सोने के अंडे / तारिक असलम तस्नीम
हम दोनों ही बरामदे में बैठे चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। घर-परिवार की बातें हो रही थी। तभी वह गली से गुजरी। उसे देखकर ही रफ़ीक मिया ने अजीब सा मुँह बनाते हुए कहा-- इस लड़की को देखता हूँ तो बड़ा रहम आता है। आप जानते हैं कि नहीं, अमन साहब । इनके शौहर हमारे अच्छे दोस्त थे। बेचारे का धोखे से कत्ल हो गया ।
-- हाँ । सुना तो है। अब क्या किया जाय। यही तो दुनिया है, जो होना था सो हुआ। वह तो चले गए और पीछे छोड़ गए एक बीवी और पेट में बच्चा।
यह कहते हुए अमन ने अपने भीतर कुछ खौलता-सा महसूस किया।
मैं तो यही कहूँगा कि इस बेचारी की उम्र ही क्या है अभी? इसकी घर वालों को शादी कर देनी चाहिए। यही बेहतर होगा। फिर नौकरी करती रहती। आफिसों का माहौल तो आप भी देख ही रहे हैं?
-- लेकिन मुझे तो ऐसा लगता है कि इनके घरवाले इस मुद्दे पर कुछ सोचना ही नहीं चाहते। माँ तो जिंदा है मगर पता नहीं कैसी बेरहम औरत है, जो चुप्पी साधे बैठी है। सच तो यह है कि सोने के अंडे देने वाली इस मुर्गी को घर वाले किसी और के हाथों सौंपना ही नहीं चाहते।
-- वाह क्या बात कही है आपने, अमन साहब। बिल्कुल यही बात है।
रफ़ीक मियां ने सहमति जतायी और अफसोस प्रकट करते हुए उठ खड़े हुए।