सेन्सर नियम : निर्माता का माथा और तिलक / जयप्रकाश चौकसे

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सेन्सर नियम : निर्माता का माथा और तिलक
प्रकाशन तिथि :21 जून 2017


सेन्सर के ज़ार ने पहले कहा था कि राजनीति को केंद्र में रखकर बनाई फिल्म के लिए उस परिवार से अनापत्ति प्रमाण-पत्र लेना आवश्यक है, परन्तु अब मधुर भंडारकर की 'इन्दु सरकार' नामक फिल्म के लिए गांधी-नेहरू परिवार से कोई प्रमाण-पत्र नहीं लिया जाएगा। स्पष्ट है कि आपात-काल के बहाने गांधी-नेहरू परिवार को नकारात्मकता से प्रदर्शित वाली फिल्म को रोका नहीं जाएगा। इस तरह की घटनाएं नई नहीं हैं। दूसरे विश्वयुद्ध में पराजय के बाद हिटलर के जीवन पर भी फिल्में बनीं, किताबें लिखी गईं, यहां तक कि उसे नपुंसक होने के तथाकथित प्रमाण भी जुटाए गए। पराजय की कीमत कई तरीकों से चुकानी पड़ती है। युद्ध समाप्त होने के बाद भी जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं और आधी रात महंगाई हर घर के बंद दरवाजे की सांकल खटखटाती है। यह बात अलग है कि इस मायावी दौर में महंगाई पर एतराज नहीं, जबकि किसी और दौर में महंगाई के खिलाफ आंदोलन हुए थे, सरकार हिल गई थी गोयाकि अवाम की महंगाई पर प्रतिक्रिया भी सांप्रदायिकता आधारित राज में बदल गई है।

मेहबूब खान ने 1941-1942 में 'रोटी' नामक फिल्म बनाई थी। एक रईस का हवाई जहाज असम में गिर गया। वह बच गया, परन्तु इतना अधिक घायल था कि मुंबई नहीं जा सकता था। उसने एक आदिवासी को अपने परिवार के नाम खत देकर मुंबई भेजा। उन दिनों डिवाइड एन्ड रूल अर्थात अवाम को बांटो और राज करो की हुकूमतें बरतानिया की नीति के तहत रेल्वे प्लेटफॉर्म पर चाय बेचने वाला आदमी जाति का परिचय देने के लिए आवाज लगाते थे 'हिन्दू चाय' या 'मुस्लिम चाय'। आदिवासी ने दूसरी चाय यह सोचकर खरीदी कि यह कोई और चीज है क्योंकि अन्य नाम से बेची गई थी, परन्तु चखते ही वह झगड़ा करने लगा कि एक ही चीज दो नामों से बेची जा रही है।

इसी तरह महंगाई को भी अवाम कभी स्वीकार कर लेता है, कभी विरोध करने लगता है। इस बार 'डिवाइड एन्ड रूल' अपने नए अवतार में हमारी अपनी रचना है। इसे किसी विदेशी ने नहीं रचा है। अवाम में नज़रिये के इस बदलाव को समझना सबसे बड़ी चुनौती है।

पहलाज निहलानी 'इन्दु सरकार' नामक फिल्म को अलग नज़रिये से देखेंगे। वर्तमान में पहलाज निहलानी, परेश रावल, अनुपम खेर इत्यादि अनेक लोग फिल्म उद्योग से जुड़े हुए लोग हैं और इनका योगदान भी बहुत है, परन्तु ये ही लोग अपनी सरकार से यह अनुरोध नहीं करते कि सिनेमा टिकट को जी.एस.टी. से मुक्त कराने का प्रयास करें। चीन में पैंसठ हजार एकल सिनेमा हैं और भारत में ग्यारह हजार से घटकर मात्र नौ हजार रह गए हैं तथा जी.एस.टी. उन्हें भी नष्ट कर देगा।

इस संदर्भ में यह गौरतलब है कि अपने उद्योग को, अपनी रोजी-रोटी को भूलकर व्यक्ति राजनीति क्षेत्र में प्रवेश करते ही अपने मूल व्यवसाय के हित में कोई काम नहीं करता। यह अजब-गजब भारतीय राजनीति की 'जीहुजूरी' है कि व्यक्ति अपनी निजी पहचान को तजकर नेता के चरणों में बिछ जाता है। व्यक्तिगत स्वतंत्र विचार शैली को इस कदर हाशिये में फेंक दिया जा रहा है कि मनुष्य मात्र रोबो रह जाए। इस पर फतवा यह है कि एक देश, एक भाषा को राष्ट्रप्रेम कहा जा रहा है जबकि विविधता एवं सिन्थेसिस इस देश की संरचना का केन्द्र रहा है।

एच.जी. वेल्स ने तो अपने रचे हुए रोबो को भी व्यक्तिगत सोच की स्वतंत्रता दी। उसने अपने रोबो का मानवीकरण किया था, हम अपने मनुष्य का मशीनीकरण कर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि 1931 में गांधीजी ने चार्ली चैपलिन को अपना यही भय अभिव्यक्त किया था और चार्ली चैपलिन ने गांधीजी के प्रभाव में 'मॉडर्न टाइम्स' फिल्म रची थी जिसके एक दृश्य में एक विराट मशीन के चक्र को एक व्यक्ति साफ कर रहा है और अनजाने ही कोई बटन दबा देता है। वह विराट चक्र घूमने लगता है और वह सफाई कर्मचारी उस विराट चक्र का ही एक हिस्सा लगने लगता है। किसी अन्य संदर्भ में टी.एस. एलियट की पंक्तियां याद आती हैं, 'द फूल हू थिंक्स दैट ही इज टर्निंग द व्हील, ऑन विच ही इज नथिंग बट ए स्माल फ्लाई'। इसका अनुवाद कुछ इस तरह होगा कि वह व्यक्ति मूर्ख है, जो समझता है कि वह चक्र चला रहा है, वह तो उस विराट चक्र का छोटा-सा पुर्जा मात्र है। हुक्मरान यही समझ रहा है कि वही चक्र चला रहा है।