सौदागर / नज़्म सुभाष
मिर्ज़ा करीम बेग छड़ी के सहारे ठक्-ठक् की आवाज़ें करते हुए जीने पर एक के बाद एक चढ़े जा रहे थे। आज बरसों बाद उन्होंने यहाँ क़दम रखा है। पता नहीं रुकैया उन्हें पहचानेगी भी या नहीं। मगर पूरी ज़िन्दगी औलाद से दूरी बनाकर रखने के बाद अब बेटे की चाह उन्हें आज यहाँ तक खींच लाई थी। कभी रुकैया के इश्क़ में वह इस क़दर गिरफ़्तार हुए थे कि लगा था अब वह शायद ही कभी घर लौट कर वापस ख़ैराबाद जाएँगे। रुकैया का ये कोठा ही उनका घर बन गया और रुकैया ही उनकी बेग़म।
अवध रियासत के वह मुलाज़िम थे और रियासत के काम के लिए ख़ैराबाद में तैनात थे। एक बार काम के सिलसिले में लखनऊ आए तो रुकैया के हुस्न के बारे में सुनकर इधर चले आये और यहीं के होकर रह गये फिर तो अपने रुतबे का फ़ायदा उठाकर यहीं तैनाती भी पा ली। जो कुछ भी उनको वेतन मिलता उसका कुछ हिस्सा घर भेज देते बाकी रुकैया के हाथों में रख देते और यहीं कोठे पर रुकैया के आगोश में पड़े रहते।
उन दिनों अकबरी गेट में उनके और रुकैया के चर्चे बड़े आम थे। यूँ तो तवायफ़ों का कौन आशिक़ नहीं होता आख़िर हुस्न है ही ऐसी चीज मगर कोई आशिक़ी सीखे तो मिर्ज़ा क़रीम बेग से। एक बार कोठे पर क्या आए तो यही के होकर रह गए।
यह कुछ जुमले थे जो अकबरी गेट की गली से निकलने वाले हर शख़्स की ज़बान पर थे। ये जुमले कभी-कभार उड़ते-उड़ते उनके कानों में भी पड़ते तो वह मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाते।
क़रीब सात साल वह रुकैया के क़रीब रहे और इतने दिनों में रुकैया को भी लगने लगा कि उसके सच्चे आशिक़ तो वही हैं। कभी-कभी उसने ये ख़्वाहिश भी जाहिर की कि वह उसे कोठे से दूर ले चलें और नयी दुनिया बसायें मगर बेग साब ने हमेशा कोई न कोई बहाना बनाकर टाल दिया...आख़िर जो इश्क माशूक़ा से हो वह बीवी से कहाँ हो पाएगा...फिर एक कोठेवाली किसी के दिल की ज़ीनत भले बन जाए घर का ताज़ नहीं बन सकती...हर चीज़ का एक अलग मकाम है और रुकैया का मकाम तो कोठा ही था। वो अक्सर यही सोचते मगर कभी कह न पाते।
रुकैया उनसे अब इस क़दर राब्ता थी कि धीरे-धीरे उसने अपने चाहने वालों से ख़ुद भी दूरी बना ली थी फिर भी शाम की महफ़िल में रौनक कम न हुई थी...उसका पूरा जहान अब केवल मिर्ज़ा क़रीम बेग ही थे। इतने दिन साथ रहकर अब उसे लगने लगा था कि उनसे कोई औलाद ही हो जाए आख़िर हमेशा तो जवानी न रहेगी बुढ़ापे में कौन सहारा देगा? हालांकि यह फैसला इतना आसान भी न था एक तवायफ़ अगर माँ बनने की सोच ले तो उसके क़दरदानों के दिल पर क्या बीतेगी और हुस्न के बाज़ार में उसकी क्या क़ीमत रह जाएगी इसका अंदाज़ा रुकैया को था मगर औलाद की चाहत ने इन सब बातों पर पर्दा डाल रखा था।
क़रीब दो महीने बाद रुकैया ने मिर्ज़ा साब को बताया कि उनके मुहब्बत की निशानी उसके पेट में पल रहा है और जल्द ही वह अब्बा बनने वाले हैं।
उन्होंने सुना तो वह सन्न रह गये। घर में बच्चों को लेकर उनकी बेग़म से अक्सर ठनी रहती थी। उन्हें बच्चे पसंद नहीं...मगर बेग़म वक़्त बेवक़्त यही रोना रोतीं... उनसे बर्दाश्त न होता था...अब यहाँ भी आए तो फिर से वही जी का जंजाल... रुकैया उनकी दूसरी बेग़म बनने की तैयारी कर रही थी। भला जँचगी के बाद उसके अंदर ऐसा क्या बचेगा और कौन-सी ऐसी कशिश रह जाएगी जो उन्हें उसकी तलब होगी? क्या वह एक पिलपिला-सा लिजलिजाता ज़िस्म ढोने के लिए ही यहाँ सात साल से झक मारते हुए अपनी तेज़ी से गुजरती जवानी और रुपया पैसा बरबाद कर रहे हैं। आख़िर रुकैया को ऐसी सूझी ही क्यों? यूं तो उनका मन हुआ कि अभी कोठरी से निकल जाएँ और दुबारा कभी रुकैया कि शक्ल न देखें मगर इस वक़्त रात के दस बज रहे थे वह जाते तो जाते भी कहाँ...?
चुनांचे वह रात भर के लिए अपना ग़ुस्सा जज़्ब कर गये मगर सुबह होते ही उन्होंने बिस्तर पर एक पर्चा छोड़ा और हमेशा के लिए ख़ैराबाद की और निकल लिए।
तब से आज जाकर वह यहाँ आए हैं। जीने ख़त्म हो चुके थे और सामने हालनुमा कमरा था। जहाँ शाम को महफ़िल जमती थी। इस वक़्त भी महफ़िल जमी थी। एक सोलह-सत्रह साल की लड़की हरमोनियम और तबले की थाप पर धुँधरू बाँधे थिरक रही थी और रूकैया रह-रहकर उसका हौसला बढ़ाए जा रही थी। तीन नवाबजादे जैसे दिखने वाले लड़के अपने पाँच दोस्तों के संग इस रंगीन महफ़िल का मज़े लूट रहे थे।
अचानक रुकैया कि नज़र उन पर पड़ी तो वह हैरान रह गयी। माथे पर बल पड़ गये मगर उसने ख़ुद को संभाला और उन्हें पीछे वाली कोठरी की ओर जाने का इशारा किया। वो एकपल के लिए ठिठके शम्आ की मद्धम रौशनी में लड़की का चेहरा देखा तो आँखों में चमक उतर आयी। "सुभान अल्लाह...बला कि खूबसूरती" वो कुछ पल और ठहरते किंतु इस वक़्त इस तरह वहाँ ठहरना बेअदबी होती इसलिए वह पीछे वाली कोठी की तरफ बढ़ गए। कोठरी में पहुँच कर उन्होंने एक नज़र हर तरफ़ डाली। ज़्यादा कुछ तो न बदला था बस सजावटी सामान अब पहले से कुछ ज़्यादा था। खाट वही थी जो पहले हुआ करती थी। अलबत्ता अब इस पर पहले से ज़्यादा मुलायम बिस्तर था।
दस मिनट बैठे रहने के बाद उन्होंने जूते उतारे और बिस्तर पर अधलेटे बैठ गये।
इधर रुकैया ने उन्हें भीतर तो भेज दिया था पर एक बचैनी थी जो उसे लगातार खाये जा रही थी। मात्र एक पर्चे पर ये लिखकर कि "रंडी से इश्क़ तो किया जा सकता है उसे बेग़म नहीं बनाया जा सकता...और उसका माँ बनना तो किसी अज़ाब से कम नहीं" उसने उन्हें शौहर की तरह मुहब्बत की बदले में मिला ये ज़हर ... जो जाते-जाते वह उगल कर गया था। आज इतने सालों बाद ये गोश्तख़ोर इधर क्यों आया है...?
आख़िर अब क्या चाहता है? वह मन ही मन झुंझलायी।
यूं तो महफ़िल अभी काफ़ी देर चलती मगर उसने तबीयत बिगड़ने का बहाना बनाकर सबको रुख़सत किया फिर भी इन सब में भी एक घंटा तो लग ही गया। वहाँ से फ़ारिग़ होने के बाद उसने सीधे उसी कोठरी का रुख़ किया था।
कोठरी में घुसते ही एक-दूसरे से नज़रें मिलीं तो मिर्ज़ा साब रुकैया कि नज़रों का ताप बर्दाश्त न कर सके चुनांचे उन्होंने तुरंत नज़रें झुका लीं।
"कहिए हुज़ूर ...गली भूल गये या फिर कोठा" रुकैया कि आवाज़ में अदब लिहाज़ की बजाय रूखापन था।
"बस यूँ ही मिलने चला आया..."
"ज़रूर कोई तलब होगी...कहिए ज़िस्म पेश करना है या घुंघरुओं की झंकार"
लफ़्ज़ों की तल्ख़ी को उन्होंने महसूस कर लिया था। उसी लहज़े में बात करके बात नहीं बिगाड़ना चाहते थे इसलिए बड़ी मुलाइमियत से बोले-"तुम्हारी नाराज़गी जायज़ है"
"क्या बात करते हैं हुज़ूर आपसे किस बात की नाराज़गी... हमारा आपका रिश्ता ही क्या?"
उसने लाख जप्त किया मगर ग़ुस्सा उबल ही आया।
मिर्ज़ा साब को ये लहज़ा पसंद न था मगर वह पलटवार करते भी तो कैसे? उनके चेहरे पर शिकन भरी ख़ामोशी उतर आई। जब कुछ देर तक ख़ामोशी पसरी रही तो रुकैया ने ही दोबारा कुरेदा-"आप आए क्यों है यह तो बताइए?"
"अपनी औलाद से मिलना था"
उन्होंने बड़ी मुश्किल से थूक गटकते हुए कहा।
"उसी औलाद से न... जिसका नाम सुनते ही आप यहाँ से हमेशा के लिए दफ़ा हो गए थे"
कहते समय रुकैया ने उनके चेहरे पर नज़र डाली तो मारे शर्मिंदगी की उनका चेहरा सुर्ख़ हो गया।
रुकैया एक पल को ठहरी फिर कुछ सोचने वाले अंदाज में सर झटका-"खै़र चलिए यही सही"
फिर उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई-"नफ़ीसा ज़रा एक गिलास पानी लाना"
"लाई अम्मीजान"
अंदर से आवाज़ आई और क़रीब पाँच मिनट बाद वही लड़की नमूदार हुई जो अभी कुछ देर पहले मुजरा कर रही थी।
"देख लीजिए" रुकैया बहुत धीरे से उनके क़रीब जाकर बुदबुदाई।
मिर्ज़ा साब ने नज़र उठाई तो जैसे उन्हें लकवा मार गया... उन्हें उम्मीद थी बेटा होगा...उनके बुढ़ापे का सहारा... मगर यह तो बेटी है। कुछ देर पहले उसके लिए जाने क्या-क्या ख़याल उनके ज़हन में आए थे ..."तौबा-तौबा अल्लाह माफ़ करना" दिल ही दिल में उन्हे अपनी सोच पर लानत-मलानत भेजी और गिलास पकड़ने के लिए आगे हाथ बढ़ाया तो महसूस हुआ उसमें जान ही नहीं है। पानी का गिलास उनके हाथ से गिरते-गिरते बचा। चेहरे पर पसीना चुचुहा आया जिसे उन्होंने बड़ी सफ़ाई से कुर्ते की बाँह में पोछ लिया। नफ़ीसा जा चुकी थी उन्होंने पानी पिया और गिलास रखकर अपनी बेचैनी दबाते हुए बोले-"काफ़ी बड़ी हो गई है"
"अगर आपकी घड़ी ठहर जाए तो वक़्त नहीं थम जाता मिर्ज़ा साब... पूरे सत्रह साल हो चुके हैं। मैं जवान से बूढ़ी हो गयी हूँ।"
उन्होंने जैसे सुना ही नहीं वह अपने ही रौ में बोले-"उसने कभी मेरे बारे में पूछा"
"हाँ पूछा था"
"तो क्या बताया?"
इस बार बड़ी उम्मीद से उन्होंने नज़र उठाई।
"मिर्ज़ा साहब क्या बताती ..." कहकर उन्होंने एक लम्बी आह भरी और फिर ज़रा तल्ख़ लहजे में आगे जोड़ा-"यही कह दिया ...रंडियों के खसम नहीं होते"
मगर ये लफ़्ज़ कहते वक़्त उन्हें महसूस हुआ कलेजा मुँह को आ रहा है।
मिर्ज़ा साहब के कानों में अभी-अभी पिघला शीशा उतार दिया गया था। साँसें उखड़ गयीं। फेफड़ों में जैसे तेज़ाब उतर आया। उन्हें महसूस हुआ नफ़ीसा पाँव में घुँघरू बाँधकर भरी महफ़िल में खड़ी है और दर्ज़नों नज़रें उसे हसरत भरी नज़रों से देख रही है।
वह चीखे-"तो क्या मेरी बेटी भी"
रुकैया ने बीच में ही बात काट दी-"तो क्या वह कोई नवाबजनी है"
"मिर्ज़ा करीम बेग की बेटी तो है।"
अचानक एक पागलों-सी हँसी गूँज उठी-"मिर्ज़ा क़रीम बेग" उसने एक-एक लफ़्ज़ चबाकर जैसे उनकी ओर उछाल दिया था
"वही मिर्ज़ा क़रीम बेग न... जो सत्रह साल पहले यहाँ से दफ़ा हुए तो कभी नज़र न आये... आज नज़र आए हैं तो इस उम्मीद में कि उनकी औलाद कैसी है? जबकि इतने दिनों में मैंने उसे कैसे पाल पोस कर बड़ा किया यह सिर्फ़ मैं ही जानती हूँ"
"उस वक़्त मुझे औलाद की क़दर नहीं थी"
"तो फिर आज क्या लेने आए हो?"
"नफ़ीसा मेरा ख़ून है" उन्होंने दांत पीसे।
"तुम्हारे ज़िस्म से निकलकर जरा-सा नुत्फ़ा (वीर्य) मेरे ज़िस्म में क्या उतरा तुम्हें अपना ख़ून याद आने लगा...नफ़ीसा जब पैदा हुई थी तो उसकी नाल मुझसे जुड़ी थी मिर्ज़ा क़रीम बेग से नहीं...तो क्या इस रंडी के ख़ून की कोई क़ीमत नहीं"
"रुकैयाsssssss"
"बुढ़ापे में ज़्यादा तेज़ चीखने से गर्दन की नस फट जाती है मिर्ज़ा साब" रुकैया ने बड़े इत्मीनान से कहा और पानदान से एक पान निकाल कर बड़े क़रीने से अपने मुँह में दबा लिया।
"तो क्या" लखनऊ दरबार"के मुलाज़िम की बेटी अब कोठे पर मुजरा करेगी?"
"क्यों? ... उसकी माँ भी तो यही करती है"
"वह तो पहले से ही रंडी थी"
इस बार उनकी आवाज़ काफ़ी तेज़ थी। अब तक वह बिस्तर से उठ खड़े हुए थे।
"अपनी जानकारी दुरुस्त कर लें मिर्ज़ा साब...मैं कोठे पर पैदा नहीं हुई थी ...आपके जैसे ही दो शरीफ़जादे मुझे यहाँ घसीट लाए थे... मगर तुम्हारी बेटी तो पैदाइशी कोठेवाली है..."
"रुकैया तुम्हारी बद्ज़बानी नाक़ाबिले बर्दाश्त है"
"हकीक़त बर्दाश्त से बाहर ही होती है...आखिर हमने भी तो बर्दाश्त किया है...वैसे भी हुस्न की मंडी में ख़ून नहीं पैसा बोलता है।"
"मैं अपनी बेटी यहाँ से ले जाऊँगा"
"शौक से ले जाइएगा दस हजार क़ीमत है अदा करना और ले जाना"
"ठीक है अगली बार आऊँगा तो क़ीमत लेकर आऊँगा"
उन्होंने छड़ी उठाई और कोठरी से बाहर निकलते हुए बड़बड़ाये।
"ज़रूर ...मैं इंतज़ार करूँगी मगर जाते-जाते यह तो बता दीजिए कि कोठे से ख़रीदी बेटी को किसके घर की ज़ीनत बनाएँगे?"
उनके पाँव जहाँ के तहाँ रुक गये...अचानक उन्हे याद आया सत्रह साल पहले ये कोठा छोड़ते वक़्त यही सब उन्होंने भी रुकैया के लिए लिखा था...आज ठीक वैसा ही सवाल हर्फ़ दर हर्फ़ उन्हें मुँह चिढ़ा रहा था... उनके हाथ से छड़ी छूटकर गिर गयी...उन्होने तिनके की तरह काँपती टाँगों पर जिस्म का बोझ डाला। बद्हवासी और जुनून में वह जीने तक आ तो गये मगर जीना देखकर उन्हें महसूस हुआ या तो उनका क़द बौना हो गया है या फिर जीना उबड़खाबड़ पहाड़ में तब्दील हो चुका है।