सोन मछली / जगदीश मोहंती / दिनेश कुमार माली
चाँदीपुर पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई थी। बीच में बारिश की रिमझिम बूंदाबांदी ने कुछ देर के लिए रास्ता रोक दिया था, तो कहीं-कहीं पर गाँवों में लगने वाले साप्ताहिक हटलियों ने सड़क के किनारों पर अपने आँचल पसार दिए थे, फिर भी चाँदीपुर की प्रक्षेपण-घाटी को देखने की तीव्र उत्कंठा ने अग्रिम यात्रा जारी रखी। इन सारे आकर्षक बंधनों को तोड़कर जाते समय हिरणों का एक झुण्ड़ अकस्मात पुपुन के रास्ते के बीच आ गया।
जैसे ही वे चाँदीपुर के समुद्र-तट पर पहुँचे, समुद्र की लहरों को पीछे जाते देख ऐसा लगा मानो वे प्रतीक्षा करते-करते थक गई हो तथा दुःखी होकर लौट रही हो। पीछे मुड़कर तेजी से भागती हुई समुद्र-तरंगों को देखकर अर्चना बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुई। जहाँ पुरी का समुद्र जल-प्राचुर्य के लिए, गोपालपुर का समुद्र गारिमा-गांभीर्य तथा चन्द्रभागा का समुद्र अपनी निर्जनता के लिए प्रसिद्ध है, वहीं इन सब समुद्रों से हटकर है चाँदीपुर का समुद्र ; ठीक उसी तह जैसे किसी फैशन परेड़ में प्रतिभागी एक ग्रामीण-बाला।
उस समुद्र-तट पर पाँवों के नीचे आ रहे थे केंकड़ें। अपनी जान बचाने के लिए भाग-भागकर बालू के अंदर बने हुए बिलों के अंदर छुप रहे थे। केंकड़ें देखते ही पुपुन भय से चौंक उठा और उत्सुकता-वश प्रश्न करने लगा, "कैंकड़ें मांसाहारी होते हैं या शाकाहारी?"
कान्वेंट स्कूल की तीसरी कक्षा में अट्ठानवें प्रतिशत अंक अर्जित करने वाले पुपुन के मन में जिज्ञासावश यह प्रश्न उठ रहा था, "केंकड़ें मांसाहारी होते हैं अथवा शाकाहारी?"
मुझे उसका उत्तर ज्ञात नहीं था। वैसे भी मुझे कई चीजों की जानकारी नहीं है। प्रकृति के अनसुलझे रहस्यों के बारे में मुझे पता नहीं है। मैं तो यह भी नहीं जानता, इंसान पैदा क्यों होता है? मरने के बाद वह जाता कहाँ है?ईश्वर की अनंत सृष्टि में हमारे सौर-मंडल जैसे कितने सौर-मंडल होंगे? सचमुच, अनंत ब्राह्मांड के रहस्यों के बारे में मुझे तनिक भी ज्ञान नहीं।
तभी अर्चना ने पुपुन को आवाज दी "पुपुन बेटे, चलो, समुद्र में जाकर लहरों को छूते हैं।"
अर्चना की यह बात सुनकर पास में खड़े एक पर्यटक ने कहा, " लहरों को पकड़ना चाहते हो तो आप लोग अभी चले जाइए, नहीं तो कुछ समय बाद ये लहरें कई किलोमीटर दूर तक समुद्र में लौट जाएगी।"
माँ की बात सुनकर पुपुन डर से कहने लगा, "नहीं, समुद्र के अंदर केंकड़ें हैं।"
"केंकड़ें हमें कुछ क्षति नहीं पहुँचाते हैं, पुपुन।"
"नहीं, मम्मी, केंकड़ा आदमी को काटता है। वह मांसाहारी है। केंकड़े के काट लेने से आदमी मर जाता है।"
"केंकड़ा आदमी को नहीं काटता है। बिच्छू काटता है। केंकड़ा और बिच्छू दो अलग प्रजातियाँ होती हैं।"
"नहीं, केंकड़ा काटता है।"
"पुपुन मैंने अपने जीवन के चालीस सालों में भी ऐसा कभी नहीं देखा और न ही सुना कि किसी केंकड़े ने आदमी को काटा है।"
परन्तु पुपुन यह बात मानने को राजी नहीं था। उसकी आँखों में अविश्वास की भावना स्पष्ट झलक रही थी। तभी समुद्री तट भी शनै-शनै पीछे होता जा रहा था। एक बार फिर अर्चना ने पुपुन को आवाज दी, "दौड़कर आओ, पुपुन, लहरें पीछे चली जाएगी, आओ, लहरों के साथ खेलते हैं।"
"तू इतना डरता क्यों है? जीवन को किन-किन चीजों से बचाओगे क्या आग से, पानी से, हवा से दुर्घटना से या फिर मृत्यु से? सुनो, जीवन इतना भी क्षणिक नहीं है। इसे आग जला नहीं सकती, पानी भीगा नहीं सकता तथा हवा उड़ा नहीं सकती। केवल यमराज के हाथों एक दिन सभी को मरना पड़ता है। बस, डर है तो उस आततायी का। उसे प्रणाम करो, आग को नहीं, पानी को नहीं और ना ही हवा को। जीवन को गैंद की भाँति लुढ़का दो और उसे लुढ़कने दो कठोर मिट्टी के ऊपर। रगड़ खाने दो रास्ते में आने वाले पत्थरों, घास-फूस तथा काँटों से। उसी अवस्था में तुम अपने आपको आगे बढ़ता हुआ पाओगे, अन्यथा जिन्दगी-पर्यन्त जिस स्थान पर खड़े हो, वहीं ऐसे ही खड़े रह जाओगे।"
परन्तु पुपुन आगे नहीं बढ़ा। उसे विश्वास नहीं हो रहा था। उसने अपने आंतरिक भय को बाहरी संस्कार की पोशाक मान लिया था। उस आवरण को वह जिंदगी भर उतार नहीं पाएगा तथा ग्रीष्म-दाह में उसकी सारी जिंदगी जल जाएगी. मुझ से पुपुन का यह आचरण सहन नहीं हुआ और क्रोध से चिल्लाने लगा, "जाओ, पुपुन, समुद्र की तरफ जाओ, देख क्या रहे हो?"
इतना चिल्लाने पर भी पुपुन टस से मस नहीं हुआ, केवल अपना हाथ मेरी मुट्ठी में से झटककर अविश्वास की भावना के साथ वह दूर चला गया। यह देखकर मैं गुस्से से तमतमा उठा, अपने आप को संयत नहीं कर पाया और उसकी पीठ पर जोरदार मुक्का मारते हुए चिल्लाकर कहने लगा, "डरपोक कहीं का, डर लगता है समुद्र की तरफ जाने से।"
मेरी कर्कश आवाज सुनकर पास में से गुजर रहे दो पर्यटक मेरी तरफ घूरकर देखने लगे। पास में रवीन्द्र संगीत का गायन करती हुई लड़की ने अपना गाना वहीं बंद कर दिया। यहाँ तक समुद्र की लहरें भी डरकर दो कदम पीछे चली गई। अर्चना ने दूर से भागते हुए आकर पुपुन को अपनी गोदी में उठा लिया और मेरी तरफ देखते हुए कहने लगी, "ये सब क्या कर रहे हो? बेटे को सबके सामने इस तरह अपमानित करने से उसके अंदर हीन-ग्रंथि पैदा हो जाएगी।" पुपुन के पैदा होते ही मेरी सारी दुनिया बदल गई थी। नर्सिंग होम के आपरेशन -थियेटर से बाहर निकलकर नर्स ने जब मुझे नवजात शिशु पकड़ा दिया था, तब उसको मेरे दोनों हाथों की हथेलियों में रखते समय ऐसा लगने लगा था मानों मैं किसी अद्भूत दुनिया में कदम रख रहा हूँ। उस दुनिया में अश्लीलता ही शालीनता का द्योतक है। जहाँ शारिरिक नग्नता ही आलौकिक सुंदरता है। कल तक ब्लाऊज के पीछे छिपी हुई सारी शालीनता को एक नारी ने सबके सामने ब्लाऊज खोलकर दिखा दिया था कि मातृत्व पाकर उसकी सारी निजी गोपनीय संपत्ति मानो सार्वजनिक हो गई हो।
मैं प्रोढ़ा पृथ्वी पर खड़ा था। उस दिन दस बजकर तीस मिनट पर नवजात शिशु को अपनी हथेलियों में लेकर नई दुनिया में प्रवेश किया था। इससे पूर्व मैं एक सुखी और सफल इंसान था। दक्षिण अफ्रिका के गरीब इलाकों से मेरा कोई संबंध नहीं था। मैं तो केवल साधारण जनतांत्रतिक निर्वाचन क्षेत्र से संबंध रखता था। नोबेल ज्ञानपीठ, अर्जुन पुरस्कार जैसा कोई भी मेरे पास नहीं था। इक्कीसवीं सदी, परमाण्विक आयुधों की प्रतिस्पर्धा, इंसान के भविष्य को लेकर सांप्रदायिक दंगे, फासिस्ट राजनीति, आतंकवाद की समस्या या फिर महँगाई या महँगाई भत्ते से मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं था।
मेरी दुनिया तो केवल अर्चना और मेरे घर की चार-दीवारी के अंदर सजाई हुई भौतिक वस्तुएँ जैसे सोफा, टी.वी. फ्रिज, गैस, डाइनिंग -टेबल, अलमीरा, कारपेट, कूलर, रुम हीटर और गीजर इत्यादि तक ही सीमीत थी। इससे बढ़कर अगर थोड़ा-बहुत विस्तार था तो कुछ और सामग्रियाँ जैसे मिक्सी, हॉट-पॉट, बनारसी साड़ी, कोट-सूट, क्वार्टज-घड़ी, बाहर भ्रमण के लिए स्कूटर और तो और अर्चना के पेट पर जमती हुई चर्बी के इर्द-गिर्द तक।
उस समय पुपुन ही हमारा एक मात्र लक्ष्य था। जैसे ही हमारी शादी के तीन साल बीते ही थे, वैसे ही हमारा सारा समाज अर्थात् हमारे परिजन, ससुराल वाले तथा पड़ोसी इस बात को लेकर चिंतित रहने लगे कि हमारे जीवन में पुपुन क्यों नहीं है? इधर अर्चना का मासिक-धर्म भी अनियमित रहता था, उधर हर बार मासिक-धर्म आरंभ होने से पूर्व अर्चना को ऐसा लगता था जैसे पुपुन उसके गर्भ में ठहर गया हो। मगर ऐसा होता नहीं था। होती थी केवल रक्तिम शीतलता।
"हमारे जीवन में पुपुन क्यों नहीं है?" अर्चना के इस विषय पर जैसे मेरे भीतर न कोई क्षोभ था और न ही कोई आत्म-ग्लानि। "मेरे पास एक बंगला है, स्कूटर है, बैंक लॉकर में कीमती गहने हैं, सामाजिक सम्मान है। केवल पुपुन ही तो नहीं है। इससे क्या अंतर पड़ता है?" यह मेरी सोच थी मगर अर्चना के सोचने का ढंग बिल्कुल विपरीत था। वह सोचा करती थी, "प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कम से कम एक पुपुन अवश्य होना चाहिए। सभी एक पुपुन बनाने में सक्षम हैं। केवल मैं नहीं, मैं क्यों नहीं?" यही मुख्य कारण था जिसकी वजह से अर्चना आंतरिक उथल-पुथल और अभाव-बोध से ग्रस्त रहने लगी।
पुपुन के उत्पन्न होने के बाद हमारे जीवन में काफी बदलाव आया। एक ओर, पुपुन को पाने के बाद अर्चना प्रतिदिन ईश्वर को साष्टांग-दंडवत करती, तेतीस कोटि देवी-देवताओं से मन्नत माँगती, मरीच-कुंड में डुबकी लगाकर निर्वस्त्र दस मीटर दूरी तय करती फिर लौटकर वस्त्र पहनती; इस तरह की धार्मिक मान्यताओं और साधनाओं में अविश्वास रखने वाला इंसान पुपुन के पैदा होने केलिए पूर्णतया समर्पित हो गया था, जबकि अर्चना एकदम निर्विकार व निस्पृह रहने लगी थी। पहले की तरह रात को उसकी नींद नहीं टूटती थी। पोलियो बूँद पिलाने की तारीख वह भूल जाती थी। आधी रात को बेबीफूड के डिब्बे को हिलाकर कहने लगती थी, कि डिब्बा तो खाली हो गया है। पुपुन को दस्त लगने से कहने लगती थी, कुछ नहीं होगा। चीनी और नमक मिश्रित घोल पिला देने से ठीक हो जाएगा।
चाँदीपुर के समुद्र-तट पर सैर-सपाटा कर रहे बंगाली सैलानियों ने हमारी तरफ पलटकर देखना शुरु किया। मेरे मुक्के से आहत और विक्षुब्ध पुपुन को अर्चना ने अपने अंक में समेट लिया और मेरी तरफ देखकर नफरत भरे स्वर में कहने लगी आयन्दा मेरे बेटे को इस तरह अपमानित मत करना। जानते नहीं हो, छोटा बच्चा है, उसके अंदर जल्दी ही हीन-ग्रंथि विकसित हो जाएगी। उसके बाद वह पुपुन को पुचकारकर कहने लगी, "आओ, बेटे! केंकड़ें तुम्हें कुछ भी नहीं करेंगे, आओ, मेरे साथ आओ।"
पुपुन अपनी माँ के हाथ से अपना हाथ छुड़ाकर कुछ दूर तक दौड़कर भाग गया, फिर पीछे पलटकर देखने लगा। उसकी आँखों में नफरत के भाव स्पष्ट झलक रहे थे। क्षुब्ध-मन से वह कहने लगा, "ठीक है, मैं अपने दोस्तों से कह दूँगा कि मेरे पिताजी हिरणकश्यप की तरह एक राक्षस हैं। वह मुझे समुद्र में फैंक देना चाहते थे।" कहते-कहते वह समुद्र तट पर तेजी से दौड़ने लगा। अर्चना ने पीछे से उसको आवाज दी, "रुक जाओ पुपुन, पहले अपने जूते तो खोल दो।" मगर पुपुन ने कुछ भी नहीं सुना।
मानो पहले मैने पुपुन का हाथ पकड़कर चलना सीखा था। डगमगाते हुए कदमों से पहली बार जब वह खड़ा होकर चलते समय गिर गया था, तब वह अपनी असहाय अवस्था पर रोया नहीं था। मगर मेरी आँखों में आँसू छलक पड़े थे। उसको जब अगर कभी कब्जियत होती थी, पेट साफ नहीं होता था, तो मैं पास में बैठकर अपने पेट पर दबाव डालता था। जब वह भूखा रहता था, तो मेरे पेट के भीतर आग जलने लगती थी। जैसे ही वह रोता था, तो मेरा बना-बनाया संसार बिखर जाता था।
एक बार पुपुन जब डेढ़ साल का था। आधी रात को उठकर वह रोने लगा। उस समय वह बोलना सीख रहा था। उसके लिए शब्दों का प्रयोग कोई मायने नहीं रखता था। शायद रोना ही उसकी किसी इच्छापूर्ति नहीं होने के खिलाफ युद्ध की घोषणा थी या फिर किसी चीज को पाने के दावे का प्रपत्र या सूक्ति।
"क्या चाहते हो? पानी पीओगे?" पानी-गिलास को पुपन ने अपने हाथ से झटक दिया। उसे तो केवल 'गुम्बा' चाहिए था।
"कंघी लोगे, बेटा? बॉल? बाअल? अच्छा, छोड़ो, यह डिब्बा लेलो। यह भी नहीं। यह किताब देखो। इस किताब को पढ़ो, तो ए, बी, सी, डी, एक, दो, तीन, चार। देखो, इस डिब्बे से पाउडर निकल रहा है। क्या चाहिए सिंदूर की डिबिया, चूड़ियों का बाक्स, ड्रेसिंग टेबल के नीचे दराज में पड़ी हुई टूटी घड़ी, हेयर क्लीप या इमीटेशन ज्वेलरी? ये भी नहीं, जानवरों के खिलौने भालू, बाग, बिल्ली, जेबरा? भालू जैसे दिखने वाला हाथी लेलो। नहीं तो, लोमड़ी जैसा दिखने वाला कुत्ता लेलो।"
मगर पुपुन ने हर चीज को दर-किनार कर दिया था। अचानक देखते-देखते मेरा हँसता -मुस्कराता सुखी परिवार दुखी हो गया था। मेरे पास सब-चीजें थी, मगर उसका चाहा हुआ 'गुम्बा' नहीं था। गुम्बा पुपुन के काल्पनिक खिलौने का नाम था जिसे वह खूब प्यार करता था। उसे रात को उसी समय 'गुम्बा' ही चाहिए था।
चाँदीपुर के समुद्र-किनारे चाय बेचने वाले नहीं थे। 'मूढ़ी' और भेल-पुरी बनाने वाले भी नहीं घूम रहे थे। शंख, सीपी, मोती बेचने वाले भी नहीं दिखाई दे रहे थे। दूर दूर तक फोटोग्रॉफर भी नजर नहीं आ रहे थे। नजर आ रहे थे दूर में बैठे हुए कुछ बांगाली पर्यटक। वे रविन्द्र संगीत की धुन पर गीत गा रहे थे। अंतरिक्ष में चाँद अपनी धवल चाँदनी बिखेर रहा था। तब तक समुद्र बहुत दूरतक जा चुका था। केवल समुद्र के कोलाहल की आवाज सुनाई पड़ रही थी।
स्कूटर कब से अंधेरे में रखा हुआ है। उसको लॉक करके आ जाता हूँ। पंथ-निवास का कृत्रिम उजियाला चांदनी रात के प्राकृतिक सौंदर्य को प्रभावित कर रहा था। काश! यहाँ एक कप चाय पी लेता। कोई जमाना था विश्व प्रसिद्ध अंग्रेज कवि जॉन वीम्स बलरामगढ़ी में रहा करते थे। आज भी उनका स्मृति-भवन वहाँ मौजूद है। यही नहीं, बरामगढ़ी में बलंग नदी का बंगाल की खाड़ी में मिलने का दृश्य अत्यंत ही मनोरम है। हे भगवान! एक कप चाय की खातिर इतनी दूरी तय करनी पड़ेगी। पुपुन बेटे, नाराज मत होओ; लो, यह स्वादिष्ट मिक्सर खाओ, देख रहे हो वृक्षों के झरमुट किस तरह रास्ते पर अंधकार बिछा रहें हैं। रास्ते पर जहाँ-तहाँ गड़ढे भी होंगे। देखना, पुपुन, संभलकर चलना, नई जगह है।
जिस दिन पुपुन पहली बार स्कूल गया था, अर्चना उसको बस में चढ़ाने के लिए स्वयं गई थी। बस में बैठाकर आने के बाद घर में वह खूब रोई थी। उस समय सारा घर खाली-खाली लगने लगा था। अर्चना मेरे कंधे के ऊपर सिर रखकर ऐसे रोने लगी थी मानो वह पुपुन को स्कूल बस में नहीं बिठाकर श्मशान की तरफ जाती हुई किसी अर्थी पर सुलाकर आई हो। जब भी पुपुन स्कूल जाता था, मैं उसकी हर तरीके की मदद करता था। नया यूनिफॉर्म पहनाना, टिफिन भरना, वॉटर बोटल झूलाना, बस-स्टॉप तक छोड़ने जाना इत्यादि छोटी-छोटी चीजों में मैं एक विशेष आनंद की अनुभूति करता था। पहली बार पुपुन को भी इस बात का अहसास हुआ कि उसकी भी कुछ निजी संपत्ति है। एक स्कूल-बेग, कुछ कापियाँ तथा किताबें पेंसिल रबर, टिफिन बॉक्स और वॉटर बोटल, ये सब पुपुन की धन-दौलत है। उसके इस ऐश्वर्य के सामने मेरे कठिन परिश्रम से अर्जित घरेलू सामान जैसे सोफासेट, कलर टीवी, फ्रिज, कूलर, स्कूटर, मिक्सी, गैस की अहमियत कुछ भी नहीं है। यहाँ तक कि अर्चना के कीमती गहनें भी मूल्यहीन हैं। अर्चना और मैं फिर से उसके नर्सरी राइम्स के पात्र जैक और जिल बनकर किसी पहाड़ी पर पानी लाने के लिए चढ़ते थे। वहाँ से फिसलकर नीचे गिर जाते थे।
पुपुन जब स्कूल से घर लौटता था तो ऐसा लगता था जैसे वह किसी युद्ध-क्षेत्र से युद्ध करके लौट रहा हो। उसकी वॉटर-बोटल खो जाती थी। किताबें फट जाती थीं। पॉलिश किए हुए जूतों पर कीचड़ व गोबर लग जाता था . स्कूल के कपड़ों पर जहाँ-तहाँ सलवटें पड़ जाती थी। कभी-कभी बटन तोड़कर तो कभी कभी टाई भूलकर वह घर लौटता था। आव न ताव देखकर हम उसके साथ लड़ना शुरु कर देते थे! अभिमन्यु की तरह वह हमारे जैसे खतरनाक योद्धा के साथ युद्ध लड़ने में अपनी असहायता का अनुभव करते लगता था।
जिस लड़के ने तुम्हें मारा, उसको तुम मार नहीं पाए। उसकी चोटी पकड़कर खींच लेता। पेंसिल से उसकी आँखें फोड़ देता। नहीं तो, कम से कम दांतों से काट देता। तुम्हारे टीचर क्या करते हैं? बच्चों को लड़ता देखकर छुड़ाते नहीं हैं? कॉमन रूम में बैठकर खाली या तो गपशप लगाती होंगी या फिर स्वेटर बुनती होंगी। जाकर अपने क्लॉस-टीचर को तो कम से कम बता देता।
समुद्री-किनारा छोड़कर चाय की खोज में हम एक निकट स्थित गाँव की तरफ चले गए। वहाँ से जब लौटे, तब तक चांदीपुर का समुद्र-तट दूर-दूर तक एक अस्पष्ट चांदनी से चमक रहा था ऐसा लग रहा था मानो बालू की जगह तट पर चांदी बिखेर दी गई हो। पास में एक भग्न दीवार के ऊपर हम सभी बैठ गए। अर्चना एक मिक्चर पैकेट पुपुन की तरफ बढ़ाते हुए कहने लगी, "लो, पुपुन, थोड़ा-सा खालो।" पर पुपुन ने कुछ भी नहीं खाया। अंधेरा पसर चुका था, तट पर और केंकड़े दिखाई नहीं दे रहे थे। पंथ-निवास दूर से जलते हुए प्रकाश में किसी भूतिया-भवन से कम नहीं लग रहा था। तभी सामने से एक जीप तेजी से चली गई। अर्चना ने पुपु से पूछा, "लहरों के साथ खेलने चलोगे, पुपुन?"
इस बार पुपुन ने जोर से ऊँची आवाज में कहा, "चलिए।" इसकी आवाज उतनी तेज थी कि पास में रवीन्द्र संगीत की धुन पर किसी मधुर गाने की तान छेड़ी हुई लड़की अपना गाना बंद करके पलटकर उसकी तरफ देखने लगी। कान्वेंट स्कूल के होनहार विद्यार्थी पुपुन की शब्दावली कुछ ऐसी थी कि वह मेरे और अर्चना की समझ से परे थी। कई शब्द तो ऐसे थे जिनको हमने सुना तक नहीं था। कुछ शब्द ऐसे भी थे, जिन्हें हम पति-पत्नी आपसी बातचीत में प्रयोग करना तो दूर की बात, उनके बारे में सोच भी नहीं सकते थे। वे सारे शब्द स्कूल बैग के अंदर रखी हुई किताबों के भीतर के नहीं थे। सोच भी नहीं सकते थ। वे शब्द थे दो अक्षर वाले शुद्ध गालियों के शब्द।
विद्यालय की रण-भूमि से लौटते पुपुन की हालत से बढ़कर हमारे लिए आश्चर्य और चिंता का विषय था कि प्रतिशोध रुपी नाख़ून और दाँत उसके मन के अंदर जन्म ले रहे थे। साथ ही साथ, नेत्रों में अदृश्य निष्ठुर हँसी, तो चेहरे पर झलक रहे थे अदृश्य आत्म-गर्व के भाव। यह परिवर्तन देख अर्चना और मैने नैतिक-शिक्षा की तरफ उसका ध्यान आकर्षित करना चाहा। फिर से उसको रटे-रटाये उपदेश देने लगे। पुपुन, हमेशा सत्य बोलना चाहिए। सवेरे जल्दी उठकर मुँह धोना चाहिए। सुबह के मनोरम दृश्य को देखो, भगवान ने इस सुंदर दृश्य की सृष्टि की है। पुपुन, जिद्द मत करो पिता का कहना मानो। उनकी आज्ञा का पालन करो। जो भी पाठ पढ़ने के लिए कहा जाता है, उसे दिल लगाकर पढ़ो। शाम को बच्चों के साथ खेलने जाओ। किसी के साथ लड़ाई-झगड़ा मत करो। रिटर्न गुड़ फॉर एविल। पपुन जो गाली देता है, उसे चुंबन दो। अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारें, तो तुम अपना दूसरा गाल सामने कर दो।
यद्यपि पाँवों के नीचे पानी था मगर तलवे शुष्क के शुष्क थे। पाँवों में स्पर्श हो रहा था तो केवल बालूदार कीचड़ और भीगी मिट्टी से। उस चाँदनी रात में चांदीपुर का समुद्री-किनारा ऐसे नजर आ रहा था मानों चारों ओर चाँदी के वरक बिछा दिए गए हो।
"ऐसा समुद्री-किनारा मैने पहले कभी भी नहीं देखा।" कहकर अर्चना भावविह्वल हो उठी, लेकिन मेरा मन पहले दर्शन में इस समुद्र-तट से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुआ। इन सब भावों से बेखबर पुपुन एक क्षत्रिय की भाँति आगे बढ़ता ही जा रहा था।
पुपुन के इस साहस को देखकर अर्चना कहने लगी, "जानते हो, पुपुन का सबसे अच्छा गुण है कि जैसा हम उसको बनाना चाहते हैं, वैसा ही वह बनने के लिए अपने आप को समायोजित करता है। लेकिन मैं यह नहीं जानती कि हम उसको बनाना क्या चाहते हैं? क्या हमें स्वयं को एक अच्छे इंसान की परिभाषा ज्ञात है?
अब तक पुपुन के मन से केंकड़ों का भय समाप्त हो चुका था। आगे बढ़ते-बढ़ते वह प्रश्न करने लगा, "मम्मी, क्या इस समुद्र में सोन-मछली मिलती है?"
अर्चना के कॉलेज, उसकी कंप्यूटर क्लॉस, मेरे दफ्तर और हमारे खाली-खाली घर के मध्य पुपुन की अवस्था एक सैडविच की तरह होती जा रही थी। जब पुपुन नींद से जागता, तब अर्चना कम्प्यूटर क्लॉस करने जाती थी। जब पुपुन स्कूल से घर लौटता था, तो अर्चना कॉलेज गई होती और मैं अपने आफिस। घर में केवल पुपुन का इंतजार करती मिलती तो वह थी घर की नौकरानी, अपने हाथ में एक टॉवेल तथा चेहरे पर अश्रद्धा के भाव लिए। पुपुन हमेशा ड़रा रहता था कि कब क्या हो जाएगा। घर लौटने पर अगर नौकरानी नहीं मिली तथा दरवाजे पर लटका हुआ एक बड़ा ताला उसका इंतजार करते हुए मिला तो वह क्या करेगा?
"तुम इस बात की चिंता क्यों करते हो। बेटे? तेरी चिंता करने के लिए हम लोग हैं ना। अगर कभी नौकरानी घर पर नहीं मिली तो हम लोग मिलेंगे। उस दिन या तो मम्मी छुट्टी ले लेगी या फिर मैं।"
"डर लगता है पापा, फिर भी डर लगता है।"
"इतना ड़रते क्यों हो? तुम्हारे तलवों के नीचे एक सख्त जमीन की तरह मैं विद्यमान हूँ।"
"तब भी पापा मुझे डर लगता है।"
भोर पाँच बजे से उठकर अपने कामों में लगे रहो। पुपु के हिसाब से जिंदगी जिओ। बार-बार आफिस से फोन करो कि पुपुन घर लौटा या नहीं? गैरेज में ड्राइवर को फोन करके पता करो कि स्कूल बस ठीक है या नहीं? वह ड्यूटी में है या छुट्टी पर? अर्चना के कॉलेज में फोन करो, उसकी स्टॉफ काऊंसिल मीटिंग चल रही है या खत्म हो गई? शाम को आफिस से जब भी घर लौटो तो पपुन को खेल के मैदान से बुलाकर अपने साथ घर ले आओ और फिर पढ़ने के लिए राजी करो। इन सारी चीजों के बीच मेरे जीवन का संतुलन कहीं न कहीं खो रहा था। कभी-कभी पुपुन माँ-बाप की अनुपस्थिति में एकाकीपन से निदान पाने के लिए नया रास्ता खोजकर कहने लगता था,"मम्मी, सोन-मछली कैसी दिखती है ?" आगे बढ़ते हुए पुपुन ने फिर एक प्रश्न किया। दूर से समुद्र के कोलाहल व गर्जना भरे स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहे थे। पंथ-निवास के उजियाले के पीछे बहुत दूर से झिलमिलाती हुई रोशनी दिखाई दे रही थी प्रक्षेपण-घाटी की कॉलोनी की। हमारे चारों तरफ फैली हुई धवल-चांदनी तथा आकाश में बादलों के साथ आँख- मिचोली करते हुए चाँद का प्राकृतिक-दृश्य मन को लुभा रहा था। धीरे-धीरे कर चाँदनी धूमिल होती चली गई।
पाँवों के नीचे बलुई मिट्टी आने लगी थी। ऐसा तो नहीं, कहीं इस जगह पर आभासी बालू तो नहीं। कहीं ऐसा न हो जाए देखते-देखते पाँव बालू में घँस जाए। प्रत्येक पदक्षेप असुरक्षित लग रहा था। ऐसा लग रहा था बढते हुए पाव मानो बालू के भीतर धँसते जा रहे हो। "पुपुन, सभालकर चलना, बेटे! आओ, मेरा हाथ पकड़कर चलो।"
समुद्र की अथाह जलराशि बहुत दूर से गर्जन कर रही थी। इस समय समुद्र तट पर रवीन्द्र संगीत गाते हुए दूर से तारों की तरह झिलमिला रही थी। पांव पंक लिए बलूई मिट्टी में भीगते जा रहे थे। चारों तरफ प्रकीर्णित धवल-चांदनी में सामने एक चीज दिखाई दे रही थी। दूर से कोई चट्टान-सी प्रतीत हो रही थी। अचानक वहाँ कोहरे की धुंध छाने लगी। समझ में नहीं आ रहा था कि यह कोहरा है या कोई और चीज। कभी कभी ऐसा भी होता है समुद्र के बीच में इस तरह का धुंआ दिखाई पड़ता है। इसका मतलब यह तो नहीं कि हम समुद्र के बीच पहुँच गए हैं? "मम्मी, सोन-मछली क्या खाती है?"
अचानक मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। आस-पास, दूर दूर तक कोई भी नजर नहीं आ रहा था। जिसको समुद्र का छोर कह रहे थे, वह तो कब से लुप्त हो चुका था। जिधर भी दृष्टि जाती थी, केवल समुद्र ही समुद्र नजर आने लगा। मन में बार-बार यही सवाल उठ रहा था कि क्या हम लोग समुद्र के बीच में पहुंच गए हैं। तरह-तरह का भय लगने लगा था। कहीं ऐसा तो नहीं हो कि अचानक समुद्र के अंदर से सुरसा की तरह एक भयानक राक्षसी प्रकट होकर हमें अपना आहार बना लेगी। क्या फिर कभी हम उफनती लहरों को नहीं देख पाएँगे? क्या हमेशा-हमेशा के लिए हम लोग इस गहरे समुद्र के भीतर समा जाएँगे।
"मम्मी, सोन-मछली का रंग कैसा होता है?"
समुद्र की भयंकर गर्जना के धों-धों शब्द तेज होते जा रहे थे। दूर दिखाई देने वाली काली चट्टान नजदीक आते जा रही थी। सफेद रंग से प्रलेपन किया हुआ ऐसा समुद्र मानो कहीं नहीं हो। और ऐसे निश्चल समुद्र के ऊपर हम इस तरह बढ़ते चले जा रहे थे मानों हम अपनी महायात्रा के लिए प्रस्थान कर लिए हो। अर्चना मेरा हाथ पकड़कर कहने लगी,
"सुनिए, और आगे नहीं जाएँगे, मुझे बहत डर लग रहा है।"
"पुपुन बेटे, लौट आओ।"
"पुपुन और आगे मत जाओ, बेटे। कहीं पर 'चोरा बालू' हो सकता है। तुम्हारे आस-पास में कोई भी नहीं है। बेटे, यह शांत प्रकृति भयावह लगने लगी है। लौट आओ, पुपुन। कहना मानो पहले हम लोग किनारे तक लौट चलते हैं। वहाँ से चले जाएँगे चाँदीपुर गांव, फिर बालेश्वर शहर चलो बेटा, हम लोग अपने शहर लौट जायेंगे। घर जाकर निश्चिन्ता से विश्राम करेंगे अपनी-अपनी रजाई में घुसकर।
लेकिन पुपुन अविरत गति से आगे की तरफ भागते जा रहा था। हम दोनों को एक अजीब सा भय लगने लगा था। इर्द-गिर्द कोई भी नजर नहीं आ रहा था। केवल समुद्र की बिपुल जलराशि तथा आकाश में चांद और बादल नजर आ रहे थे। कहीं प्रकृति के किसी कोने में कोई दुर्घटना या मृत्यु न छुपी हुई हो।
"पुपुन, तुम ही हमारी दुनिया हो। लौट आओ, हमारे प्राणों के आधार, लौट आओ। पुपुन, हमारा हाथ पकड़कर चलो हम जल्दी ही किनारे पर लौट जाएँगे।"
बात को अनसुना कर पुपुन भागते हुए चला जा रहा था। भागते-भागते वह सामने दिख रही काली चट्टान के ऊपर खड़ा होकर चिल्लाकर कहने लगा, "मम्मी, देखिए, मैं अब किस तरह सोन-मछली बन गया हूँ।"
ठीक उसी समय समुद्र में ऊफान शुरु हुआ और देखते-दखते एक भयानक दैत्य की भाँति अपनी सारी प्रचंड लहरों के साथ काली चट्टान के पीछे से वह प्रकट होने लगा। उस की प्रचंड लहरें बाजपक्षी की तरह झपट्टा मारने लगी और उसके विकराल गर्जना के निनाद से हमारे दिल काँप उठे। कहीं ऐसा तो नहीं, कि समुद्र में एक बार फिर से ज्वार आ गया हो।
"पपुन, बेटे, दौड़कर आओ, हमारे लाल, हमारे बच्चे।"
"मम्मी, देखिए मैं सोन-मछली बन गया हूँ।"
तभी एक बहुत बड़ी, प्रचंड लहर तेजी से ऊपर उठकर चट्टान से टकराई और चली गई। घुटनों तक पानी आगया और देखते-देखते पानी का स्तर कम हो गया। अर्चना मेरा हाथ पकड़कर अपने आपको संभालते हुए आवाज देने लगी, "पुपुन, पुपुन, पुपुन।"
समुद्र के क्रूर कोलाहल में अर्चना की चीत्कार के शब्द मेरे कानों तक नहीं पहुँच पा रहे थे।