सोनुआं माय का शौचालय / पुष्यमित्र

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बार-बार फोन आ रहा था. मैं काट देता, फिर रिंग होने लगता था.

उस वक्त बॉस सामने बिठा कर एप्रेजल का नया गणित समझा रहे थे और विजय है कि मानने का नाम ही नहीं ले रहा था. वह ऐसा ही था. बस अपने-आप से...अपने काम से ही मतलब रखता...दूसरे के बारे में सोचना उसकी फितरत में नहीं था. थक हार कर मैंने फोन स्विच आफ कर दिया. आधे धंटे बाद जब फुरसत मिली तो कॉल बैक किया...

...यार कमाल करते हो... मैं फोन लगा-लगाकर थक गया और तुम उठा ही नहीं रहे थे... बाद में फोन ऑफ कर दिये. तुम यार कभी भी नहीं सुधरोगे.

मुझे मालूम था. उल्टा मुझे ही सुनना पड़ेगा. और उसे कुछ कहने का कोई फायदा भी नहीं. जब अपना काम हो तो वह दूसरों की मजबूरी समझता नहीं है. दोस्त है, तो झेलना तो पड़ता ही है, झेल रहा हूं... क्लास सिक्स से ही.

अब कॉल बैक किया न... चल बता... बात क्या है?

वनांचल एक्सप्रेस तो छूट ही गयी न... पहले उठा लेता तो गाड़ी के पैसे बच जाते. खैर कोई बात नहीं... कोई गाड़ी हायर कर ले और सीधा घर आ जा...

उसकी इस बात को सुनकर दिल धड़क उठा. जरूर कोई सीरियस मामला है. तभी तत्काल दस घंटे की जर्नी करके घर पहुंचने कह रहा है. कोई अनहोनी तो नहीं हुई...

बात क्या है... कुछ सीरियस..... मेरी घबराहट मेरे आवाज में गूंज रही थी.

अरे यार... भयंकर सीरियस है, मेरा कैरियर बरबाद होने जा रहा है...

उसकी बात सुनकर मन को शांति मिली.. मुझे तो लगा था कि कहीं उसके घर या मेरे घर में किसी बुजुर्ग का साया... खैर...

... तेरा कैरियर बना कब था गधे, जो अब बरबाद हो रहा है..

अरे मजाक मत कर अखबार में सोनुआं माय का फोटो छप गया है, शौचालय में खाना पकाते हुए. नाम, टोला, गांव, जिला समेत... कल इनक्वायरी के लिए डीएम साहब आने वाले हैं. मामला मैनेज नहीं हुआ तो मुझे जेल भी जाना पड़ सकता है... तू बस आजा... गाड़ी हायर कर ले... स्कॉरपियो कर ले... पैसे मैं दे दूंगा... मगर कल सुबह तक हर हाल में पहुंच...

इसका मतलब है, विजय इस बार सचमुच बड़े चक्कर में फंस गया था... मैंने कई बार समझाया था इस तरह का धंधा मत किया कर... कोई और रोजगार कर... मगर अपने आप को इतना स्मार्ट समझता था कि क्या बताएं. अब तो जाना ही था...

रास्ते भर उसको गाली देता रहा... साला... गधा... बच्चे बड़े हो गये हैं... अब तक सीरियसनेस नहीं आया. शौचालय बनवाने का प्रोजेक्ट लेना किसी पढ़े-लिखे समझदार का काम है... यह तो विशुद्ध ठेकेदारी है... मगर भाई साहब ने ठीक-ठाक कमीशन देकर पूरे प्रखंड का प्रोजेक्ट ले लिया... पैसे पता नहीं कितने बचे... मगर काम खत्म हुआ नहीं कि आफत गले पड़ गयी. पता नहीं कौन है जो इसके पीछे पड़ गया है... बार-बार शौचालय में घपले की खबर छपवा देता है... इस बार सालिड खबर हाथ लग गयी. स्कूप... शौचालय में लोग शौच करने के बजाय खाना पकाते हैं... सोनुआं माय भी जाहिल की जाहिल ही रही... कैसे शौचालय को रसोई बना लिया... एक बार भी घिन नहीं लगा... हद है...

चार साल पुराना प्रोजेक्ट था. गाड़ी पर बैठे-बैठे मुझे सब याद आने लगा. वह पहली बार मेरे घर आया था. यूं तो हम लोग क्लास सिक्स से ही साथ पढ़े थे, हॉस्टल में साथ रहे थे. मगर एक दूसरे के घर जाने-आने का मौका नहीं मिला. उस रोज अचानक वह मेर घर धमक गया. संयोग से मैं छुट्टियों में घर आया हुआ था...

....यार, किसी को टॉयलेट फ्री में बनवाना है तो बताओ...

क्यों... तुम पाकिस्तान वाले डिपार्टमेंट में काम करने लगे हो.

हॉस्टल में हम उसे पाकिस्तान मंत्री ही कहा करते थे. टॉयलेट गया तो आधे धंटे बाद ही निकलता था.

... हां, बचपन की हॉबी को ही कैरियर बना लिया है.

छेछरपनी में कहा कम था वह.

खैर, उसने अपने ही अंदाज में समझाया कि उसने यह प्रोजेक्ट ले लिया है... इसी सिलसिले में दस दिन से मेरे गांव में लोगों के टॉयलेट बनवा रहा है. उसने अपने मन में जितना टारगेट रखा था उसमें दस घट रहा है... भरपाई मुझसे करवाना चाह रहा है. मैंने तत्काल हाथ जोड़ लिये...

भई, मेरे पहचान के जितने लोग हैं... सबके घर में टायलेट हैं, तू किसी और को पकड़.

मगर वह तो पूरा प्लान बनाकर आया था.

तू अपने गांव में कितने लोगों को जानता है.

जानना क्या है... अपने खानदान के बाहर के लोगों से बहुत कम मिलना-जुलना होता है. हम लोग आठ-नौ परिवार हैं... और पाकिस्तान वाले भगवान ने सबको टॉयलेट की बरकत अता की है...

...चल अच्छा है...आठ या नौ, ये बता दे...

नौ...

तो ठीक है नौ हो गये.. अब दसवें का इंतजाम करना है.

मतलब...? किसी को यहां दो टॉयलेट का शौक नहीं है... समझे...

सरकार दो बनवाने कहती भी नहीं है... एक बना है न, नाम बता दे लोगों का... सबको मैं कल एक-एक हजार रुपये दे दूंगा...

क्या मतलब... ?

मतलब ये कि उन्हें बस कहना होगा कि ये टॉयलेट संपूर्ण स्वच्छता अभियान के पैसे से बने हैं. उनके टॉयलेट पर मैं अपने प्रोजेक्ट का खांचा छपवा दूंगा, बस. बाकी मैं मैनेज कर लूंगा...

साला... तू तो बिल्कुल करप्ट हो गया है.

नहीं बंधु... एनजीओ चलाता हूं... समाजसेवा करता हूं...

खैर... सभी लोग मान गये... मुफ्त के हजार रुपये किसे बुरे लगते थे.

दो दिन बाद वह फिर हाजिर हो गया.

...यार तूने 99 पर लटका दिया है. नर्वस नाइंटीन... सेंचुरी लगवा दे.

....और चार साल पहले की यह सेंचूरी आज उसके जी का जंजाल हो गयी है.

आप समझ ही गये होंगे.. विजय ने सौंवा शौचालय सोनुआं माय का ही बनवाया था. मगर सोनुआं माय ऐसी बेवकूफ निकली कि शौचालय में शौच तो कभी किया नहीं, उसके बेसिन को चूल्हा और शौचालय को किचेन बना लिया. इस अति मनोहर दृश्य को किसी पत्रकार ने कैमरे में कैद कर लिया और संपादक ने इसे पहले पेज की शोभा बना दिया. खलबली तो मचनी ही थी. तसवीर सरकार की इस अति महत्वाकांक्षी परियोजना को तमाचा लगा रही थी. खैर कहानी आगे बढ़े इससे पहले सोनुआं माय से परिचय करना जरूरी है.

सोनुआं माय मेरे यहां काम करती है. बरतन-कपड़े धोना और घर के छोटे-मोटे काम. अकेली विधवा है. दोपहर तक मेरे घर में रहती है, फिर अपने घर चली जाती है. अति गरीब है... हम लोग भी उसकी गरीबी को बरकरार रखने में योगदान देते हैं. मेहनताना के तौर पर उसे रोज सिर्फ 20 रुपये देते हैं. इतनी गरीब है कि बीपीएल भी नहीं है. क्योंकि बीपीएल लिस्ट में नाम चढ़वाने में जितना खरचा लगने वाला था उसका जुगाड़ वह नहीं कर पायी. जब शौचालय बन रहा था उस वक्त उसका पति जीवित था. उसकी उम्मीदें भी जिंदा थी... अब पति नहीं है तो उसे किसी चीज का शौक नहीं है. बीपीएल कार्ड का भी नहीं, जिस पर पेंशन और अनाज मिलता है. उसका मानना है कि हमारे घर से उसे जितना मिलता है, वह उसके जीवन के लिए पर्याप्त है. अब उस रोज की बात बताता हूं जिस दिन विजय सेंचूरी लगाने के इरादे से मेर घर आया था.

संयोगवश उस रोज तीन दिन की गैरहाजिरी के बाद सोनुआं माय आयी थी. बता रही थी, पति बीमार है. डॉक्टर ने शहर ले जाकर दिखाने कहा है. लगभग 5 सौ रुपये का खरचा है. पैसे मांग रही थी. उसका पति बीमार ही रहता था. पहले भी कई बार हम उसे पैसे दे चुके थे. उस पर हमारे दो हजार रुपये उधार हो गये थे. एक हजार रुपये उसने सूद पर भी ले रखे थे. जो तीन हजार हो चुके थे. वह हर हालत में हमसे ही पैसे लेना चाहती थी, क्योंकि हम सूद नहीं लेते थे. वैसे मां अब और पैसे देना नहीं चाहती थी, मगर ऐसे हालत में मना भी कैसे किया जाता. तभी मेरे मन में यह ख्याल आया.

... तू सोनुआं माय को हजार रुपये देगा, तो यह शौचालय बनवा लेगी.

सेंचुरी की उम्मीद में बैठे विजय से मैने तत्काल कह डाला.

... सचमुच... इसका अपना शौचालय है...

...नहीं, शौचालय तो नहीं है.... मुझे लगा बात बनी नहीं.

कोई बात नहीं...

कमीने विजय के पास तो कई फार्मूले थे...

इसका बिना टंकी वाला शौचालय बना देंगे. बात करो...

... गजब ... मेरे मुंह से निकल ही गया.

बहरहाल विजय ने सोनुआं माय को हजार रुपये दिये और उसके घर पर बिना टंकी वाला शौचालय बनवा दिया. यानी सिर्फ रूम और टॉयलेट सीट. सोनुआं माय को तो बस पैसों की ही दरकार थी. बिना टंकी वाला शौचालय उसके लिए कभी शौचालय बना ही नहीं.

जब कभी छुट्टियों में घर आता तो सोनुआं माय विजय को बहुत आशीर्वाद देती. उसके दिये पैसे से सोनुआं माय ने पति का ठीक से इलाज करवाया. डॉक्टर ने कहा कि उसे निमोनिया हो गया है.. ठंड से बचाना पड़ेगा. अब सोनुआं माय के पास कम से कम एक कमरा ऐसा था जहां ठंड से बचाव हो सकता था. विजय का दिया शौचालय. उसके पति ने उसी शौचलय में एक साल गुजारा और बाद में चैन की मौत हासिल की. सोनुआं माय कहती थी कि मरना तो था ही मगर बूढ़ा कायदे से मरा... सोनुआं की तरह छिछया कर नहीं मरा. सोनुआं (उसका इकलौता बेटा) के वक्त तो बरसात में छप्पर इतना चूता था कि जमीन तालाब बन गया था. चौकी तो था नहीं... मलेरिया का रोगी था, मगर दिन-रात कादो-कीचड़ में पड़ा रहता था.... वह फफकने लगती...

घर पहुंचा तो विजय पहले से हाजिर था. मुझे देखते ही बोला... जल्दी बुलाओ सोनुआं माय को... किसी को भेजो...

मैंने एक बच्चे को भेज दिया.

अब वह मुझे पूरी कहानी बताने लगा कि कितना बड़ा मामला हो गया है. ... कैसे खबर छपने पर सीधे सीएम आफिस से डीएम के मोबाइल पर फोन आया था... गुड लक था कि डीएम साहब बीडीओ को पसंद करते हैं, इसलिए पहले बता दिये... समय रहते मैनेज कर लो, कल इनक्वायरी में आ रहा हूं...

एक ही उपाय है... सब सोनुआं माय के हाथ में है... पत्रकार को मैंने तीन हजार देकर पटा लिया है... शौचालय को अब शौचालय बनाना होगा... कहना होगा कि यह तसवीर सोनुआं माय के शौचालय की नहीं है. दूर-दराज के किसी और टोला या गांव की है या इंटरनेट से निकाली गयी है. सोनुआं माय को सुबह-सुबह उसमें शौच करना पड़ेगा... एक दिन की तो बात है.

...यार, मान जायेगी सोनुआं माय... बड़ी सीधी महिला है. ... मैंने उसे भरोसा दिलाया...

नहीं भैया... इतनी सीधी नहीं है. पैसे का लालच दिया, धमकाया... मगर मानने को तैयार नहीं है... तभी तो स्कारपियो का खरचा बरदास्त करके तुमको बुलाये हैं...

उसका जवाब सुनकर मन हुआ कि स्कारपियो का भाड़ा उसके मुंह पर दे मारें... मगर सोचे अभी बेचारा परेशान है... इसलिए चुप लगा गया. मगर सोनुआं माय मान क्यों नहीं रही है, यह समझ में नहीं आ रहा था.

थोड़ी देर में सोनुआं माय भी आ गयी. चुपचाप बरामदे पर बैठ गयी.

क्या बात है सोनुआं माय... विजय को तो तुम इतना आशीर्वाद देती थी.. बेचारे का जीवन-मरण का सवाल है. क्यों नहीं उसकी बात मान लेती हो...

उसने मेरी तरह आंख उठाकर मेरी बात सुन ली... मगर कहा कुछ नहीं.

ऐसा स्वभाव उसका था नहीं... देख कर अजीब लग रहा था.

एक-दो बार और पूछा, मगर उसका मौन नहीं टूटा.

... जेल चला जाय... यही चाहती हो.... आखिरकार मैं झल्ला उठा.

... क्या करें बाबू... उसका मौन टूटा.. कैसे उसमें शौच करेंगे... वहीं तो सोनुआं के बाबू ने अंतिम सांस ली थी.... कैसे किया जायेगा वहां शौच.... इतना कह कर वह फफकने लगी.

उसकी बात सुनकर मैं खुद सन्नाटे में आ गया. अब इसके आगे कोई भी तर्क बेकार था. चाहे विजय जेल ही क्यों न चला जाये.

मगर विजय कमीनेपन में किसी से कम कहां था.

... अगर मैं जेल गया न... तो तुमको भी जेल जाना पड़ेगा... जेल में बुढ़ापा में वो हाल होगा कि जीना मुश्किल हो जायेगा... नंगा करके मारते हैं वहां...

विजय का आखिरी दांव काम कर गया... मैंने घृणा से अपना चेहरा दूसरी ओर कर लिया.

शाम को विजय का फोन आया... यार, मुसीबत टल गयी है... शहर में एक बड़ा केस हो गया है. डीएम साहब उसी में बिजी हो गये हैं... आये नहीं... अब हफ्ता दो हफ्ता तो यह केस चलेगा ही... तब तक मेरा मैटर सब भूल जाएंगे.... आ जाओ मैं सोनुआं माय के घर के पास ही हूं...

विजय से मिलने की तो कोई इच्छा बची नहीं थी, मगर सोनुआं माय की हालत देखने की इच्छा जरूर थी. निकल पड़ा...

वहां अजीब नजारा था.. सोनुआं माय पागलों की तरह विजय पर पत्थर फेंक रही थी... और विजय खुद को पत्थरों से बचाते हुए ही..ही करता हंस रहा था. सोनुआं माय के मुंह से गालियों की बौछार हो रही थी...

उसके शौचालय का दरवाजा खुला था. सबूत के तौर पर उसमें सुबह की शौच की नुमाइश अब तक बरकरार थी.

सोनुआं माय की रसोई का सामान, तेल-मसाला, आटा-चावल, दो-चार बरतन ... और भी कुछ छोटे-मोटे सामान... उसके लगभग ढह चुके मड़ई के सामने बिखरे हुए थे.