सोशलिस्ट दोस्त किसान-सभा में / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सन 1934 में ही बिहार में ही आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की बैठक हुई और अंतिम बार पूर्ण रूप से सत्याग्रह स्थगित किया गया। हालाँकि, व्यक्तिगत सत्याग्रह भी कुछ सफल न रहा और एक प्रकार से उसे पहले से ही बंद कहना चाहिए। मगर बाकायदा अंत्येष्टि वहीं की गई जाड़े के दिनों में। साथ ही कौंसिल और असेंबली का प्रश्न पुनरपि कांग्रेस में उठा। अखिल भारतीय सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना और कॉंफ्रेंस भी उसी समय हुई। असेंबली में प्रवेश और उस पार्टी का जन्म ये दोनों चीजें परस्पर विरोधी सी हैं। मगर दोनों ही शाखाएँ कांग्रेस से ही निकलीं सत्याग्रह बंद होने पर ही। खैर,सत्याग्रह के बाद कौंसिलें तो पहले भी आई थीं। मगर सोशलिस्ट पार्टी नई चीज थी। यों तो सोशलिस्ट पार्टी बिहार में पहले से ही थी। मगर भारत भर में उसी समय बनी। उसी वक्त बिहार के कुछ सोशलिस्टमित्रोने,जिन्होंने पहले किसान-सभा काविरोधकिया था,मुझसे एक-दो बार कहा कि क्या हमें किसान-सभा में शामिल न कीजिएगा?मैंने कहा कि सदा'स्वागतम'है। आइए भी तो। मैं तोगाँधी वादियों के लिए सदा ही हाजिर रहा। फिर सोशलिस्टों की क्या बात?ठीक याद नहीं,शायद1934के बीतते-न-बीतते ही वे लोग किसान-सभा में आ गए। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि मेरा भार हल्का हुआ। अब ये लोग काम सँभालेंगे। उन्होंने खूब उत्साह दिखाया भी।

गाँधी जी की एक बात का पहले ही जिक्र कर चुका हूँ कि उन्होंने कहा था कि मुझे पता लगा है कि मेरे कुछ विश्वसनीय लोगों ने भी जेल के नियम न माने और जेल के काम छोड़ कर पढ़ते रहे। इसीलिए सत्याग्रह का समय नहीं रहा। क्योंकि ऐसी कमजोरियाँ सत्याग्रह की विरोधिनी हैं। मुझे हँसी आई और आश्चर्य भी हुआ कि उनके जैसा अनुभवी आदमी इस मोटी तथा सर्वप्रसिध्द बात को,जो सन 1921 से ही न सिर्फ चालू है वरन उत्तरोत्तर वृध्दि पर है,आज तक नहीं जाना। लेकिन गाँधी जी महात्मा ठहरे और लाला जी के शब्दों में'वह सबों को महात्मा ही मानते हैं!'

मुझे सन 1934 ई. की उनकी एक और चीज भी समझ में नहीं आई। बिहार रिलीफ कमिटी की मीटिंग थी। उसमें उन्होंने रिलीफ (भूकंप में सहायता) के लिए सरकार से सहयोग का प्रस्ताव किया। यह तो ठीक ही था। मगर'सम्मानपूर्वक सहयोग'(Respectful Cooperation) में जो उन्होंने'सम्मानपूर्वक' (Respectful) विशेषण लगाया वह मुझे बुरी तरह खटका। मुझे याद है कि नागपुर के डॉ. खरे भी मेंबर थे। उन्हें भी खटका था। मैंने पीछेपत्रलिख केगाँधीजी के पास भेजा और लिखा कि जिस सरकार के प्रति सम्मान का और ससम्मान सहयोग के अभाव का पाठ आपने 14 वर्ष तक पढ़ाया उसी के प्रति आज सम्मान कैसा?उसका सम्मान तो हम भूल ही गए। यहाँ तो उसकी जरूरत भी नहीं थी। केवल'सहयोग'शब्द ही काफी था। उन्होंनेउत्तरदिया कि यह तो शिष्टाचार मात्र है। पर यह चीज मैं समझ न सका और इसी कारण एकपत्रलिख के मैंने उस कमिटी से इस्तीफा भी दे दिया। बिना जरूरत और बेमौके ऐसा शिष्टाचार मेरे लिए बराबर पहेली ही रही है। मगरअब पता लगा है किगाँधीजी की अहिंसा के भीतर यह भी आता है और इसी की घूँट हमें बराबर बच्चों की तरह वे जबर्दस्ती पिलाते रहे हैं। हालाँकि फल , कुछ न हुआ है। जिसे उन्होंने बराबर शैतान कहा उसी के प्रति सम्मान की बात वही बोल सकते हैं। यह बात साधारणजनों के तो सामर्थ्य से बाहर की ही चीज है।

सन 1934 की गर्मियों के बीतने पर गया में कुछ नये सोशलिस्टों के क्षणिक जोश के करते किसान-सभा में एक नई बात होनेवाली थी। बिहार के एक ऐसे ही सज्जन,जो प्राय: सोशलिज्म की बातें करते और श्री जवाहर लाल का जिक्र बार-बार करते थे,ऐसा स्वप्न देख रहे थे कि आल इंडिया किसान-सभा बने और श्री पुरुषोत्तम दास जी टंडनके साथ इसी सिलसिले में वे भारत भर की यात्रा करें। शायद अखिल भारतीय सभा केमंत्रीबनने कीभी उनकी लालसा थी। टंडन जी तो सभापति होते ही।इधरमैं उसका सख्त दुश्मन था। मेरी धारणा थी कि अभी उसका समय नहीं है। तब तक, जब तक प्रांतों में किसान-सभाएँ नहीं बन जाती हैं। क्योंकि ऐसी दशा में उस सभा में गलत आदमी आजाएँगे,जिन्हें हम जानते तक नहीं और जिनके बारे में कह नहीं सकते कि आया वे किसान-सेवक सचमुच हैं या अपने मतलब के यार! प्रांतों में सभाएँ बन जाने पर सभी जगह असली किसान-सेवक निकल आएँगे,और उनके कामों से हम उन्हें जान लेंगे। तब कहीं भारतीय किसान-सभा के संगठन का मौका आएगा। नहीं तोधोखा होगा और हम गलत रास्ते परजाएगे,यही डर है। मगर टंडन जी की तो एक केंद्रीय किसान-सभा उस समय भीथी। या यों कहिए कि उसका एक ऑफिस उनने खोल रखा था।उनकी तरफ से सन 1935 में हमें समझाने के लिए पटने में श्री मोहनलाल गौतम भी एक बार आए थे। मगर हमारी किसान कौंसिल का रवैया देख चुपके से चले गए।

हाँ, तो वे सज्जन यह भी समझते थे कि बिना हमारे सहयोग के कुछ हो नहीं सकता। क्योंकि हमारी ही सभा पुरानी और काम करनेवाली है। वह भी हमारी सभा में आ गए थे। न जाने किस प्रकार श्री पुरुषोत्तम दास टंडन को उन्होंने द्वितीय बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन का सभापति अखबारों में घोषित करवा दिया। क्योंकि नियमानुसार न तो वह चुने ही गए और न हमारी किसान-सभा ने इस बारे में कोई राय ही दी। हम बड़े पसोपेश में पड़े। विरोध करना भी ठीक न था। गया में सम्मेलन था और वह हजरत गया में घूमकर कुछकार्यकर्ताओं से सट्टा-पट्टा कर चुके थे। हम चुप रहे। सम्मेलन की तैयारी हुई। टंडन जी आए। सभापति बने। भाषण हुआ। यहाँ तक तो ठीक।

मगर जब जमींदारी प्रथा मिटाने की बात उठी और उसका एक प्रस्ताव टंडनजी की राय से उक्त सज्जन तथा दूसरों ने तैयार किया तो दिक्कत पैदा हुई। टंडनजी जमींदारी प्रथा को मुआवजा या दाम देकर मिटाने के पक्ष में थे। ऐसा ही प्रस्ताव भी लिखा गया। इधर हमारी किसान-सभा अभी तक जमींदारी प्रथा हटाने के पक्ष में न थी। यह सिध्दांत की तथा बड़ी बात थी। मेरा व्यक्तिगत खयाल यह था कि जमींदारी अगर मिटानी हो तो फिर उसका दाम कैसा?यों ही छीन ली जानी चाहिए। मगर अभी वह सवाल उठाने का समय मेरे जानते नहीं आया था।

नतीजा यह हुआ कि हमारे सभी साथी इस बात के विरोधी बन गए। उसके और भी कारण थे जिनका उल्लेख यहाँ करना ही चाहता। अंत में प्रस्ताव तो विषय समिति में ही पास न हो सका। मगर टंडन जी इसके बारे में बोल तो चुके ही थे। इसलिए दूसरे दिन मैंने भाषण किया और किसान-सभा की एवं अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी। मैंने साफ-साफ कह दिया कि व्यक्तिगत रूप से मैं क्या चाहता हूँ और क्यों?टंडन जी को मेरा भाषण सुनके आश्चर्य हुआ और लोगों से उनने कहा भी कि यह विचित्र संन्यासी है। एक और तो जमींदारी छीनना चाहता है और दूसरी ओर अभी दाम देकर भी उसे मिटाने की बात किसान-सभा में आने देने को रवादार नहीं। लेकिन मेरा पहला विरोध सुनकर जो धारणा मेरे बारे में उन्हें पहले हुई थी, वह तो मिट गई। क्योंकि किसान-सभा में यह प्रश्न न लाने का कारण भी मैंने स्पष्ट कर दिया था।

मुझे खयाल है कि गौतम जी से मैंने वहीं एकांत में पूछा था कि क्या टंडन जी भी अंत तक क्रांति में साथ देंगे?उनने कहा कि गणतंत्रक्रांति (Democratic revolution) तक तो साथ देंगे ही। लेकिन सच बात तो यह कि मैं क्रांति की भीतरी बातें जानता, समझता ही न था। खैर, सम्मेलन हो गया और टंडन जी वगैरह इलाहाबाद चले भी गए। मगर उसका विवरण हमारे पास लिखा ही न गया। शायद उक्त गड़बड़ियों के ही करते। फलत:,अखबारों में जो छपा,वही रहा।

सन1934 के अंत में बंबई अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ और मैं पहली बार बंबई गया। जहाँ वर्ली में कांग्रेस थी, वहीं पास की एक ठाकुरबाड़ी में बंबई के मित्रो ने मेरे लिए स्थान नियत किया था। क्योंकि मुझे तो कूप-जल चाहिए था। और वहाँ सुंदर बावड़ी थी। बाबू राजेंद्र प्रसाद उस अधिवेशन में सभापति थे। उसी के बाद गाँधी जी कांग्रेस से अलग हो रहे थे। इसीलिए चर्खा संघ के सिवाय ग्रामोद्योग संघ को वहीं उनने जन्म दिया। ताकि,इधर से छुट्टी पाकर उसके काम वह चलाते रहें। मगर आज तक का इतिहास बताता है कि वस्तुत: कांग्रेस से अलग हुए या और भी उसे अपने हाथ में कर लिया। खूबी तो यह कि उसके चवनियाँ सदस्य तक नहीं हैं। यह भी एक पहेली ही है। लोगों ने पीछे उन्हें यह बातें लिखीं भी और उन्होंने अपने पक्ष का समर्थन भी किया कि ऐसा क्यों करते हैं। मगर हमारे जैसे आदमी तो उनकी यह महिमा और यह अपरंपार माया समझ न सके। हमारे जैसों के समझने की यह बात है भी नहीं! फलत: , हम इस माथापच्ची में नाहक क्यों मरें ?

उसी कांग्रेस में असेंबली प्रवेश की भी बात आई। कांग्रेस में उसे स्थान भी मिला। साथ ही, गाँधी जी की राय से ही वह बात आई। समय में कितना अंतर हो गया! कहाँ तो वे पहले उसके कट्टर शत्रु थे और कहाँ आज उसके समर्थक बन गए!कांग्रेस का विधान भी वहीं ढाला गया। इस प्रकार स्थिर स्वार्थवाले जमींदारों और पूँजीपतियों की जड़ कांग्रेस में जमाने का सूत्रपात वहीं हुआ। मैं आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का सदस्य था। अत: विषयसमिति में मैंने इस बात काविरोधकिया और यह खतरा सुझाया। मैं पहली बार वहीं कांग्रेस में बोला। मैंने कहा कि अब जब चार आने पैसे देकर बने-बनाए मेंबर ही कांग्रेस पर अधिकार जमा सकते हैं, तो किसानों और गरीबों को उसमें कहाँ गुंजाइश होगी?वह तो जमींदारों और धनियों के हाथ में चली जाएगी। क्योंकि मालदार लोग अपने पास से रुपए खर्च कर के नकली मेंबर ज्यादा बना लेंगे और इस तरह कांग्रेस पर कब्जा कर लेंगे। पूने के एक सदस्य ने मेरी इस बात को समझा और अपने भाषण में इसका उल्लेख भी किया। मगर सुनता कौन था?बात वही हुई जोगाँधीजी ने चाही।

लोगों ने यह भी सोचा, गाँधी जी जब कांग्रेस छोड़ ही रहे हैं, तो यह आखिरी बार उनकी बात मान ही ली जाए। मगर तब से मेरी यह धारणा बराबर दृढ़ होती गई कि”परतेहुँ बार कटक संहारा”। आज तो कांग्रेस उन्हीं के हाथ की चीज है जो न क्रांति चाहते, न किसान-सभा को फूटी आँखों देख सकते और न मजदूर सभा को बर्दाश्त कर सकते। हाँ,नकली किसान-मजदूर सभाएँ अवश्य चाहते हैं। क्योंकि समय की पुकार जो ठहरी। इससे जनता आसानी से भुलावे में पड़ सकती है। इसीलिए मेरा डर अक्षरश: सही निकला। मैंने अनुभव के बल से ही यह आशंका की थी।

अंत में यहाँ पर सन 1935 ई. के शुरू की एक महत्त्व पूर्ण घटना कह के दूसरे खंड में पदार्पण करना है। महीना तो ठीक याद नहीं। पटने की ही बात है। बिहार प्रांतीय किसान कौंसिल की एक महत्त्व पूर्ण बैठक थी। उसमें हमारे सोशलिस्ट दोस्तों के सिवाय वह सज्जन भी, जो अखिल भारतीय किसान-सभा बनाने के लिए उतावले थे,सदस्य की हैसियत से हाजिर थे। विचारणीय विषयों में कई बातों के सिवाय जमींदारी प्रथा मिटाने का प्रश्न भी था। इसलिए सभी तैयार होकर आए थे। बहुत बहस हुई। सबने अपना दृष्टिकोण रखा। मैंने भी रखा। इसका विरोध करते हुए मैंने कहा कि मेरे जानते अभी समय नहीं आया है कि हम यह बात उठाएँ। क्योंकि किसान-सभा की बात है। जब हम निर्णय करेंगे तो सारी शक्ति से उसमें पड़ना होगा। मगर मैं उसके सामान दुर्भाग्य से अभी नहीं देखता और न परिस्थिति ही अनुकूल पाता हूँ। लेकिन यदि आप लोग या बहुमत चाहे तो मैं खामख्वाह अड़ंगा नहीं डाल सकता। अंत में राय ली गई और बहुमत आया जमींदारी मिटाने के पक्ष में।

मैंने कहा ठीक है। मुझे खुशी है, आप लोगों ने यह निर्णय किया। मगर इसका उत्तरदायित्व भी लीजिए। मैं तो ले नहीं सकता जैसा कि कह चुका हूँ,हाँ, इसमें आप लोगों की सहायता जरूर करूँगा। इसलिए कौंसिल का सदस्य तो जरूर रहूँगा। मगर सभापति नहीं रह सकता। तब तो जवाबदेही लेनी होगी। सभापति किसी और को बनाइए। इस पर सन्नाटा हो गया। कोई भी तैयार न हुआ कि सभापति बने। मुझे ताज्जुब हुआ कि मेरे विरोध पर भी प्रस्ताव पास करना और जवाबदेही न लेना यह निराली बात है। फलत:, मित्रो को विवश हो के यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। मैंने उन्हें दिल से इसके लिए धन्यवाद दिया। पर क्या पता था कि इसी सन 1935 ई. के बीतने से पहले ही मैं स्वयं बिना एक पैसा दिए ही इस जमींदारी पिशाची का नाश करने का।