सोम सलिल की सरिता / संतलाल करुण
रघुकुल-भूषण, मर्यादा-पुरुषोत्तम, विष्णुवत् राम एवं जनकनन्दिनी लक्ष्मीवत् जानकी की पावन गाथा का गान कर, उनके यश रूपी अमृत का पान करनेवाले महाकवि तुलसी हिन्दी काव्यगगन के राकाशशि हैं। उनकी शीतल चाँदनी से किरणें ऐसी बिखरती हैं कि मानव-जीवन का आलोक राम-काव्य के प्रकाश-पुंजों से भर जाता है।
राम के चरित्र की उषा-मंजरी से जनमानस की अमियाँ लद तो गई थीं, फलित डालियाँ लोक-जीवन की धरती पर झुक तो गई थीं, किन्तु सरस पीयूष से परिपक्व मृदु रसाल, प्रेम-पवन के झोंको में लहराकर यदि कहीं टपके तो तुलसी के हृदय की अमराइयों में, जिसके रस का स्वादन कर भक्त कवि ने परम आनन्द की अनुभूति प्राप्त की।
एक संयोग ही था कि शिशु तुलसी को मातृ-पितृ का वात्सल्य-विहीन विषाक्त व्यवहार मिला। फिर बाल्यकाल में उस अबोध की दयनीय संघर्ष-लीला अनाथ होने से भी न बच सकी। लोगों की दयादृष्टि पर निर्भर बालक तुलसी की क्षुधा-पिपासा इधर-उधर प्रताड़ित होने लगी। तिरस्कार के थपेड़ों में उसका बाल-जीवन आहत हो चला। रजकणों से लिप्त नन्हे रामबोला तुलसी के नन्हे-नन्हे, निराश्रित, थके पाँव संयोग वश संत नरिहर के संत-मार्ग में आ गए। साधुवृत्ति और होनहार बालपन में परस्पर साक्षात्कार हुआ तथा दोनों में एक-दूसरे के प्रति आत्मीय भाव जग गया। बालक तुलसी की दशा, प्रतिभा तथा अभिरुचि देख सन्त जी मुग्ध हो उठे और उस नन्हे पपीहे को आश्रम लाकर रामनाम-मंत्र दिया।
तुलसी का शेष बचपन वात्सल्य की छाया में स्वामी नरिहरदास के आत्मीय भाव में पला। उपदेश, शिक्षा, ज्ञान एवं सत्संग के अभिसिंचन से संतृप्त उनके किसलय किशोरवय वर्ष युवावस्था तक प्रगमित हुए। वहीँ तुलसी के हृदयपट पर रामकथा का अवतरण हुआ और उनके ग्राही हृदय ने ज्ञान-परिज्ञान का असीम भंडारण किया।
सत्य-स्वप्न का चलचित्र तो तुलसी के गृह्स्थ जीवन में ही झलका। रत्नकंदल अधरों की सुषमा से सुशोभित साक्षात् सौन्दर्य की रत्नराशि ‘रत्ना’ से तुलसी का परिणय हुआ। अधर-रस के मदभोग में वे डूब-से गए। वासना-सरोवर में निमग्न अंध मदन की प्रेम-याचना तुलसी के जीवन की एक महान घटना बन गई। स्वर्ण-श्रंगारित, रजत-यौवन से लसित, हीरक-घटा की चपल कामिनी ‘रत्नावली’ के नयनों में, वह रति-त्रिवेणी बहा करती, जिसमें तुलसी की काम-नौका को, जल-तरंगों के मनोभव में, केलिक्रीड़ा के अतिरिक्त तट-दिशा का ज्ञान ही न रहता।
एक रात्रि नवरंग–प्रसंग में, मादक घात-प्रतिघात से स्रवित सीत्कार में, सौन्दर्य-गर्विता पत्नी ‘रत्ना’ का अट्टहास–व्यंग्य– “मेरे ऐसे नश्वर तन से माँगो न प्रीति दिन-रात पिया” पतंग-मन तुलसी के अन्तरिक्ष में महाक्रांति बन गया। भार्या का एक व्यंग्य वचन बाण-सा चुभ गया। तुलसी की विक्षिप्त काम-वासना नष्ट-भ्रष्ट होकर सदा के लिए चूर-चूर हो गई। सुंदरी ‘रत्ना’ की अस्थि-मज्जा से निर्मित मांसल देह, शरीर-सौष्ठव, यथार्थ में तुलसी को नश्वर लगा। नश्वर तन की प्रीति-रीति में भीगी तुलसी की चित्तगति त्याग के धवल धार में उज्जवल हो उठी।
उत्क्रांति की उस रात्रि में कामिनी ‘रत्ना’ सत्य-सन्देश की देवदूती बन बैठी। उसकी व्यंग्य-वाणी वैराग्य-संदीपिनी की ज्योति बनकर तुलसी के अंतस्थल में समा गई। जागृत विराग भावना से ओत-प्रोत तुलसी, हतभ्रान्त करुण क्रन्दन करती अर्धांगिनी को त्यागकर, अर्धरात्रि में ही गृहद्वार से सदैव के लिए निकल पड़े और अपने अभीष्ट पथ की ओर चल दिए।
तुलसी अब सांसारिकता से विरक्त होकर साधना-रत हो गए। तीर्थों के परिभ्रमण में अनेक तीर्थ-स्थलों की यात्रा करना उस भक्तयोगी की दिनचर्या बन गई। वैदहीपति के प्रति उनकी रागानुका दिन-प्रतिदिन प्रगाढ़ होती गई।एक कामी पुरुष का पुरुषार्थ अलौकिक दर्शन में लवलीन होता गया।
एक दिन, भक्ति-मंजूषा की मंजु वेला में मंजुल लालिमा प्रस्फुटित होने लगी। तापस तुलसी के व्याकुल चातक चक्षुओं ने देखा– रश्मि-अनल से मंडित साकेत लोक की सम्राज्ञी, द्वय तेजस्वी धनुर्धारियों के मध्य प्रत्यक्ष खड़ी हैं। राम-नाम की चन्द्रकांत शैलमाला से सोम सलिल की सरिता उनके हृदयतल में प्रवाहित हो उठी। कर्णशून्य में जय ध्वनि का शंखनाद गूँज उठा। उनका कवि मन मुखरित होकर मौन लय में जैसे कुछ गा उठा।
प्रेमाश्रु की दो मकरन्द बूँदें उनकी दृग-अंजलियों से छलक कर अविरल धारा में बह चलीं। फिर वही बूदें निज इष्टदेव की चरण-धूलि पाकर, शांत स्वर में, मधुर संगीत की तन्मय धुन में, “मन क्रम वचन प्रेम अनुरागी” के उच्चघोष में, “बरसहिं राम सुजस बर वारी” का कलरव छेड़ती, “कलि मल समनि मनोमल हरिनी” के तीव्र उफान में, “कठिन कुसंग कुपंथ कराला” को ढहाती, बहाती, “विधि केहि भाँति धरों उर धीरा” के प्रबल प्रवाह में बहती हुई ‘रामचरितमानस’ का रूप धारण कर पृथ्वीतल की स्वर्गगंगा बन गईं।
फिर एक दिन, हिन्दू जन-जीवन के उपवन में ‘रामचरितमानस’ कल्पवृक्ष की भाँति लहलहा उठा। उसके पुष्प-अंचलों से गुँथे हरित पल्लवों को देख समूची हिन्दू जनता चकित हो उठी। ‘मानस’ कल्पतरु की पुलकित झूमर से उठी पावस वसन्त की सुगन्धित वायु झोपड़ियों से लेकर राजभवनों तक फैलने लगी।
और फिर व्यक्ति बिंदु से चलकर समाज, राष्ट्र और अखिल विश्व के चरम विस्तार तक व्याप्त मानव-जीवन के समस्त क्षेत्र ‘मानस’ के उत्संग में समा गए। विप्लवी मनुष्य के जन्म-उदय से लेकर मृत्यु-विराम तक की लगभग सभी गतिविधियों का उद्बोधन मानस के सप्त सोपानों में आ मिला। जीवन-यात्रा के प्रत्येक पक्ष, ऊँची-नीची विविध कर्मभूमियाँ, अनेक श्रेष्ठ एवं पतित चरित्रों का व्यवहार, कर्तव्य एवं दायित्व के अनेकानेक ऊर्ध्वमुखी व विगलित स्थल और सुख-दुःख के सुन्दर समन्वय में वैदिक अतीत का दृश्यमान ‘मानस’ के स्वर्ण दर्पण-अंक में चमकने लगा।
और अंतत: ‘मानस’ मानव-जीवन का मर्मपराग, सत्य के प्रतिमूर्ति राम एवं सच्चरित्र की प्रतिमा सीता का जीवनदर्शन और कर्म-विपर्यय एवं विद्वेषण के अतिदाह से परितप्त, तपस्वी युग-पुरुष का कीर्ति-ग्रंथ सिद्ध हुआ।
संस्कृति एवं सभ्यता के आर्यावर्त में व्यष्टि और समष्टि के ‘उत्थान-पतन’, ‘जय-पराजय’ का अनोखा वर्णन, राजा की वत्सलता में प्रजा के समग्र कल्याण का अद्वितीय उदाहरण, आध्यात्मिक व सामाजिक विस्तार में लोक मनुज की अविस्मरणीय स्मृति, कल्याणकारी साम्राज्य में ‘न्याय की पालकी’, ‘नीति का खटोलना, दर्शन के हिंडोले व कला के झूलों’ की अध्यवसायी हिलकोरियाँ, वैदिक शिष्टाचार व संस्कार के बहुमुखी प्रतिमान में आत्मजागरण की प्रेरणाभूमि, मृण्मय जीवन के अरथी-पथ में पातक की अंतयातना का रहस्य, राक्षस, मनुष्य और देवता की सामाजिकता के पात्रीय जगत् की उत्तम शिक्षा, शील व स्नेह की भाषा में ‘दया का भाव’, ‘क्षमा की रीति’ का पाठ, ऋचियोग की साधना में तप-जप-यज्ञ का दृश्यादृश उद्धरण, गृह-पिंजर के पारिवारिक परिवेश में परिजनहास व कुटुंब-कलह का संवेदनात्मक परीक्षण, प्रेम-प्रणय के संयोग व वियोग में प्रीति व विरह की अनूठी वेदना का उल्लेख, विशाल रणभूमि की जिजीविषा में रणशूर-पराक्रम की सार्वभौमिकता का अनुशीलन, आलाप-विलाप के उच्छ्वास में हृदयस्पर्शी मनोदशा का चित्रण आदि क्या-क्या नहीं अवतरित हुआ ‘मानस’ की छाती में। उसकी थाती में जीवन सर्वांग का सर्वस्व झलक उठा। उसके वर्ण-तूलि की प्रसार-वर्षा से मानव-जीवन का कोना-कोना भीग गया।
धीर, वीर, गंभीर, कौशलेय की आदर्श मानवता, महाप्रतापी शत्रु लंकेश की दुश्चेष्टित उच्छृंखलता और सती, साध्वी सीता की पतिपरायणता के त्रिकोण प्रांत में ‘सत्यं शिवं’ के सूर्य से ‘सुन्दरम्’ का ज्योतिर्मय अरुणोदय मन के मानस-मंडल को आह्लादित कर देता है।
‘मानस की पद्य सुष्ठता कवि-संसार की अमूल्य गरिमा है। भाव-सरोवर की निर्झरिणी तुलसी के हृदय-मार्ग से उलझकर बहती हुई‘मानस’ के भाव-भँवर में समाहित हो गई। ऐसा लगता है की ‘मानस’ की धरती पर स्वयं कला-विधायिनी सरस्वती, काव्य की परी बनकर, कविता की ज्योति-पिछौरी ओढ़े जगमगाती हुई उतर आई हैं।
काल के महापाताल में तुलसी के पार्थिव शरीर को विलीन हुए कितने ही शत वर्ष बीत गए। मानस–मंदाकिनी की धाराएँ उसी गति से संस्रवण करती रहीं। भारत वर्ष और दूर देशों में आज भी ‘मानस’ के चौपहल छन्द देववाणी के सामान पूजित हैं।
भविष्य में, समय-चक्र के असीम पथ में, अनन्त काल तक, ‘मानस’ की विमल वेणियाँ मानवता को सहारा देती रहेंगी। तुलसी की भक्तआत्मा का हर्षातिरेक काव्यजगत् में, जन-मानस में, पुरुषार्थ-क्षेत्र में चिरकाल तक गूँजता रहेगा।