सॉरी पापा! / राजेन्द्र वर्मा

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कान्स्टेबिल, रंजीत सिंह ने अपने बेटे का नाम अमिताभ रखा। वे अमिताभ बच्चन के फैन थे। उनकी एंग्री यंगमैन वाली फ़िल्में, जैसे-जंजीर, दीवार, त्रिशूल, लावारिस, काला पत्थर वे कई बार देख चुके थे। अमिताभ ही की तरह वे अपने बेटे को सुष्ठु, निडर और सफल जीवन जीने वाला वास्तविक नायक बनाना चाहते थे।

बेटे के जन्म के एक वर्ष के भीतर ही वे पदोन्नत होकर सब-इन्स्पेक्टर हो गये थे। इससे वे और उनकी पत्नी, दोनों ही बेटे को अमिताभ जैसा भाग्यशाली भी मानने लगे थे। जिस तरह अमिताभ बच्चन को शार्ट में 'अमित' कहा जाने लगा, उसी प्रकार रंजीत दम्पत्ति भी बेटे को अमित कहकर पुकारने लगे।

रंजीत ने इंटर तक रेगुलर पढ़ाई की थी। बी.एस-सी. में नाम लिखाया ही था कि उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। वे भी सब इन्स्पेक्टर थे। नौकरी में रहते उनकी मृत्यु होने के कारण रंजीत को अनुकम्पा के आधार पर कान्स्टेबिल की नौकरी मिल गयी थी। वे कान्स्टेबिल की नौकरी नहीं करना चाहते थे, लेकिन बी.एस-सी. करने के बाद भी कौन-सी नौकरी धरी थी? इस प्रश्न पर सम्यक् विचार करने के बाद उन्होंने नौकरी ज्वाइन कर ली। अच्छे कार्य और आचरण के कारण जल्द-ही उनका प्रमोशन हो गया। एस.आई. बनते ही वे समाज में सम्मान पाने के अधिकारी हो गये थे। रंजीत वही थे, लेकिन जब तक वे कांस्टेबिल थे, लोगों की नजरों में उनका कोई स्थान न था। यह कैसी लोकदृष्टि है जो मनुष्य की प्रतिष्ठा उसके पद और धन से मापती है-उसके गुणों से नहीं!

नौकरी चाहे जैसी हो, लेकिन जब बँधी-बँधाई मासिक आमदनी से घर सँवरने लगता है, तो पड़ोसी-रिश्तेदार उससे ईर्ष्या करना शुरू कर देते हैं। ... रंजीत इस ईर्ष्या का आनन्द उठाते और अपनी पत्नी के साथ अमित के आई.ए.एस., आई.पी.एस. या पी.सी.एस होने स्वप्न संजोते। लेकिन इस स्वप्न को पूरा करने के लिए अमित को लखनऊ जैसे महानगर में रहकर पढ़ाई करना आवश्यक था। अभी वे लखनऊ से करीब सौ किमी। दूर गोंडा में पोस्टेड थे।

अमित वहीं आठवीं में था। कहने को वह अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल था, लेकिन जैसा कि कस्बाई स्कूल हुआ करते हैं-न ही 'सरस्वती शिशु मन्दिर' की भाँति कट्टर हिन्दी मीडियम और न ही 'सेंट फ्रांसिस' की तरह प्योर इंग्लिश मीडियम, बल्कि मिला-जुला वह मीडियम जो हिन्दी में होते हुए भी अंग्रेज़ी का तरफ़दार था। ऐसे ही स्कूल में अमित स्कूल में फ़र्स्ट आया था।

लखनऊ में अपनी पोस्टिंग मैनेज करने की जोड़-तोड़ कर रंजीत हार चुके थे। दो लाख रिश्वत देकर पोस्टिंग की संभावना थी, पर वह भी गारंटीड नहीं। यक्षप्रश्न यह था कि दो लाख रुपये आयें कहाँ से?

पुलिस में होने और पत्नी के लाख चाहने के बावजूद रंजीत को रिश्वत से परहेज़ था। दोस्तों-रिश्तेदारों से उधार आदि से व्यवस्था कर भी लें, तो क्या ज़रूरी है कि पोस्टिंग हो ही जाएगी। ऐसे में उधार लेकर रिश्वत देने का रिस्क कौन उठाये? इसलिए खूब सोच-विचार यह तय पाया गया कि बेटे को लखनऊ में किसी हॉस्टल वाले स्कूल में डाल दिया जाय और उसी तंगी से खर्च चलाया जाए जैसे लखनऊ में पोस्टिंग के लिए रिश्वत की उधारी चुकायी जा रही हो!

श्रीमती रंजीत के दो-चार दिन रोने-धोने के बाद मास्टर अमित का दाखिला 'काल्विन तालुकदार्स कालेज' में नाइन्थ में हॉस्टलर के रूप में करा दिया गया। पहले तो अमित बहुत खुश हुआ कि वह लखनऊ में रहेगा, लेकिन जब हॉस्टल के डिस्पिलिन से परिचित हुआ, तो दिनचर्या से बोर हो गया।

सवेरे छः बजे उठना, फ्रेश होना, ग्राउंड में एसेम्बल होना, मार्निंग वाक करना और साढ़े सात बजे तक नाश्ता करके पौने आठ तक असेम्बली हाल में एकट्ठा होना। वहाँ प्रेयर के बाद आठ से एक बजे तक के क्लासेज। फिर डेढ़ बजे से ढाई बजे तकं लंच और डेढ़-दो घंटे आराम के बाद पांच से सात बजे तक आउट-डोर या इन-डोर गेम्स! सात बजे हल्के नाश्ते के साथ चाय! उसके बाद होमवर्क और छूटा हुआ कार्य या रिवीजन! सिर चकरा देने वाले अलजे़ब्रा और साइन्स के फारमूले और सोशल साइन्स की रट्टा मार पढ़ाई! साढ़े आठ बजे-रात का खाना और फिर पढ़ाई! इसी बीच टी.वी. पर न्यूज़ वगैरह। ग्यारह बजे बत्तियाँ बन्द-गो टू बेड! सवेरे छः बजे से फिर वही चकरी!

अमित के गोंडा वाले दोस्तों में से यहाँ एक न था। वहाँ छोटी जगह में वह सभी का चहेता था। यहाँ कोई पूछने वाला नहीं! यहाँ के लिए वह जैसे पिछड़ा था। साथी बच्चों के माँ-बाप या तो बिज़नेसमेन थे या फिर मंझोले सरकारी अधिकारी। ... उनकी नजरों में उसके पिता की कोई हैसियत न थी। गोंडा से लखनऊ आते-आते उनकी हैसियत कहाँ खो गयी? यह अमित की समझ से बाहर था।

यह नया समाजशास्त्र था जिससे उसका परिचय अभी-अभी हुआ था। यह ऐसा विषय था कि जिसका विद्यार्थी भी वही था और शिक्षक भी वही! बस, अध्याय बदलते रहते थे। नये-नये अध्यायों के नियमित पाठ से अमित इतना तो समझ गया था कि उसके क्लासमेटों के पिताओं के आगे रंजीत की कोई हैसियत न थी। एस.आई. जैसी मामूली नौकरी कर वे किसी तरह अपना घर चलाने वाले जीव थे। ऐसे जीवों की कोई हैसियत नहीं होती, जबकि यह स्कूल ही हैसियतवालों के बच्चों के लिए खोला गया था।

आजादी के इतने सालों बाद अब जबकि समय बदल चुका था और सरकारी तौर पर कोई तालुकदार न रह गया था, फिर भी स्वाधीन भारत के लोकतंत्र में तंत्र की भूमिका निभाने वाले लोगों ने ही पुराने तालुकदारों की भूमिका हथिया ली थी। अमित किसी तालुकदार का बेटा न था, इसलिए उसे अपने तथाकथित पिछड़ेपन के साथ ही अपने क्लासमेटों और हास्टलरों के साथ रहने की मजबूरी थी।

दूसरी समस्या अंग्रेज़ी मीडियम से पढ़ाई की थी। गोंडा में विषय का पाठ ही अंग्रेज़ी में पढ़ाया जाता था-वह भी थोड़ी-बहुत हिन्दी के साथ, पर यहाँ क्लास में तो कोई हिन्दी बोलता ही नहीं! एक बार उसने क्लास में हिन्दी में कुछ पूछ लिया, तो टीचर ने ऐसा लताड़ा कि दुबारा किसी प्रश्न को पूछने की उसकी हिम्मत ही न पड़ी। किसी विषय से सम्बन्धित सामान्य जिज्ञासा भी वह टीचर के सामने न रख पाता। जब तक वह अपने सवाल को अंगे्रेजी में ट्रांसलेट कर टीचर के सामने रख पाता, तब तक वे 'ओ.के.' कहकर आगे बढ़ जाते। परिणाम यह हुआ कि वह क्लास में पिछड़ने लगा। तिमाही परीक्षा में उसके बावन परसेंट नम्बर ही आ सके, जबकि तक उसके नब्बे-पच्चानबे प्रतिशत आते रहे थे। उसे स्वयं बड़ा दुख हुआ। पढ़ाई में उसने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, फिर भी वह छमाही में फ़स्र्ट डिवीजन न ला सका। पढ़ाई में पिछड़ने के कारण माँ-बाप का प्यार भी जैसे कुछ कम हो गया। रंजीत की तनी भौंहे देखकर वह उनसे कुछ भी कहने की हिम्मत न जुटा पाता। उनके गले में झूले तो जैसे बरसों पुरानी बात हो।

विंटर वैकेशन में जब अमित घर गया, तो उसने माँ से स्कूल की समस्याओं पर चर्चा की, लेकिन उसकी माँ न तो ऐसे वातावरण से परिचित थी और न ही उच्च शिक्षित कि वे बच्चे की मनोवैज्ञानिक समस्या पूरी तरह समझ पातीं। जैसे-तैसे हाईस्कूल पास वे कुशल गृहणी थीं। लखनऊ जैसे महानगर के समाजशास्त्र को भी वे नहीं समझती थीं, इसलिए पहली समस्या पर उन्होंने कोई विशेष ध्यान न दिया। दूसरी समस्या को वह थोड़ा-बहुत ज़रूर समझती थीं। उन्होंने अमित को पापा से बात करने का सुझाव देकर समस्या से छुट्टी पा ली।

अमित रंजीत से अधिक बात नहीं कर पाता था। 'रिपोर्ट कार्ड' बाप-बेटे के बीच दूरी बढ़ा रहा था। माँ के प्यार ही से अमित को संतोष करना पड़ता।

एक दिन वह माँ की पीठ पर सवार टी.वी. देख रहा था, तो माँ ने उसे सामने कर प्यार से समझाया-"बेटा! हमें तुमसे बहुत उम्मीदें हैं। पापा चाहते हैं कि तुम स्कूल में फर्स्ट आओ. एक दिन तुम्हें बड़ा अफसर बनना है। तुम खूब मन लगाकर पढ़ाई करो। अरे, अंग्रेज़ी में क्या रखा है? बस बोलना शुरू कर दो-कुछ भी गलत-सही, थोड़े दिन में बोलना आ जायेगा!"

अंग्रेज़ी बोलने की समस्या को हल करने के लिए रंजीत ने अपने लेक्चरर दोस्त से सलाह ली। लेक्चरर साहब वहीं एक इंटर कालेज में अंग्रेज़ी पढ़ाते थे।

लेक्चरर साहब ने रंजीत को समझाया-बच्चे पर ज़्यादा दबाव ठीक नहीं। उसे आराम से सीखने दो। बदले हुए माहौल में एडजस्ट होने में समय तो लगता ही है। अभी भाषा की समस्या है, लेकिन जब वह सुलझ जायेगी तो बच्चा विषय में पारंगत हो जायेगा। ...

आख़िर यह तय हुआ कि अभी एक हफ्ता है स्कूल खुलने में। अमित को अंग्रेज़ी बोलना वे सिखायेंगे। लेकिन, उसे घर पर आना पड़ेगा।

दो ही दिन अमित लेक्चरर साहब के यहाँ अंग्रेज़ी सीखने जा पाया था कि लेक्चरर साहब को वाइरल हो गया। ... अभ्यास छूट गया। रंजीत खुद उसे अंग्रेज़ी बोलना सिखाने लगे। ...पर यहाँ तो मामला उलटा था। रंजीत से अच्छी अंग्रेज़ी तो अमित बोल लेता था, फिर भी वे अमित को ज़बरदस्ती सिखाने की कोशिश करने लगे। उन्हें लगता था कि इंटर तक अंग्रेज़ी पढ़ने के कारण उसका अंग्रेजी-ज्ञान अमित से अधिक है।

बात बन नहीं रही थी। रंजीत को लेक्चरर साहब की बात याद आ गयी-'ऑफिस में लिखने-पढ़ने वाली अंग्रेज़ी अलग होती है। उसे तो कोई भी एक-दो महीने में सीख सकता है। यह सब तो अनुवाद की करामात है। बोलने वाली अंग्रेज़ी तो अन्दर से निकलती है, जैसे-अरे के बदले ओह! वाह के बदले वाउ! हाँ के बदले या! दोस्तों में नमस्कार के बदले हाय! बड़ों के अभिवादन में गुड मार्निंग, गुड आफ्टरनून, गुड इविनिंग! बात-बेबात' वाउ, ओह, सॉरी, ओके, स्योर-स्योर, ओह नो, हाउ स्टूपिड, एनी वे, एक्सेलेंट, थैक्स, वेलकम! 'अंग्रेज़ी में कुछ भी बोलना शुरू कर दो, फिर वाक्यों के बीच-बीच में,' आई मीन, यू नो, इट्स नॉट सो, लेट् मी प्लीज, लेट् इट बी'आदि का फेवीकोल लगाते रहो। ... लेकिन अनुवाद वाली अंग्रेज़ी में रवानी कहाँ से लाओगे?'

यही अनुवाद वाली अंग्रेज़ी अमित क्लास में बोलता था। जब कभी अनुवाद के लिए उपयुक्त शब्द न पाता, तो वह उसे हिन्दी में बोल जाता था। क्लास के अधिकांश बच्चे ऐसा ही करते थे, पर पता नहीं क्यों, क्लास-टीचर, अमित जैसे ही चार-छः लड़कों को इस पर अधिक लताड़ता था। शुरू-शुरू में अमित इस भेदभाव पर हैरान होता था, पर धीरे-धीरे इसके मर्म को समझने लगा था। ...वह थी उसके पिता की आर्थिक स्थिति! इसे दूर करना उसके वश में न था। इसलिए उसने समझौते का सिद्धान्त अपना लिया।

मंथली टेस्ट हुए. अमित ने पहले से अच्छा परफॉर्म किया था। क्लास टीचर ने भी शाबासी दी। क्लास में उसे आगे की बेंच मिल गयी। अभी तक वह तीन-चार बेंच पीछे बैठता था। नये साथी स्टूडेंट पढ़ने में अच्छे थे ही, अंग्रेज़ी भी साफ बोलते थे। अमित का मन खिल उठा-स्कूल का माहौल पहले की अपेक्षा अच्छा लगने लगा।

फ़ाइनल इग्ज़ाम्स पूरे हुए. अमित ने पढ़ाई में जान लड़ा दी थी। पेपर भी अच्छे हुए थे, पर न जाने कौन-सी बात हुई कि उसकी फ़र्स्ट डिवीज़न न आ सकी-साढ़े सत्तावन परसेंट नम्बर आये थे। टेंथ में एडमीशन तो हो गया, लेकिन सेक्शन बदल गया था-बी. से सी.। इस सेक्शन में सभी स्टूडेंट्स सेकेंड या थर्ड डिवीजनर्स ही थे।

अच्छे साथियों का साथ छूट गया।

छुट्टियों में अमित घर पहुँचा। उसे देख माँ का मन तो खिल गया, पर पिता का मन बैठा हुआ था। वे उसकी पढ़ाई से संतुष्ट न थे।

इस बीच परिवार में बदलाव आया था। महीने-भर पहले अमित की बहन ने जन्म लिया था। जब देखो, अमित उसे गोदी में उठाये रहता। पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाए वह बच्ची से खेलने में ही व्यस्त रहता था। जब तक रंजीत घर में रहते, तभी तक वह पढ़ता था।

बच्चा जब पढ़ाई में कमज़ोर हो जाता है, तो पढ़ाई से जी चुराने लगता है-अमित भी इसका अपवाद न था। लेकिन इस बात की गंभीरता को न माँ समझती थी और न ही पिता।

माँ बच्ची की तीमारदारी में ही व्यस्त रहती। रंजीत भी जब थाने से वापस आते, तो वे भी अधिक समय बच्ची को खेलाने में लगा देते। अमित की पढ़ाई की जो दिक्कते थीं, उन पर वे अपेक्षित ध्यान न दे सके. वे उसे पढ़ने के लिए समझाते रहते। कभी-कभी डाँट भी देते।

ऐसी ही किसी डाँट का असर था कि अमित स्वयं लेक्चरर साहब से मिलने गया। उनसे डिटेल में बात की। अंग्रेज़ी बोलने की समस्या थी तो, पर पहले जैसी विकराल न थी। एक साल की तपस्या के बाद वाचाल अंग्रेज़ी ने थोड़ी कृपा की थी। अब अमित अपनी बात कह पाने में असमर्थ नहीं था, फिर भी अभी और परिमार्जन की आवश्यकता थी।

टी.वी. में इंग्लिश न्यूज चैनल देखने के अलावा लेक्चरर साहब ने अंग्रेज़ी अखबार बोलकर पढ़ने की सलाह दी थी-खास तौर पर इडीटोरियल पेज! उसमें 'लेटर टू इडीटर' कॉलम होता है जिनमें कुछ पत्रों की अंग्रेज़ी हल्की और कुछ की भारी होती है। इन पत्रों को बोल-बोल कर पढ़ना चाहिए. इससे एक लाभ यह भी है कि हमें पता चल जाता है कि किसी सामयिक विषय पर पाठकों की क्या प्रतिक्रिया है? इस कॉलम के एक पत्र को अपनी नोटबुक पर उतारें। फिर देखें कि उनमें से कितने शब्दों के अर्थ हमें नहीं आते हैं? कितने शब्दों की स्पेलिंग नहीं आती है? उन पर लाल निशान लगायें। फिर डिक्शनरी से उनकी स्पेलिंग व अर्थ लिखें। ... दो-तीन महीने बाद हम इसका असर देख सकते हैं।

घर में 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' आने लगा। अमित ने लेक्चरर साहब द्वारा सुझाये गये अभ्यास किये। महीने भर में उसका सकारात्मक प्रभाव दिखायी देने लगा। वह रंजीत से अंग्रेज़ी में बातें करने का प्रयास करता। अपनी मम्मी से तो वह बेहिचक अंग्रेज़ी बोलता था। मम्मी उसे देख मुग्ध रह जातीं। रंजीत भी खुश हुए. ... अमित को नयी स्कूल ड्रेस के साथ-साथ एक ब्रांडेड शर्ट-पैंट भी मिल गयी।

टेन्थ की किताबें थीं ही। हर विषय में कुछ-न-कुछ काम दिया गया था। अमित ने होमवर्क पूरा किया। रंजीत ने कापियाँ देखीं। बेटे को गले लगा लिया। आंखों से आशीष झरने लगा। बेटे ने भी संकल्प दुहराया-कुछ भी हो, अबकी फ़र्स्ट आकर दिखलाना है!

एक-डेढ़ महीना कैसे बीत गया-पता न चला। जुलाई आ धमकी। अमित स्कूल जाने की तैयारी करने लगा। लखनऊ जाने से पहले वह अपने दोस्तों से मिलने गया। कुछ घर पर मिलने आये थे। लेकिन अब दोस्ती में पहले वाली बात न रह गयी थी। औपचारिकता-भर थी। इसके पीछे उनके स्कूलों और पढ़ाई के तौर-तरीक़े में अन्तर था। अमित की स्पीकिंग इंग्लिश भी दोस्ती में खटाई का काम कर रही थी।

स्कूल खुल गये थे। रंजीत अमित को भेजने आये। अमित को साथ ले वे प्रिंसिपल साहब से मिले और उसे पुराने सेक्शन में शिफ्ट करने की रिक्वेस्ट की, पर प्रिंसिपल साहब ने यह कहकर बात समाप्त कर दी कि जिसके जैसे नम्बर होंगे, उसके हिसाब से ही सेक्शन मिलेगा-ए., बी. या सी.! उन्होंने अमित की ओर देखते हुए कहा, "इफ़ यू ब्रिंग फर्स्ट डिवीज़न मार्क्स इन हाफ-इयरली, यू विल डेफ्नेट्ली बी शिफ्टेड टू सेक्शन-बी." अमित ने प्रसन्नता से कहा-"आइ शैल ट्राई माइ बेस्ट, सर!"

रंजीत गोंडा लौट गये। अमित पढ़ाई में जुट गया। लेकिन उसके नए सेक्शन में कई बदमाश स्टूडेंट थे। वे पढ़ने में उतनी रुचि न लेते, जितनी घूमने-फिरने में। गार्ड को सेट कर वे 'इवनिंग शो' में एडल्ट पिक्चर भी देख लेते। संडे को तो दिन में घूमने की आजादी थी ही, जिसका वे भरपूर लाभ उठाते।

अमित न चाहते हुए ऐसे ही दो-तीन लड़कों की संगत में आ गया। पहले तो वह डरा, लेकिन बाद में उन्हीं के रंग में रँग गया। आये दिन एडल्ड पिक्चर देखना और बाज़ार में खाना-पीना होने लगा। वह सिगरेट पीना भी सीख गया। पढ़ाई की जगह उसे घूमने-फिरने और मौज-मस्ती का चस्का लग गया। पैसों के मामले में वह पिछड़ा था, लेकिन उसके दोस्तों को तो बस उसकी कम्पनी चाहिए थी, पैसों की उन्हें कोई कमी थी नहीं। उनके माता-पिता आज के तालुकदार थे ही।

रंजीत जब कभी अमित से मिलने आते, तो वह कोई-न-कोई बहाना बनाकर जल्द-ही उनसे पीछा छुड़ा लेता। वे आधे-पौन घंटे में वे वापस चले जाते।

तिमाही परीक्षा हुई. अमित को तो रिजल्ट पहले ही मालूम था-क्लास टीचर या रंजीत को रिपोर्ट कार्ड मिलने पर पता चला। इस बार उसे चालीस प्रतिशत नम्बर मिले थे। कहाँ उसने साठ प्रतिशत से भी अधिक लाने का वादा किया था! ... ।क्लास टीचर और प्रिंसिपल, दोनों ने उसकी काउन्सेलिंग की। रंजीत को पत्र लिखा।

पत्र पाकर रंजीत बौखला उठे। दौड़े हुए लखनउ आये। न चाहते हुए अमित पर उसके दोस्तों के सामने ही हाथ उठा बैठे। अमित को बहुत बुरा लगा। उसका इतना अपमान कभी न हुआ था। लेकिन जब उसे अपनी ग़लती का अहसास हुआ, तो उसने पापा से माफ़ी माँगी।

अब समस्या थी कि बदमाश लड़कों से पीछा कैसे छुड़ाया जाए. रंजीत ने प्रिंसिपल साहब से बात की। उन्होंने सेक्शन चेंज करने की फिर रिक्वेस्ट की, लेकिन यह आसान न था। प्रिंसिपल ने वार्डन को बुलाकर अमित पर निगाह रखने को कहा। क्लास टीचर को बुलाकर अमित की सीट चेंज करने को कहा। अब अमित क्लास में अगली बेंच पर बैठता था। बगल में बैठने वाले स्टूडेंट पढ़ाई में औसत ही थे। अमित को उनसे कोई लाभ न था, पर साथ बैठने की मजबूरी थी।

अमित यह समझता तो था कि माता-पिता की उससे क्या अपेक्षाएँ हैं? पिता की आर्थिक स्थिति क्या है? अगर वह बदमाश लड़कों का साथ न छोड़ेगा, तो उसका भविष्य निश्चित ही चौपट हो जायेगा? लेकिन किसी बात को समझना एक बात है, उसे व्यवहार में उतारना दूसरी।

किशोर वय में हम रोज़ कितने ही फैसले करते और बदलते हैं। अमित चाहता था कि वह नये साथियों से अलग रहे, पर उनसे एकदम कैसे अलग रह सकता था? स्कूल वही था, हॉस्टल वही था और बाकी चीजें भी वही! जब तक हमारा परिवेश नहीं बदलता, हममें बदलाव कैसे आयेगा? परिस्थितियों के दुश्चक्र में पड़ना और उससे पड़े रहना ही तो दुर्भाग्य है!

दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने का एक अवसर आया। अमित बीमार पड़ गया। उसे मीजिल्स निकल आये थे। कॉलेज प्रशासन ने तुरन्त उसके घर सूचना दी।

रंजीत दौड़े-दौड़े आये और अमित को घर ले गये। पन्द्रह दिनों के आराम और तीमारदारी से अमित ठीक हो गया, पर कमजोरी अभी बाक़ी थी। ...डॉक्टर ने स्कूल जाने की परमीशन दे दी थी।

दशहरा की छुट्टियाँ होने वाली थीं। स्कूल पाँच दिन बन्द था। तीन दिन मिल रहे थे कि स्कूल जाया जा सकता था, लेकिन यही तय पाया गया कि दशहरा की छुट्टियों के बाद ही अमित स्कूल जाए. बीमारी के कारण स्कूल से चलते समय वह कुछ किताबें ही ला पाया था। उनके पाठ वह पढ़ चुका था। अन्य विषयों को वह कवर करना चाहता था, लेकिन उनकी किताबें नहीं थीं। गोंडा में वे उपलब्ध होतीं तो खरीद ही ली जातीं, पर ऐसा न हो सका। परिणामतः कई विषयों में उसकी पढ़ाई तीन हफ्ते पिछड़ गयी।

छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुला, तो ही अमित लखनऊ आ सका। दो हफ्ते तो उसे छूटा काम पूरा करने में लग गया। रोज़ की पढ़ाई तो करनी ही थी। महीने भर में किसी तरह गाड़ी ढर्रे पर आयी। बदमाश लड़कों से निज़ात मिल गयी थी। रंजीत के प्रार्थनापत्र पर उसका हॉस्टल-हाल बदल दिया गया था।

लगातार मेहनत के बावजूद अमित पढ़ाई में पिछड़ गया था-जिन साथियों से वह हमेशा आगे रहता था, अब उनसे भी पीछे था। ... धीरे-धीरे उसमें हीनभावना घर कर गयी। मंथली टेस्ट में वह पचास परसेंट से अधिक न ला सका।

रंजीत बेटे की विवशता समझ चुप रह गये, लेकिन उस पर यह दबाव ज़रूर बनाया कि फ़ाइनल इक्ज़ाम में वह कम-से-कम फ़र्स्ट आये!

अमित पढ़ाई में लग गया। उसने मेहनत में कोई कसर न छोड़ी, लेकिन इग्जाम तक वह वैसी तैयारी न कर सका जिसकी उसने खुद उम्मीद की थी। ... वह सेकेंड डिवीजन ही ला पाया।

फर्स्ट इयर में एडमीशन तो हो गया, लेकिन प्रिंसिपल साहब ने रंजीत को सुझाव दिया कि अगर अमित कालेज में नहीं चल पा रहा, तो वे उसे निकाल लें।

यह सुनते ही रंजीत सकते में आ गये-अब अमित को कहाँ डालें? एक तो, मुश्किल से कहीं एडमीशन होता है, दूसरे, अन्य जगहों पर यहाँ के मुक़ाबले खर्च अधिक था। उन्होंने अमित को लगभग चेतावनी देते हुए कहा-"अगर सेकेंड डिवीज़न ही लाना है, तो हॉस्टल में रहकर पढ़ने की ज़रूरत क्या है? तुम खुद ही सोचो-तुम्हें पढ़-लिख कर कुछ बनना है, या यों ही पैसा बरबाद करना हैं?" फिर समझाते हुए बोले-"बेटा! अपने घर की हालत समझो। हमने तुमसे कुछ सपने पाल रखे हैं। अब तुम बड़े हो गये हो! अपनी जिम्मेदारी समझो, कुछ सोचो!"

अमित की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? सोचते-सोचते वह भावुक हो गया। वह पापा से कुछ कहना चाहता, पर उसका गला भर आया। ... कुछ कह न सका। नम आँखों से रंजीत को कालेज कम्पाउंड से बाहर जाते देखता रहा।

हॉस्टल आकर उसने खुद को कमरे में बन्द कर लिया। उस समय उसका रूममेट भी नहीं था। उसे माँ की बहुत याद आयी, पर तनिक ही देर में उसे माँ के चेहरे में रंजीत ही दिखायी पड़ने लगे। मानो कह रहे हों-'बेटा, अगर कुछ बनने का इरादा हो, तो पढ़ने में मन लगाओ, वरना हम लोगों की कमाई बरबाद मत करो!'

अमित को लगा कि उसके मम्मी-पापा, दोनों ही केवल उसके अच्छे नम्बरों से प्यार करते हैं, उससे नहीं! अच्छे नम्बर, माने फ़र्स्ट डिवीज़न! नहीं, उससे भी ज्यादा! कहाँ से लाये वह इतने नम्बर? क्या वह बुदधू है, इंटेलीजेंट नहीं? क्या उसमें वह कैपेसिटी नहीं कि अच्छे नम्बर ला सके? वह क्या करे वह कि मम्मी-पापा के सपनों को पूरा कर सके! ... वह बहुत बेचैन हो उठा।

शाम ही से अमित डिस्टर्ब हो गया। खेल-कूद कुछ नहीं। ... खुद को कमरे में बन्द कर लिया। उसका रूममेट भी आज नहीं है-वह अपने पापा के साथ घर चला गया है—उसका बर्थ-डे है आज! उसे सेलिब्रेट करने गया है। वह मुझसे कोई तेज़ है क्या? नम्बर भी मुझसे कम ही पाता है। लेकिन कहाँ उसके पापा और कहाँ मेरे?

पल भर के लिए अमित को अपने पापा से चिढ़ हो गयी। मम्मी का चेहरा भी आँखों के सामने घूम गया, पर उनकी आँखों में भी वह प्यार नहीं दिखा जो कभी पहले था। ... उसे मम्मी-पापा से दुराव हो गया। दुनिया में कोई भी उसके मन की बात समझने वाला नहीं, कोई भी उससे प्यार करने वाला नहीं! कोई भी उसका दोस्त नहीं! ... इस दुनिया में उसका कोई नहीं!

मायूसी में डूबा थोड़ी देर वह लेटा रहा। फिर उठकर पानी पिया और पढ़ने लगा। एक घंटा बीता। उसे भूख लग रही थी, लेकिन उस समय ग्यारह बज रहे थे-डाइनिंग हाल बन्द हो चुका था। ...वह फिर पढ़ने में लग गया। चार-पाँच किताबें और नोटबुक उसने एक साथ खोल रखी थीं। लगता था कि जैसे आज ही वह सारी किताबें पढ़ डालेगा। ...

लेकिन यह क्या? उसकी नज़रें एक-ही पृष्ठ पर अटक गयी, जैसे उसमें लिखा हो—अमित, कुछ सोचो! कुछ सोचो!

रात के एक बजे थे। हॉस्टल गहरी नींद में था, पर अमित की आँखों में नींद न थी। वह आँखें बन्द किये बिस्तर पर लेटा हुआ था, पर आराम करने के लिए नहीं। ...उसकी आँखों में एक दुःस्वप्न पल रहा था।

सबेरे छह बजे सभी हॉस्टलर ग्राउंड में असेम्बल हुए. मार्निंग वाक कर वे वापस कमरों में भी आ गये। नहा-धो नाश्ता कर असेम्बली हाल में भी वे इकट्ठे होने लगे, लेकिन अमित का कहीं पता नहीं।

क्लास में भी अमित एब्सेंट! क्लास टीचर ने कोई खास ध्यान नहीं दिया। सोचा, हो सकता है उसकी तबीयत खराब हो गयी हो। क्लासेज खत्म होने पर सभी हॉस्टलर लंच कर अपने-अपने कमरे में आराम करने लगे। वार्डेन ने भी अमित का रूम नहीं चेक किया कि वह आखिर अन्दर से बन्द क्यों है? आखि़र, उसने अमित का रूम खटखटाया, पर कोई उत्तर न मिला। जब उसंने कमरे में झाँककर जायजा लेने की कोशिश की, तो उसकी चीख़ निकल पड़ी।

अमित के कमरे का दरवाजा तोड़ा गया। अन्दर का दृश्य देख सभी स्तब्ध रह गये। अमित का शव सीलिंग फ़ैन से लटक रहा था। चादर का फन्दा बनाकर आत्महत्या की गयी थी।

मेज पर छोटा-सा पत्र एक मोटी-सी किताब से दबा था-'सॉरी पापा! मैं आपका सपना नहीं पूरा कर सका।'