना का समग्र प्रभाव ही निर्णायक है। किसी किताब के एक पृष्ठ या किसी फिल्म के एक दृश्य के आधार पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। यह भी गौरतलब है कि अश्लीलता के आरोप में जितने भी मुकदमें अदालत में गए उन सभी मुकदमों का फैसला लेखक और फिल्मकार के पक्ष में गया है। सरकार इस तरह का कोई मुकदमा नहीं जीत पाई। आज भी उच्चतम न्यायालय पर ही भरोसा कायम है। शेष संस्थाएं तोड़ दी गई हैं। 1968 में ख्वाजा अहमद अब्बास के द्वारा बनाए गए वृत्त चित्र 'ए टेल ऑफ फोर सिटीज' पर सेंसर ने आपत्ति उठाई थी। वृत्तचित्र में किसी भी महिला का अंग प्रदर्शन नहीं था। वृत्तचित्र के मूक होने के कारण संवाद पर आपत्ति भी नहीं उठाई नहीं जा सकती। दरअसल, सेंसर ने यह कदम इसलिए उठाया कि वे अब्बास साहब के आकल्पन से ही घबरा गए थे। अनगिनत मजदूरों के परिश्रम से महानगरों में गगनचुंबी, संगमरमरी इमारतें बनती हैं और मजदूर झुग्गी झोपड़ी में आधा पेट और आधा बदन ढंके किसी तरह श्वांस लेते हुए जीते हैं। सरकारें हमेशा मजदूर और किसान एकता से भयाक्रांत रहती हैं। जैको प्रकाशन ने 'एनाटॉमी ऑफ फिल्म सेंसरशिप' पर एक किताब प्रकाशित की थी, जिसमें विषय पर महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध हैं। ज्ञातव्य है कि राज कपूर की 'राम तेरी गंगा मैली' को अखिल भारतीय दर्शन के लिए तीसरे सप्ताह केंद्रीय मंत्रालय ने पुन: परीक्षण के इरादे से बुलावा भेजा। इस तरह के सरकारी बुलावे, धार्मिक बुलावों से अलग होते हैं। नवभारत टाइम्स के राजेंद्र माथुर ने खाकसार का लेख प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित किया- 'बुलावा' रद्द किया गया।

सेल्युलाइड पर शूट की गई फिल्म की रीलों को सड़क पर बिछा दें तो वह करीब करीब 3 किलोमीटर होगा। इस सफर में आप वृक्ष देखते हैं, मौसम की बहार देखते हैं, परंतु कहीं कोई व्यक्ति शौच करता भी दिखाई देता है। क्या मात्र इस कारण आप यात्रा नहीं करेंगे। इस प्रकरण में महत्वपूर्ण है फिल्मकार की नीयत और पूरी फिल्म में दृश्य की आवश्यकता। राज कपूर की 'जोकर' में सिम्मी ग्रेवाल का झाड़ियों के पीछे वस्त्र बदलना उनका 16 वर्षीय छात्र देख लेता है। उसने पहली बार नारी शरीर देखा है। उसे रात भर नींद नहीं आती। किशोर अवचेतन पर फिल्म का वह भाग आधारित था। अत: इसे अभद्र नहीं माना जा सकता परंतु उसी फिल्म के तीसरे भाग में पद्‌मिनी के द्वारा पहनी गीली साड़ी और नृत्य अनावश्यक और अभद्र है, क्योंकि उस रेशे में फिल्म बुनी ही नहीं गई थी। अत: फिल्मकार की नीयत और कृति का समग्र प्रभाव ही निर्णायक है।

ज्ञातव्य है कि कमलेश्वर के उपन्यास से प्रेरित गुलजार की 'आंधी' को रोका गया। विट्ठल भाई पटेल ने विद्याचरण शुक्ल की सहायता से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को फिल्म दिखाई। उन्हें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। आज इस तरह की बात संभव नहीं है।