सोमनाथ का टाइम टेबल / विमल चंद्र पांडेय
या कुन्देनदुतुषारहारधवला
या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
याश्वेतपद्मासना
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैसदावन्दिता
सा माम पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा।
चार बजे - जागना
चार से साढ़े चार - फ्रेश होना और नहाना
साढ़े चार से पाँच - पूजा करना
पाँच से छह - पढ़ना (याद करना)
छह से सात - टहलने जाना और व्यायाम करना
सात से नौ - पढ़ना
नौ से साढ़े नौ तक - नाश्ता करना
साढ़े नौ से दस तक - लता मंगेशकर के गाने सुनना
दस से एक - पढ़ना
एक से डेढ़ तक - भोजन करना
डेढ़ से दो तक - आराम करना
दो से पाँच तक - पढ़ना
पाँच से छह तक - मनोरंजन (बाहर टहलने जाना)
छह से नौ तक - पढ़ना
नौ से दस तक - भोजन करना
दस बजे - सो जाना
नोट - ‘विद्यार्थी के लिए कम से कम छह घंटे की नींद बहुत जरूरी है।’
विवेकानंद - ‘उठो, जागो और तब तक चलते रहो जब तक लक्ष्य को पा न लो।’
टाइम टेबल पूरा होने पर सोमनाथ को लगा जैसे अब तक इधर-उधर बिखरा बेतरतीब जीवन दोनों हाथों से समेटकर करीने से लगा दिया गया हो।
परीक्षाओं की निकटता से सबसे ज्यादा डर तब लगने लगता है जब ‘प्रीपरेशन लीव’ घोषित हो जाती है। और वह भी बोर्ड... बाप रे। कैसी होती है बोर्ड की परीक्षा? डराने के लिए लोगबाग कैसी-कैसी बातें करते रहते हैं। उसे लगा जैसे यह टाइम टेबल बना कर उसने अब तक की गई सारी लापरवाहियों को जीत लिया है। अब कड़ाई से नियमों का पालन होगा। चारों किनारों पर लेई लगाकर कागज दीवार पर चिपकाते समय उसने चारों कोनों और बीच में (अच्छी तरह चिपक जाने के बावजूद) भी तीन-चार घूँसे मारे। फिर थोड़ी दूर खड़ा होकर यूँ मुग्धता से देखने लगा जैसे कोई महान चित्रकार अपना चित्र पूरा हो जाने पर देखता है। अगर इसका पालन पूरे दो महीने हो जाय तो परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास होने से कोई नहीं रोक सकता। कहीं हमेशा के लिए पालन हो गया तब तो इनसान बन जाएगा, उसने मन में सोचा और विचारों को और पुख्तगी दी जो उसकी भिंची हुई मुट्ठी से साफ दिखाई दी।
इस महीने यह उसका तीसरा टाइम टेबल था।
अभी कमरे से बाहर निकला ही था कि बरामदे में पिताजी से सामना हो गया। टाइम टेबल का पालन कल से क्यों, आज से बल्कि अभी से, काल्ह करे सो आज कर, सोचकर पाँच से छह वाले स्लॉट में बाहर, जरा यूँ ही तफरीह करने निकल रहा था।
‘कहाँ साहबजादे?’ पिताजी का लहजा उसे देखकर हमेशा एकरेखीय क्यों हो जाता है।
‘जरा बाहर जा रहे हैं।’ उसने दरवाजे की तरफ देखते हुए कहा मानो ऐसे बोलने से बात तार्किक मानी जाएगी।
‘ऊ तो दिखी रहा है। आप भीतर रहबे कितना करते हैं?’
माँ चाय लेकर आई और पिताजी के बगल में बैठ गई। वह समझ गया कि आज पाँच से छह वाले स्लॉट में सिर्फ भाषणबाजी होगी। पिताजी का मूड आज फिर किसी ने दफ्तर में सनका दिया है।
‘इस उमर में हमारे दिमाग में सिर्फ पढ़ाई रहती थी।’ पिताजी माँ की तरफ देखते, चाय की चुस्की भरते हुए बोले।
उनके भाषण की प्रस्तावना यहीं से शुरू होती थी। बातों में आत्मप्रशंसा की गंध न आए, इसके लिए वह ’हम लोग’ से भाषण की गाड़ी का इंजन गरम करते थे हालाँकि इसका सीधा और सरल अर्थ ‘मैं’ ही होता था।
‘जब भी समय मिलता था, हम लोग पढ़ने बैठ जाते थे। और समय मिलता भी कितना था, बारह बिगहे की खेती कम भी नहीं होती। पढ़ाई भी, खेती भी। तब भी हाईस्कूल में पूरे गाँव जवार में फर्स्ट विद ऑनर्स।’ पिताजी ने पहला गियर लगा दिया था।
‘तब भी क्या उखाड़ लिया आपने? बिजली विभाग में बाबू बने बैठे हैं। आपके साथ के कितने लाखों चीर रहे हैं।’ उसका हमेशा की तरह मन आया कि भइया का डायलॉग दोहरा दे पर वह हमेशा की तरह दबा गया। हूँ, हमेशा हाईस्कूल की दुहाई देते हैं, इंटर, बीए में कितना था, यह कभी नहीं बताते। ऐसा सोचते समय क्षणांश के लिए उसे लगता था कि जब वह हाईस्कूल पास कर इंटर में जाएगा तो राज खुलेगा कि पिताजी इंटर में मेरिट में आए थे।
‘अरे सुमित्रा, भरी नदी में तैर-तैरकर पढ़ने गए हैं हम लोग। एक हाथ में किताब और एक से तैर रहे हैं।’ पिताजी ने ऐसी भंगिमा बनाई मानो वह तैर रहे हैं और उन्हें साँस लेने में तकलीफ हो रही है। ये माँ भी। पिताजी फेंकते रहते है और ये ऐसे मुस्कराकर सुनती रहती है मानो अलिफ लैला की कहानियाँ सुन रही है।
‘और सिनेमा-विनेमा के बारे में तो हमने सुना ही नहीं था कभी। पहली फिल्म नौकरी मिलने पर बरेली में देखी थी 'चंबल की कसम' छिहत्तर या शायद सतहत्तर में।’
‘उस समय कहाँ इतने हॉल-वॉल हुआ करते थे।’ उसने दिमाग में और भी ढेर सारी दलीलें कौंधी पर वह चुप ही रहा।
‘और इनकी जेब से देखो तो... पिक्चर की टिकट निकलती है। दो महीने हैं बोर्ड की परीक्षा और ये अय्याशी। टकसाल में पिक्चर...?’
वह सन्न रह गया। तो पिताजी इसलिए नाराज हैं। एकबारगी तो उसकी जान निकल गई। कहीं 'जवानी के लुटेरे' की टिकट तो जेब से नहीं निकल आई। मगर वह तो हॉल से निकलते ही फाड़ दी थी। फिर टकसाल का नाम सुनकर राहत मिली। उसमें तो ‘बॉर्डर’ चल रही है। देशभक्ति फिल्म है। हालाँकि दिनेश ये सुनकर उसे भी बड़े अरमानों से खींच ले गया था कि एक गाने में बड़े ‘हॉट’ सीन हैं।
‘परसों दिनेश का जन्मदिन था तो वह कई लोगों का बॉर्डर दिखाने ले गया था’ उसने धीरे से कहा। पता नहीं पिताजी ने उस गाने के बारे में सुना है या नहीं।
पिताजी भड़क गए। ‘साले हमारे मित्र तो हमें कभी जन्मदिन पर फिल्म दिखाने नहीं ले जाते जबकि कमा भी रहे हैं। परसों अस्थाना का जन्मदिन था। हरामखोर ने चाय के साथ दो पकौड़ियाँ भर खिलाई थीं।’
‘जैसा करेंगे वेसा ही तो भरेंगे। अपने जन्मदिन पर आप भी तो सबको चाय पर ही टरकाते हैं।’ उसने ईंट का जवाब पत्थर से दिया मगर मन में।
‘पढ़ लो बेटा, पढ़ लो। यही साल-दो साल सबसे कीमती हैं। इनको सँभाल लिया तो आदमी बन जाओगे।’
वह खुश हो गया। यह भाषण का अंतिम अर्थात उपसंहार का हिस्सा था। उसे याद आया कि पिताजी पिछले कई वर्षों से यही उपसंहार प्रयोग कर रहे हैं जो ज्यादा घिसने के कारण अपनी धार खो चुका है। वरना अभी दो साल पहले तक स्थिति यह थी कि भाषण के एक दौर समाप्त होने पर उसे लगता था कि वह सचमुच बहुत अधम और आवारा है। तुरंत पढ़ने बैठता और कम से कम चार घंटे लगातार पढ़ता। तुरंत एक टाइम टेबल भी बनाता जिसमें रोज आठ से दस घंटे पढ़ने का संकल्प होता।
पिता उसकी तरफ से ध्यान हटा कर माँ से बातें करने लगे। वह उल्टे पाँव कमरे में लौट आया। पूरा मूड चौपट हो चुका था। उसने धीरे से किवाड़ बंद किए, सिटकनी लगाई और गद्दे के नीचे से रंगीन चित्रों वाली किताब निकाली। कुछ पन्ने पलटते ही उसकी साँसें तेज हो गई और खून का प्रवाह दुगुने वेग से होने लगा। लगातार तनती जा रही शिराओं को उसने खुली छूट दे दी और उन्मुक्त कल्पनाओं को दबी इच्छाओं के चाबुक से हाँक दिया। मगर इसका क्या कहें कि बीच-बीच में बड़े अतार्किक ढंग से सलोनी याद आने लगी। उसकी मोहक हँसी, उसकी सुरीली आवाज। उसने किताब छिपा दी और सलोनी की हँसी याद करने लगा। सभी शिराएँ धीरे-धीरे ढीली होने लगीं और वह अचानक ही हल्का अनुभव करने लगा।
2.
पिताजी से ज्यादा डर उसे भइया से लगता था। बहुत ज्यादा। पिता की स्टाइल जानी पहचानी थी, संवाद परिचित थे और वह ज्यादा आक्रामक नहीं थे। जबकि भइया, वह तो जैसे गिद्ध की नजर ओर बाज की पकड़ रखता है। और उसके दोस्त, बाप रे बाप।
‘किस क्लास में है बे सोमनाथ ?’ गणेशी भइया ने पूछा था।
‘हाईस्कूल फाइनल है।’ भइया ने चाय पीते हुए बताया।
‘इधर आओ बे।’ गणेशी भइया ने बुलाया।
वह डरता-डरता गया।
‘परसों संझा समय मलदहिया पे क्या कर रहे थे?’ गणेशी भइया के सवाल ने उसे दहला दिया। वह दिनेश और तौफीक के साथ जीजीआइसी गया था, सलोनी की झलक पाने।
‘मलदहिया पर?’ भइया भी चौंक गया। ‘गए थे बे?’
वह बहुत डर गया। हदस में उसके मुँह से आवाज नहीं निकली। वह जानता था कि अचानक कुर्सी से उठकर भइया तड़ाक से उसके गाल पर एक कड़क चाँटा रख देगा और पूरा ब्रह्मांड उसकी आँखें के सामने नाच जाएगा।
अचानक गणेशी भइया उसका हाथ अपने पास खींच कर इधर-उधर देखते हुए बोले, ‘भोसड़ीवाले, आगे से लौंडियाबाजी करते देखे तो गाँड़ काट कर भूसा भर देंगे। लंका से लेकर भोजूबीर तक हमारी पहुँच हैं। कहीं दिखना मत।’
वह रुआँसा हो गया। गणेशी भइया ने उसे इतने गंदे लफ्जों में डाँटा और भइया ने कुछ नहीं कहा। सिर्फ हँसता हुआ बोला, ‘भग बे, जाकर पढ़ाई कर।’
3.
सलोनी जब से मुहल्ले में आई है, मुहल्ला सुंदर लगने लगा है। अब नालियों में मुँह मारती सूअरें देख कर उसे गंदा नहीं लगता। कहीं भी गोबर-टट्टी पड़ी रहती है तो क्या हुआ, एक इतनी खूबसूरत चीज भी तो इसी मुहल्ले में है।
एक अजीब परिवर्तन हुआ था। जबसे सलोनी को देखना उसे अच्छा लगने लगा था, तबसे ‘रेशमा की जवानी’ और ‘शीला मेरी जान’ जैसी फिल्में उसे गंदी लगने लगी थीं। रंगीन चित्रों वाली किताब उसने तौफीक को लौटा दी थी और फिल्में जाना बंद कर दिया था। एक फिल्म देखते हुए एक लड़की बिल्कुल सलोनी की तरह लगी थी। वह मुग्ध होकर देख ही रहा था कि लड़की ने अपने सारे कपड़े उतार फेंके। उसने वह फिल्म वहीं छोड़ दी और बाहर निकल आया।
‘आप नई किराएदार आई हैं क्या?’ उसे आश्चर्य हुआ कि इतना साधारण प्रश्न पूछने के लिए उसे दस दिन छत पर टहल कर इंतजार करने की क्या जरूरत थी।
‘हाँ। आपके बगल वाला प्लाट हमारा है, पापा ने अभी खरीदा है। उस पर हमारा घर बनेगा। इसीलिए हम इस मुहल्ले में आए हैं ताकि पापा मकान में जल्दी से काम लगवा सकें।’ सुंदर लड़की ने जवाब दिया।
‘आप बहुत सुंदर हैं।’ उसने मन में कहा ओर प्रत्यक्षतः पूछा, ‘इसके पहले आप लोग कहाँ रहते थे?’
‘नदेसर।’ सुंदर लड़की ने मुख्तसर सा जवाब दिया।
‘आपकी छत से होकर जो हवा इधर आ रही है वह बहुत प्यारी सुगंध दे रही है।’ उसने कहना चाहा पर आवाज निकली, ‘नदेसर में मेरा भी एक दोस्त रहता है।’
‘अच्छा कौन?’ जलतरंग सी आवाज ने पूछा मानो वह नदेसर के सभी बाशिंदों का डेटाबेस रखती है।
‘अनुज नाम है उसका। क्वींस कॉलेज में पढ़ता है। मैं भी। टेंथ, मैथ्स। आप?’ इस बार का अपना सायास प्रयास उसे अच्छा लगा।
‘मैं जीजीआइसी, टेंथ्स, आर्ट्स।’ वह बुझ सा गया। न जाने क्यों उसे लग रहा था कि लड़की जरूर मैथ से पढ़ रही होगी, गणित में बहुत कमजोर होगी, गुणनखंड से बहुत डरती होगी और कोई दोस्त खोज रही होगी जो पढ़ाई में उसकी मदद कर सके।
‘मेरा नाम सोमनाथ है।’ उसने उसका नाम जानने की गरज से किसी फिल्म की स्टाइल दोहरायी।
‘और मैं सलोनी।’ लड़की ने भी शायद फिल्म देख रखी हो।
अब तो उसका मन हुआ कि लड़की की आँखों में आँखें डाल कर कह दे कि तुम्हारा नाम बहुत खूबसूरत है, मगर अचानक उसके सारे संवाद खो गए। लड़की आसमान में देख कर एक मोहक किलकारी मार कर खुश हुई थी। उसने भी एक बार ऊपर देखा और फिर लड़की की गर्दन को देखने लगा जिस पर एक सुंदर तिल था।
‘आपको पतंगें देखना पसंद है क्या ?’
‘बहुत, सिर्फ देखना ही नहीं उड़ाना भी। जब छोटी थी तो खूब उड़ाती थी, अब माँ मना करती हैं।’
जब वह उसके चले जाने के बाद नीचे उतरा तो उसका वजूद बदल चुका था। उस पर एक खुमारी तारी थी और वह अनायास ही कुछ देर अकेला रहना चाहता था।
4.
भइया कोई जादूगर था। वह हर समस्या को चुटकी जाते हल कर देता। उसकी एक चमत्कारिक दुनिया थी जिसमें वह अपने दोस्तों के साथ घूमा करता था। रात को खूब देर-देर से घर आता और कभी-कभी तो नहीं भी आता। उसका फोन आता कि आज रात वह अपने फलाँ दोस्त के यहाँ रुकेगा। पिताजी उसे शायद ही कभी कुछ कहते हों। पहले उसके देर से आने पर खूब झगड़े हुआ करते थे। एक दिन उसने सुना, भइया चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था, ‘अपने सिद्धांत मुझ पर मत पेलिए। बहुत ईमानदारी की पुंगी बजाते रहे जिंदगी भर। पूरे जीवन में आपकी क्या उपलब्धि रही, ये एक घर, एक सड़े से मुहल्ले में? मैं आपकी तरह बाबू नहीं बनना चाहता। जो चाहूँगा, वहीं करूँगा।’
उसे लगा पिताजी चिल्लायेंगे और भइया के ऊपर खूब बिगड़ेंगे, पर वह चुपचाप अपने शयनकक्ष मे चले गए। माँ भी आँसू पोंछती उनके पीछे-पीछे चली गई।
एक दिन भइया को खोजने पुलिस आई थी। भइया घर पर नहीं था। दरोगा ने पिताजी को खूब हड़काया था। सोमनाथ डर कर स्टोर रूम में छिपा रहा था। दरोगा की आवाज सुनकर ही उसे दहशत हो रही थी।
‘आने पर कहिएगा थाने आकर मिले मुझसे नहीं तो साले के हाथ-पाँव तोड़ दूँगा।’
भइया आया तो उसने भइया को अपने तरीके से यह बात बतायी। वह उस वक्त भी डर रहा था। भइया थोड़ी देर सोचता रहा फिर गणेशी भइया को फोन मिलाने लगा।
दूसरे दिन वह सलोनी को दिखा-दिखा कर पतंग उड़ा रहा था। दोनों उस एक पतंग पर सवार होकर बादलों को चीर रहे थे। दोनों बहुत खुश थे। उसने पतंग दूर तक ढील कर सलोनी को उड़ाने के लिए दी। सलोनी ने थोड़ी देर तक अच्छे से उड़ाया पर पतंग में चख अधिक थी। जब पतंग कन्निया कर पटकाने लगी तो उसने जल्दी से डोर थाम ली। अद्भुत स्पर्श... वह सम्मोहित सा हो गया और कुछ क्षणों के लिए किसी दूसरी दुनिया में खो गया।
‘अरे सँभालो गिरी...।’
जब तक सलोनी की आवाज सुनकर वह पतंग को ठुमकी देता, वह छतिया कर सामने के छत पर पटका गई थी। उसने छुड़ाने की कोशिश की पर पतंग नहीं निकली। वह सलोनी को डोर थमा कर नीचे उतरने लगा कि उसकी रूह काँप उठी। वही दरोगा उसके घर की तरफ अपनी बुलेट से चला आ रहा था। इस बार वह अकेला था। वह सरसराता हुआ भइया के कमरे में पहुँचा और तुरंत उसे खबर दी, ‘कल वाला दरोगा फिर आ रहा है।’
भइया ने बदले में उसे हिकारत से देखा।
‘क्या कर रहे थे छत पर? पढ़ाई नहीं हो रही?’ भइया ने कड़क आवाज में पूछा।
गेट बजने की आवाज सुनकर भइया उठ कर गेट खोलने गया।
‘नमस्कार रामनाथ भाई।’ दरोगा ने भइया को सलाम किया तो उसके मन में भइया के लिए डर और सम्मान दोनों दुगुना हो गया।
‘नमस्कार दरोगा जी। आइए अंदर आइए।’ भइया ने गेट खोल दिया और दरोगा गाड़ी बाहर खड़ी कर अंदर आ गया।
‘तुम अंदर जाओ माँ और दो कप चाय बना दो।’ भइया ने पीछे-पीछे गेट तक निकल आई बदहवास दिखती माँ से कहा।
वह मौका पाकर धीरे से पतंग छुड़ाने चला गया।
5.
भइया के समने पड़ने से वह अंतिम क्षण तक बचता था। और उसके दोस्तों के सामने अगर एक बार भी क्लास लगी तो हफ्ते भर तक सपने आते हैं। गणेशी भइया से तो वह भइया से भी ज्यादा डरता था। बहुत मरखाह थे और दो बार थप्पड़ मार कर उसका गाल सुजा चुके थे। एक दिन उसने सुना, वह भइया से कह रहे थे, ‘गुरू तुम्हारे इलाके में नया घंटा टँगा है, तुम नहीं बजाओगे तो हमें दिलाओ।’
‘अबे हम तो डायन वाला सिद्धांत लगाकर कर्म करते हैं और फल की इच्छा भी नहीं करते। तुम्हारे लिए सोचना पड़ेगा। बहुत पसंद है क्या?’ भइया ने रस लेते हुए पूछा था।
‘पसंद...? अबे मिल जाए तो जिंदगी तर जाए। एकदम करारा और फ्रेश आइटम है। तुम गुरू आदमी हो, कुछ करो।’
‘और तुम बेटा हो गुरूघंटाल...।’ भइया के साथ-साथ गणेशी और अमरेश भइया भी हँसे थे।
उस दिन वह छत पर बैठा सलोनी से बातें कर रहा था। आठ बजे से पहले बैठ कर बातें करना सुरक्षित था। उसके बाद खाना बना कर कभी उसकी तरफ से माँ छत पर आ जाती तो कभी सलोनी के पापा खाना खाकर टहलने चले आते।
बातें करते हुए उसने महसूस किया सलोनी थोड़ी उदास है।
‘क्या हुआ?’ उसने डरते-डरते सलोनी का हाथ पकड़ा ओर किसी कड़ी प्रतिक्रिया के लिए खुद को तैयार कर लिया। आखिर सलोनी ने ही तो कहा था कि वह उसका सबसे अच्छा दोस्त है और उसके साथ उसे समय बिताना बहुत अच्छा लगता है।
‘कुछ नहीं...।’ ओर सलोनी ने अपनी दूसरी हथेली उसके हाथ पर रख दी।
वह रोमांच से भर उठा। आसमान अचानक उसे बहुत नीचे उतर आया जान पड़ने लगा ओर धरती कुछ तेजी से घूमती महसूस हुई। वह सोचने लगा कि अब क्या कहे, क्या करे।
‘सोमू, आज मेरा जन्मदिन है और मम्मी की तबियत खराब होने के कारण घर में मिठाई नहीं आई। घर दूर होने की वजह से कोई सहेली भी नहीं आई। पिछले साल नदेसर में मेरी सभी सहेलियाँ...।’ बोलते-बोलते उसकी आवाज थर्राने लगी।
अचानक सोमनाथ को लगा कि ऊपर वाले ने उसे बहुत बड़ी जिम्मेदारी दी है। इस दुखी लड़की को खुश करना उसका कर्तव्य है। उसक सामने उसकी सलोनी रो दे और वह चुप बैठा रहे? अचानक वह एक अनोखे अभिभावकत्व भाव से भर उठा और दोनों हाथों से उसके आँसू पोंछ दिए। हालाँकि इसमें भी उसे काफी हिम्मत करनी पड़ी।
‘तुम यहीं रहना, मैं अभी आया।’ वह फुर्ती से उठ खड़ा हुआ।
‘कहाँ जा रहे हो?’
‘बस अभी आया।’
‘नहीं, मुझे छोड़ कर कहीं मत जाओ।’ सलोनी ने उसका हाथ पकड़ कर खींचा तो उसे लगा कि वह कितने महत्व की चीज है। अभी कहीं भइया देख ले तो उसे पता चले कि जिसे वह बेवकूफ बच्चा समझता है, उसकी किसी के लिए कितनी अहमियत है। काश यह दृश्य भइया ने देखा होता। तभी उसे भइया के करारे चाँटे याद आ गए और अनायास ही उसका हाथ गाल पर चला गया। अच्छा हुआ जो वह घर में नहीं है।
वह जब बैठा तो सलोनी उसके सीने से लग गई। उफ्फ, उसका स्पर्श... उसके बालों की सुगंध। उसे लगा जैसे वह हवा में उड़ रहा हो। वह उसके बालों पर हाथ फेरने लगा। सलोनी ने उसके सीने से लगे-लगे ही कहा, ‘यू आर माइ बेस्ट फ्रेंड।’
उसने धीरे से उसे अपने से अलग किया। बिठाया, बालों से हाथ फेरते उसके चेहरे तक आया और कहा, ‘मैं बस पाँच मिनट में आया, नीचे मत जाना।’
सलोनी की पुकार को अनसुना कर वह नीचे उतर आया। नीचे आकर अपने सारे पैसे बटोर कर दुकान तक जाने और वापस दौड़ कर छत तक पहुँचने में उसे उतना ही समय लगा जितना अमूमन सिर्फ छत से अपने कमरे में जाने में लगता था।
‘जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएँ।’ उसने बर्फी का टुकड़ा उसके मुँह में जबरदस्ती डाल दिया। सलोनी ना-नुकुर करती रही ओर उसने उसे जबरदस्ती चार बर्फियाँ खिला दीं। फिर सलोनी ने आने हाथों से उसे दो बर्फियाँ खिलाईं। उसके बाद उसके जादू की तरह अपनी जेब से पेप्सी की दो बोतलें निकालीं। दोनों ने एक दूसरे का जूठा पिया और इसमें एक अनोखी भावना ने दोनों को घेरे में ले लिया जिसे कोई नाम दिए जाने की जरूरत किसी को नहीं थी।
‘ये मेरा सबसे यादगार जन्मदिन रहा, थैंक्स।’ सलोनी ने उसके गाल पर एक चुंबन लिया। वह विभोर हो गया। बदले में ऐसी ही कार्रवाई वह भी करना चाह रहा था लेकिन एक ही दिन में इतनी उपलब्धियाँ उससे सँभाली नहीं जा रही थीं। कहीं यह खूबसूरत सपना टूट न जाए, यह सोचकर वह चुप बैठा रहा। दोनों देर तक एक दूसरे का हाथ थामे बैठे रहे। स्पर्श की अपनी एक भाषा थी। इस दृश्य को लिए ही वह नीचे आया ओर कई दिनों तक इसी दृश्य में खोया रहा।
टाइम टेबल की तरफ देखने पर घबराहट बढ़ जाती है। एलजेबरा और त्रिगोनोमेंटरी के अलावा अभी मैथ में ही बहुत कुछ बचा है। हाइट एंड डिस्टेंस अगर आज खत्म हो जाए तो फिर सर्किल ओर इलिप्स कल कर लेगा। चार्ल्स और बॉयल के सवाल लगाने हैं। हिंदी और अंग्रेजी पर पूरा दो हफ्ता चाहिए। उसकी अंग्रेजी काफी कमजोर थी। टेंस के बारे में सोचते ही टेंस हो जाता था। सलोनी की अंग्रेजी काफी अच्छी है। उसके पापा उसे पढ़ाते हैं। उसे याद आया कि उसे कभी पिताजी ने पढ़ाई पर भाषण देने के अलावा और कुछ नहीं किया। न उसे कभी खुद पढ़ाया न ही भइया को कभी पढ़ाया होगा। उसे भइया भी नहीं पढ़ा सकता। उसे तो लगता है कुछ आता ही नहीं। कोई परीक्षा पास नहीं कर पाता ओर कहता है कि तैयारी कर रहा है। हाँ, कॉलेज में कोई ऐसी डिग्री नहीं जो उससे बची हो। पढ़ाई को लेकर भइया कभी गंभीर नहीं रहा। बस यूनिवर्सिटी के सामने अपने दोस्तों के साथ पुतले फूँकता है और पुलिस से डंडे खाता अखबारों में छाया रहता है। उन अपमानजनक तस्वीरों को भी ऐसे सँभाल कर रखता है मानो पुलिस उसे मार नहीं रही बल्कि मुख्य अतिथि बना कर माला पहना रही है। उसने पीछे मुड़ कर देखा तो पाया कि भइया ने पढ़ाई तो दूर दिनचर्या सुधारने के लिए भी कभी कोई टाइम टेबल नहीं बनाया।
उसने खूब टाइम टेबल बनाए हैं। इस टाइम टेबल का पालन सिर्फ हफ्ते भर हो पाया। उसने टाइम टेबल दीवार से नोच दिया। कागज के कुछ टुकड़े दीवार पर लगे रह गए। वह नए जोश के साथ टाइम टेबल बनाने लगा। दरअसल कुछ चीजें इस तरह बदल गई हैं कि यह टाइम टेबल बहुत कठिन और कमजोर हो गया है। अब सब शुरू से। ज्यादातर हिस्से पूर्ववत थे। शाम के हिस्से में कुछ बदलाव हुआ।
2 बजे से 5 बजे तक - पढ़ना
5 बजे से 7 बजे तक - छत पर टहलना
7 से 9 तक - पढ़ना
9 बजे 10 तक - भोजन करना
10 बजे - सो जाना
उसने इस टाइम टेबल को लाल ओर हरे रंगों के स्केच से बनाया। थोड़ी देर गौर से देखने के बाद टाइम टेबल को उसने उसी जगह चिपका दिया। इसका भी पालन कितने दिनों तक हो पाएगा, कहना मुश्किल है। कारण... सिर्फ एक ही सलोनी। जब भी पढ़ने बैठता, मन को एकाग्र कर पाना मुश्किल हो जाता। पहले सलोनी का चेहरा किताब के पन्नों पर उतर आता... फिर वह उससे बातें करने लगती। कल्पना के घोड़े बेलगाम हो जाते और वह सलोनी को उस पर बिठा कर हवा की चाल से कहीं दूर निकल जाता। वहाँ कोई नहीं होता। सिर्फ वह, सलोनी और उनके मनपसंद रंग।
वह बहुत अच्छा गाती है, यह उसे बहुत बाद में पता चला।
‘क्या गाऊँ?’
‘कुछ भी... जो भी तुम्हें पसंद हो।’
‘कोई छत पर आ गया तो?’ वह भय दिखाती।
‘कोई नहीं आएगा। तुम धीरे-धीरे गाओ।’ वह सुझाता।
‘फिर से आइयो
बदरा बिदेसी
तेरे पंखों पे मोती जड़ूँगी
तुझे तेरे कारे कमरी वाले की सौ।’
गाते समय उसकी आँखें लगभग बंद हो जातीं। सोमनाथ सोचता कि उसे सलोनी का गाया गाना ज्यादा अच्छा लग रहा है या उसका आँखें बंद किया हुआ चेहरा।
एक दिन वह नीचे से भइया का वाकमैन कम रेकॉर्डर उठा लाया। सलोनी ने एक-एक करके कई गाने गाए और उसने इन्हें रेकॉर्ड कर लिया। परीक्षा में बच रहे कम दिनों को देखते हुए यह जरूरी था। पढ़ते समय हमेशा उसके गाने कानों में गूँजें, इससे अच्छा है कि इसे टाइम टेबल में एकमुश्त थोड़ी जगह दे दी जाए।
6.
एक दिन भइया ने उसे अपने कमरे में बुलाया। गणेशी भइया भी बैठे थे।
‘यह जानता होगा।’ भइया ने गणेशी भइया से मुस्कराते हुए कहा।
‘पीछे जो भास्कर जी आए हैं उनकी लड़की का क्या नाम है?’ गणेशी भइया ने पूछा।
‘जी... सलोनी।’ उसने हकलाते हुए बताया।
‘हम्म्म्ममम, यथा नाम तथा गुण।’ गणेशी भइया भइया की तरफ देखकर मुस्कराए।
उन्होंने ने सलोनी के क्लास और विषयों के बारे में काफी जानकारियाँ लीं और जब अपने मतलब की सारी बातें पूछ चुके तो उसे डपटते हुए बोले, ‘साले बहुत जानकारी रखे हो उसके बारे में। पढ़ाई में दिमाग नहीं है। तैयारी करो बेटा नहीं लटक जाओगे। बोर्ड है बोर्ड। चलो निपटो हिंया से।’
वह बगल वाले कमरे में आने की बजाय दीवार से लग कर उनकी बातें सुनने लगा। गणेशी भइया जिस तरह से सलोनी का नाम ले रहे थे उसका मन कर रहा था कि उनका मुँह तोड़ दे पर उनका मुँह इतना खतरनाक है कि वह दो क्षण से ज्यादा उधर देख ही नहीं पाता।
फिर वहाँ रुक कर सुनने से ही उसे गणेशी भइया के मंसूबों के बारे में पता चला। वह किसी सुनसान रास्ते पर सलोनी को रोक कर उससे बात करने की योजना बना रहे थे। तो इन्हें पता है कि सलोनी कोचिंग से किस रास्ते से लौटती है। वह तन कर खड़ा हो गया। उसकी मुट्ठियाँ भिंच गईं। वह गणेशी भइया को सबक सिखाएगा। उनकी यह हिम्मत?
अगले दिन वह पनवाड़ी वाले मोड़ पर खड़ा था कि गणेशी भइया की मोटरसाइकिल आती दिखी। वह सावधान हो गया। गणेशी भइया आकर मोटरसाइकिल खड़ी कर पनवाड़ी से बातें करने लगे और एक सिगरेट सुलगा कर पीने लगे। यह रास्ता आमतौर पर शाम को शांत ही रहता था। वह सोचने लगा कि क्या और कैसे करेगा। सामने से सलोनी अपनी साइकिल पर आती दिखी तो उसकी धड़कनें तेज हो गईं।
जैसे ही साइकिल पनवाड़ी के पास आने को थी, गणेशी भइया ने साइकिल इतनी तेजी से मोड़ी कि सलोनी को साइकिल रोक देनी पड़ी। उसके पाँव जमीन पर टिक गए। यही क्षण था जब वह तेज कदमों से चलता सड़क पार करके सलोनी के पास पहुँच गया।
‘प्रणाम भइया।’ उसने गणेशी भइया को तुरंत सलामी ठोकी। सलोनी उसे देखकर जीवंत हो उठी। उसने तुरंत साइकिल सँभाली और यह जा वह जा।
‘तुम चूतियाराम हिंया का कर रहे हो।’ भइया ने पनवाड़ी के सामने ही उसके कान उमेठ दिए। ‘हमें पहिले से तुम्हारे ऊपर सक रहा। आज पकड़ लिए न रंगे हाथ। चलो घर कूटते हैं। इसिलिए आज इधर निकले थे।’
‘सोमू, इधर इधर...।’ उसने देखा दिनेश सड़क के उस पार रजिस्टर लेकर लहरा रहा है।
‘हम नोट्स लेने आए थे दिनेश से। झूठे कान उमेठ दिए आप।’ उसने भुनभुनाते हुए कहा ओर सड़क पार कर गया। हालाँकि यह संवाद उसने जोर से बोला था पर इतना ही जोर बचा था उसके पास कि भुनभुनाहट की आवाज सुनाई दी। यह उसका वर्ष का सर्वश्रेष्ठ संवाद वर्ष भर रहेगा।
उसे लगा घर पर गणेशी भइया भइया से शिकायत करेंगे ओर भइया उसकी खबर लेगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
रात को सलोनी उसके सीने से लग गई। ‘तुम नहीं पहुँचते तो पता नहीं वह आदमी क्या बद्तमीजी करता। कई दिनों से मेरा पीछा करता है।’ सोमनाथ ने उसके बाल सहलाए। उसी वक्त उसके मन में विचार आया कि बोर्ड की परीक्षाएँ पास करने में क्या है। यह तो बच्चों का काम है। उसे महसूस हुआ कि नीचे उतर के वह एलजेबरा उठाए या कोआर्डिनेट, टेंस उठाए या सूर, सब चुटकियों में हो सकता है। सलोनी को सीने से चिपकाते ही उसका आकार बढ़ने लगा। सबसे पहले वह मुहल्ले की सबसे ऊँची छत से ऊँचा हुआ, फिर सड़क पर स्थित ताड़ के पेड़ से, फिर टीवी टावर से और अंत में उसने आसमान में किसी सितारे की बगल में सड़ा होकर देखा। उसकी छत पर दो परछाइयाँ आपस में चिपकी खड़ी थीं।
सलोनी उसकी जिंदगी की हर परत में शामिल हो चुकी थी। कई कठिनाइयों को देखते हुए उसने कुछ दिनों बाद एक नए टाइम टेबल की रचना की जो पिछले टाइम टेबल से कुछ बिंदुओं पर अलग था।
सुबह चार बजे - जागना
चार से साढ़े चार - सलोनी के गाए गीत वाकमैन लगाकर सुनना
रात आठ से साढ़े आठ - सलोनी के गाने वाकमैन में सुनना
जो कल्पनाएँ पढ़ाई में बाधा थीं वही पढ़ने और अच्छा करने को भी प्रेरित करती थीं पर मूड से। सब कुछ मूड पर निर्भर होता चला जा रहा था। कुछ कल्पनाएँ आगे की ओर धकेलतीं और कुछ पीछे की और खींचतीं। वह हमेशा कल्पनाओं में खोया रहता। कल्पनाएँ थीं भीं तो अनंत। उसके घर के बगल में सलोनी का घर बने, इस स्थिति में सोचने के लिए ढेर सारी संभावनाएँ थी, अनेकों स्वप्न थे और हर स्वप्न में भरपूर जीवन था।
मगर जैसे ही सलोनी के प्लॉट में ईंटें गिरीं, उसकी पूरी लाइन में एक अजीब सा तनाव छा गया। शुक्ला जी, सिंह अंकल और तिवारी जी तीनों मिलकर उसके घर आकर बैठने लगे। हमेशा छत्तीस का आँकड़ा रखने वाले पिताजी और भइया एक साथ मिलकर अजीब मुखमुद्राएँ बनाए खुसर फुसर करने लगे। वह उजबक सा अपनी पढ़ाई से बहाना निकाल उनकी बातें सुनने की कोशिश करता पर जब कुछ समझ में नहीं आता तो पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक कड़ा टाइम टेबल बनाने लगता। एक दिन सलोनी ने ही बताया।
‘कुछ लोग नहीं चाहते कि हम यहाँ घर बनाएँ।’
‘क्यों मगर?’ उसे सुनकर आश्चर्य हुआ।
‘हम लोग एससी एसटी हैं न इसलिए...।’
‘एससी या एसटी ?’
‘पता नहीं, दोनों अलग अलग होता है क्या?’
‘और क्या। अलग होता है। तुम्हें नहीं मालूम?’
‘नहीं, कभी जानने की जरूरत ही नहीं पड़ी। पर इसी में से कुछ।’
‘मगर क्या...?’
भइया देर रात तक अपने दोस्तों के साथ घर में बैठकें करने लगा था। उसे वहाँ फटकने की भी मनाही थी। जितना उसने छिप छिपाकर सुना उससे उसे यही लगा कि सब सलोनी के पापा का नाम लेकर उनकी जमीन के बारे में ही बात कर रहे हैं।
फिर जल्दी ही एक दिन एक चमत्कार हुआ जिसे सारे मुहल्ले ने आँखें फाड़-फाड़ कर ओर हाथ जोड़-जोड़ कर देखा।
वह उस दिन टाइम टेबल से भी आगे निकल कर रात दो बजे तक पढ़ता रहा था इसलिए नींद देर से खुली। बगल वाले प्लॉट से खूब आवाजें आ रही थीं। वह तड़ से बिस्तर से कूदा और गेट खोल कर बाहर निकल आया।
सलोनी का प्लॉट मुहल्ले और आस-पास के लोगों से खचाखच भरा हुआ था। एकाध लोग कैमरे लेकर फोटो खींच रहे थे। भइया को लोग घेरे खड़े थे और वह चीख-चीख कर लोगों को कुछ बार-बार बता रहा था।
‘मुझे भोर में सपना आया। सपने में भोलेनाथ बाबा विश्वनाथ हाथ में त्रिशूल लिए मुझसे कह रहे थे, मुझे बाहर निकालो, मुझे बाहर निकालो। मैं डर गया ओर मेरी नींद खुल गई। मैं पेशाब करने बाहर आया तो देखा कि प्लॉट के बीचों बीच प्रकाश सा दिख रहा है। मैं आया तो देखा धरती को चीर कर यह शिवलिंग बाहर निकलना चाह रहा है। मैंने डर के मारे शोर मचाना शुरू किया तो शुक्ला जी निकल आए। मैं तो चूतिया आदमी हूँ, मुझे कुछ बुद्धि नहीं। शुक्ला जी ने जैसे यह देखा, अपने घर से दूध उठा लाए। वह जैसे ही शिवलिंग पर दूध डालने लगे, यह धीरे-धीरे बाहर आने लगा। मैं भी दूध ले आया और डाला तो यह थोड़ा और बाहर आया। तब तक तिवारी जी, श्रीवास्तव जी और ठाकुर साहब भी आ चुके थे। फिर तो कई लोग अपने घरों से दूध लाकर डालने लगे।
‘आपका पूरा नाम क्या है रामू जी ?’ एक अखबार वाले ने लिखते हुए पूछा।
‘जी रामनाथ पांडेय। यह भी नोट कर लीजिएगा कि श्रीवास्तव जी के साथ परशुराम दुबे भी बाहर निकले थे।’ भैया ने दुबे जी को इशारा करते देख उनके नाम का भी उल्लेख किया। दुबे जी अहसानमंद नजरों से पहले भइया की ओर फिर शिवलिंग की ओर देखने लगे। अचानक भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘ बोल बाबा विश्वनाथ की...।’
पूरी भीड़ चिल्लायी, ‘ जऽऽऽऽऽऽऽऽय।’
भीड़ ने फिर साथ में एक हुंकार भरी, ‘ हऽऽऽर हऽऽऽर महादेऽऽऽऽऽव।’
सलोनी के पापा एक तरफ खड़े थे। सब लोग उनकी तरफ घूमे।
‘आप बहुत भाग्यशाली हैं भास्कर जी। साक्षात महादेव आए हैं आपकी जमीन में। अब यहाँ भोलेनाथ का भव्य मंदिर बनेगा। बोलिए बाबा विश्वनाथ की...।’
‘जऽऽऽऽऽऽय...।’ पूरी भीड़ के साथ सलोनी के पापा ने जो धीरे से कहा वह न जाने कहाँ खो गया।
7.
भीड़ की कोई जात नहीं होती। भीड़ का कोई धर्म नहीं होता। भीड़ का स्थायी भाव होता है शोर और भोजन होता है उन्माद। ऐसा कहते हुए अनुपम सर बहुत गंभीर नजर आए थे। वह उनके सामने पूरी समस्या सुनाकर चुपचाप बैठा था। अनुपम सर उसके स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाते थे और गली के मोड़ पर रहते थे।
‘अब क्या होगा सर? सलोनी के पापा ने पूरी जमा पूँजी लगाकर यह जमीन खरीदी है।’ उसने चिंतित स्वर में पूछा।
‘तुम्हें क्या लगता है सोमू? क्या होना चाहिए?’ अनुपम सर ने इत्मीनान से पूछा था।
‘मुझे... मैं क्या कह सकता हूँ सर? अब भगवान के आगे कोई क्या...?’ वह विचारों के भँवर में फँसा हुआ था।
‘तुम किस भगवान को मानते हो सोमू?’ सर ने फिर पूछा।
‘मैं...? मैं शंकर भगवान को, बजरंग बली को और दुर्गा माँ को...।’ उसने सोचकर बताया।
‘ हम्म्म्म्म...तो जाओ शंकर भगवान की पूजा करो और उनसे आग्रह करो कि यह प्लॉट छोड़कर कहीं और प्रकट हों। देखो तुम्हारी कितनी सुनते हैं।’ सर ने मुस्कराते हुए कहा। वह और उलझ गया और वहाँ से गुमसुम चला गया।
उसे लगा था सर कोई सॉलिड आइडिया बताएँगे जिससे वह सलोनी के बुझ चुके चेहरे पर मुस्कान ला सकेगा। सर पूरे मुहल्ले में उसे सबसे समझदार लगते थे। पर सर जल्दी किसी के मामले में पड़ते नहीं। उनकी बातें सुनो तो लगता है कि वह चाह दें तो दुनिया की सारी खराब चीजें व्यवस्थित हो जाएँ पर वह सिर्फ आइडिया देते हैं। खुद किसी चीज में नहीं पड़ते। उनके पास टाइम भी कहाँ है। हमेशा पढ़ते या कुछ लिखते रहते हैं। अब उसके पास एक ही रास्ता बचा था। मनीष और उसकी जादुई नुस्खे। वह हालाँकि मनीष का बहुत अच्छा दोस्त तो नहीं पर उससे कोई झगड़ा भी नहीं है। वह जरूर उसकी मदद करेगा। दिनेश से उसकी अच्छी दोस्ती है। उसे साथ लेकर जाना ठीक रहेगा।
मनीष पाँच मिनट ड्राइंगरूम में बैठने के बाद दोनों को अपने कमरे में ले आया जहाँ कोर्स की किताबों के पीछे लाल, हरे, नीले रंगों के कवर वाली अनेक किताबें थीं। उसका कमरा भी रहस्यमय था। घुसते ही लगता था कि यहाँ फुसफुसाहट से बात करनी चाहिए। कमरे में एक तिलिस्म था जो घुसते ही अपनी जद में ले लेता था।
‘परसों पापा ने मुझे बहुत पीटा।’ मनीष लगभग फुसफुसाते हुए बोला।
‘क्यों बे क्यों?’ दोनों ने लगभग साथ-साथ पूछा।
‘क्यों क्या। दिमाग नहीं है किसी को इस घर में। जवान बेटे पर हाथ उठाते हैं।’ बोलकर मनीष थोड़ी देर के लिए रुका और फिर फुसफुसाहट में बोलने लगा, ‘मैंने एक चूहा मार कर उसके खून से रुमाल को अभिमंत्रित किया था और सामने के कुशवाहा अंकल के घर में डालने वाला ही था कि...।’
‘उससे क्या होता?’ दिनेश अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाया और बात बीच में काट दी। मनीष अचानक खामोश हो गया और फिर सिद्धपुरुष की तरह गंभीर आवाज में बोला, ‘साले बात बीच में न काटा करो। उस रुमाल में उस आदमी का नाम आ जाता जिसने कुशवाहा अंकल की साइकिल चुरायी है। पापा ने पहले ही देख लिया। जवान बेटे को कैसे ट्रीट करते हैं आजकल के बापों को मालूम नहीं है। हाँ बताओ सोमू, मुझसे क्या चाहते हो तुम?’ वह मुद्दे पर जल्दी आ गया तो सोमनाथ को खुशी हुई।
‘मैं खाली इतना चाहता हूँ कि सलोनी की जमीन उसको मिल जाए। उसके घर में दो दिन से खाना नहीं बन रहा यार।’ उसने दुखी स्वर में कहा।
‘हम्म्म, ये मुद्दा भगवान से संबंधित है इसलिए मैं कोई गारंटी नहीं ले सकता कि काला जादू एकदम काम करेगा...।’
‘तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे तुम्हारा काला जादू हमेशा काम करता है जबकि गारंटी का रेशियो...।’ दिनेश की बात सुनकर मनीष झटके से खड़ा हो गया और उसकी आवाज अचानक ही बहुत धीमी हो गई। उतार चढ़ाव भरी आवाज।
‘मेरा जादू अक्सर काम नहीं कर पाता तो सिर्फ इसलिए कि साला इस घर का माहौल इसके लिए बहुत खराब है। सब मेरे पीछे पड़े रहते हैं। इसके लिए शांत माहौल चाहिए। देखना किसी दिन ये सब चुतियापा छोड़कर श्मशान चला जाऊँगा साधना करने तब समझ में आएगा जवान लड़के के साथ कैसे...।’
‘छोड़ो मनीष भाई, बताओ न क्या करूँ?’ सोमनाथ ने उसकी बात काट का अपनी वाजिब चिंता रखी तो वह कुछ किताबें पलटने लगा। किताबों का पलटना कुछ देर तक चला और कमरे में एक तिलिस्मी सन्नाटा देर तक छाया रहा।
‘देखो दोस्त, तुम एक काम करो। एक गिरगिट मारो ओर उस लड़की, क्या नाम बताया, हाँ सलोनी की लंबाई के बराबर का धागा लेकर उसे गिरगिट के खून से रँग लो। फिर इस मंत्र का खुले आसमान के नीचे बैठकर एक सौ आठ बार जाप करो। जाप करके इस धागे को इस यंत्र बने कागज में लपेट कर उसके छत पर फेंक दो। अल्लाह ने चाहा तो इस घर की सभी बाधाएँ गायब हो जाएँगी। एक बात का ध्यान रखना कि यह सब करते तुम्हें कोई न देखे इसलिए आधी रात को ही...।’ अचानक आदत से मजबूर दिनेश ने बात काट दी। हालाँकि यह सवाल सोमनाथ के मन में भी कौंधा था।
‘अल्लाह क्यों बे भगवान क्यों नहीं...?’
‘साले बेवकूफ, छोटी-छोटी चीजों से ऊपर उठो। विद्या ऐसे नहीं आती। किसी भी कला के लिए अल्लाह, भगवान और हर भगवान को साधना पड़ता है, समझे?’ मनीष ने तल्ख आवाज में पूछा।
दोनों ने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाया।
‘तुम लोग समझोगे भी नहीं। तुम लोग मेरे घरवालों से कम जाहिल थोड़े हो जो यह तक नहीं जानते कि जब बाप का जूता... खैर। ऐसा किताब में लिखा हुआ है, यही समझ लो। एक बात जान लो किसी भी विद्या को सीखने के लिए...।’
मनीष की रहस्यमयी बातों को दोनों मुँह बाये सुन रहे थे कि तिलिस्मी कमरे का दरवाजा किर्रऽऽऽ की तिलिस्मी आवाज के साथ खुला और मनीष की बात अधूरी रह गई।
‘खूब बैठकी हो रही है बेटा। खाली बकवास दिन भर। पढ़ाई हो गई तेरह बाइस। महीने भर बची है बोर्ड की परीक्षा। पिछली पिटाई भूल गए लगता है। आने दो पापा को बताती हूँ कि दिन भर बकवास हो रहा है। ओर तुम लोग बेटा? कोर्स तैयार हो गया क्या जो तफरीह मारने निकले हो? तुम लोगों के घर भी शिकायत भिजवानी पड़ेगी। कायदे से मार चाहिए तुम लोगों को भी...।’
जब मनीष की मम्मी अपना संक्षिप्त भाषण देकर निकलीं तो कमरे का सारा लिलिस्म टूट चुका था। मनीष को देखने पर ऐसा लग रहा था जैसे वह अभी श्मशान की ओर निकल जाएगा। सोमनाथ ने कागज पर बना यह यंत्र उठाया ओर यह सोचता हुआ निकल गया कि आखिरी बार उसने गिरगिट कहाँ देखा था।
सुबह से शाम तक की अथक मेहनत के बाद सोमनाथ एक गिरगिट मारने में सफल हो गया। दिनेश ने गिरगिट मारने के कार्यक्रम में उसका मनोबल बढ़ाने में अपना अमूल्य योगदान दिया। शाम तक गिरगिटों का अध्ययन करके सोमनाथ इतना एक्सपर्ट अनुभव कर रहा था कि सिर्फ एक गिरगिट मारना उसे काफी महँगा सौदा लगा। वह गिरगिटों की आदतों ओर उनके रहन-सहन पर सुंदर लेख लिख सकता था या कोई लेक्चर दे सकता था। अब ये सब आसान काम थे।
उसके खून में पाँच फीट लंबा धागा सानना मुश्किल काम था। दोनों ने इसे जी कड़ा करके अंजाम दिया। धागे को खून में डुबाने, रात के दो बजे छिप कर बिना आहट छत पर जाने और 108 बार मंत्र का जाप करने में काफी शक्ति थी। इतनी देर में उसके अंदर इतना आत्मविश्वास भर गया कि उसे पूरी तरह विश्वास हो गया कि अब उसकी सारी समस्याएँ आज रात भर की मेहमान हैं। जब कागज में लपेट कर वह धागा उसने सलोनी के छत पर फेंका तो एक खुशगवार निश्चिंतता ने उसे लपेट लिया और वह बेपरवाही से सोचता हुआ नीचे उतरा कि जब वह सुबह सो कर उठेगा तो सब कुछ बदल चुका होगा।
जब वह सुबह सो कर उठा तो सब कुछ बदल चुका था। आज मुहल्ले के लोग शिवलिंग पर दूध नहीं चढ़ा रहे थे। आज शिवलिंग के चारों तरफ दीवार उठाई जा रही थी। कुछ लोग दरियों ओर चटाइयों पर बैठे आरती कर रहे थे जिसका भावार्थ यह था कि हे प्रभु तुम्हीं गरीबों को धन, लँगड़ों को पाँव और बाँझों को पुत्र देते हो इसलिए हमें भी वे-वे चीजें दो जिनकी हमें जरूरत है। भइया दीवार चुन रहे मजदूरों को गाली देकर तेज हाथ चलाने को कह रहा था। उसी समय कुछ अखबार वाले और कैमरा लिए लोग आए तो भइया अचानक झपट कर खु़द भी मजदूरों के साथ काम करने लगा। एक कैमरा वाला भइया का दोस्त था जो एक बहुत अच्छे चैनल में कैमरामैन था। पहले वह शादियों की वीडियो रिकॉर्डिंग करता था और भइया ने उसे किसी से कह सुन कर उस चैनल में रखवा दिया था। वह अक्सर भइया को अपने चैनल पर प्रमुखता से दिखाता था और उसके कहने पर अखबार वाले भी भइया की खूब अच्छी तस्वीरें छाप देते थे। बदले में भइया उन्हें कभी-कभी चाय पान करा दिया करता था। सब भइया और उसके दोस्तों की तस्वीरें लेने लगे।
सलोनी के मम्मी पापा एक तरफ खड़े थे। उसके पापा आँखों में आँसू भरे आरती कर रही भीड़ के के पास खड़े दरोगा के पास फिर गए जिसे उन्होंने ही रिपोर्ट लिखवा कर बुलाया था। इस बार दरोगा भड़क गया।
‘अजीब आदमी हैं आप। अरे कितना बार समझायें आपको कि भगवान के मामलों में कानून कुछ नहीं कर सकता। आप भी क्यों नहीं बैठते और कीर्तन करते? गजब के नास्तिक आदमी हैं आप।’
‘नास्तिक’ शब्द सुनकर आरती करने वाले पलटे और नास्तिक को करीब खड़ा देख कर दुगुने जोर से आरती गाने लगे। भइया भी बीच-बीच में इनकी मदद करता। अचानक उत्साह से पलटता और चिल्लाता, ‘ हर हऽऽऽऽर...?’
उसके बाकी दोस्त जिनमें कुछ सलोनी को घूर रहे थे ओर कुछ उसकी मम्मी को, उसके स्वर में स्वर मिलाते हुए चिल्लाते, ‘ महादेऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽव।’
वह उलझन भरी हताशा के साथ कुछ देर वहीं खड़ा रहा। प्लॉट में श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी। सलोनी के चेहरे पर छायी वीरानी उसे उदास करने लगी। उसे भगवान और भइया दोनों पर गुस्सा आने लगा। फिर उसे लोगों पर भी बहुत गुस्सा आया। मनीष के काले जादू ने भी काम नहीं किया। अब यहाँ एक छोटा सा मंदिर बनेगा और मुहल्ले के लोग यहाँ पूजा करने आया करेंगे। भइया या उसका कोई दोस्त यहाँ पुजारी बन कर बैठ जाएगा। सलोनी के पापा अपना परिवार लेकर यहाँ से कहीं दूर चले जाएँगे। वह कुछ दिन सलोनी को याद करेगा और फिर अपनी पढ़ाई और टाइम टेबल पर ध्यान देने लगेगा। बहुत सालों बाद किसी यात्रा के दौरान सलोनी उसे ट्रेन में मिलेगी। वह कहेगा कि वह उससे अब भी प्रेम करता है। वह कहेगी वह उससे तब भी प्रेम नहीं करता था। वह घबरा गया।
8.
रात चाँदनी थी और चाँद की रोशनी में छत पर दो आकृतियाँ बिना हिले-डुले बैठी थीं।
‘तुम अपने टाइम टेबल के हिसाब से आज कल पढ़ाई कर रहे हो या नहीं?’
‘उहूँ... आजकल पढ़ाई में एकदम मन नहीं लगता। तुम्हारी तैयारी कैसी है?’
‘ठीक है।’
थोडी देर तक वही खामोशी छायी रही जो हर बार एक संवाद के बाद छा जा रही थी, बहुत देर से।
‘सुनो।’
‘हूँ।’
‘वह गाना सुनाओ न...।’
‘नहीं सोमू, कोई आ गया तो...?’
‘कोई नहीं आएगा। तुम गाओ ना। कितनी अच्छी हवा चल रही है।’
‘फिर से आइयो
बदरा बिदेशी
तेरे पंखों पे मोती जड़ूँगी
तुझे तेरे कारे कमरी वाले...।’
गाते-गाते सलोनी का गला भर आया ओर सुनते-सुनते सोमनाथ की आँखें। उसने सलोनी की हथेलियों को माथे से लगा लिया।
‘हम लोग तीन-चार दिनों में यह मुहल्ला छोड़ देंगे। पापा केस करने जा रहे थे तो चाचा ने रोक लिया। कहा पैसे की बर्बादी है।’
‘मत जाओ।’ वह भरे गले से इतना ही कह पाया। थोड़ी देर तक फिर चुप्पी छायी रही।
‘पापा कह रहे थे कि हम एससी-एसटी न होते तो हमारे जमीन में भगवान नहीं निकलते। हमारी जमीन इसलिए हड़पी गई क्योंकि हम लोग एससी-एसटी हैं।’ सलोनी ने कहा और उसकी ओर यूँ देखने लगी मानों कोई सवाल पूछा हो।
‘नहीं सलोनी, यह पूरी तरह सच नहीं है।’ अचानक उसे लगा जैसे उसके ऊपर अनुपम सर सवार हो गए हों। ‘तुम्हारे जगह कोई ब्राह्मण या ठाकुर भी होता तो उसकी जमीन भी हड़पी जाती। ये लोग धीरे-धीरे इतने मजबूत और बड़े होते जा रहे हैं कि अब ये कुछ भी हड़प सकते हैं। हाँ, इस पंडितों और ठाकुरों के मुहल्ले में एक एससी की जमीन हड़प लेना आसान जरूर रहा।’ उसकी आवाज तेज हो गई तो सलोनी ने उसका हाथ दबाया।
‘मैं तुम्हें यह मुहल्ला छोड़ कर नहीं जाने दूँगा।’ कहता हुआ उठ कर वह नीचे चला गया। हालाँकि भइया की जादूगरी और ताकत को वह अच्छी तरह जानता था। वह जानता था कि भइया कुछ भी कर सकता है। उसने जब से होश सँभाला है, भइया के चमत्कारों को देख सुन कर ही बड़ा हुआ है। अब इस मामले को ही ले तो पाता है कि अकेले भइया ने क्या क्या साध रखा है। कितनी जल्दी चीजों को सल्टा देता है। सलोनी के पापा ने एक दिन कुछ नेता टाइप के लोगों को बुलाया। वे लोग अपने हाथों में तख्तियाँ लिए हुए थे जिन पर लिखा था, हक नहीं छोड़ेंगे, जान दे देंगे। वंचितों के अधिकार हड़पना बंद करो। सरकार निकम्मी है और भी बहुत से नारे। वह खुश हुआ कि अब शायद कुछ अच्छा होगा। वे लोग अभी उस प्लॉट में मंदिर के आस-पास तख्तियाँ लेकर बैठे ही थे कि पता नहीं कहाँ से ढेर सारे गेरुए कपड़े पहने और हाथ में छोटे-बड़े त्रिशूल लिए ढेरों बाबा लोग आ गए और वहाँ जय श्री राम, जय श्री राम के नारे लगने लगे। तख्तियों वाले लोगों में से कुछ को उस भीड़ में पता नहीं किसने थोड़ा मार-वार भी दिया। वे लोग तख्तियाँ वहीं फेंक-फाँक कर भाग गए। एक दिन एक सरकारी गाड़ी लाल बत्ती लगाए आई और उसमें से एक अधिकारी के साथ सलोनी के पापा भी उतरे। अधिकारी मंदिर को कुछ देर तक देखता रहा और फिर सलोनी के पापा के कंधे पर हाथ रख कुछ कहा। भइया को भी बुलाया गया और उसने भइया को भी कुछ समझाया मगर कमाल कि उसके जाने के बाद सब कुछ वैसे का वैसा ही रहा। सब अपने अपने काम पर लग गए जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो। एक दिन तो हद, सलोनी के पापा के साथ चार पाँच हट्टे-कट्टे लोग आए और आकर मुहल्ले में शोर मचाने लगे। भइया शोर सुनकर बाहर निकला तो वे लोग भइया से भिड़ गए और उसे एकाध झापड़ रख दिया।
ये क्या मजाक है? भइया ने गुर्राते हुए पूछा।
मजाक तो तू कर रहा है साहब के साथ। कल से ये सब यहाँ से हट जाना चाहिए। एक ने चाकू लहरा दिया।
भइया ने अचानक पैंतरा बदला और अपनी कमर के पीछे हाथ डाल कर एक छोटी सी पिस्तौल निकाल ली। सोमनाथ का दिल दहल गया। भइया के पास पिस्तौल ...? उसने पिस्तौल लहरायी और उन आदमियों से न बोलकर सलोनी के पापा से बोला, ‘आपके परिवार के साथ जो भी ऊँच-नीच होगी अंकल जी, उसके जिम्मेदार सिर्फ आप और आप होंगे, यह बात तो अब मानेंगे आप, है कि नहीं...?
सलोनी के पापा हतप्रभ खड़े रह गए और वे आदमी उनको देखते रह गए और भइया पिस्तौल चमकाता आराम से गणेशी भइया के घर की तरफ निकल गया। भइया कब क्या कर देगा और क्या क्या कर चुका है इसके बारे में उसके जैसे कमअक्ल और बेवकफूफ लोग सपने में भी अंदाजा भी नहीं लगा सकते, इसे वह बहुत पहले मान चुका है और इसीलिए भइया से इतना काँपता है।
9.
उसे अपनी अस्त-व्यस्त होती जा रही दिनचर्या से बहुत कोफ्त हो रही थी। रात में दो तीन बजे सोने और सुबह आठ नौ बजे जगने से ताजा बनाए टाइम टेबल की बहुत अवमानना हो रही थी। यह अवमानना उसके मन में एक तरह का डर भरती जा रही थी ओर उसे हमेशा लगने लगा था कि वह बोर्ड की परीक्षा में फेल हो जाएगा। उसके आस-पास ऐसे बहुत से लोग थे जो हमेशा कहते-रहते थे कि हाई स्कूल की बोर्ड परीक्षा ही किसी भी विद्यार्थी का असली इम्तिहान होती है। कि यह एक ऐसा आग का दरिया है जहाँ विद्यार्थी की असली औकात पता चलती है। कि यही असली युद्ध है। कि यही सबसे कठिन परीक्षा है इत्यादि-इत्यादि।
उसके टाइम टेबल में कई चिंताएँ घुस आई थीं चुपके-चुपके। वे टाइम टेबल में दिखाई तो नहीं देती थीं पर उसका ज्यादातर समय ले लेतीं। चार-पाँच दिन गुजर चुके थे। शिवलिंग के चारों तरफ दो-तीन फीट ऊँची दीवार खड़ी कर दी गई थी। अखबार में आया था - ‘कुछ छात्रों का भक्ति में अभूतपूर्व योगदान’, ‘विद्यार्थियों ने किया चमत्कारिक मंदिर में श्रमदान’, ‘पढ़ने वाले जागरुक छात्रों का सौहार्द्र और भक्ति में अनोखा योगदान’ आदि-आदि। कुछ दिनों बाद यह दीवार और ऊँची होने वाली थी और इस पर पलस्तर करके इसे मजबूत, पक्का और टिकाऊ बनाया जाने वाला था। उसके पास समय जितना कम बचता जा रहा था, उसकी पूजा प्रार्थना भी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही थी। इधर उसने त्रिकाल संध्या भी शुरू कर दी थी जिसे देख कर अक्सर पिताजी कहते, ‘ पूजा-पाठ से नहीं पास होओगे साहबजादे। पढ़इये काम आएगी।’
वह पास होने के लिए पूजा नहीं कर रहा था। सलोनी से उसका मिलना कम हो गया था। उसके सामने जाते ही उसे लगता कि वह एक छोटा बच्चा है जिसे सिर्फ पढ़ना-लिखना है। इसके बाहर के किसी भी मसले के लिए वह बालक है जिसकी राय की कोई कीमत नहीं। वह यह बात अच्छी तरह समझ चुका है पर सलोनी नहीं समझती। वह पता नहीं क्यों उसे बहुत सक्षम समझती है। कितनी भोली है वह।
आजकल उसके दिमाग में सलोनी के चेहरे से ज्यादा शिवलिंग के आस पास की दीवार घूमती रहती है। वह जब भी सलोनी को याद करता है, उसका चेहरा खयालों में लाता है, उसके उदास चेहरे पर वह दीवार उगने लगती है। उसका चेहरा उस दीवार के पीछे ढँक जाता है और उसके पीछे से सुबकने की आवाज आने लगती है। वह रोना चाहता है पर रुलाई नहीं आती। वह इस समस्या के बारे में सोचने लगता है तो अचानक अपनी पढ़ाई को लेकर चिंतित हो जाता है। जब टाइम टेबल के हिसाब से पढ़ने बैठता है तो मन सलोनी में उलझ जाता है। कभी-कभी दोनों को छोड़कर आँखें बंद कर लेट जाना चाहता है पर लेटता है तो रीढ़ की हड्डी में दर्द महसूस होता है।
उसके सपनों की फेहरिस्त में एक दिन उसे वह सपना आया जिसने उसे उठते ही उल्लास से भर दिया। उन दिनों वह ढेर सारे सपने अक्सर देखा करता था। कुछ सुबह तक याद रह जाते थे, कुछ वह भूल जाया करता था। पर यह सपना याद था, एकदम स्पष्ट... एकदम साफ। उस रात वह तीन घंटे पूजा करके सोया। होश और बेहोशी के बीच उसने जो सपना देखा कि उसकी आँख डर के मारे खुल गई। बिल्कुल स्पष्ट सपना। उसे लगा अभी बिल्कुल सुबह है पर जब वह तेजी से बैठक में पहुँचा तो वहाँ पिताजी, भैया ओर शुक्ला जी धीमी आवाज में बातें कर रहे थे।
‘मैंने अभी-अभी एक सपना देखा। सुबह का सपना।’ वह उत्साह में था। उत्साह की मात्रा इसी से समझी जा सकती है कि वह भइया के सामने कुछ बोल रहा था जो भइया के किसी सवाल का जवाब नहीं था।
‘बको।’ भइया ने निर्विकार भाव से कहा।
बदले में उसने पूरा सपना खासी तफसील में कह सुनाया जिसमें भगवान शंकर ने उसके सपने में आकर तांडव करते हुए इस जमीन से निकाल कर गली के मंदिर में स्थापित होने की इच्छा प्रकट की थी। सब शांति से उसका सपना सुनते रहे और वह इसे अपने सपने का प्रभाव मानकर सुनाता रहा। जब पूरा सपना खत्म हुआ तो शुक्ला जी के चेहरे का रंग जरा सा बदला था पर भइया का चेहरा जस का तस था।
‘हाँ बहुत अच्छा सपना था। अब जाकर पढ़ाई करो।’ भइया ने ठंडे स्वर में पूछा।
‘तो अब वहाँ से मंदिर हट जाएगा?’ उसने उसी उत्साह में पूछ लिया।
तड़ाक! एक जोर का चाँटा उसके गाल पर पड़ा और वह गिर पड़ा। भइया का स्वर थप्पड़ मारने के बाद भी निर्विकार और ठंडा था।
‘अपने काम से काम रखो बेटा नहीं तो तबियत से थूर देंगे। भगो यहाँ से।’
वह उठकर कमरे में आया तो जबड़े के दाहिने हिस्से में दर्द हो रहा था और नटराज शंकर सामने लगी तस्वीर में नृत्य कर रहे थे। उसने माँ से बताया, ‘मैंने भी सपना देखा है माँ कि भगवान कह रहे हैं कि मुझे इस प्लॉट में मत कैद करो। तुम पिताजी को समझाओगी न माँ ?’
माँ ने उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘बेटा, वो लोग तुमसे ज्यादा समझदार हैं न? तुमसे ज्यादा पढ़े लिखे। अभी पढ़ाई पर ध्यान दो। जब भइया जितना पढ़ लोगे तो समझदार हो जाओगे कि सबके सपने का महत्व अलग-अलग होता है। अच्छा बताओ खीर खाओगे या सिवईं?’
उसने इस सपने के बारे में किसी को नहीं बताया।
सलोनी अब अक्सर कहने लगी है कि उसके पापा अब जल्दी ही यह मुहल्ला छोड़ कर चले जाएँगे। सोमनाथ की पढ़ाई इधर एकदम डिस्टर्ब है। दिनेश रात दिन पढ़ाई कर रहा है। वह तिबारा कोर्स पूरा कर रहा है और उसका अभी एक बार भी खत्म नहीं हुआ। मनीष दिन में पढ़ता है और रात में कपड़े उतार कर एक मंत्र का जाप करता है। उस मंत्र का एक करोड़ बार जाप कर लेने पर उसके पास गायब होने की शक्ति आ जाएगी। यह सब सोचता-सोचता अचानक किसी अनुउल्लेखनीय घटना के तहत वह कुछ मिनटों के अंदर वह बड़ा हो गया। सब बकवास है। मनीष का जादू, उसकी पूजा। सच्चे मन से प्रार्थना हो तो पूरी होती है, उसने सुना है पर सब बकवास बातें हैं। कुछ पूरा नहीं होता। कोई रास्ता नहीं। सीधा रास्ता तो यही है कि वह मंदिर को बम लगा कर उड़ा दे। पर बम कहाँ मिलेगा।
10.
वह बदल चुका है क्योंकि पूरी दुनिया बदल चुकी है। हर सुबह गाढ़ी उब के दस्ताने पहने आती है ओर उसे दिन भर नोचती रहती है। हर रात सीली उदासी का नकाब ओढ़े आती है और दूर तक फैल जाती है। कटने का नाम नहीं लेती। हर एक पल अपनी ही परछाईं से लड़ता अपने वजूद पर कोहरे की तरह देर तक छाया रहता है। परीक्षा की तैयारियों के बीच पढ़ते-पढ़ते अचानक उसे लगता है कि परीक्षा उसे नहीं देनी, कोई और देगा। या फिर जो कुछ भी हुआ है उससे उसका कोई लेना-देना नहीं है, वह किसी और के साथ घटा है। उसके साथ क्या गुजर चुका है, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। और सब कुछ इतनी जल्दी हुआ है कि लगता है उसे ब्योरेवार कुछ याद ही नहीं आ रहा... खूब कोशिश करने पर भी। सब कुछ कई टूटे-फूटे दृश्यों में सामने से गुजरता है।
वह शाम को बाहर जा रहा था कि पिताजी ने टोक दिया, ‘कहाँ जा रहे हो पढ़ाई करने के टाइम?’ वह बिना जवाब दिए बाहर निकलने लगा। पिताजी आवाज लगाते रह गए। दरवाजे तक पहुँचा ही था कि भइया ने देख लिया कि वह पिताजी की आवाज को अनसुना करके निकल रहा है। भइया ने उसे डपटती आवाज में रुकने के लिए कहा। उसने एक दया भरी निगाह भइया पर डाली और निकलने लगा। भइया उसकी उपेक्षा से आहत हुआ ओर सोफे से अचानक उछल कर एक जोर का चाँटा उसके गाल पर रसीद कर दिया। वह नीचे गिर पड़ा। ‘सुनाई नहीं देता? हं: सुनाई नहीं देता?’ भइया ने उसके उठते ही एक करारा चाँटा और रसीद कर दिया। वह दूसरी बार उठा और चुपचाप दरवाजे की ओर बढ़ा। इस हरकत ने भइया को आगबबूला कर दिया। उसने पूरी ताकत से चाँटा ताना था मगर गिरने से पहले सोमनाथ ने भइया का हाथ पकड़ लिया। दोनों की निगाहें मिलीं और उसने भइया का हाथ हिकारत से झटक दिया। फिर वह उसकी ओर बिना देखे बाहर निकल गया। भइया हारे हुए जुआरी की तरह धम्म से सोफे पर गिर गया।
‘देख रहे हैं क्या हो गया है लड़के को?’ माँ ने दुखी स्वर में कहा। बहुत दुख या ज्यादा खुशी में वह उसे और भइया को नाम से न पुकार कर लड़का कहती है।
‘कुछ नहीं हुआ। कुछ दिनों में नॉर्मल हो जाएगा।’ पिताजी ने टीवी देखते हुए आराम से कहा।
‘कुछ बोलता नहीं आजकल। खोया-खोया रहता है हमेशा। पता नहीं बाहर इतनी देर तक बौंड़ियाता रहता है। जबसे वह लड़की गई है और पूरे मुहल्ले के सामने इसकी पिटाई हुई है, इसकी पागलों जैसी हालत हो गई है। मुझे बहुत डर लगता है जी। इसकी परीक्षा भी सिर्फ एक हफ्ता बची हुआ है।’ माँ के स्वर में उदासी और डर मिला हुए थे।
‘चूतिया है। झूट्ठो का लँड़परेतन फैलाया है। तुम जादा हाय हाय मचाओगी तो अउर नाटक करेगा, छोड़ दो उसकी ओर ध्यान देना कुछ दिन। चार दिन में नशा उतर जाएगा।’ पिताजी झल्ला कर बोले फिर मस्त होकर टीवी देखने लगे।
जब वह अनुपम सर के यहाँ से वापस आया तो देर रात थी। सब लोग खाकर सो चुके थे। भूख न होने के बावजूद वह थोड़ा सा खाना लेकर छत पर आ गया। खाना बहुत जरूरी है, भूख न होने के बावजूद, क्योंकि अब टाइम टेबल से पढ़ाई करनी बहुत जरूरी है। सलोनी ने कहा था कि उसे मेहनत से पढ़ाई करनी है और फर्स्ट आना है। अनुपम सर भी देर तक यही समझाते रहे थे कि वह मेहनत से पढ़ाई करे और अच्छे नंबरों से पास हो। सलोनी भी यही चाहती थी। पढ़ाई जल्दी से जल्दी पूरी करके उसे अपने पैरों पर खड़ा होना होगा तभी तो वह उन चीजों को अपनी जिंदगी से निकाल सकेगा जिसकी उसे कोई जरूरत नहीं है। अनुपम सर बहुत समझदार हैं। सब उनके जैसे क्यों नहीं होते।
चाँदनी रात थी ओर सलोनी की छत दूर तक वीरान थी। हालाँकि कहीं दूर से गुनगुनाने की आवाज उसके कानों में पड़ रही थी।
‘फिर से आइयो
बदरा बिदेसी...।
उसे साफ दिखाई दिया कि उसके सामने सिर्फ पलक झपकते चाँदनी रात अँधेरी रात में बदल गई।
तेरे पंखों पे मोती जड़ूँगी
तुझे तेरे कारे कमरी वाले की सौं।’
एक अँधेरी रात और एक भर्रायी आवाज। उसकी मिन्नत थी कि वह कहीं न जाए। उसे छोड़कर कहीं नहीं। जब उसने कई बार अपनी मिन्नत दोहरायी तो उसने थर्राती आवाज में जो बयान किया उससे वह भी थर्रा गया।
‘उस आदमी ने पूरी ताकत से मुझे सुनसान सड़क पर लिटा दिया था और मेरे ऊपर चढ़ा हुआ था। मेरी साइकिल मेरे बगल में गिरी पड़ी थी और उसका पहिया मेरी आँखों के सामने घूम रहा था। घूमते पहिए के पीछे तुम्हारे भइया का चेहरा था। वह चेहरा जो मंदिर में पूरी ताकत से चीख कर भजन गाते वक्त लाल हो जाता है। वह उस वक्त भी लाल था।’
उसके लिए इस बात का कोई खास मतलब नहीं था कि कैसे सलोनी ने पास पड़ा पत्थर गणेशी भइया के माथे पर मारा। कैसे भइया जब तक शोर मचाता जब तक उसे पकड़ने दौडा तब तक वह वहाँ से भाग चुकी थी। कैसे उसकी किताबें और साइकिल उसे कभी नहीं मिल पाएँगी। वह दूर कहीं खो चुका था जहाँ से ट्रेन अपनी पूरी गति से पटरियों को रौंदती अपनी मंजिल पर बढ़ी चली जा रही थी।
‘हम लोग यह मुहल्ला छोड़ कर कल सुबह जा रहे हैं सोमू।’ उसकी आवाज अब भी थर्रा रही थी।
वह कुछ नहीं बोला था और तब भी दूर पटरियों में देखने लगा था जहाँ अब भी उसकी नजर टिकी थी।
जैसे तैसे थोड़ा खाना खाकर वह नीचे आया। मेज पर कोई पुराना टाइम टेबल रखा था। शायद पिछली बार का। एक दीवार पर भी चिपका था। उसे याद नहीं आया कि अंतिम कौन सा है। दीवार वाले पर उसकी नजर कुछ लाइनों पर पड़ी।
सुबह सात से आठ - पूजा करना
शाम छह से सात - पूजा और आरती करना
रात ग्यारह से बारह - पूजा करना
वह उठा और दीवार से टाइम टेबल नोच दिया। उसे चिंदी-चिंदी करके एक कोने में फेंक दिया। फिर दूसरा टाइम टेबल उठा कर उसे भी बिना देखे फाड़ कर उड़ा दिया। उस अँधेरी रात की तरह इस चाँदनी रात को भी उसका मन हुआ कि अभी जाए और शिवलिंग को उठाकर उस प्लॉट के बाहर फेंक दे। लात मार कर मंदिर की दीवारें तोड़ दे। भले ही सारे मुहल्ले में शोर मच जाय। भले ही उस रात की तरह फिर से भइया उसे पूरे मुहल्ले के सामने इतना मारे कि उसके मुँह से खून निकल आय। भले ही भइया थोड़ी ही देर में फिर से मंदिर में शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा कर दे। भले ही सब कुछ थोड़ी ही देर में पहले जैसा बन जाय। भले ही सब कुछ करने से कोई फायदा न हो लेकिन वह एक बार फिर से सब तोड़े जरूर। पर उसने कुछ नहीं किया। रसायन विज्ञान की किताब उठाई और तुल्यांकी भार के सवाल लगाने लगा। सलोनी ने उस रात कहा था, ‘मैं बड़ी होकर बहुत बड़ी अफसर बनूँगी ओर सब कुछ ठीक कर दूँगी। तुम भी मेहनत से पढ़ाई करना ताकि बड़े अफसर बन सको।’
तुल्यांकी भार के सवाल लगाते-लगाते उसे नींद आ गई। नींद में उसने एक बहुत खूबसूरत सपना देखा।
वह अपनी छत पर खड़ा था। सलोनी अपनी छत पर खड़ी उसे देख रही थी। अचानक मुहल्ले में पानी भरने लगा। सलोनी कूद कर उसकी छत पर आ गई। उसके पास, बहुत पास। पूरे मुहल्ले में पानी भर गया था। उसका घर, शुक्ला जी का घर, श्रीवास्तव जी का घर, ठाकुर साहब का घर, शिवजी का मंदिर सब कुछ धीरे-धीरे उस बढ़ते पानी में समा गया। जब पानी छत तक और उनके पैरों तक आ गया तो अचानक सोमनाथ के पैरों के पास एक खाली नाव आकर रुकी। वह सलोनी को लेकर नाव पर बैठ गया। उसने अपनी कुछ किताबें और टाइम टेबल भी लेना चाहा पर सलोनी ने वह छीन कर पानी में फेंक दिया। दोनों की नाव वहाँ से चल पड़ी। उसने देखा कि भइया, उसके दोस्त, वह शिवलिंग, उसकी किताबें और पूरा मुहल्ला पानी से बाहर आने के लिए हाथ-पाँव मार रहा है। वह किसी को बचाने के लिए हाथ नहीं बढ़ाता है। नाव उन दोनों को लेकर मंथर गति से आगे बढ़ती जा रही है। ऐसा लगता है पूरी दुनिया में सिर्फ वह दोनों ही बचे हैं। ऐसा लगता है यह पानी चालीस दिन और चालीस रातों तक लगातार बरसता रहा है। पहाड़ तक इस पानी में डूब गए हैं। दूर तक पानी ही पानी नजर आ रहा है। सलोनी धीरे-धीरे उसका प्रिय गीत गुनगुना रही है। वह उसके बाल सहला रहा है। हवा में एक अजीब सी रूहानी ताजगी है। दोनों एक दूसरे में खोए-खोए बहुत दूर निकल जाना चाहते हैं।
जब वह सोकर उठेगा तो उसे कतई विश्वास नहीं होगा कि यह एक स्वप्न था।