सेवानिवृत्त अफसरों का संगीत प्रेम / जयप्रकाश चौकसे

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सेवानिवृत्त अफसरों का संगीत प्रेम /
प्रकाशन तिथि : 26 मई 2014


प्रायः संगीत क्षेत्र में सृजन करने वाले सुर्खियों में रहते हैं या सुर्खियों में आने के लिए बेकरार रहते हैं परंतु एक संगीत दल किसी तरह का प्रचार नहीं चाहता वरन् अपनी निजता की रक्षा भी बड़े जतन से करता है। इस रॉकबैंड के कीबोर्ड और गिटार बजाने वाले शहाबुद्दीन याकूब कुरैशी हैं, जो 2010 से 2012 तक चुनाव आयोग के शीर्ष अफसर रहे हैं और उनके प्रमुख गायक हैं- शिवशंकर मेनन, जो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं तथा मधुकर गुप्ता प्रमुख ड्रम बजाने वाले हैं, जो भूतपूर्व गृह सचिव हैं। निरुपमा राव इस रॉकबैंड के लिए गाती हैं, जो कभी अमेरिका में भारत की राजदूत रही हैं। इस रॉकबैंड के सारे सदस्य आला अफसर रहे हैं और सेवानिवृत्त होने के बाद अपने प्रिय संगीत को साधते हैं और इनमें से सभी के पास ऊंचे पदों पर अतिरिक्त नियुक्ति के अवसर भी रहे हैं परंतु इन्होंने नियमानुसार सेवानिवृत्त होना पसंद किया। अत: यह लोभमुक्त व्यक्तियों का दल है और लाभ तथा लालच की काजल की कोठरी से बेदाग निकले हैं और इन्हें कभी 'मेरी कमीज उससे उजली क्यों नहीं है' नामक रोगाणु ने नहीं घेरा।

सन् 1893 में हुकूमत-ए-ब्रितानिया ने फैसला किया कि उनके अपने देश के प्रशासन के ढांचे को अपने अधीन देशों में प्रारंभ करना है, अत: इम्पीरियल सिविल सर्विस के इम्तहान में गुलाम देशों के प्रतिभाशाली लोगों को एक कठिन परीक्षा में पास होने के बाद अपनी उपनिवेशवादी संस्कृति में ढालकर उनके हाथ प्रशासन दिया जाए! अंग्रेज न केवल गुलाम देशों की धरती के नीचे और ऊपर की संपदा का दोहन करते थे वरन् उन्होंने गुलाम देशों की प्रतिभा का भी दोहन शुरू किया परंतु अपने उपनिवेशवादी मंसूबों के साथ अपने न्याय समानता और धर्मनिरपेक्षता के गुणों से भी इन प्रतिभाओं को सींचा और इस प्रशासनीय यंत्र से भारत में कम अंग्रेजों की मौजूदगी के बावजूद सुचारू शासन चलाया और स्वतंत्रता के बाद इस मशीन को इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस-आई.ए.एस. के नाम से जारी रखा गया। इस वर्ग के लोगों में आजादी के बाद इस अकड़ के साथ यह भाव भी शामिल हो गया कि वे अन्य लोगों से अलग हैं और एक नए श्रेष्ठिवर्ग का विकास हुआ और इसकी पत्नियों की ठसक सामंतवादी औरतों की तरह रही।

आजादी के बाद अनेक वर्षों तक इस वर्ग ने न्याय, समानता और धर्मनिरपेक्षता का वहन किया परंतु धीरे-धीरे पुरानी भारतीय सामाजिक बीमारियों ने इस वर्ग को आ घेरा। इसके अवचेतन में अंग्रेजों द्वारा भरे गए उपनिवेशवाद की जगह सामंतवाद आ गया परंतु इस तरह के साधारणीकरण से हम उन निष्ठावान अफसरों के साथ अन्याय कर जाते हैं। यह श्रेष्ठिवर्ग हमेशा स्वयं को अपने आका के रंग में ढालता है या आका को अपने रंग में ढाल लेता है। बीबीसी पर 'यस मिनिस्टर' से प्रेरित दूरदर्शन ने इसे बनाया था, जिसमें फारूख शेख ढुलमुल मंत्री बने और अक्लमंद अफसर अपनी बात उनके मुंह से कहलवाकर शासन अपनी मर्जी का चलाता है। यह बात कुछ ऐसी ही है जैसे कुछ पति-पत्नी अपनी इच्छा को दूसरे के मुंह से कहलाने में सक्षम होते हैं। कुछ पति यह भी स्वीकार करते हैं कि वे घर के मालिक हैं और पत्नी की इच्छा से ही ये घोषित कर रहे हैं। अफसर और मंत्री का रिश्ता ऐसा ही होता है। विगत कुछ वर्षों में सतह के नीचे प्रवाहित भ्रष्टाचार सतह पर आ गया तब मंत्रियों के साथ अफसरों की कड़ी आलोचना हुई और उनका मखौल भी खूब बनाया गया जैसे गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है।

प्राय: जिस व्यवस्था की सड़ांध की आलोचना की जाती है, उसके मूल ढांचे में कोई खराबी नहीं है परंतु पूरे देश में नैतिक मूल्यों के पतन से कोई भी क्षेत्र अछूता कैसे रह सकता है। जब तक कोई भी सरकार इस अफसरशाही में आमूल परिवर्तन नहीं करती तब तक सुशासन संभव नहीं है। आईएएस की परीक्षा प्रणाली को सशक्त बनाकर प्रतिभा को छलनी से साफ करने के बाद उनकी ट्रेनिंग में भारत के ग्रामीण अंचल के सघन दौरे शामिल करने चाहिए। देश के आवाम को नेता चुनाव के नतीजों से समझ रहे हैं परंतु ये भूल अफसरवर्ग को नहीं करनी चाहिए। इन अफसरों का जमीनी हकीकत से परिचय होना जरूरी है। अफसर अपने बगीचे के गमले में दाने डालकर उसकी पैदावार से अपने क्षेत्र की फसल का आकलन मंत्री को भेजता रहा है। इस शैली को बदलना होगा। ये मामला कुछ ऐसा ही है जैसे फिल्म विधा के प्रशिक्षण में यूरोप का सिनेमा पढ़ाया जाता है और निर्देशकों का असल भारत से परिचय ही नहीं है।

विगत कुछ दशकों में औद्योगिक घरानों ने अफसरों को उनके हित साधने के काम में लगा दिया है और इस क्षेत्र में कुछ विदेशी घुसपैठ भी हुई है अत: प्रशासनिक ढांचे की सफाई और उनके नितांत भारतीय होने पर जोर दिया जाना चाहिए परंतु इसमें एक खतरा ये है कि हमारे यहां भारतीयता की अनेक परिभाषाएं हैं। सारांश यह है कि अफसर वर्ग में न्याय, समानता और धर्मनिरपेक्षता के गुणों को दोबारा स्थापित करना होगा। हमें यह भी नहीं भूलना है कि इसी वर्ग के कुछ लोग सेवानिवृत्त होकर संगीत रचते हैं अत: पूरे वर्ग की आलोचना के साधारणीकरण से बचना चाहिए।