सौदा-ए-खाम / प्रेमचंद

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शाम का समय था। इलाहाबाद सैन्ट्रल जेल के सामने छतनार बरगद के पेड़ के नीचे दो सिपाही बैठे हुए थे। किशोरवय कारे सिंह जोर-जोर से भाँग पीस रहा था और यह कोशिश कर रहा था कि बट्टे के साथ सिल उठ आए, और काला-कलूटा रुस्तम खान धीरे-धीरे अफीम घोलता था। दोनों के चेहरे चमक रहे थे और दोनों मुस्करा- मुस्कराकर एक दूसरे की ओर देखते थे।

कारे सिंह ने कहा, ‘आज अच्छे आदमी का मुँह देखा था।’

रुस्तम खान ने अफीम का एक घूँट पिया और मुँह बनाते हुए बोले, ‘पता चल जाए तो मैं उस भागवान को डब्बे में बंद कर लूँ और रोज दर्शन किया करूँ।’

कारे सिंह ने भाँग का एक बड़ा सा गोला बनाया और उसे हाथों से तोलकर सन्तोष भरे स्वर में बोले, ‘ऐसे दो-एक आदमी रोज आते रहें तो क्यों परचूनिये, ग्वाले और कोठी वाले की लताड़ सहनी पड़े।’

आज सेशन जज ने एक बहुचर्चित मुकदमे का फैसला सुनाया था और एक धनी परिवार की विधवा को दो साल की सजा दी थी। पता नहीं मुकदमे की असलियत क्या थी। जनता की आवाज कुछ कहती थी, मुकदमे का फैसला कुछ। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि कुछ हुस्नो इश्क और ईर्ष्या-वैमनस्य का मामला था। जेल दारोगा, वार्डन और डाक्टर फूले नहीं समा रहे थे। आज उनके हाथ एक सोने की चिड़िया लग गई थी। उसी के चरणों का प्रताप था कि आज कहीं भाँग के गोले थे, कहीं अफीम की चुस्कियाँ और कहीं उम्दा शराब के दौर।

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तीन दिन बीत गये। रात के दस बजे का समय था। इलाहाबाद जेल के दरवाजे पर बिजली की लालटेन जल रही थी। कारे सिंह और रुस्तम खान वर्दी पहने, संगीनें चढ़ाए पहरे पर थे।

रुस्तम खान ने बन्दूक पटककर कहा, ‘इस नौकरी से नाक में दम आ गया। यह मजे की मीठी नींद का समय है या खड़े-खड़े कवायद करने का।’

कारे सिंह का ध्यान किसी दूसरी तरफ था, कान में बात न पड़ी। अचानक रुस्तम खान के पास जाकर बहुत भेद भरे स्वर से बोले, ‘यार, तुमसे एक बात कहूँ? पेट के हल्के तो नहीं हो, जान जोखिम में है।’

रुस्तम खान ने आश्वस्त करते हुए पूछा, ‘क्या मुझ पर भी भरोसा नहीं है, आजमाकर देखो।’

कारे सिंह को विश्वास हो गया। बोले, ‘तीन दिन से रोज इसी समय जेल के अंदर से कोई मेरे पास कागज के टुकड़े फेंकता है। एक ठीकरे में लिपटा हुआ बस मेरे सामने ही आकर गिरता है और मजमून सबका एक। यह देखो।’

रुस्तम खान ने आश्चर्यमिश्रित उत्सुकता के साथ टुकड़ों को लिया और बहुत धीरे-धीरे पढ़ने लगा - ‘ठाकुर कारे सिंह को हरनाम देवी का बहुत-बहुत प्यार। यदि बीस हजार नकद, पाँच हजार के गहने और एक प्यार-भरा दिल लेना हो तो मुझे यहाँ से किसी तरह निकालो। बस, जिन्दगी की आस तुम्हीं से है।’

रुस्तम खान को ईर्ष्या हुई - यह कोई ऐसा गबरू जवान तो है नहीं, हाँ रंग जरा साफ और बदन सुडौल है। बोले, ‘यार तुम्हारा भाग्य तो जागता हुआ नजर आता है।’

कारे सिंह ने उत्साह से कहा, ‘जागेंगे तो हम दोनों के नसीब साथ ही जागेंगे।’

रुस्तम खान ने सच्ची सहानुभूति और उत्साहवर्धक दृष्टि से देखा, ईर्ष्या न रही। बोले, ‘मुझे तुमसे यही उम्मीद है। मैं तुम्हारे साथ जान देने को तैयार हूँ।’

दोनों दोस्त आपस में फुसफुसाने लगे। उन टुकड़ों के सम्बन्ध में जो सन्देह पैदा हो सकते थे, वे पैदा हुए। कोई छल-कपट तो नहीं है, शायद किसी दुश्मन की शरारत हो, किसी बुरा चाहने वाले ने जाल बिछाया हो। लेकिन औरत का क्या भरोसा! कहीं धोखा दे तो अपना काम निकालकर धता बता दे। उसे ऐसे सैकड़ों आदमी मिल सकते हैं। फिर उसे नाम कैसे पता चला। जरूर किसी धोखेबाज की शरारत है। लेकिन रुस्तम खान ने अपने जबर्दस्त तर्कों से सारे सन्देह दूर कर दिए - ‘धोखा-फरेब कुछ नहीं, उसका दिल तुम पर आ गया है। तुम्हारे जैसा सजीला जवान पूरी दुनिया में नहीं है। चाहे शर्त लगा लो, कोई बात नहीं है। उसकी निगाह तुम पर पड़ी और रीझ गई। और नाम का क्या, किसी से पूछ लिया होगा। खूबसूरत औरत है, लाखों का कारोबार है। और यदि धता ही बता दे, दो चार महीने तो उसके साथ रहने का का मजा लूटोगे। इतने दिनों में तो मालामाल हो सकते हो, चाहे सोने की दीवारें बनवा लो।’

इस समय कारे सिंह को रुस्तम खान एक अत्यन्त अनुभवी, बुद्धिमान और प्यारा दोस्त लगता था। उसके सारे सन्देह मिट गए। अटकते-अटकते बोले, ‘तो तुम्हारी यही सलाह है?’

रुस्तम खान ने दृढ़ता से कहा, ‘हाँ।’

कारे सिंह, ‘कुछ आगा-पीछा न करें?’

रुस्तम खान, ‘आगा-पीछा करके पछताओगे। मोती तो डूबने से ही मिलता है।’

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ये बातें हो ही रही थीं कि दोनों सिपाहियों के सामने कागज में लिपटा हुआ एक ठीकरा आकर गिरा। रुस्तम खान ने दौड़कर उठा लिया। यह अफीम की तरंग हो या तरक्की न होने की निराशा, इस मामले में उसकी हैसियत एक सहयोगी और हमदर्द की होने पर भी उसका उत्साह और साहस असली हीरो से कई कदम आगे था। टुकड़ा खोलकर पढ़ने लगा - ‘जवाब का इंतजार है। मैं यहाँ बगीचे में खड़ी हूँ।’

बारूद में आग लग गई। धैर्य और चरित्र की दीवार तो कमजोर थी ही, लेकिन भय की मजबूत तथा ऊँची दीवार भी हिल गई। रुस्तम खान ने वह सवाल किया जिसका एक ही जवाब हो सकता था - ‘अब?’

कारे सिंह ने डरते-डरते कहा, ‘मैं भी तुम्हारे साथ हूँ।’

लेकिन जब कारे सिंह सीढ़ी लाने चला ताकि अहाते की ऊँची दीवार पर चढ़ सके तो उसके हाथ-पैर थर-थर काँप रहे थे। बातों के हवामहल से निकलकर अब वह काम के मुहाने पर खड़ा था और सोच रहा था कि सीढ़ी उठाऊँ या न उठाऊँ। यदि कोई देख ले, किसी दूसरे सिपाही की नजर पड़ जाए या रुस्तम खान ही विश्वासघात कर बैठे तो जान आफत में फँस जाय। इस सोच-विचार में उसे देर हुई तो रुस्तम खान लपके हुए आए और व्यंग्यात्मक स्वर में बोले, ‘यहाँ खड़े-खड़े सीढ़ी के नाम को रो रहे हो क्या? चूड़ियाँ क्यों नहीं पहन लीं?’ कारे सिंह ने शर्मिन्दगी से सिर झुकाकर उत्तर दिया, ‘भई, यह काम मेरे बूते का नहीं, मैं क्या करूँ।’ रुस्तम खान उन शीघ्र भरोसा करने वाले लोगों में था जो सिर झुकता है मगर तर्क देते नहीं थकते। बोला, ‘अच्छा हटो, मैं ही ले जाता हूँ।’

यह कहकर उसने एक लम्बी सीढ़ी कंधे पर उठाई और लाकर उसे जेल की दीवार से सटाकर खड़ा कर दिया। अब कठिनाई का पहला और कठिन पग उठाना था - सीढ़ी पर चढ़कर अन्दर कौन जाए। कारे सिंह जानता था अगर मैंने जरा भी संकोच किया तो रुस्तम खान सीढ़ी पर चढ़ जाएगा और सेहरा भी उसी के सिर होगा। जो भेदी था वह शत्रु बन जाएगा। रुस्तम खान की जिन्दादिली ने उसे भी कुछ जोश दिलाया। सीढ़ी पर तो चढ़ा परन्तु इस तरह मानो कोई सूली के तख्ते पर लिए जाता हो। हरेक कदम के साथ दिल बैठा जाता था और बहुत मुश्किल से सीढ़ी के डंडों पर पैर जमते थे। अन्तरात्मा की आवाज कभी की बंद हो चुकी थी लेकिन दंड का भय बाकी था। इन्सान मच्छर के डंक की उपेक्षा कर सकता है लेकिन कौन है जो तेज भाले के सामने ढाल बन सके। कारे सिंह पछताता था और अपने को कोसता था कि बेकार बैठे बिठाए अपनी जान आफत में डाल दी। पता नहीं सुबह को क्या गुल खिलेंगे और यह अवश्यम्भावी था कि यदि रुस्तम खान नीचे न खड़ा होता तो वह कुशलतापूर्वक नीचे उतर आने के लिये देवताओं की मनौतियाँ मानता। इस तरह मचलते और हिचकते हुए उसने आधा रास्ता पार कर लिया।

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आधा रास्ता पार करने के बाद कारे सिंह को एक प्रकार की स्फूर्ति अनुभव हुई। स्फूर्ति क्या थी, सन्तोष का सहारा था। उसने तेजी से पैर उठाए और बात की बात में जेल की दीवार पर जा पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही उसने दूसरी ओर निगाह दौड़ाई और उसके मन में गुदगुदी सी होने लगी। एक ओट में खड़ी हरनाम देवी अपनी ओर बुला रही थी। यह लिखना कि किस तरह कारे सिंह अपने साफे को सीढ़ी के एक डंडे से बाँधकर नीचे उतर गया और वहाँ उस रूपसी ने उससे क्या प्यार मोहब्बत की बातें कीं, आपस में क्या-क्या वादे हुए और फिर किस प्रकार वह उसे दीवार के ऊपर लाया, यह एक लम्बा किस्सा है। यह लिखना पर्याप्त है कि कारे सिंह ने वही किया जो एक मनचला आशिक ऐसी हालत में कर सकता था। हरनाम देवी को कद-काठी भरपूर मिली थी और जब कारे सिंह ने मैदान जीतने के लिए उसे अपनी पीठ पर लादा था तो उसकी कमर टूटी जाती थी। रूपसी ने ऐसे अन्दाज से आसन जमाया था मानो घोड़े की सवारी ही कर रही हो। मगर कारे सिंह ने ये सब मुसीबतें भी हँसते-हँसते झेल लीं। ये सब प्यार की देन हैं। शिकायत का एक शब्द भी मुँह पर न आया, हाँ अपने दिल से मजबूर था। इस तरह जब घंटे भर की मशक्कत के बाद फिर रुस्तम खान के पास आया तो उसकी साँस फूल रही थी और सारा शरीर पसीना-पसीना हो रहा था। रुस्तम खान ने उसे गोद में उठा लिया और हरनाम देवी से बहुत आदरपूर्वक कहा, ‘बाईजी, इस गुलाम का भी खयाल रहे।’

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समय बहुत मूल्यवान था। हरनाम देवी बरगद की ओट में खड़ी हो गई। दोनों सिपाहियों ने झटपट वर्दी उतार फेंकी और तब रुस्तम खान ने दूसरे सिपाही को जगाकर पहरा बदला। वह एक पहाड़ी था, बहुत गुर्राया कि बारह नहीं बजे, अभी से तंग करने लगे। लेकिन, रुस्तम खान की खुशामद-दरामद ने उसे ठंडा कर दिया। इधर वह पहरे पर आया, उधर वे तीनों आदमी शहर की ओर चल दिए। हरनाम देवी ने सब्जी मंडी का पता दिया था। आगे-आगे कंधे पर बन्दूक रखे रुस्तम खान गर्व में फूले चले जाते थे मानो कोई मोर्चा ही जीतकर आए हों। बीच में हरनाम देवी थी, शर्मीली और छुईमुई सी। कारे सिंह सबसे पीछे थे, मौन, चिन्तित और भयभीत। कदम-कदम पर खटका होता था कि कहीं पीछे सिपाहियों की पलटन तो नहीं चली आ रही है। इस तरह लगभग आधा मील चलने के बाद पक्की सड़क मिली। हरनाम देवी एक ठंडी साँस लेकर बैठ गई और बोली कि अब मुझसे चला नहीं जाता, मेरे पाँव मन-मन भर के हो गए। एक इक्का लाओ। रुस्तम खान बहुत शर्मिन्दा हुए कि यह प्रस्ताव उनकी ओर से आना चाहिए था। अपनी गलती पर बहुत पछताए और तब कारे सिंह को बन्दूक सौंपकर इक्के की तलाश में चले।

आधी रात थी, चाँदनी छिटकी हुई, जमीन पर आँखें लुभाने वाली घास की चादर, पेड़ की शीतल छाया, फूलों से सजी हुई सम्पूर्ण प्रकृति आनन्द के सुरीले गान से सम्मोहित हो रही थी। यह स्वाभाविक था कि कारे सिंह के दिल में प्यार के विचारों का तूफान उठ खड़ा हो। हरनाम देवी ने एक लुभावनी अदा से उसके दोनों हाथ पकड़ लिए और बोली- ये बहुत शरारत करते हैं, मैं इन्हें बाँध दूँगी।

कारे सिंह को मटके भर भाँग का नशा था, दिल जुल्फों में उलझ चुका था, गर्दन में वफा की रस्सी पड़ी हुई थी। सारा साफा खत्म हो गया, हरनाम देवी फंदे लगाते-लगाते थक गई, लेकिन वह अपनी मस्ती की तरंग में इन रसीली अदाओं की बहार लूटता रहा।

तभी उसकी आँखों के सामने से भ्रम का परदा हटा। हरनाम देवी ने साड़ी उतार फेंकी और उसके बदले एक गठीला, बड़ी-बड़ी मूछों वाला जवान हाथ में बन्दूक लिए खड़ा दिखाई दिया। एक पाँच हाथ की साड़ी आदमी को कितना धोखा दे सकती है! कारे सिंह ने पैर पटककर कहा, ‘अरे घासीराम!’

इसी बीच रुस्तम खान इक्का लाते हुए दिखाई दिये। घासीराम ने वह साड़ी उठाकर कारे सिंह को ओढ़ा दी और बोला, ‘यह तुम्हारी हरनाम देवी तुम्हारे हवाले है। इसके बदले में यह बन्दूक मुझे दे दो। अब मैं चलता हूँ, मेरी गलती माफ करना।’

कारे सिंह ने चीख पुकार मचाई लेकिन घासीराम गायब हो चुका था। रुस्तम खान पर इस घटना का जो कुछ असर हुआ वह कहने की बात नहीं। आशाओं से भरे हुए सुहाने स्वप्न टूट गए। इस राजदारी, कोशिश और हमदर्दी का यह पुरस्कार मिला कि कारे सिंह ने सारा इल्जाम उसके सिर रखा और जब वह अपनी सफाई देने लगा तो गरीब को ऐसा घोबीपाट मारा कि उसकी कलाई टूट गई।

उसी रात को शहर में दो सशस्त्र डाके पड़े। दैनिक समाचार पत्रों ने लिखा कि कुख्यात डाकू घासीराम इलाहाबाद जेल से निकल भागा है और शहर में चारों ओर डाके और लूट का बोलबाला है।