सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 जनवरी 2013
एकता कपूर ने 'कंदरीगा' नामक तेलुगु फिल्म के अधिकार खरीदे हैं और अब निर्देशक डेविड धवन अपने पुत्र वरुण के साथ इसे बनाएंगे। ज्ञातव्य है कि करण जौहर की फिल्म 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' में वरुण को महेश भट्ट की सुपुत्री आलिया के साथ प्रस्तुत किया गया था। पिता द्वारा पुत्र को निर्देशित करना पहली बार नहीं हो रहा है। केदार शर्मा अपने पुत्र को निर्देशित कर चुके हैं। राज कपूर ने अपने पुत्र ऋषि के साथ 'मेरा नाम जोकर', 'बॉबी' और 'प्रेमरोग' जैसी फिल्में बनाईं और उनके आकल्पन 'हिना' को रणधीर ने निर्देशित किया। इस तरह ऋषि कपूर ने अपने घरेलू बैनर के लिए चार फिल्में की हैं। राज कपूर ने अपने छोटे पुत्र राजीव को भी 'राम तेरी गंगा मैली' में निर्देशित किया था। उनके ज्येष्ठ पुत्र रणधीर कपूर ने उन्हें 'कल आज और कल' तथा 'धरम करम' में निर्देशित किया। राज कपूर ने अपने बेटों के साथ ही पिता पृथ्वीराज को भी 'आवारा' में निर्देशित किया। ताहिर हुसैन अपने बेटे आमिर खान को निर्देशित कर चुके हैं। वी. शांताराम ने अपनी सुपुत्री राजश्री को 'गीत गाया पत्थरों ने' में निर्देशित किया। इसी तरह किशोर साहू ने अपनी बेटी नयना को 'हरे कांच की चूडिय़ां' में निर्देशित किया था। महेश भट्ट अपनी बेटी पूजा को अनेक फिल्मों में निर्देशित कर चुके हैं।
बहरहाल, निर्माता एकता कपूर और निर्देशक डेविड धवन में यह समानता है कि उनके लिए व्यावसायिक सफलता के अतिरिक्त फिल्म बनाने का कोई और उद्देश्य नहीं है। सीरियल साम्राज्ञी एकता कपूर ने छोटे परदे पर सास-बहू कहानियों को प्रस्तुत किया है और अब तक शायद वह तीन हजार एपिसोड्स का निर्माण कर चुकी हैं, जिसका मतलब है तकरीबन ५०० फिल्में। डेविड धवन पुणे फिल्म संस्थान से संपादन की डिग्री लेकर आए और कुछ असफल फिल्मों के बाद उन्होंने सफल फिल्मों की कतार लगा दी। गोविंदा तथा करिश्मा कपूर उनके मनपसंद सितारे रहे हैं तथा दक्षिण की फिल्मों के हिंदी संस्करण के साथ ही उन्होंने पुरानी हिंदी फिल्मों को भी अपनी मिक्सी में मथकर दोबारा बनाया है। हॉलीवुड पर तो सभी भारतीय फिल्मकारों का समान अधिकार है। मास मनोरंजन रचने में माहिर दो लोग अब साथ आए हैं।
वरुण युवा नायक हैं और अपनी पहली फिल्म में उन्होंने प्रभावित भी किया है। यह बताना कठिन है कि क्या वह भी फिल्मों के बारे में अपने पिता की तरह सोचते हैं? डेविड के ज्येष्ठ सुपुत्र 'देसी ब्वॉयज' नामक असफल फिल्म बना चुके हैं। उनकी निर्देशकीय शैली अपने पिता की कार्बन कॉपी थी।
अब इस फिल्म के लिए मसाले चार खरल में पीसे जाएंगे। पहले तो तेलुगु के फिल्मकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी होगी। अब एकता का खरल कुछ पीसेगा, डेविड भी अपने अनुभव को कूटेंगे और वरुण का खरल भी कुछ न कुछ घोंटेगा। अत: इस फिल्म में भांति-भांति के मसालों का प्रयोग होगा। इन खरलों में मसाला कूटने वालों में परदे के पीछे करण जौहर भी अपने द्वारा प्रस्तुत नायक के लिए कुछ तो करेंगे। अगर यह फिल्म न होकर खीर होती तो पांच लोग इसमें शकर डालते और फिल्म का संतृप्त घोल तैयार होता, जिसे देखने वालों को मधुमेह का खतरा बन जाता।
बहरहाल, डेविड धवन की बॉक्स ऑफिस एकाग्रता की प्रशंसा करनी होगी। उनके मन में यह ख्याल हमेशा रहता है कि आम दर्शक हंसता रहे, खुश रहे। दृश्य तो बड़ी बात है, वह एक शॉट भी ऐसा नहीं लेते, जिसे देखकर शास्त्रीय सिनेविज्ञ वाह-वाह करें। उन्होंने पुणे फिल्म संस्थान में पढ़ाई के दौरान देशी-विदेशी अनेक क्लासिक्स देखें होंगे, परंतु उन्होंने किसी का भी प्रभाव अपने ऊपर नहीं पडऩे दिया। वे सिने उद्योग की आंकड़े प्रकाशित करने वाली पत्रिका को बाइबिल की तरह बांचते हैं। उन्हें कस्बों के सिनेमाघरों के नाम भी याद हैं।
एकता कपूर और डेविड धवन की तरह बॉक्स ऑफिस उपासना किसी और ने कभी नहीं की। ऋतिक रोशन के नाना जे. ओमप्रकाश ने दर्जनभर मसाला फिल्में बनाई हैं, परंतु उन्हें गुलजार की कमलेश्वर द्वारा लिखी 'आंधी' पसंद आई, तो उसके निर्माण का जोखिम उठाया। मनमोहन शेट्टी ने गोविंद निहलानी की 'अद्र्धसत्य' के साथ ही प्रकाश झा की फिल्मों में भी सहयोग किया। एआर कारदार ने व्यावसायिक फिल्मों के साथ ही बच्चों को केंद्र में रखकर 'दो फूल' नामक फिल्म बनाई थी। सारांश यह कि व्यावसायिक सफलता के प्रति घोर आग्रह रखते हुए भी फिल्मकारों के मन में प्रयोग और सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्मों के लिए कभी न कभी इच्छाजागती ही है।
जब राज कपूर ने कलकत्ता (अब कोलकाता) में मित्रा बंधुओं का 'एक दिन-रात्रि' नाटक देखा, तो उस पर आधारित 'जागते रहो' बनाने की इच्छा इतनी बलवती हुई कि उनके परिवार तथा निकटतम सहयोगियों के मना करने पर उन्होंने फिल्म बनाई। उनके पिता पृथ्वीराज ने कहा कि यह महान नाटक है, परंतु शायद फिल्म नहीं चले। इस पर राज कपूर ने कहा कि यह कहानी उनके मन में इस तरह घुल गई है कि इसे बनाने के बाद ही वह कुछ और पर विचार कर पाएंगे।
गुरुदत्त की 'प्यासा' के लिए दिलीप कुमार द्वारा अपनी बीमारी के कारण इनकार करने के बाद वह फिल्म आर्थिक जोखिम हो गई, परंतु गुरुदत्त पीछे नहीं हटे और खुद इसमें अभिनय किया। वह सैकड़ों वर्षों तक 'प्यासा' के लिए याद किए जाएंगे। जीवन की चक्की मनुष्य को पीसती है। रोटी, कपड़ा और मकान की समस्याओं में जीवन खप जाता है, परंतु प्रेरणा का एक क्षण आपसे लीक से परे कुछ करवाता है और इसी तरह की गैर-व्यवहारिक इच्छाएं ही महान काम का सृजन कराती हैं। विज्ञान की सारी खोज ऐसे ही 'दीवानेपन' के कारण होती हैं। इसीलिए निदा फाजली कहते हैं कि 'सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला।'
सारांश यह कि दुनियादारी व्यवहारिक सत्य है, परंतु लाभ-हानि, यश-अपयश के परे अमर होने और सारी मानवता के लिए सार्थकता रचना ही मनुष्य जीवन का दिव्य-उद्देश्य है।