सौदा / अंजना वर्मा
जाड़ों के दिन थे। एक खपरैल मकान के आँगन की दीवार की नोनी लगी ईंटें जगह-जगह से झड़-झड़कर अपना अस्तित्व खो चुकी थीं और दीवार में कई जगह छेद बन गए थे। इसी आँगन के एक कोने में गुनगुनाती पीली धूप रूमाल की तरह बिछी हुई थी, जहाँ खटोला लगाकर रामऔतार की बीवी ने अपनी गोद की बेटी मुनिया को सुला दिया था। वह आराम से धूप में सो रही थी। रामऔतार की बीवी आँगन के बाहर चापाकल पर बर्तन धोने चली गई थी। बच्ची के पास एक लाल कलगी वाला सफेद मुर्गा चर रहा था। इसी के भरोसे उसने अपनी बिटिया छोड़ी थी कि वह रखवाली करेगा। आँगन की दीवार जगह-जगह से टूटी हुई थी, फिर भी कोई भीतर घुसने का दुस्साहस नहीं कर सकता था। और यदि कोई अनजाना व्यक्ति घुस भी जाता तो वह मुर्गा अपनी चोंच से इस तरह प्रहार करता कि वह भाग जाता। लड़ाई करते हुए इसकी मुद्राएँ देखते ही बनती थीं। गर्दन के बाल खड़े हो जाते और गर्दन इस तरह कड़ी हो जाती जैसे नाग का फन हो। वही नाग का गुस्सा जैसे डँस लेने पर उतारू हो। एक बार मैदान में उतर गया तो जान की परवाह नहीं। दुश्मन चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसकी हिम्मत से बड़ा नहीं हो सकता था। उस पूरे मुहल्ले में इस मुर्गे के किस्से फैले हुए थे।
इसलिए कोई रामऔतार के आँगन में नहीं जाता था। यदि जाना जरूरी भी हुआ तो पहले बाहर से ही ताक-झाँक करता कि मुर्गा कहाँ है। कहीं आसपास तो नहीं कि चुपके से आकर पैर में झपट्टा मार दे। इसीलिए पहले रामऔतार की बीवी को पुकारना पड़ता था। रामऔतार के आँगन में कदम रखनेवाले कम ही होते थ्ेा। जो नहीं जानते थे और हठात् भीतर चले जाते उन्हें मुर्गे का अप्रत्याशित आक्रमण सहना पड़ता था। रामऔतार की बीवी को इस छोटे से मुर्गे पर अपने दोनों बच्चों से अधिक विश्वास था। वह जितेन्द्र और रिंकी पर मुनिया को नहीं छोड़ सकती थी। वह जानती थी कि यदि बच्चे को उन दोनों पर छोड़ दें तो वह भगवान भरोसे ही रह जाएगा। जितेन्द्र को लट्टू नचाने या कंचे खेलने से ही छुट्टी नहीं होगी और रिंकी तो किसी-न-किसी बात के लिए ठुनकती हुई उसी के पास चली आएगी। ऐसे में इन दोनों में से किसी पर मुनिया को नहीं छोड़ा जा सकता था। इन दोनों आदमी के बच्चों से भला वह पक्षी था, जिस पर छोड़कर कुछ देर के लिए निशिं्चत हुआ जा सकता था। इसीलिए मुनिया जब सो रही होती तो वह एक मुट्ठी दाना चारपाई के पास बिखेर देती और अपने काम-काज में लग जाती। इस तरह मुर्गा मुनिया की रखवाली करता। उसके साथ की मुर्गियाँ भी सुरक्षित थीं। वह मुर्गा बिल्ली से भी जूझने का कलेजा रखता था-यह बात वह जानती थी
बच्चों ने उसे ‘लाल कलगी’ कहना शुरू कर दिया था। सफेद रोओं वाले उस सुंदर मुर्गे के सिर पर लाल कलगी बहुत सजती थी। उसे जो एक बार देख लेता वह ईश्वर की कला को सराहे बिना नहीं रह सकता था। एक बार लाल कलगी अपनी मुर्गियों के साथ चर रहा था। तभी दबे पैर बिल्ली आई। पर वह मुर्गे के पास नहीं गई। उसने बड़े सधे हुए अंदाज में चुपचाप एक मुर्गे को दबोच लिया। लाल कलगी की सतर्क आँखों ने तुरंत यह देख लिया। इसके पहले कि बिल्ली मुर्गी को लेकर भागती वह उस पर टूट पड़ा। उसकी चोंच और पंजे के वारों को झेलना बिल्ली के लिए आसान नहीं हुआ। वह मुर्गी को छोड़कर भाग गई। मुर्गी की चिचियाहट सुनकर जितेन्द्र और रिंकी दौड़े आए। रामऔतार की बीवी भी डंडा लिए आई। सब अपने मुर्गा-मुर्गी को बचाने में जुट गए। मुर्गी तो इस लड़ाई में अधमरी ही हो चुकी थी। लाल कलगी भी कुछ घायल हो गया था। लेकिन बच्चों को खूब मजा आया था यह लड़ाई देखकर। उनका सीना गर्व से फूल गया था। पड़ोसी भी जुट आए थे। वे मुर्गे की बहादुरी को देखकर हैरान थे। रामऔतार की बीवी सोच रही थी कि आज मुर्गी बच गई, नहीं तो अंडा देनेवाली मुर्गी आज खतम हो जाती। वह तुरत अधमरी मुर्गी के उपचार में जुट गई। बच्चे प्यार से लाल कलगी को गोद में उठाकर सहलाने लगे थे। रिंकी दौड़कर कटोरे में पानी ले आई। बिल्ली ने जगह-जगह से लाल कलगी को नोच लिया था। वह उसके पंखनुचे शरीर का खून धोने में लग गई। इस लड़ाई में अपनी जान की बाजी लगाकर विजयी हो चुका लाल कलगी भी जोर-जोर से हाँफ रहा था।
इस घटना के बाद से मुहल्ले भर में लाल कलगी अपनी बहादुरी के लिए और भी मशहूर हो गया था, पर लोगों के दिल में उसका डर अब कहीं अधिक हो गया था। अब पड़ोस की औरतों ने अपने बच्चों को मना कर दिया कि वे रामऔतार घर में खेलने न जाएँ। क्या पता वह खूबसूरत और खतरनाक मुर्गा मासूम बच्चों की आँखें ही फोड़ डाले? पड़ोस की औरतें अब रामऔतार की बीवी के मन में भी मुर्गे का डर बैठा देना चाहती थी। उसकी पड़ोसन हबीबन जब किसी काम से उसके यहाँ गई तो उसने बाहर से ही उसे पुकारा। उसके आने पर वह बाहर ही खड़ी बातें करती रही। जब चलने लगी तो सहसा रुक कर बड़ी-बड़ी आँखों की पुतलियाँ अगल-बगल घुमाती हुई धीमी आवाज़ में बोली, जैसे कोई बहुत बड़ा रहस्य खोल रही हो, “सुनो, तुम्हारा वह मुर्गा कहाँ है?”
“यहीं कहीं होगा!” रामऔतार की बीवी ने लापरवाही से कहा।
“देखो उस पर विश्वास मत करना। आखिर है तो जानवर ही? क्या पता मुनिया को ही नोच ले?” हबीबन बोली।
रामऔतार की बीवी मुस्कुरा पड़ी और उसने हाँ में हाँ मिला दिया। पर भीतर-ही-भीतर उसे विश्वास था कि लाल कलगी ऐसा कभी नहीं कर सकता है-औरतें चाहें जो बोलें। लोग चाहे जो कहें।
गली में सब रामऔतार की किस्मत से रश्क करने लगे थे। क्या किस्मत है इसकी! पहले एक मामूली रिक्शावाला था। रिक्शा चलाने में उसे इतनी कमाई हुई कि उसने अपना रिक्शा खरीद लिया। अब कई रिक्शों का मालिक बन बैठा है। वह कभी दीन रिक्शावालों में से नहीं रहा जो रिक्शा खींचते-खींचते यक्ष्मा के शिकार हो जाते हैं और उन्हें दवा के लिए भी पैसे नहीं जुटते। यह बड़ा खुशकिस्मत है कि जिस काम में हाथ डालता है उस काम में उसे फायदा-ही-फायदा होता है। अब एक अदना मुर्गा खरीदा तो वह भी किसी अलसेशियन से कम नहीं निकला। वाह रे वाह!
पिछले साल रामऔतार की बहन आई थी। कई सालों के बाद भाई के घर आना हुआ था। भाई के किराए का खपरैल मकान देखते ही चेहरा खिल गया था। हुलसकर आँगन में घुस गई। फिर तो इस लाल कलगी ने खूब स्वागत किया। घबराकर वह चिल्लाने लगी, “भाभी भाभी!” हल्ला सुनकर रामऔतार की बीवी दौड़ी आई। उसने जब मुर्गे को पकड़ लिया तो उसका आक्रमण थमा। इस घटना के बाद से मुर्गे का डर उसके मन में ऐसा समा गया कि वह आँगन में कभी अकेली नहीं बैठी। हालाँकि मुर्गे ने जब उसे घर के अन्य लोगों के साथ खाते-पीते, उठते-बैठते देखा तो पहचान गया। लेकिन रामऔतार की बहन का भय दूर नहीं हुआ। जितेन्द्र और रिंकी विश्वास दिलाने की कितनी भी कोशिश करते सारी कोशिश बेकार जाती। जितेन्द्र कहता, “बुआ यह नहीं काटेगा! यह देखो मैंने इसे पकड़ रखा है।” और वह उसे पकड़कर गोद में ले लेता। पकड़े जाने पर वह कितना सीधा और प्यारा लगता था! परन्तु रामऔतार की बहन ने कभी मुर्गे पर विश्वास नहीं किया। जब वह अपनी ससुराल लौटने लगी तो भाभी से बोली, “भाभी! अब जब तक मुर्गा रहेगा मैं तुम्हारे यहाँ नहीं जाऊँगी। मुझे भगाने के लिए ही शायद तुमने इसे पाल रखा है।” रामऔतार की बीवी ननद की इस बात का क्या जवाब देती? मुस्कुराकर रह गई।
लाल कलगी जब सीना निकालकर बाँग देता था तो देखते ही बनता था। जितेन्द्र और रिंकी को लगता कि उनके मुर्गे जैसा मुर्गा किसी के पास नहीं है। वे उसे दूसरे मुर्गों से लड़ाने की योजना बनाते रहते। जितेन्द्र के साथियों के पास भी मुर्गे थे। वे लाल कलगी को छोटा दिखाने के लिए अपने मुर्गों की तारीफ शुरू कर देते। अनवर कहता, “मेरा मुर्गा चितकबरा है। ऐसा सुन्दर चमकता है कि पूछो मत।”
उदित नारायण क्यों चुप रहता? वह कहता, “अरे मेरा मुर्गा लाल है और खूब तगड़ा।”
जितेन्द्र को भी तैश आ जाता। वह कहता, “अरे तुम्हारे मुर्गों की ऐसी-तेसी। मेरे मुर्गे के सामने पिद्दी हैं सब।”
उसे दिन-रात लट्टू नचाने की आदत थी। हथेली पर लट्टू नचाते हुए कहता, “ठीक? दोनों से लगाता हूँ बाजी-तेरे चितकबरे से भी और तेरे लाल से भी। बोल लगाता है बाजी? चल ला अपने मुर्गे और लड़ाकर देख ले मेरे शेर से।” यह सुनकर दोनों कन्नी काट जाते। वे जानते थे कि उनके मुर्गे लाल कलगी से टक्कर नहीं ले सकते हैं। ऊपर से चाहे वे सब लाल कलगी को जितना भी छोटा दिखाने की कोशिश करें। भीतर-भीतर उनका मन कहता कि काश! उनके पास भी एक ऐसा तंदुरुस्त और खिलौने-सा सुन्दर मुर्गा होता।
उस दिन रामऔतार की बीवी इत्मीनान से बैठी रगड़-रगड़कर बर्तन साफ कर रही थी। लकड़ी के चूल्हे पर चढ़े हुए बर्तन जल्दी साफ भी नहीं होते। जाड़े का छोटा दिन खाना पकाते और खाते ही बीत जाता है। उसमें तीन छोटे बच्चे को देखना। जितेन्द्र तो स्वयं अपना सब काम कर लेता है। लेकिन रिंकी अपना काम नहीं कर पाती हैं। उसे भी देखना ही पड़ता है। मुनिया में ही तो उसका सारा समय निकल जाता है। रसोई और बच्चों में वह दिन-भर फँसी रह जाती है। अभी तो वह खाना बनाकर उठी थी और फिर उसे मुनिया की मालिश करनी पड़ी। उससे छूटी तो देखा कुछ पुराने अल्युमीनियम के कालिख लगे बर्तन उसके द्वारा माँजे जाने के इंतजार में हैं। इनसे भी निपट ही ले। फिर उसे बर्तन धोने बैठ जाना पड़ा। बर्तन माँजते हुए उसका दिमाग अपने पैसों पर चला गया। इधर वह मुर्गी के अंडे बेचकर पैसा जमा कर रही थी। उसे इस बात की संतुष्टि थी कि उसका घरेलू व्यापार बढ़ रहा है। वह मुर्गियों की संख्या बढ़ाने की योजना बनाने लगी। होंठों से बुदबुदाती हुई मिट्टी सनी उँगलियों पर अपने जमा किए पैसे जोड़ने लगी। सहसा उसे महसूस हुआ कि मुनिया काफी देर से अकेली थी। जितेन्द्र तो गली के लड़कों के साथ लट्टू नचाने में मशगूल था और रिंकी जमीन पर लकीर खींचकर गोटी खेल रही थी। उसने बर्तन माँजते हुए चिल्लाकर पूछा, “अरी ओ रिंकी! मुनिया को अकली छोड़ दिया?”
“नहीं लाल कलगी वहाँ है।” रिंकी ने खेलते हुए जवाब दिया।
रामऔतार की बीवी ने बेचैन होकर कहा, “जाओ, जरा मुनिया को देख आओ।”
लेकिन जब उसकी बात सुनकर भी वह खेलना छोड़कर देखने नहीं गई तो उसने जल्दी-जल्दी बर्तन खँगाले। घबराई हुई लंबे-लंबे कदम डालती जब आँगन में पहुँची तो उसने लाल कलगी को वहाँ देखा। देखकर थोड़ी आश्वस्त हुई। परन्तु उस मुर्गे का ही क्या भरोसा? कहीं उसी ने बच्चे को नुकसान न पहुँचाया हो? उसे हबीबन की बात याद आई। उसने चारपाई पर झुककर मुनिया को गौर से देखा। उसके चेहरे पर कोई खरोंच का दाग नहीं था। मुनिया मीठी नींद में सो रही थी। एक नज़र मुर्गे पर डाली। लाल कलगी पास में ही झाड़ियों में से कुछ खोद-खोदकर खा रहा था। रामऔतार की बीवी के होंठ अनायास मुस्कुरा उठे-सच! ऐसा मुर्गा जिस पर अपने बच्चों से अधिक विश्वास किया जा सकता था! उसकी सारी घबराहट दूर हो चुकी थी। वह शांत होकर बर्तन सँभालने लगी।
आज पहली जनवरी थी। आपस में सभी नववर्ष की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान कर रहे थे। चारों ओर घना कुहरा छाया हुआ था। ठंड भी काफी थी। नए साल की पहली तारीख इस कोहरे और ठंड के कारण सबको और भी प्यारी लग रही थी। आज के दिन सब अपनी-अपनी खुशियाँ जुटाने में व्यस्त थे। हर घर में कोई-न-कोई पकवान पक ही रहा था। कसाई और मुर्गे बेचने वालों को दम मारने की फुर्सत न थी। सभी जैसे सामिष भोजन करने का ही संकल्प ले चुके थे। इसके बिना नए साल की खुशी अधूरी रहती। रामऔतार की पड़ोसन हबीबन सवेरे-सवेरे अपने दो मुर्गे बेच चुकी थी। रामऔतार की घरवाली रोज़ की तरह बर्तन माँजने नल पर पहुँची तो हबीबन पानी भर रही थी। उसने बताया कि उसने चालीस-चालीस के दो मुर्गे बेचे। रामऔतार की बीवी को सुनने की फुर्सत नहीं थी क्योंकि मुनिया रो रही थी और रिंकी उसे किसी तरह सँभाले हुए थी। उस पर वह अधिक देर तक बच्चे को नहीं छोड़ सकती थी। तभी रामऔतार का साथी सुखलाल आया। वह चुपचाप बर्तन धोती रही।
सुखलाल ने कहा, “भाभी! अपना मुर्गा बेचेगी? आज नए साल के दिन साग-पात खाना नहीं सुहाता।”
बर्तन रगड़ती हुई वह बोली, “ले लो। पर क्या दोगे? हबीबन का मुर्गा चालीस में बिका है अभी। मेरे मुर्गे को तो जानते ही हो कैसा है?”
सुखलाल ने कहा, “कहने की जरूरत नहीं। मैंने देखा है। ये लो पचास। अब तुमसे क्या मोल-भाव करना?”
उसने अपनी जेब से एक कड़ा पचास का नोट निकालां रामऔतार की बहू हाथ में लगी मिट्टी धोकर फट् से उठी और आँगन में गई। लाल कलगी चर रहा था। उसने सहज भाव से बुलाया,”आ...आ.....ती.....ती.....ती.....ती.....ती....।”
लाल कलगी आज्ञाकारी बालक की तरह उसके पास आ गया। रामऔतार की बीवी को उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़-भाग भी नहीं करनी पड़ी। फिर उसने उसे पकड़कर सुखलाल के हवाले कर दिया। वह उसके हाथ से पचास का नोट लेकर आँचल के कोने में बाँधती हुई बर्तन धोने चली गई।