सोने की बेल्ट / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

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स्तम्भों के नगर सालामिस की ओर जाने वाली सड़क पर चलते दो लोग एक जगह मिले। दोपहर के समय वे एक चौड़ी नदी पर पहुँचे। उसे पार करने के लिए कोई पुल नहीं था। उस पार जाने के लिए या तो उन्हें तैरना था या फिर कोई दूसरा रास्ता तलाशना था जिसे वे नहीं जानते थे।

वे आपस में कहने लगे, "हमें तैरना चाहिए। जो भी हो, नदी बहुत ज्यादा चौड़ी नहीं है।"

बस, वे नदी में कूद पड़े और तैरना शुरू कर दिया।

उनमें से एक ने, जिसे नदियों और उनके बर्ताव का पहले ही से ज्ञान था, मझधार में पहुँचकर शरीर को निश्चल छोड़ दिया ताकि जोर की लहर आए और उसे किनारे पर ले-जा पटके। उसके विपरीत दूसरा, जो पहले कभी भी पानी में नहीं कूदा था, सीधे तैरता चला गया और उस पार जा खड़ा हुआ। यह देखकर कि उसका साथी अभी भी लहरों से कुश्ती लड़ रहा है, वह पुन: पानी में कूद पड़ा और उसे सुरक्षित बाहर खींच लाया।

बचाकर लाए हुए आदमी ने कहा, "लेकिन तुमने तो कहा था कि तुम्हें तैरना नहीं आता? फिर इतनी सफाई के साथ तुमने नदी को कैसे पार कर लिया?"

"दोस्त!" दूसरे ने उत्तर दिया, "मेरी कमर में बँधी इस बेल्ट को देख रहे हो? इसमें सोने के वे सिक्के भरे हैं जिन्हें मैंने अपनी पत्नी और बच्चों के लिए पूरे साल काम करके कमाया है। इस बेल्ट में बँधे सोने के वजन ने मुझे उस पार से इस पार मेरी पत्नी और बच्चों के निकट पहुँचा दिया। मेरी पत्नी और मेरे बच्चे मेरे कन्धों पर लदे थे, उन्हीं के कारण मैं तैर पाया।"

इसके बाद वे दोनों सालामिस की ओर बढ़ गए।