सेब और देव / अज्ञेय
प्रोफेसर गजानन पंडित ने अपना चश्मा पोंछ कर फिर आँखों पर लगाया और देखते रह गये।
मोटर पर से उतरकर और सामान डाकबंगले में भिजवाकर उन्होंने सोचा था, अभी आराम करने की जरूरत तो है नहीं, ज़रा घूम-घाम कर पहाड़ी सौन्दर्य देख लें; और इसीलिए मोटर के अड्डे के धक्कम-धक्के से अलग होकर वे इस पहाड़ी रास्ते पर हो लिये थे। छाया में जब चश्मे का काँच ठंडा हो गया और उस पर उनके गर्म बदन से उठी हुई भाप जमने लगी, तब उन्होंने चश्मा उतारकर रूमाल से मुँह पोंछा, फिर चश्मा साफ़ करके आँखों पर चढ़ाया, और फिर देखते रह गये।
पहाड़ी रास्ता आगे एकाएक खुल गया था; चीड़ के वृक्ष समाप्त हो गये थे। आगे रास्ते को पार करता हुआ एक झरना बह रहा था। उसका जितना अंश समतल भूमि में था उस पर तो छाया थी, लेकिन जहाँ वह मार्ग के एक ओर नीचे गिरता था, वहाँ प्रपात के फेन पर सूर्य की किरणें भी पड़ रही थीं। ऐसा जान पड़ता था कि अन्धकार की कोख में चाँदी का प्रवाह फूट पड़ा है - या कि प्रकृति-नायिका की कजरारी आँख से स्नेह के गद्गद आँसुओं की झड़ी... और उसके पार एक चट्टान के सहारे एक पहाड़ी राजपूत बाला खड़ी थी। उसकी चौंकी हुई भोली शक्ल से साफ़ दीखता था कि प्रोफेसर साहब का वहाँ अकस्मात् आ जाना उसे एकदम अनधिकार-प्रवेश मालूम हो रहा है।...
प्रोफ़ेसर साहब दिल्ली के एक कॉलेज में प्राचीन इतिहास और पुरातत्त्व के अध्यापक हैं। वे उन थोड़े से लोगों में हैं, जिनका पेशा और मनोरंजन एक ही है। मनोरंजन के लिए भी वे पुरातत्त्व की ओर ही जाते हैं। यहाँ कुल्लू पहाड़ की सुरम्य उपयत्काओं में भी वे सोचते हुए आये हैं कि यहाँ भारत की प्राचीनतम सभ्यता के अवशेष उन्हें मिलेंगे, और हिन्दू-काल की शिल्प-कला के नमूने, और धातु या प्रस्तर या सुधा की मूर्तियाँ, और न जाने क्या-क्या... लेकिन इतना सब होते हुए भी सौन्दर्य के प्रति-जीते-जागते स्पन्दनयुक्त क्षण-भंगुर सौन्दर्य के प्रति-उनकी आँखें अन्धी नहीं हैं। बाला को वहाँ खड़ी देखकर उसके पैरों के पास बहते हुए झरने का स्वर सुनते हुए उन्हें पहले तो एक हंसिनी का खयाल आया, फिर सरस्वती का (यद्यपि बाला के हाथ में वीणा नहीं, एक छोटी-सी छड़ी थी।) उन्होंने अपने स्वर को यथासम्भव कोमल बनाकर पूछा, “तुम कहाँ रहती हो?”
बाला ने उत्तर नहीं दिया, सम्भ्रम दृष्टि से उनकी ओर देखकर जल्दी-जल्दी पहाड़ पर चढ़ने लगी।
प्रोफेसर साहब मुस्करा कर आगे चल दिये। बालिका का भोलापन उन्हें अच्छा-अच्छा-सा लगा। सोचने लगे, कितने सीधे-सादे सरल स्वभाव के होते हैं, यहाँ के लोग! प्रकृति की सुखद गोद में खेलते हुए इन्हें न फिक्र है, न खटका है, न लोभ लालच है। खाते-पीते, ढोर चराते, गाते-नाचते अपने दिन बिता देते हैं। तभी तो बाहर से आनेवाले आदमी को देखकर संकोच होता है। अपने-आप में लीन रहने वाले इन भले प्राणियों को बाहरवालों से क्या सरोकार?
आगे बढ़ते-बढ़ते प्रोफेसर साहब सोचने लगे, ऐसे भले लोग न होते, तो प्राचीन सभ्यता के जो अवशेष बचे हैं वे भी क्या रह जाते? खुदा-न-खास्ता ये लोग यूरोपियन सभ्यता के सीखे हुए होते तो एक-दूसरे को नोच कर खा जाते, उसकी राख भी न बची रहने देते। लेकिन यहाँ तो फ़ाहियान के ज़माने का ही आदर्श है; सब को अपने काम से मतलब है, दूसरे के काम में दखल देना, दूसरे के मुनाफे की ओर दृष्टि डालना यहाँ महापाप है। लोग ढोर चरने छोड़ देते हैं, शाम को ले आते हैं। कभी चोरी नहीं, शिकायत नहीं। खेती खड़ी है, कोई पहरेदार नहीं। मजाल क्या एक भुट्टा भी चोरी हो जाये। मेरे खयाल में तो अगर मैं एक चवन्नी यहाँ राह में फेंक दूँ तो कोई उठाएगा नहीं कि न जाने किसकी है और कौन लेने आ जाय!
रास्ता अब फिर घिर गया था, लेकिन चीड़ के दीर्घकाय वृक्षों से नहीं, अब उसके दोनों ओर थे सेब के छोटे-छोटे लचीले गातवाले पेड़, डार-डार पर लदे हुए फलों के कारण मानो विनय से झुके हुए - क्योंकि जहाँ सार होता है, वहाँ विनय भी अवश्य होता है, क्षुद्र व्यक्ति ही अविनयी हो सकता है - और कभी-कभी हवा से झूम-से जाते हुए, कुल्लू के जगत्प्रसिद्ध सेबों की प्रशंसा प्रोफेसर साहब ने सुन ही रखी थी, कई बार मँगाकर सेब खाये भी थे, लेकिन आज इस प्रकार पेड़ पर लगे हुए असंख्य फलों को देखकर उनकी तबीयत खुश हो गयी। और इससे भी अधिक खुशी हुई इस बात से कि गन्ध और स्वाद और रस की उस विपुल राशि का न कोई रक्षक कहीं देखने में आता है, न बचाव के लिए बाड़ तक लगाई गयी है। पहाड़ी सभ्यता के प्रति उनका आदर-भाव भी बढ़ गया-क्या शहर में इस स्कूल-कॉलेजों के लड़के ही टिड्डी दल की तरह आकर सब साफ़ कर देते और जितना खाते हीं उतना बिगाड़ देते। वहाँ तो कोई बाग लगाये तो दस-एक भोजपुरिये लठैत पहरेदार रखे, और फिर भी चारों ओर जेल की-सी दीवार खड़ी करे कि कोई लुक-छिप कर न ले भागे, तब कहीं जाकर चैन से रह सके। और यहाँ-यहाँ बाग़ की सीमा बताने के लिए एक तार का जंगला तक नहीं है। पेड़ों के नीचे जो लम्बी-लम्बी घास लग रही है, वही रास्ते के पास आकर रुक जाती है, वहीं तक बाग़ की सीमा समझ लो तो समझ लो। यहाँ तो...
प्रोफेसर साहब के पास ही धम्म से कुछ गिरा। उन्होंने चौंककर देखा, उन्हें आते देख एक लड़का पेड़ पर से कूदा है और उसकी अपर्याप्त आड़ में छिपने की कोशिश कर रहा है। उसके हाथ में दो सेब हैं जिन्हें वह अपने फटे हुए भूरे कोट में किसी तरह छिपा लेना चाहता है।
उसकी झेंपी हुई आँखें और चेहरा साफ कह रहा था कि वह चोरी कर रहा है।
साधारणतया ऐेसी दशा में प्रोफेसर साहब किंचित् ग्लानि से उसकी ओर देखते और आगे चल देते, लेकिन इस समय वैसा नहीं कर सके। उन्हें जान पड़ा कि यह लड़का उस सारी प्राचीन आर्य सभ्यता को एकसाथ ही नष्ट-भ्रष्ट किये दे रहा है जो फ़ाहियान के समय से सदियों पहले से अक्षुण्ण बनी चली आयी है। वे लपककर उस लड़के के पास पहुँचे ओर बोले, “क्यों बे बदमाश, चोरी कर रहा है? शर्म नहीं आती दूसरे का माल खाते हुए?”
लड़का घबराया-सा खड़ा रहा, बोल नहीं सका। प्रोफेसर साहब और भड़क उठे। उन्होंने एक तमाचा उसके मुँह पर जमाया, सेब छीन कर घास में फेंक दिये, जहाँ वे ओझल हो गये। फिर वे गर्दन पकड़ कर लड़के को धकेलते हुए रास्ते की ओर ले आये।
“पाजी कहीं का! चोरी करता है! तेरे-जैसों के कारण ही पहाड़ी लोग बदनाम हो गये हैं। क्यों चुराये थे सेब? यहाँ तो पैसे के दो मिलते होंगे, एक पैसे के खरीद लेता? ईमान क्यों बिगाड़ता है?”
रास्ते पर लड़के को उन्होंने छोड़ दिया। वह वहीं खड़ा आँसू भरी आँखों से उधर देखता रहा जहाँ घास में उसके तोड़े हुए सेब गिर कर आँखों से ओझल हो गये थे।
प्रोफेसर साहब आगे बढ़ते हुए सोच रहे थे, खड़ा देख रहा होगा कि चोरी भी की तो फल नहीं मिला। बहुत अच्छा हुआ! सेबों का सड़ जाना अच्छा, चोर को मिलना नहीं। सड़े, चोर को क्या हक है कि खाये?
प्रोफेसर साहब एक गाँव के पास आ रुके। अन्दाज़ से उन्होंने जाना कि यह मनाली गाँव होगा, और उन्हें याद आया कि यहाँ पर एक दर्शनीय प्राचीन मन्दिर है। गाँव के लोगों से पता पूछते हुए वे मनु के मन्दिर पर पहुँच ही गये। मन्दिर छोटा था सुन्दर भी नहीं था, लेकिन संसार-भर में मनु का एकमात्र मन्दिर होने के नाते वह अपना अलग महत्त्व रखता था। प्रोफेसर साहब कितनी ही देर तक एकटक उसकी ओर देखते रहे, यहाँ तक कि देहरी पर बैठे हुए बूढ़े पुजारी का ध्यान भी उनकी ओर आकृष्ट हो गया, आने-जानेवाले तो खैर देखते ही थे।
प्रोफेसर साहब ने गद्गद स्वर में पूछा, “आसपास और भी कोई मन्दिर है?”
पास खड़े एक आदमी ने कहा, “नहीं, बाबूजी, यहाँ कहाँ मन्दिर है!”
“यहाँ मन्दिर नहीं? अरे भले आदमी, यहाँ तो सैकड़ों मन्दिर होने चाहिए।
यहाँ पर...”
“बाबूजी, यहाँ तो लोग मन्दिर देखने आते नहीं। कभी-कभी कोई आता है तो यह मनूरिखि का मन्दिर देख जाता है, बस। और तो हम जानते नहीं।”
पुजारी ने खाँसते हुए पूछा, “कौन-सा मन्दिर देखिएगा बाबू?”
“कोई और मन्दिर हो। आसपास की सब मन्दिर-मूर्तियाँ मैं देखना चाहता हूँ।”
पुजारी ने थोड़ी देर सोचकर कहा, “और तो कोई नहीं, उस चोटी के ऊपर जंगल में एक देवी का स्थान है। वहाँ पहले कभी एक किला भी था जिसके अन्दर देवी के स्थान में पूजा होती थी। पर अब तो उसके कुछ पत्थर ही पड़े हैं। वहाँ कोई जाता नहीं अब, इस जंगल में भूत बसते हैं।”
प्रोफेसर साहब मुस्कराये, लेकिन बोले, “कैसे भूत?”
“कहते हैं कि पुराने राजाओं के भूत रहते हैं - वे राजा बड़े परतापी थे।”
“अरे, उन भूतों से मेरी दोस्ती है!” कहकर प्रोफेसर साहब ने रास्ता पूछा, और क्षण-भर सोचकर पहाड़ पर चढ़ने लगे। पुजारी ने ‘पास ही’ बताया था तो मील-भर से अधिक नहीं होगा, और अभी तीन बजे हैं, शाम होने तक मज़े में बंगले में पहुँच जाऊँगा...
जंगल का रूप बदलने लगा। बड़े-बड़े पेड़ समाप्त हो गये; अब छोटी-छोटी झाड़ियाँ ही दीख पड़ने लगीं। यह पड़ाव का वह मुख था जो हवा के थपेड़ों से सदा पिटता रहता था; जाड़ों में तो बर्फ की चोटें यहाँ लगे हुए किसी भी पेड़-पौधे को कुचल डालतीं। प्रोफेसर साहब को समझ आने लगा कि यह ऊँचा शिखर क़िले के लिए बहुत उपयुक्त जगह है, और यह भी वे जान गये कि यहाँ बना हुआ क़िला उजड़ कर कितनी जल्दी निरवशेष हो जाएगा।
झाड़ियाँ भी छोटी होती चलीं। घास की बजाय अब पथरीली ज़मीन आयी, जिसमें किसी तरफ़ कोई बनी हुई पगडंडी नहीं थी, जिधर चले जाओ वही मार्ग। कहीं-कहीं लाल पत्थर के भी कुछ टुकड़े दीख जाते थे, जो शायद क़िले की इमारत में कहीं लगे होंगे; नहीं तो उधर लाल पत्थर होता नहीं। कहीं-कहीं पत्थर और मिट्टी के स्तूपाकार टीले की आड़ में कोई गाढ़े रंग की पत्तोंवाली झाड़ी लगी हुई दीख जाती, तो वह आसपास के उजाड़ सूनेपन को और भी गहरा कर देती। साँझ के धुँधलके में ऐसी झाड़ी को देखकर स्तूप में धूम्रवत् निकलते हुए किसी प्रेत की कल्पना होना कोई असम्भव बात नहीं थी।
एक ऐसे ही स्तूप की आड़ में प्रोफेसर साहब ने देखा, एक गड्ढे में कीच भरी है जिसकी नमी से पोसे जाते हुए दो वृक्ष खड़े हैं, और उनके नीचे पत्थर का छोटा-सा मन्दिर है, जिसका द्वार बन्द पड़ा है।
प्रोफेसर साहब ने कुंडे में अटकी हुई कील निकाली तो द्वार खुलने की बजाय आगे गिर पड़ा। उसके कब्जे उखड़ गये हुए थे। उन्होंने किवाड़ को उठाकर एक ओर धर दिया।
थोड़ी देर वे पीछे हटकर खड़े रहे कि बन्द और सीलन के कारण बदबूदार हवा बाहर निकल जाए, फिर भीतर झाँकने लगे।
मन्दिर की बुरी हालत थी। भीतर न जाने कबके बलि-पशुओं के सींग-बकरे के और हिरन के पड़े हुए थे जो सूखकर धूल के रंग के हो गये थे। उन पर कीड़े भी चल रहे थे। फ़र्श के पत्थरों के जोड़ों में काई उग आयी थी। उन सींगों के ढेर से देवी की काले पत्थर की मूर्ति एक ओर लुढ़क गयी थी, पास में पड़ी हुई गणेश की पीतल की मूर्ति जंग से विकृत हो रही थी। केवल दूसरी ओर खड़ा श्वेत पत्थर का शिवलिंग अब भी साफ़, चिकना और सधे हुए सिपाही की तरह शान्त खड़ा था। आस-पास की जर्जर अव्यवस्था में उसके दर्पोन्नत भाव से ऐसा जान पड़ता था मानो क्रुद्ध होकर कह रहा हो, ‘मेरी इस निभृत अन्तःशाला में आकर मेरे कुटुम्ब की शान्ति भंग करने वाले तुम कौन?’
दो-एक मिनट प्रोफेसर साहब देहरी पर खड़े-खड़े ही इस दृश्य को देखते रहे। फिर उन्होंने बाँह पर टंगा हुआ अपना ओवरकोट नीचे रखा, एक बार चारों ओर देखकर, निर्जन पाकर भी जूते खोल देना ही उचित समझा, और भीतर जाकर देवी की मूर्ति उठाकर देखने लगे।
मूर्ति अत्यन्त सुन्दर थी। पाँच सौ वर्ष से कम पुरानी नहीं थी। इस लम्बी अवधि का उस पर ज़रा भी प्रभाव नहीं पड़ा था या पड़ा तो पत्थर को और चिकना करके मूर्ति को सुन्दर ही बना गया था। मूर्ति कहीं बिकती तो तीन-चार हज़ार से कम की न होती; किसी अच्छे पारखी के पास होती तो दस हजार भी कुछ अधिक मूल्य न होता। और यह यहाँ उपेक्षित हालत में पड़ी है। न जाने कब से कोई इस मन्दिर तक आया भी नहीं है!
प्रोफेसर साहब ने मूर्ति ठीक स्थान पर सीधी करके रख दी, और फिर देहरी पर आकर उसका सौन्दर्य देखने लगे।
पाँच सौ वर्ष... पाँच सौ वर्ष से यह यहीं पड़ी होगी; न जाने कितनी पूजा इस ने पायी होगी, कितनी बलियों के ताज़े-गर्म-पूत रक्त से स्नान करके अपना दैवी सौन्दर्य निखारा होगा, और अब कितने बरसों से इन रेंगते हुए कीड़ों की लम्बी-लम्बी जिज्ञासु मूँछों की ग्लानिजनक गुद्गुदाहट सह रही होगी... उफ़, देवत्व की कितनी उपेक्षा! मानव नश्वर है; वह मर जाये और उसकी अस्थियों पर कीड़े रेंगें, यह समझ में आता है। लेकिन देवता पत्थर जड़ हैं, उसका महत्त्व कुछ नहीं, लेकिन मूर्ति तो देवता की है; देवत्व की चिरन्तनता की निशानी तो है। एक भावना है, पर भावना आदरणीय है - क्या यह मूर्ति यहीं पड़े रहने के क़ाबिल है, इन कीड़ों के लिए जिनके पास श्रद्धा को दिल नहीं, पूजने को हाथ नहीं; देखने को आँखें नहीं, छूने को त्वचा तक नहीं केवल टटोलने को हिलती हुई गन्दी मूँछें हैं... यह मूर्ति कहीं ठिकाने से होती...
न जाने क्यों प्रोफेसर साहब ने एकाएक मन्दिर-द्वार से हटकर चारों ओर घूम कर देखा; फिर न जाने क्यों आस-पास निर्जन पाकर तसल्ली की साँस ली, और फिर वहीं आ खड़े हुए।
मूर्ति गणेश की भी बुरी नहीं, लेकिन वह उतनी पुरानी नहीं, न उतनी सुन्दर शैली पर निर्मित है। पीतल की मूर्ति में कभी वह बात आ नहीं सकती जो पत्थर में होती है। देवी की मूर्ति को देखते-देखते प्रोफेसर साहब के हृदय की स्पन्दन-गति तीव्र होने लगी - इतनी सुन्दर जो थी वह! वे फिर आगे बढ़कर उसे उठाने को हुए, लेकिन फिर उन्होंने बाहर झाँककर देखा। पर वहाँ कोई नहीं था, कोई आता ही नहीं उस बिचारे उजड़े हुए मन्दिर के पास! किसे परवाह थी कि निर्जन को अपनी दीप्ति से जगमग करती हुई उस देवी की! देवी के प्रति दया और सहानुभूति से गद्गद होकर प्रोफेसर साहब फिर भीतर आये। लपककर उन्होंने मूर्ति को उठाया, और अपने धड़कते हुए हृदय को शान्त करने की कोशिश करते हुए एकटक उसे देखने लगे।
दिल इतना धड़क क्यों रहा है? प्रोफेसर साहब को ऐसा लगा जैसे वे डर रहे हैं। फिर उन्हें इस विचार पर हँसी-सी भी आ गयी। डर किससे रहा हूँ मैं? मैं प्रेतों से? मैं भी क्या यहाँ के लोगों की तरह अन्धविश्वासी हूँ जो प्रेतों को मानूँगा? कविता के लिहाज से भले ही मुझे सोचना अच्छा लगे कि यहाँ प्रेत बसते हैं, और रात को जब अँधेरा हो जाता है, तब इस मन्दिर में आकर देवी के आस-पास नाचते हैं... देवी हैं, शिव हैं, उनके गण भी तो होने ही चाहिए! रात को मूर्तियों को घेर-घेर कर नाचते होंगे और इन न जाने कब के बलि-पशुओं के भस्मी-भूत सींगों से प्रेतोचित प्रसाद पाते होंगे। और दिन में मन्दिर की कन्दराओं में दरारों में छिपकर अपनी उपास्य मूर्तियों की रक्षा करते होंगे, देखते होंगे कि कौन आता है, क्या करता है...
उन्होंने फिर मूर्ति को रख दिया और लौटकर देखा। उन्हें एकाएक लगा जैसे उस अखंड नीरवता में कोई छाया-सा आकार उनके पीछे से भागकर कहीं छिप गया है - प्रेत! वे फिर एक रुकती-सी हँसी-हँसकर बाहर निकल आये। इस घोर निर्जन ने मेरे शहर के शोर से उलझे स्नायुओं को और उलझा दिया है-इसी नतीजे पर वे पहुँचे और फिर मन्दिर की ओर देखने लगे।
दिन ढल रहा था। मन्दिर की लम्बी पड़ती हुई छाया को देखकर प्रोफेसर साहब को ऐसा लगा, मानो वह दूर हटती-हटती भी मन्दिर से अलग होना नहीं चाहती; उससे चिपटी हुई, मानो उसकी रक्षा करना चाहती हो, मानो वह मन्दिर और उसकी मूर्तियाँ उस छाया की गोद के शिशु हों। प्रोफेसर साहब का मन भटकने लगा।
...इजिप्ट के पिरामिड भी इतने ही उपेक्षित पड़े थे। यह मन्दिर आकार में बहुत छोटा है, वे विराट् थे; लेकिन उपेक्षा तो वही थी। उनमें भी न जाने क्या-क्या खजाने ऐसे ही पड़े थे जैसे यहाँ यह मूर्ति। उनके बारे में भी अज्ञान ने क्या-क्या बातें फैला रखी थीं भूत-प्रेतों की... अन्त में यूरोप के पुरातत्त्वविद् साहस करके वहाँ गये; उन्होंने उनमें प्रवेश किया और अब संसार के बड़े-बड़े संग्रहालयों में वे खज़ाने पड़े हैं और महत्त्व के अनुरूप सम्मान पाते हैं। फ़िलोडेल्फ़िया के अजायब-घर में तूतांखेमन् की वह स्वर्ण-मूर्ति - उस नौ सेर खरे सोने का ही मूल्य तीस हज़ार रुपये होगा - फिर प्राचीनता का मूल्य अलग और उसमें जड़े हुए हीरे-जवाहरात का अलग... कुल मिलाकर लाखों रुपये की चीज़ वह...
वे फिर भीतर गये। मूर्ति उठाई और फिर रख दी। रखकर फिर बाहर आ गये। उन्होंने फिर चारों ओर देखा। कोई नहीं था। सूर्य भी एक छोटे-से बादल के पीछे छिप गया था।
एकाएक उनकी घबराहट का कारण स्पष्ट हो गया। कुछ ठंडी-सी जानकर उन्होंने जल्दी से ओवरकोट पहना और फिर भीतर चले गये।
मूर्ति के लिए उपयुक्त यह स्थान कदापि नहीं है। मन्दिर है, पर जहाँ पूजा ही नहीं होती वह कैसा मन्दिर? और गाँववाले परवाह कब करते हैं? यहाँ मन्दिर भी गिर जाए तो शायद महीनों उन्हें पता ही न लगे। कभी किसी भटकी हुई भेड़-बकरी की खोज में आया हुआ गड़रिया आकर देखे तो देखे! यहाँ मूर्ति को पड़ा रहने देना भूल ही नहीं, पाप है।
इस निश्चय पर आकर भी उन्होंने एक बार बाहर आकर तसल्ली की कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है; तब लौटकर मूर्ति उठाकर जल्दी से कोट के भीतर छिपायी, किवाड़ को यथास्थान खड़ा किया, बूट एक हाथ में उठाए, और बिना लौट कर देखे भागते हुए उतरने लगे।
जब देवी का स्थान और उसके ऊपर खड़े दोनों पेड़ों की फुनगी तक आँखों की ओट हो गयी, तब उन्होंने रुककर बूट पहने, और फिर धीरे-धीरे उतरते हुए ऐसा मार्ग खोजने लगे जिससे गाँव में से होकर न जाना पड़े, शिखर के दूसरे मुख से ही वे उतर सकें।
गाँव मील-भर पीछे छूट गया। सेबों के बगीचे फिर शुरू हो गये थे। कहीं-कहीं कोई मधु पीकर अघाया हुआ मोटा-सा काला भौंरा प्रोफेसर साहब के कोट से टकरा जाता; कभी कोई तितली आकर रास्ता काट जाती थी। सूर्य की धूप लाल हो गयी थी-ये सब अपना-अपना ठिकाना खोज रहे थे। प्रोफेसर साहब भी अपने ठिकाने की ओर जा रहे थे-उनका हृदय आह्लाद से भरा हुआ था। उनका पहला ही दिन कितना सफल हुआ था। कितना सौन्दर्य उन्होंने देखा था, और कितना सौन्दर्य, बहुमूल्य सौन्दर्य, उन्होंने पाया था। कुल्लू का अनिर्वचनीय सौन्दर्य-वास्तव में वह देवताओं का अंचल है...
उस समय प्रोफेसर साहब के भीतर जो कुल्लू-प्रेम का ही नहीं, मानव-प्रेम का संसार-भर की शुभेच्छा का रस उमड़ रहा था, उसकी बराबरी कुल्लू के प्रसिद्ध रस-भरे सेब भी क्या करते! प्रोफेसर साहब की स्नेह उड़ेलती हुई दृष्टि के नीचे वे सेब मानो पककर, रस से और भर जाते थे, उनका रंग कुछ लाल हो जाता था। कितने रस-गद्गद हो रहे थे प्रोफेसर साहब!
सेब के बाग में फिर कहीं धमाका हुआ। प्रोफेसर साहब ने देखा, एक लड़का उन्हें देखकर शाख से कूदा है, उसके कूदने के धक्के से फलों से लदी हुई शाखा भी टूटकर आ गिरी है।
प्रोफेसर साहब ने रौब के स्वर में कहा, “क्या कर रहा है?”
लड़के ने सहम कर उनकी तरफ़ देखा - वही लड़का था। हाथ का थोड़ा-सा खाया हुआ सेब वह कोट के गुलूबन्द के भीतर छिपा रहा था।
प्रोफेसर साहब के तन में आग लग गयी। लपककर बालक के कोट का गला उन्होंने पकड़ा, झटका देकर सेब बाहर गिराया, दो तमाचे उसके मुँह पर लगाते हुए कहा, “बदमाश, फिर चोरी करता है! अभी मैं डाँट के गया था, बेशर्म को शर्म भी नहीं आती!”
उन्होंने लड़के को छाती से धक्का दिया। वह लड़खड़ा कर कुछ दूर जा पड़ा, गिरने को हुआ, सँभल गया; फिर एक हाथ से कोट को थामकर जहाँ प्रोफेसर साहब ने धक्का दिया था, एक दर्द-भरी चीख मारकर रो उठा।
चीख सुनकर प्रोफेसर साहब को कुछ शान्ति हुई, कुछ आनन्द-सा हुआ। विद्रूप से उन्होंने कहा, “क्यों दुखती है छाती? और छिपाओ सेब वहाँ पर!”
बात में भरे तिरस्कार को और तीखा बनाने के लिए उनके हाथ ने उनका अनुकरण किया, उठकर तेज़ी से प्रोफेसर साहब के ओवकोट के कॉलर में घुसा।
एकाएक प्रोफेसर साहब पर मानो गाज गिरी। एक चौंधिया देनेवाला आलोक क्षण-भर उनके आगे जलकर एक वाक्य लिख गया, “इसने तो सेब ही चुराया है, तुम देवस्थान लूट लाए!”
सहमे हुए, स्तम्भित-से प्रोफेसर साहब क्षण-भर खड़े रहे, फिर धीरे-धीरे उलटे-पाँव गाँव की ओर चल पड़े।
तर्क उन्हें सुझाने लगा कि यह बेवकूफी है, उनकी दलील बिलकुल गलत है, तुलना आधारहीन है, लेकिन ये न जाने कैसे इस तर्कबुद्धि की प्रेरणा के प्रति बहरे हो गये थे। जैसे-जैसे भीतर कोलाहल बढ़ने लगा, उसे रोक रखने के लिए उनकी गति भी तीव्रतर होती गयी... जब वे आँधी की तरह गाँव में गुज़र रहे थे तब घर जाता हुआ प्रत्येक व्यक्ति कुछ विस्मय से उनकी ओर देखता, और उन्हें लगता कि वे उनकी छाती की ओर ही देख रहे हैं, जैसे उस काले ओवरकोट की ओट में छिपी हुई देवमूर्ति से, और उसके पीछे प्रोफेसर साहब के दिल में बसे हुए पाप को, वे खूब अच्छी तरह जानते हैं...
अँधेरा होते-होते वे मन्दिर पर पहुँचे। किवाड़ एक ओर पटककर उन्होंने मूर्ति को यथास्थान रखा। लौटकर चलने लगे, तो आस-पास छाए हुए और अब अँधेरे में भयानक हो गये सुनसान ने उन्हें फिर सुझाया कि वे एक निधि को नष्ट कर रहे हैं, लेकिन न जाने उनके मन में शान्ति उमड़ आयी; उन्हें लगा कि दुनिया बहुत ठीक है, बहुत अच्छी है।
(कलकत्ता, नवम्बर 1937)