सेल / इला प्रसाद
सुमि गौर से अखबार के पन्ने पलट रही है। इस सबडिविजन में सिर्फ़ वे ही हैं जेा अखबार खरीदते हैं वरना अखबार खरीदने में यहाँ लोग पैसे खर्च नहीं करते। जब कोई बड़ी सेल आती है तो अल्लसुबह गैस स्टेशन पर जाकर कूपन उठा लाते हैं। आखिर कूपन ही तो चाहिए न। सेल के कूपन। नहीं तो फिर अखबार खरीदने की जरूरत क्या है! सुमि को भी लगता है लोग ठीक ही करते हैं। किसे वक्त है अखबार पढ़ने का। रवीश को वह बार बार टोकती भी है, "सारा समय तो आफ़िस में बीत जाता है़ कभी तो पढ़ते नहीं। इन्टरनेट पर खबरें देख लेते हो। टी वी है ही तो फिर घर में कचरा जमा करने की क्या जरूरत है?"
"दो कूपन भी उपयोग में आए तो अखबार की कीमत अदा हो गई न।"
"मैं पैसों की बात नहीं कर रही।" सुमि सफाई देती है। अमेरिका में इतने वर्ष बिताकर भी वह पैसों और रूपयों की ही बात करती है। डालर बोलना नहीं सीख पाई।
कल थैंक्सगिविंग सेल है।
लोग सुबह चार बजे से दूकानों के बाहर खड़े हो जायेंगे। सबकी लम्बी-लम्बी लिस्ट होगी। फिर अगले दिन अखबारों में उनकी तस्वीरें होंगी। वक्तव्य होंगे। उसने इतने सस्ते में यह खरीदा और उसने वह। बेस्ट बाई में सबसे ज्यादा भीड़ थी या सकिर्ट सिटी में। मौसम की सबसे ज्यादा सेल कहाँ हुई और वह पिछले सालों से तुलनात्मक रूप में ज्यादा थी या कम,वगैरह वगैरह।
यह साल की सबसे बड़ी सेल है।
सच पूछो तो सालों भर यहाँ सेल लगी रहती है। हर चीज की। मिटटी से लेकर टेलीविजन तक, सबकुछ बिकाऊ है यहाँ। कभी- कभी सुमि को लगता है पूरा अमेरिका एक बहुत बड़ा बाजार है। हर चीज बिकाऊ है यहाँ और सेल पर है।फ़िफ्टी परसेन्ट आफ, सेवेन्टी फ़ाइव परसेन्ट आफ, बाई वन, गेट वन फ़्री । स्थायी तो जीवन में जैसे कुछ है ही नहीं।
"यहाँ लोग बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। थोड़े- थोड़े समय पर नई चीजें खरीदते रहते हैं। पाँच साल में कार बदल ली। दस साल में घर। तुम भी चाहो तो गराज सेल लगाकर अपने पिछले साल खरीदे कपड़े वगैरह बेच सकती हो।" रवीश ने बताया था।
"मै क्यों बेचने लगी।" वह चिंहुकी।
"नए ले लेना।" रवीश ने चिढ़ाया।
"एक नया पति न ले लूँ। बोर हो गई मैं तो तुमसे भी।" उसने बनावटी गंभीरता से कहा।
रवीश ने कसकर एक धौल जमा दी थी।
सुमि को पता है। गराज सेल यानी अपने घर के गराज के बाहर दूकान लगाकर बैठ जाओ। पूरे सबडिवीजन में नुक्कड़ों पर,हो सके तो सबडिवीजन की बाहर खुलती मुख्य सड़क पर और तमाम मित्रों- परिचितों के बीच अग्रिम लिखित, अलिखित सूचना दे दो़,चिपका दो। पहली बार जब अपने मेक्सिकन पड़ोसी की सेल देखी थी तो अजीब लगा था। अब सब सामान्य लगता है। लोगों के हर रोज बदल जाते रिश्ते भी।
शुरू-शुरू में जब नई-नई अमेरिका आई थी तो उसे बड़ा मज़ा आता था। उसे याद है, वह चकित रह गई थी कि कूपन भरकर भेज देने से इतनी सारी चीजें मुफ्त में अपनी हो जाती हैं। उसने उस साल घूम -घूम कर खूब खरीददारी की थी। उन तमाम चीजों की, जो बाद में उसकी हो जानेवाली थीं। ढेर सारी अनाप- शनाप चीजें, जिनकी उसे बिल्कुल ही जरूरत नहीं थी। बस, मुफ्त में पाने का मज़ा! केवल लिपिस्टिक, नेलपालिश वगैरह ही ढेर सारे जमा करने पर भी बेकार नहीं होनेवाले थे। वह जब भारत जायेगी तो अपने मित्रों परिचितों को बाँट देगी। फिर अगले कई दिनों तक वह कूपन भर- भर कर भेजती रही थी। और आश्चर्य, पैसे आए भी थे।
"ये इस तरह मुफ्त में चीजें क्यों देते हैं?" उसने रवीश से पूछा था।
"इसलिए कि इन्हें पता है कि आधे लोग कूपन भरकर भेजना भूल जायेंगे,अपनी अति व्यस्त दिनचर्या में। कूपन भेजने की तारीख होती है,उस दिन तक नहीं भेजा तो बेकार। दूसरी बात पुराना माल क्लीयर करना है और फिर यदि इनकी चीज तुम्हें पसंद आ गई तो अगली बार सेल न होने पर भी तुम खरीदोगी। यहाँ ग्राहक बनाने की होड़ है।"
"हाँ, जैसे कि मुझे उस सीरियल की आदत पड़ गई है और मैं वही खाती हूँ। सेल तो नहीं होती हमेशा।"
"तुम समझदार हो रही हो।" रवीश मुस्कराए।
अब सुमि का जोश ठंढा पड़ गया है। घर में जरूरत की तमाम चीजें जुटा चुकी है वह। सेल में खरीद खरीद कर। सच तो यह है कि सेल में चीजें खरीदने की ऐसी आदत पड़ चुकी है उसे कि जरूरत होने पर भी तबतक टालती रहती है जबतक वह चीजें सेल में न आ जाएँ। यहाँ तक कि हर सप्ताह सारी दूकानों के सेल के कागज में सब्जी के दामों की तुलना कर वह यह तय करती है कि इस सप्ताह "फूड टाउन" जायेगी या "फियेस्टा" या कहीं और। इतनी बड़ी दूकानें। एक सब्जी खरीदने जाओ तो चल- चलकर पैर दुख जाते थे। अब आदत पड़ गई है।
यहाँ तो यह हाल है कि लोग लोन लेकर पढ़ाई करते हैं। लोन में घर, कार और जरूरत की तमाम चीजें मसलन,सोफा,पलंग, टी वी वगैरह खरीदते हैं। लोन लेते हैं शादी करने के लिए, बच्चे पैदा करने के लिए। फिर बच्चों के खर्चे। यूँ समझ लो एक अंतहीन सिलसिला, जो दिवालिया होकर सडक पर आ जाने पर ही खत्म होता हैं। सुमि इनके जैसी नहीं बनना चाहती।
शुरू में यह सब समझ में नहीं आता था।
वह समझ नहीं पाती थी कि उसके घर मात्र घास काटने के लिए आनेवाला होज़े इतनी बड़ी गाड़ी कैसे चलाता है। वह गाड़ी तो उसकी अपनी है। नयी भी है। वह इतने बड़े घर में रहता है। सुमि का अपना घर तो उससे छोटा है। एक दिन डरते -डरते रवीश से बोली
"अपना होज़े बहुत अमीर है न?"
"हाँ, तुमसे तो ज्यादा है ही।"
सुमि का मुँह छोटा सा हो गया। रवीश की समझ में आया। हँसे। फ़िर उसे सहलाते हुए से बेाले, "बस इतना है कि तुम्हारा घर अपना है। कोई लोन नहीं है और वह अगले कई सालों तक लोन भरेगा।"
"घर का?"
"घर का,कार का,सबकुछ का। आम अमेरिकी गले तक कर्ज में डूबा हुआ होता है।"
तब से सुमि प्रभावित नहीं होती। किसी का बड़ा सा घर देखती है तो सोचती है,"क्या पता, किस नौकरी में है। कितने कर्जे हैं।कितना बड़ा लोन है!"
शादियों के सूट तक लोग भाड़े पर लेते हैं। टक्सीडो पहनने का रिवाज जेा है। सुमि को नहीं चाहिए यह सब। न ही उसे चार बजे सुबह उठकर लाइन में लगना है। न गैस स्टेशन से अखबार के कूपन जमा करने हैं। वह अपने छोटे से घर में, छोटी छोटी सहूलियतों के बीच खुश है।
लेकिन तब भी कुछ खलता है।
बेटियाँ बड़ी हो रही हैं। तुमुल नौ की होने को आई। तनुज छह की। इनके लिये जब वह कपड़े खरीदने जाती है और सेल के बावजूद उनकी ऊँची कीमत देख कर रुक जाती है, तब बहुत खलता है।
और बच्चों को कहाँ समझ है।
तनु को रोली की लेक्सस कार अच्छी लगती है।“कित्ती बड़ी है न मॉम ।“
"तो क्या हुआ तनु? अपनी कोरोला भी तो अच्छी है। हमसब कितने आराम से बैठते हैं!"
तनु ने उसे सीधी आँखों से देखा, मानो कह रही हो "क्यों झूठ बोलती हो माम।"
सुमि आजकल परेशान रहती है। यहाँ किसी की नैाकरी स्थाई नहीं होती। कैसे भरोसा करे। ऊपर से ये कम्पिनयाँ गधे की तरह खटाती हैं। हर महीने यहाँ वहाँ टूअर पर जाना। रह जाती है अकेली सुमि,घर और बच्चियों को सम्भालती। उन्हें स्कूल ले जाती,वापस लाती। रवीश की अनुपस्थिति में,सप्ताहांत में उन्हें यहाँ वहाँ घुमाती, चकरघिन्नी सी घूमती रहती है। इस सबके बावजूद उनदोनों ने जोड़-जोड़कर इतना जुटा लिया है तो वह कम नहीं है। घर अपना, कार अपनी। सबकुछ तो है और सारे लोन चुक चुके हैं। इससे आगे चाहिए क्या। अब बस इन दोनों की चिन्ता है।लेकिन इन बच्चों को कौन समझाए! अमेरिका की उपभोक्ता संस्कृति में पल बढ़ रही उसकी बच्चियाँ रोज ही कुछ देख आती हैं, कुछ सुन आती हैं। अमेरिकी हो रही हैं ये, सुमि सोचती है, रोके तो कैसे! और रोकना मुनासिब है क्या! कहीं हीनभावना की शिकार न हो जाएँ उसकी बच्चियाँ। इतनी बड़ी भी नहीं हैं कि समझ सकें इतनी बड़ी-बड़ी बातें। सोच सकें उस तरह,जिस तरह सुमि सोचती है। उसे भी तो वक्त लगा था।बड़ी थी वह तो। तब भी…..
शाम को खेल कर लौटी दोनों बच्चियाँ उसे उत्साह से बतला रही थीं।
"मॉम, मैक का जेा टी वी है न, उसका स्क्रीन ४२ इंच है। सच, हैरी पॉटर देखने में बड़ा मजा आया। हम भी वैसा खरीदेंगे। है न मॉम?"
सुमि के हाथ में सेल के पेपर हैं।
उसने एक फैसला सा किया। मिनटों में। बोली,"हाँ बेटे,अभी थैंक्सगिविंग की सेल है न। खरीदेंगे।“
बच्चियों की आँखों में चमक आ गई। सुमि ने उन्हें करीब खींच लिया। लिपट गईं वे उससे। वह देर तक उनकी कोमल बाँहों को गले के इर्द-गिर्द महसूसती रही…..
रात को उसने रवीश से कहा- "मैं इस बार टी वी बदल डालूँगी। बेटियाँ बार- बार दूसरों के घर देख आती हैं। उन्हें लगता है कि अपना टीवी बहुत छोटा है।"
“तुम उन्हें समझाती क्यों नहीं? इस तरह तुलना करने की आदत पड़ गई तो कल को सबकुछ बड़ा चाहिए होगा इन्हें। बडा घर, बड़ी कार। और अपने सिर पर बड़ा लोन। यहाँ शिक्षा कितनी मंहगी है,जानती तो हो। इनकी पढ़ाई का खर्च जुटाना मुश्किल हो जायेगा।" रवीश खीझ गया।
"तुम परेशान क्यों होते हो? मैं थैंक्सगिविंग सेल में जाउँगी।" वह शान्त थी।
"चार बजे सुबह उठकर?"
"हाँ, क्या हुआ!"
"ठीक है,जाना। मुझे मत उठाना। मैं नहीं आनेवाला।"
"जैसे मुझे कार चलाना नहीं आता।"
"और जो टी वी अपने पास है, उसका क्या करोगी?"
"तुम गराज सेल लगा लेना।"
"मजाक मत करो।"
"अपने बेड रूम में ले लेंगे।" रवीश ने हथियार डाल दिए।
सुमि अखबार देख चुकी है।सीयर्स में सबसे पहले आनेवाले पाँच ग्राहकों को बयालीस इंच स्क्रीन वाला टी वी डेढ़ सौ डालर में मिलेगा। डेढ़ सौ डालर तो वे खर्च कर ही सकते हैं। इस बार वह जरूर जायेगी।
वह अधीरता से इंतजार कर रही है।
घड़ी में तीन बजे का अलार्म लगाया था लेकिन पहले ही उठ गई। नींद कुछ ठीक से नहीं आई। क्या फर्क पड़ता है। एक दिन की बात है।कल सो लेगी।
आधे घंटे की ड्राइव। वह सचमुच सुबह चार बजे सीयर्स के सामने थी। नवम्बर की ठंढ! मफलर से कान मुँह लपेटा और मोटे कोट की जेब में हाथ डाल कार से बाहर निकल आई। गमार्हट का अहसास तब भी गायब था। वातानुकूलित घरों में रहने की आदत ने बहुत कमजोर बना दिया है। ये लोग कोई शेड क्यों नहीं बनाते। लाइन में खड़े- खड़े दाँत बज रहे हैं। अच्छा होता वह भी औरों की तरह एक कप कॉफ़ी उठा लाती। अभी तो खुशबू से ही गर्म होने की कोशिश कर रही है। टी वी लेकर घर जायेगी तो बेटियाँ खुशी से नाच उठेंगी। रवीश भी खुश ही होंगे। चाहे अभी नाराजगी दिखा रहे हों। बस खुले आकाश के नीचे चार घंटॆ गुजार ले। यहाँ तो लोग पूरे हफ़्ते भर इसी तरह खरीददारी करते हैं। सुबह से शाम तक। उसके लिये तो कुछ घंटों की बात है। आठ बजे दूकान खुल जायेगी। वह लाइन में तीसरी है। पाँच टी वी हैं, उसे तो मिलना ही है।
पीछे खड़ा नौजवान जोड़ा एक दूसरे से चिपका खड़ा है। गर्म कॉफ़ी के छोटे-छोटे घूँट भरता हुआ।
सुमि लाइन से निकलने का खतरा नहीं उठाना चाहती। पहली बार आई है। किसी को जानती नहीं। क्या पता जगह छिन जाये। नहीं तो स्टारबक कॉफ़ी पास में ही है। सुबह पाँच बजे से कॉफ़ी और ऐसी ही नाश्ते की कई दूकानें खुल जाती हैं, इस सेल के मद्देनजर। उन दूकानों में काम करने वाले ओवर टाइम कमा लेते हैं। सबका फ़ायदा!
और जो इस तरह सेल लगाते हैं ये, उससे इनका अच्छा- खासा विज्ञापन भी तो होता है। उसे याद आया , जब आइकिया फ़र्नीचर का शो-रूम उसके शहर में खुला था तो उन लोगों ने पहले पाँच हजार ग्राहकों को कुछ हजार के फ़र्नीचर मुफ़्त में देने की घोषणा की थी और लोग सप्ताह भर पहले से खुले में टेंट गाड़ कर बैठ गये थे। वह अखबार में रोज उनकी खबरें पढ़ती और उन पर तरस खाती। अभी कुछ कुछ समझ में आ रहा है कि कैसे लाइन में खड़े होते हैं लोग, जब वह खुद ऐसी ही एक भीड़ का हिस्सा बनी खड़ी है। कोई बात नहीं, अभी सुबह हो जायेगी। इतना भी क्या सोचना। क्या वह रोज-रोज आनेवाली है।
दूकान खुली। सेल्स गर्ल ने मुस्करा कर उसका स्वागत किया।
घटी हुई कीमत चुकाते हुये वह बहुत हल्का महसूस कर रही थी। "हैप्पी थैंक्सगिविंग" उसने काउन्टर पर खड़ी लड़की को प्रत्यु़त्तर में कहा। बाहर निकली तो धूप खिल चुकी थी। सुमि मुस्करा उठी। कभी-कभी ऐसा भी होता है। अन्दर भी धूप, बाहर भी धूप! टी वी लेकर वह यूँ घर लौटी जैसे जंग जीतकर आई हो।बेटियाँ खुशी से नाच उठीं। रवीश भी मुस्कराए।सुमि ने संतोष की सांस ली।सेल चलती रही। थैंक्सगिविंग से शुरू हुई सेल अब क्रिसमस की सेल में बदल गई। फिर आफ्टर क्रिसमस सेल। सुमि को कोई दिलचस्पी नहीं। वह बेटियों को खुश देखकर खुश है। रवीश उसे देखकर खुश हैं। घर में शान्ति है। टी वी देखती है तो अपने पर फख्र हो आता है।सुमि विजेता की तरह घर में घूमती है।
एक साल होने को आया…….
थैंक्सगिविंग की छुट्टियाँ हो गईं।
सुमि के लिये ये थोड़े से दिन चैन के हैं। रवीश घर पर हैं। वह एक सप्ताह चैन से सोयेगी।
तुमुल आज का अखबार उठा लाई है।
"मॉम, पता है आजकल फ्लैट स्क्रीन एच डी टी वी की सेल चल रही है। पचास इंच स्क्रीन वाला।तुम अखबार में देखो न।"
सुमि चुप।
"मॉम पता है, कार की भी सेल होती है," यह तनुज थी, "थैंक्स गिविंग में खरीद सकते हैं, है न मॉम!"
"ममा, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं? बोलो,हाँ,खरीदेंगे।" तनुज ने उसका हाथ पकड़कर खींचना शुरू कर दिया था।
क्या बोले सुमि? इतनी अल्पजीवी होगी उसकी जीत, उसने कब सोचा था!