सैद्धांतिकी से व्यावहारिकी तक की बीहड़ यात्रा / राकेश बिहारी
संजीव की पाँच प्रतिनिधि कहानियों को प्रस्तुत करने का 'पाखी' का प्रस्ताव मुझे सुनने में जितना आसान लगा था हकीकत में यह उतना ही मुश्किल और दुःसाध्य हो गया। संजीव के विपुल कथा साहित्य से पाँच कहानियों को चुनते और उस पर टिप्पणी करते हुए मुझे तरह-तरह की मनःस्थितियों से गुजरना पड़ा। संजीव की कहानियों ने मुझे चकित भी किया और व्यथित भी। स्तब्ध भी किया और हर्षित भी। संजीव की कथा-यात्रा यानी एक ऐसी दुनिया जो भाषा और अनुभवों के सहारे जीवन को थम-थम कर देखती है, उसकी खूबसूरती और त्रासदी दोनों के साथ। संजीव की कहानियाँ महज कहानियाँ नहीं हो कर एक ऐसे कथा-पुरुष की जीवन यात्रा है जिसने साहित्य और समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के निर्वहण में न तो कभी सौदा किया और न ही विज्ञापन और चुपचाप नदी, सागर से ले कर जंगल और पहाड़ तक की यात्रा करता रहा हर रोज एक नई कथा की खोज में। अन्वेषण संजीव के कथा विन्यास के लिए सबसे जरूरी रसायन है। लेकिन यह अन्वेषण, शोध या खोज अखबारी रपट भर न हो कर जीवन और जगत के विभिन्न रूपों से एक ऐसा आत्मीय साक्षात्कार है जिससे गुजरते हुए पाठक खुद को उस जीवन संसार का प्रत्यक्षदर्शी मान बैठता है। एक ऐसी प्रामाणिकता जो कैमरे के लेंस में सीधे के सीधे कैद हो जाए। लेकिन ये कहानियाँ सिर्फ फोटोग्राफी नहीं हैं। संजीव जिस तरह इन जीवन-दृश्यों के बीच पात्रों की प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं उससे न सिर्फ विभिन्न भौगोलिक परिसीमाओं के जीवन की जद्दोजहद हमारे साथ चलने लगती है बल्कि उस सामाजिक-भौगोलिक क्षेत्र को देखने-समझने की एक नई दृष्टि भी हमें मिल जाती है और यहीं आ कर भूप सिंह, नसीबन, आयशा और गोपाल जैसे पात्र किसी कहानी के चरित्र भर न हो कर हमारे हाथ में एक ऐसे आईने की तरह आते हैं जिसमें हम सब अपना-अपना चेहरा भी तलाश सकते हैं और अपने-अपने हिस्से की धूप-छाँह भी। यहाँ संजीव की जो पाँच कहानियाँ मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ वे न सिर्फ संजीव की बल्कि हिंदी कथा-यात्रा के पाँच महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। यहाँ समुद्र भी है और पहाड़ भी, जंगल भी है तो संगीत भी और इन सब के बीच एक ऐसी चेतना संपन्न दृष्टि जिसके आलोक में व्यवस्था का पूरा सच देखा जा सकता है। ये कहानियाँ अपने कथानकों, अपने पात्रों, उनकी परिस्थितियों-मनःस्थितियों में छुपी अकुलाहटों और उसमे अंतर्निहित सूक्ष्म संवेदनाओं के सहारे हिंदी कहानी और हमारे जीवन का एक जरूरी हिस्सा रचती हैं।
संजीव की कहानियों को पढ़ते हुए मेरे दिमाग में उनका कथाकार और संपादक दोनों साथ-साथ चलते रहे और मुझे आश्चर्य हुआ कि उनका संपादक कई बार उनके कथाकार का विलोम रचता है। संपादक संजीव को स्त्री विमर्श में बहुत ज्यादा विश्वास नहीं लेकिन इस चयन की दो महत्वपूर्ण कहानियाँ 'सागर सीमांत' और 'मानपत्र' स्त्री जीवन की त्रासदियों का एक ऐसा भाष्य रचती हैं जिसके आलोक में स्त्री विमर्श के कई प्रतिमान रचे जा सकते हैं। संपादक संजीव को शिकायत है कि आज के कथाकार भाषा पर जरूरत से ज्यादा काम कर रहे हैं। लेकिन कथाकार संजीव भाषा का एक ऐसा वितान प्रस्तुत करते हैं जिसमे सम्मोहन का जादू भी है और पाठकों के मन में प्रश्नों की अकुलाहट भर देने वाला सामर्थ्य भी। भाषा का एक ऐसा प्रयोग जिससे हम नए रचनाकार सौंदर्य और विडंबना को समान रूप से एक ही साथ व्यक्त करने का कौशल सीख सकें। एक उद्धरण द्रष्टव्य है - "पहले पहाड़ तक रास्ता ठीक-ठाक था, मगर उससे उतरते ही धूप का उजला चँदोवा जहाँ-तहाँ दरकने लगा था।। धूप की सुनहरी पट्टियों के बीच छाया की स्याह पट्टियाँ मानो धारीदार खालों वाला वह विशाल जानवर बैठ कर पगुरा रहा था। पता नहीं कौन किसका पैबंद था, उजाला अँधेरे का या अँधेरा उजाले का।"
संजीव की कहानियों में प्रकृति सिर्फ प्रकृति चित्रण के लिए नहीं आती बल्कि वह जीवन के साथ रच-बस कर परिस्थिति और परिवेश पर एक चुस्त और असरदायक टिप्पणी के रूप में उपस्थित होती है। एक ऐसी टिप्पणी जो हमारे सामने भाषा और प्रकृति का सौंदर्य तो उकेरती ही है अपने भीतर से झाँकते जीवन-संघर्षों का खुलासा करते हुए हमें बेचैन कर देने वाले त्रासद यथार्थ की ऐसी घाटी में खड़ा कर देती है जहाँ से जीवन की सिसकी और उसके संगीत दोनों की ध्वनियाँ बिना किसी बाधा के सुनी जा सकती हैं, पारदर्शी और स्पष्ट।
'आरोहण' कहानी में शेखर बाइनो क्यूलर से पहाड़ों और घाटियों की सुंदरता देखने में रमा हुआ है और उसी के साथ माही गाँव को जाता रूप...? अपनी आँखें बंद कर के ग्यारह साल पीछे से अपने गाँव को देखता है जो अभी पंद्रह किलोमीटर दूर है। एक तरफ बाइनो क्यूलर से देखता शेखर और दूसरी तरफ बंद आँखों से देखता रूप... दोनों के बीच आते ही पाठक जैसे स्तब्ध हो जाता है। आखिर सत्य क्या है, दूरदर्शी यंत्र से दिख रहा है वह या कि आँखों के कोर में बंद हो कर भी जो दृश्यमान है वह? और एक बार फिर उसके सामने यही प्रश्न खड़ा हो उठता है... 'पता नहीं कौन किसका पैबंद था, उजाला अँधेरे का या अँधेरा उजाले का?' संजीव का पूरा लेखन अँधेरे और उजाले के इसी पैबंद की तलाश है।
भूप सिंह और रूप सिंह दो भाइयों की कहानी के बहाने व्यावसायिकता और भावनात्मकता के बीच पहाड़ के जीवन संघर्षों, वहाँ की विडंबनाओं और त्रासदियों की मजबूत गवाही है 'आरोहण', जिसमें पहाड़ की खूबसूरती से ज्यादा वहाँ की भयावहता है। पहाड़ को संजीव ने एक सैलानी की दृष्टि से नहीं एक पहाड़ी की दृष्टि से देखा है। बाहर से जा कर भी इनसाइडर हो जाना संजीव के कथाकार की सबसे बड़ी विशेषता है। भूप सिंह, एक ऐसा व्यक्ति जो अपने संबंध, संवेदना, सपने और अपनी माटी की महक और उष्मा के प्रति अपनी आस्था को बचाने की कोशिश में एक-एक पल जी रहा है... या कि पल-पल मर रहा है, हमारे सामने किसी पहाड़ सा ही आ खड़ा होता है, अपनी अडिगता और विराटता के साथ। पर्वतारोहण की तमाम आधुनिक कलाएँ, उसकी प्रविधियाँ, उसके उपकरण सब बौने हैं उसके आगे। कारण कि जिस धैर्य, आत्मविश्वास, ताकत और कुशलता से वह अपनी मांसपेशियों और अंगों का उपयोग करता है वह शिमला या मसूरी के किसी ट्रेनिंग सेंटर में नहीं सीखी जा सकती, उसे तो वक्त और परिस्थितियों के थपेड़ों से लड़ कर ही सीखा जा सकता है। आखिर ऐसा हो भी क्यों नहीं, पहाड़ी कुहासे का सच तो उन आँखों की ही पता होता है न जिसने रोशनी रहते हुए भी नेह और नाते को गुम होते देखा है, भू-स्खलन में अपने प्रेम और उसकी निशानी को धसकते देखा है। भूप सिंह के जीवन की त्रासदी और उसकी जिजीविषा के बहाने संजीव जिस संजीदगी से प्रशिक्षण संस्थानों में पर्वतारोहण का गुर सीखने-सीखाने वाली व्यावहारिक व्यावसायिकता के समानांतर कुहासे और बर्फ के रेगिस्तान की जिंदगी का सच खड़ा कर देते हैं वह रोमांस और अस्मिता संघर्ष दोनों की तस्वीर पेश करता है।
'आरोहण' का भूप सिंह यदि पहाड़ है तो 'सागर सीमांत' की नसीबन समुद्र होती नदी, जिसकी जिंदगी के बहाने संजीव दिन प्रति दिन क्षरित हो रहे प्रेम की अनूठी कहानी सुना जाते हैं, एक ऐसी कहानी जिसमें सागर तट पर बसे मछुआरों की जिंदगी का करुण संगीत भी शामिल है और उनकी अस्मिता के संघर्ष का कसैला आख्यान भी। संजीव एक व्यक्ति या चरित्र की कहानी कहते हुए भी एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहते, उसके बहाने वे पूरे समुदाय, परिवेश और उस जिंदगी के रेशा-रेशा से परिचय करा जाते हैं हमारा। संजीव जब और जहाँ जाते हैं बिल्कुल वहीं के हो जाते हैं तभी तो 'आरोहण' में पहाड़ी बना संजीव का कथाकार उसी प्रामाणिकता से 'सागर-संगीत' में एक मछुआरा और 'मानपत्र' में एक संगीतकार बन जाता है। संजीव के कहानी के एक पात्र के भीतर के कई पात्रों और खुद संजीव के भीतर के कई संजीवों की यह निरंतर प्रतिस्पर्धा देखते बनती है। 'हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना।'
नसीबन को करीम ने कभी पाँच सौ रुपय दे कर उसके बाप से खरीदा था लेकिन उसके प्यार ने उसके मन में उस खरीद बिक्री की लेश मात्र भी छाया नहीं छोड़ी है। वह तो नदी थी और समुद्र में जा मिली थी। समुद्र में मिली क्या थी खुद समुद्र हो गई थी, एक ऐसा समुद्र जो अपने भीतर अथाह प्रेम और अशेष करुणा सँजोए भय और उल्लास दोनों को एक साथ आत्मसात कर लेता है। करीम बीस साल पहले समंदर में गया था। अपने और साथियों की तरह वह भी वापस नहीं आया। कुछ की तो लाशें भी मिलीं लेकिन उसका कोई ठिकाना नहीं। उसके बच्चे को पहले गर्भ में और फिर धरती पर बड़ा करती नसीबन अपना धैर्य नहीं खोती। समंदर की लहरों ने पति को छीन लिया वक्त के थपेड़े जैसे उसका वजूद लील लेना चाहते हैं, और ऐसा हो भी क्यों नहीं वह एक अकेली स्त्री जो ठहरी। संजीव शब्द दर शब्द जैसे नसीबन की मुसीबतों से ज्यादा संपूर्ण स्त्री समुदाय की सदियों से संचित व्यथा को ही इस नदी-सागर संगम तट पर उलीच देना चाहते हैं। "अब तो मस्जिद की अजान तक से चौंक जाती नसीबन। लोगों ने जान लिया था की उसका न कोई मायका में है न ससुराल में, और यह जान लेना कितना खतरनाक होता है।"
नसीबन इन तमाम खतरों का सामना करती रही, अपने तन-मन की स्वाभाविक भूख-प्यास पर लहरों में गुम हो गए पति की स्मृतियों का पहरा बिठाए रखा लेकिन क्या मिला उसका प्रतिदान? बीस वर्ष बाद लौटा पति जैसे महाजन बन कर आया है... नसीबन जलती रही तन-मन की आग में, लड़ती रही अपने भीतर और बाहर से लेकिन पति तो पति बेटे ने भी झटके में पाला बदल लिया जैसे गिरगिट को देख गिरगिट रंग बदलता है। वो तो समुद्री तूफान और उसकी गरजती लहरों से भी ज्यादा अबूझ निकले। चटर्जी बाबू जैसा महाजन तो सिर्फ अर्थ और श्रम का ही शोषण कर रहा था लेकिन पति और बेटे की शक्ल में खड़े ये नए महाजन तो जैसे उसके जीवन का सारा रंग ही सोख लेना चाहते हैं। पैसे और शबाब के नशे में डूबे करीम को बीस वर्ष बाद नसीबन याद भी आई तो सिर्फ अपने वंश-बेल को बचाने की खातिर और वह भी तब जब तीन-तीन बीवियाँ बेटा पैदा न कर सकी। करीम तो पति था लेकिन शफीक, उसका बेटा जिसे उसने अपने खून से सींचा है, अपने बाप के साथ चला जाना चाहता है... नसीबन के भीतर कुछ झन्न से बजता है और इस झन्न की आवाज के पीछे से निकलता है उस पुरुष का चेहरा जो कभी अपनी बेटियों को भेड़-बकरियों की तरह बेच देता है तो कभी वर्षों से राह तकती आँखों में बेवफाई का धूल झोंक देता है। इस टूटन में सिर्फ नसीबन की कराह ही नहीं सदियों से सताई जा रही उस स्त्री की छटपटाहट भी शामिल है जो कभी धरती तो कभी सागर बन कर इस जहर को पीने के लिए अभिशप्त है। नसीबन करीम के साथ जाने से इनकार कर देती है। नसीबन का यह इनकार दर असल उस घिनौने सोच का प्रतिरोध है जो स्त्रियों को सिर्फ बेटा पैदा करने की मशीन मानती है। लेकिन इस प्रतिरोध के बावजूद अंदर से टूट चुकी नसीबन एक झूठ का आवरण रचती है और अपने पति और बेटे को रात के अँधेरे में चले जाने को कहती है ताकि कोई उसे यह न कह सके कि उसक पति और बेटा बेवफा थे... और वह लोगों से कह सके कि वे तो समंदर में डूब कर मर गए। नसीबन का इस तरह समुद्र हो जाना हमे एक अजीब सी करुणा से भर देता है। नसीबन के नसीब के जाल का वह हिस्सा जो कभी प्रेम (?) की चाँदनी से बुना गया था दर्द और सहानुभूति के कुहासे से भर जाता है। उसके इस दर्द की टीस हमारे अंदर तक सुनाई पड़ती है लेकिन उसके समानांतर हमारे भीतर एक प्रश्न भी खड़ा होता है कि इस कहानी के अंत में घुली यह नैतिकता क्या आज के समय की रोशनी में भी उतनी ही चमकदार है? स्त्री त्याग और समर्पण के नाम पर झूठ का यह आवरण कब तक बुनती रहेगी? आज नैतिकता का बड़ा शोर है। पुरानी पीढ़ी को और कुछ हमारी पीढ़ी के साथियों को भी लग रहा है कि सब कुछ ध्वस्त हो गया है। मुझे लगता है नैतिकता समय सापेक्ष होती है यह कभी ध्वस्त नहीं होती। हाँ, इसका युगीन विस्तार जरूर होता है। क्या आज का कोई कथाकार, खास कर स्त्री कथाकार इस कहानी को लिखते हुए करीम और शफीक को यूँ अँधेरे में भाग जाने के लिए सेफ पैसेज दे देती? खुद को नैतिकता के में लपेटने के लिए झूठ का यह आवरण बुन पाती? शायद नहीं। वह तो इस बेमुरौवत, बेवफा और महाजनी प्रेम को धूप की तल्ख रोशनी में निष्कासित करती जिसमें उसका दर्द भी चमकता और दर्प भी। यही नैतिकता का युगीन विस्तार है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इस कारण इस कहानी का महत्व घट जाता है बल्कि इस कहानी से नए समय की स्त्री नैतिकता का भाष्य रचने में हमे सहायता ही मिलती है।
संजीव का कथाकार परंपरा और विरासत में मिली नैतिकता से लगातार टकराता है। 'सागर सीमांत' की नसीबन के बहाने मैं जिस नैतिकता के निर्वहण की बात कर रहा था उसके जिस युगीन विस्तार की बात कह रहा था उसकी कसमसाहट खुद संजीव की परवर्ती कहानियों में भी दिखाई पड़ती है। पाठक के मन में तमाम करुणा और सहानुभूति उत्पन्न करने के बावजूद जो नसीबन नैतिकता के आवरण में छुप कर जिस परिवार संस्था को बचाना चाहती है मानपत्र की आयशा उसी परंपरा से टकराते हुए अपने अंतर्द्वंद्वों से उबर कर अंततः शादी और परिवार की संस्था के खिलाफ खड़ी हो जाती है। मानपत्र की आयशा जिसे उसका पति बड़ी चतुराई से वीणा में बदल देता है, नसीबन के अंतर्द्वंद्वों उसकी दुविधाओं का एक सकारात्मक और प्रगतिकामी विस्तार है। दीपंकर और आयशा दोनों ही संगीतकार हैं। दीपंकर ने अपनी मर्जी से आयशा से विवाह किया है लेकिन उसके अंदर बैठा पुरुष उसके भीतर के प्रेमी का अतिक्रमण कर लेता है और देखते ही देखते अपनी प्रेमिका और पत्नी में उसे अपना कंपेटीटर दिखने लगता है। परिणाम वही, जो हमेशा से होता आया है। पत्नी की प्रसिद्धि से जलता पति अपनी ईगो के बोझ से इतना दब जाता है कि उसकी पत्नी जो कभी उसके उस्ताद के साथ संगत करती हुई उसके प्रशिक्षण का एक बड़ा हिस्सा थी महज उसका साज सिंगार कर मंच पर सबसे पीछे तानपुरा बजाने की भूमिका तक सीमित कर दी जाती है। दीपंकर के चरित्र का यह ह्रास क्या है? एक पुरुष के अहं से उपजी कुंठा या फिर एक व्यवसायी की सोची समझी चाल जिसके तहत उसे एक घराने का वारिस बनना था और प्रेम तो उस रास्ते की सीढ़ी भर थी? दीपंकर जिस तरह से आयशा और उसके प्रेम का इस्तेमाल करता है वहाँ प्रेम अपनी प्रवंचना की खोल में महज साँप-सीढ़ी का खेल बन कर रह जाता है जिसमें स्त्री हमेशा सीढ़ी होती है और पुरुष सिर्फ और सिर्फ साँप। दीपंकर का सामंती अहं रिश्ते के साथ छल करता है और उसके भीतर बैठा प्रसिद्धि के मद में चूर व्यवसायी उस मौसिकी से भी बेवफाई करता है जिसने उसे साधारण से असाधरण बनाया था। आयशा के पिता जो दीपंकर के उस्ताद भी हैं को कहीं इसका आभास भी है... उसे लगता है कि शायद उसकी बेटी की कला उसके शागिर्द के हाथों सुरक्षित नहीं रही। लेकिन आयशा के भीतर बैठी नसीबन अपने पिता की इस आशंका के उत्तर में एक बार फिर नैतिकता के झूठ का सहारा लेती है - "अब कला के चलते फुरसत कहाँ मिलती है, अब्बू।" वह अपना परिवार बचाना चाहती है या कि बीमार बूढ़े पिता की आस्था? लेकिन अगले ही पल देवी के मंदिर में सजी महफिल में जब वह अमीर खुसरो की ठुमरी उठाती है - 'काहे को व्याह्यो विदेश, ओ लखिया बाबुल..." तो जैसे उसके पिता की आस्था दरक जाती है, वह अपनी बेटी का यह दुख बर्दाश्त नहीं कर पाता और उसकी साँसों की डोर थम जाती है। लेकिन दीपंकर के लिए उसके उस्ताद का जाना तो जैसे किसी कैद से मुक्ति की तरह है और वह एक ऐसी व्यावसायिकता में लौट जाता है जहाँ न संगीत संगीत रह जाता है और न प्यार प्यार। और अंततः एक दिन वह पंडित से मुल्ला बनते हुए आयशा को तलाक दे देता है। यहाँ तक आते-आते दीपंकर का चरित्र एक अजीब सी विडंबना में बदल जाता है। 'तलाक, तलाक, तलाक' कहने वाला यह वही दीपंकर है जिसने कभी उस्ताद के पैर पकड़ कर आयशा की भीख माँगी थी और बड़ी चतुराई से आयशा को सदा के लिए वीणा बना दिया था। पेश है आयशा का हाथ माँगते दीपंकर और आयशा के अब्बू का यह संवाद -
"इसे हिंदुआनी बनाओगे?"
"मेरे लिए तो ये सिर्फ वीणा है।"
दीपंकर न तो हिंदू है और न ही मुसलमान। मजहब तो उसके लिए वह चमचमाता हुआ रैपर है जिसमें जब और जैसा जी चाहे वह अपने प्रोडक्ट की पैकेजिंग कर सकता है। और वीणा? परिस्थितियों की समझ रखते हुए भी परंपरा और नैतिक मूल्यों से टकाराती, लहूलूहान होती एक भारतीय नारी जो कुछ न कहते हुए भी सब कुछ कह जाती है और सब कुछ कहते हुए भी कुछ नहीं कह पाती। वीणा के अंतर्मन का यह द्वंद्व नसीबन की दुविधाओं से अलग कहाँ है? लेकिन नसीबन और वीणा की यह दुविधा संजीव को भी नहीं छोड़ती, उनके मूल्यबोध को भी लहूलूहान करती है और अंततः आयशा की बेटी के रूप में वे इस दुविधा से निकलने का रास्ता खोज ही लेते हैं जब वह शादी कर लेने के प्रस्ताव को ही नहीं ठुकराती, पूरी विवाह संस्था को कटघरे में खड़ा कर देती है। उसने अपनी माँ के दुख जो देखे हैं। और फिर माँ का दुख बेटी से ज्यादा और कौन समझ सकता है? - "वह विवाह प्रथा जो किसी को बीहड़ का बंजर बना दे उसे मैं जूती की नोक पर रखती हूँ... थूकती हूँ, महानता के उन चोंचलों पर, कला के नाम पर चलाये जा रहे तमाम ढकोसलों पर। आय हेट! आय हेट!! आय हेट ऑल सच हीनियस हिपोक्रेशीज, दीज मेल एंड फीमेल शोवेनिजम्स।" और इतना ही नहीं, नसीबन, आयशा और वीणा के जुबान पर लटका नैतिक मूल्यों का ताला चरमरा कर टूटता है जब कला की माँ, गौर करें, कला की माँ (आयशा या वीणा नहीं) दीपंकर को लिख रहे मानपत्र में कहती है - "जानते हो, पता नहीं क्यों, इन बर्बादियों के बावजूद मुझे अपनी कला पर नाज हो रहा है..." अपनी बेटी कला के पक्ष मे खड़ी और उस पर नाज करती इस स्त्री तक आते कई-कई नसीबनों, कई-कई आयशाओं और वीणाओं को उनकी मुक्ति का दरवाजा दिखाई पड़ने लगता है। एक ऐसा दरवाजा जिसके भीतर जाते हीं माँ और बेटी एक दूसरे में प्रवेश कर जाती हैं, अपने तमाम दुखों के साथ अपने हिस्से का सुख तलाशने।
संजीव संपन्न और स्पष्ट राजनीतिक चेतना के कथाकार हैं। संजीव की जिन कहानियों में इस राजनीतिक-सामाजिक चेतना का उत्कर्ष देखा जा सकता वे हैं 'अपराध' और 'बाघ'। स्मृति में डूब कर देखती युवा आँखों के सहारे व्यवस्था और विद्रूपताओं क प्रतिरोध रचती कहानी 'अपराध' अपने समय के साथ-साथ अपने अतीत और भविष्य के सामाजिक-राजनीतिक द्वंद्वों को बहुत बारीकी से पकड़ती है। इस कहानी में अपराध के तीन चेहरे हैं। पहला अपराध वह जो व्यवस्था और सत्ता के चरित्र का हिस्सा है यानी विषमता, भ्रष्टाचार, कामचोरी, शोषण आदि, दूसरा अपराध वह जो इस सामूहिक शोषण के खिलाफ हिंसक क्रांति का रूप ले लेता है और तीसरा अपराध उन तथाकथित बुद्धिजीवियों का है जो शोषण-दमन के विरोध के मुखौटे में व्यवस्था की मलाई खाते हैं और पद-प्रतिष्ठा का सुख भोगते हुए कब और कैसे उनका पूरा का पूरा वर्गीय चरित्र ही बदल जाता है उन्हें भी नहीं पता चलता। कंचनजंघा हवेली की नींव में जहाँ पहले अपराध का ईंट गारा लगा है वहीं शचिन संघमित्रा दूसरे अपराध (?) का प्रतिनिधि है। कहानी का सूत्रधार 'मैं' जिसका चारित्रिक विकास नक्सलवादी राजनैतिक विचारधारा के खाद-पानी से हुआ है खुद को तीसरे श्रेणी का अपराधी बन जाने से बचाना चाहता है। और अपराध के इस त्रिभुज के केंद्र में है, कंचनजंघा हवेली की बेटी, शचिन की बहन और 'मैं' की प्रेमिका रानी संघमित्रा जिसकी हत्या उसके गुप्तांग मे रूल घुमा कर मथ कर कर दी जाती है। शब्द दर शब्द हमारे रोंगटे खड़ा कर देने वाली यह कहानी सत्ता और वर्चस्व की संस्कृति का पुर्जा-पुर्जा खोल कर हमारे सामने रख देती है, जिसमें न्याय व्यवस्था भी शामिल है और शासन व्यवस्था भी। एक ऐसी व्यवस्था जो सत्यों से नहीं तथ्यों से संचालित होती है और तथ्य की डोर तो हमेशा से सामर्थ्यवानों के हाथ ही रही है। यानी एक ऐसा न्याय जो अपनी प्रकृति में ठोस नहीं तरल होता है... पात्र, परिवेश और मौसम के अनुरूप ढलने के लिए आतुर। ऐसी व्यवस्था के बीच यदि अपराध की वृत्ति और अपराधियों की मनोवृत्ति पर शोध करने वाले किसी व्यक्ति के भीतर यदि इसी व्यवस्था के पुर्जा बन जाने की आशंका में कोई अपराध बोध जागता है और वह अपने शोध को गंगा में फेंक देता है तो इसमें गलत क्या है? यह अपनी मेधा और सामर्थ्य में अविश्वास का प्रतिफल न हो कर व्यर्थताबोध से उत्पन्न एक तरह का आत्मसाक्षात्कार है और आत्मप्रताड़ना भी, जो प्रतिरोध की राजनीति की इंतहा न हो कर उसकी लम्बी संघर्ष यात्रा का एक मोड़ है जिसमें आक्रोश के साथ एक मजबूरी और लाचारी भी शामिल है। व्यवस्था कितनी सफाई से व्यक्ति को पुर्जे में बदल देती है, हम सब जानते हैं। ऐसे में उस शोध के सहारे किसी क्रांति का नाटक रचने के बजाय यदि संजीव का पात्र उसे गंगा के हवाले कर इस आत्मबोध से भर उठता है कि उसने पूरा भविष्य पानी में डुबो दिया है तो यह स्वाभाविक भी है और सत्ता के वर्चस्ववादी और विस्तारवादी चरित्र पर एक तीखा व्यंग्य भी।
और अब इस प्रतिनिधि चयन का अखिरी पायदान - 'बाघ'। संजीव के कथा-कौशल का एक और नमूना जो बखूबी जानता है कि कहाँ भाषा की चमक से विडंबना को रूपायित करना है तो कहाँ पात्रों की जिजीविषा और उसके संघर्ष से। 'बाघ' मर्मभेदी संवेदना से संपृक्त एक ऐसी कहानी है जिसमें न शब्दों का कोई बनाव है और न भाषा का कोई कलात्मक रचाव लेकिन शुरू से आखिर तक एक जबर्दस्त व्यंजनाबोध से लबरेज। 'बाघ' कहानी का नायक गोपाल पाँच भाइयों में सबसे बड़ा है। पाँचों भाई सुंदर वन के द्वीप में जीविकोपार्जन के लिए मछली मारते हैं, पहले सेफ जोन में फिर बफर जोन में और अंततःः कोर जोन में। मछली क्या मारते हैं, दो जून की रोटी के लिए बाघ से लड़ते हैं। दो भाइयों को तो बाघ ने मार दिया और दो बाघ से लड़ने और फिर उससे बचने में मारे गए। इस तरह चार भाइयों को पेट की आग और बाघ की मुँह में झोंक कर उनकी विधवा बहुओं और बच्चों के साथ अकेला पड़ा गोपाल सरकारी मुआवजे के लिए जाता है। उसे सबका मुआवजा चाहिए लेकिन सरकारी गणित के मुताबिक सिर्फ दो ही लोगों का मुआवजा बनता है, उनका जो सीधे-सीधे बाघ का शिकार हुए। बूढ़े गोपाल का कोई तर्क सरकारी बाबू के गले नहीं उतरता और अंततः वह मुआवजे के दावे को वापस लेता हुआ पूरी व्यवस्था के समक्ष एक प्रश्न खड़ा कर जाता है - "ठीक कहते हो हाकिम, मेरे परिवार गाँव के जो लोग मारे गए, वे अपनी ही दुर्बलता के चलते मारे गए वरना बाघ की क्या मजाल थी कि... खैर मैं मुआवजे के अपने सारे दावे वापस लेता हूँ। सिर्फ साधन की मौत से जुड़े चंद सवाल तुम्हारे लिए छोड़े जा रहा हूँ। माना कि साधन पानी में डूब कर मरा लेकिन जन्म से ही वह नदियों के किनारे रहता आया था। पहले क्यों नहीं डूबा...? डूबा इसलिए कि सामने बाघ था, पीछे भरी हुई नदी। बुरा मत मानना हाकिम, गाँव विराम का ठेठ मानुख हूँ। क्या मेरे भाई को सिर्फ इसलिए आगे बढ़ कर बाघ के मुँह में समा जाना चाहिए था कि उसे मुआवजा मिलता? तुम उसकी जगह होते तो क्या करते" गोपाल बूढा तब से गाँव नहीं लौटा। कोई कहता उसे बाघ खा गया कोई कहता है, उसने खुद बाघ का चोला धारण कर लिया। जीवन पर्यंत बाघ से लड़ता, अपने शरीर पर उसके नख-दंत के निशान लिए फिरता गोपाल पहले बाघ का शिकार हुआ और अंततः खुद बाघ भी हो गया तो यह आसान नहीं था। इस संदर्भ में गोपाल की पत्नी के सीधे सादे आत्मालाप में राजनीति के गहरे अर्थबोध छुपे हुए हैं - "मैं अपने बूढ़े को जानती हूँ। बाघ के चोले में गया भी होगा तो निपट मजबूरी में गया होगा। वह तो आदमी के चोले में ही रहना चाहता था।" यहाँ तक आते-आते जिस तरह बाघ एक हिंसक पशु से व्यवस्था की विद्रूप सच्चाईयों के मेटाफर में बदल जाता है वह हिला देने वाला है। दर असल 'अपराध' में संजीव सत्ता और व्यवस्था के वर्चस्व की जो सैद्धांतिकी रचते हैं उसी की व्यावहारिकी है 'बाघ" और इसी सैद्धांतिकी से व्यावहारिकी तक की बीहड़ यात्रा है उनका कथा-साहित्य।
निश्चित तौर पर संजीव की कहानियाँ हमें कई-कई स्तरों पर समृद्ध करती हैं। लेकिन अपने समय के इस इस बड़े कथा-पुरुष की इन कहानियों को प्रस्तुत करते हुए यह प्रश्न तो मन में उठता ही है कि अपने कथा-समय के उरूज पर रहते हुए संजीव के कथाकार ने यथार्थ और नैतिकता के जिस द्वंद्व से टकराने की एक कामयाब कोशिश की उन्हीं टकराहटों का समकालीन कथाबोध उनके कथा संपादक-विचारक रूप को परेशान क्यों करता है? व्यवस्था और समाज से अपना वाजिब देय नहीं मिलने के कारण आदमी से बाघ के चोले में चले जाने की गोपाल की उक्त नियति में कहीं मेरी इस जिज्ञासा का समाधान भी तो निहित नहीं है?