सौन्दर्यशास्त्र का मार्क्सवादी परिदृश्य और मुक्तिबोध / रवि रंजन

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मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र साहिेत्य और कला में अभिव्यक्त सौन्दर्यबोध के स्रोत तथा उनके स्वरूप के सामाजिक संदर्भों के मद्देनजर उन पर वस्तुपरक ढंग से प्रकाश डालता है। दूसरे शब्दों में कहें तो मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र का सारतत्त्व उसकी वस्तुपरकता तथा समाजवादी मानवता में निहित है। मार्क्स-एंगेल्स के लिए सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता का दृढ़ता के साथ प्रतिपादन इसलिए भी जरूरी हो गया था क्योंकि उनके पहले के तमाम भाववादी विचारक सौन्दर्य को हमेशा किसी अतीन्द्रिय लोक की सत्ता मानकर उसकी सामाजिक उपलब्धि को नजरअंदाज कर देने की प्रवृत्ति से परिचालित थे। ऐसे, आज भी कला, साहिेत्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय शुद्ध सौन्दर्यवादी विचारकों की कमी नहीं है जो सौन्दर्य की निरपेक्ष सत्ता में विश्वास रखते हैं। मुक्तिबोध ने ऐसे लोगों की धारणा का खंडन करते हुए लिखा है कि “आदर्शवादी भाववादी सौन्दर्यशास्त्री सौन्दर्य को मनोवैज्ञानिक संवेदनाओं के ही रूप-रूपान्तरों को मूलभत तथा चरम मानकर चलने वाले साधारण रूप से, उसको किसी अतीन्द्रिय सत्ता का आत्मप्रकाश भी मानते हैं। इन आदर्शवादी भाववादियों में अनेक पंथोपंथ है। वे मानव इतिहास की भी उसी ढंग से व्याख्या करते हैं जिस प्रकार वे जगत् की आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं। फलत: उनके लिए इतिहास, समाजशक्ति मनुष्य के परिवेश के रूप में उपस्थित होती है। वे उसे वह मूलभूत क्रिया नहीं मानते, जो मनुष्य को प्रारंभिक पाशव स्तर से उठाकर मानव स्तर तक तथा उससे भी लगातार उसकी उन्नति करती हुई आ रही है, जिसने उसकी आत्मा को वास्तविकता दी है।” इस संदर्भ में दो टूक निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं कि- “शुद्ध साहित्यिक सौन्दर्य, मात्र सौन्दर्य निरपेक्ष सत्ता स्वीकार करने वाले लोग या तो स्वयं धोखे में है, अथवा धोखा देना चाहते हैं।”

मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र मनुष्य को उसकी सामाजिक चेतना के ही अंग-अवयव के रूप में स्वीकार करता है। जाहिर है कि मार्क्स-एंगेल्स की रचनाएँ अरस्तु के ‘पोयटिक्स’ या क्रोचे के ‘एस्थेटिक्स’ की तरह किसी सुव्यवस्थित ‘सौन्दर्यशास्त्र’ का निर्माण नहीं करतीं । परवर्ती विचारकों ने अपने अकाट्य तर्कों से यह सिद्ध कर दिया है कि मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र मार्क्स-एंगेल्स के साहिेत्य विषयक निष्कर्षों की प्रतिध्वनि के बजाय उनके द्वारा प्रवर्तित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर निर्मित है। ‘ए कन्ट्रीब्यूशन टू द क्रिटीक अॉफ पोलिटिकल इकोनोमी’ की प्रस्तावना में मार्क्स ने लिखा है कि- “अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित संबंधों में बंधते हैं जो अपरिहार्य एवं उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये संबंध, उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन संबंध का पूर्ण समाहार ही समाज का आर्थिक ढाँचा है-वह असली बुनियाद है जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढाँचा खड़ा हो जाता है और जिसके अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं। भौतिक जीवन की उत्पादन पद्धति जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती है। मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उल्टे उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना को निर्धारित करता है।”

मार्क्स के उपर्युक्त कथन को केन्द्र में रख कर ही लुकाच, काडवेल, ब्रोख्त, रोजर गारोदी, फिशर आदि चिन्तकों ने सौन्दर्यशास्त्र की आधारभूत समस्यायों पर यथार्थवादी दृष्टि से विचार किया है। ये तमाम विचारक भाववादी विचारकों को कला-साहिेत्य के स्वायत्त एवं समाज निरपेक्ष अस्तित्व जैसी धारणा के विपरीत उसे श्रम की ऐतिहासिक प्रक्रिया के अंतर्गत विकसित हुआ मानते हैं जिसके तहत कला-साहिेत्य और उसके मनोगत संघटकों का विकास होता रहा है। मार्क्स की धारणा रही है कि श्रम प्रक्रियाओं के अंतर्गत ही मनुष्य में सौन्दर्यानुभूति के साथ-साथ ‘संगीतधर्मा कान’ तथा - ‘रूपद्रष्टा आँख’ की चेतना जगी और इनका विकास हुआ। इसी प्रकार एंगेल्स ने भी ‘वानर से नर’ बनने की प्रक्रिया में ‘हाथ’ की भूमिका को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानते हुए स्पष्ट किया है कि इसी की बदौलत “रायफल की सी चित्रकारी, थोवल्दिसन की सी मूर्तिकारी तथा पागानीनी का-सा संगीत आविर्भूत हो सका।” एंगेलस के इस वक्तव्य का विश्लेषण करते हुए डॉ. रमेश कुंतल मेघ अपनी पुस्तक - ‘साक्षी है सौन्दर्य प्राश्निक’ में लिखते हैं- “एंगेल्स ने सौन्दर्य सृजन को सबसे पहली समाजशास्त्रीय शर्त उस युग से मानी जब वनमानुषों के चौपायेपन का विकास होकर उनसे मनुष्यों का आविर्भाव हुआ और- जब हाथ स्वतंत्र हो गया। हाथ केवल परिश्रम का उपकरण ही नहीं, श्रम का परिणाम भी हुआ। मानवीय हाथों नें ही उत्कर्ष की भव्य ऊँचाइयाँ प्राप्त की और सुन्दरतम सौन्दर्य-सृजन किये, हाथों ने ही धनुष-बाण तथा स्पूतनिकों और अपोलो यानों का निर्माण किया, हाथों ने ही गोम्मटेश्वर की भीमकाय प्रतिमा गढ़ी, हाथों ने ही कांगड़ा के चित्र बनाये और हाथों ने ही ‘राम की शक्तिपूजा’ लिखी। अत: हाथों में सौन्दर्य-सृजन की बाह्र प्रक्रिया, कौशल समेत प्रतीक बनी।”

मनुष्य एवं संसार के दूसरे प्राणियों के द्वारा किये जाने वाले उत्पादन की प्रक्रिया के बीच मूलभत अंतर को स्पष्ट करते हुए मार्क्स-एंगेल्स कहते हैं कि “अन्य जीवधारी अपनी आवश्यकताओं एवं माप के अनुरूप ही उत्पादन करते हैं किंतु मनुष्य अपने अतिरिक्त अन्य जीवजातियों के माप और आवश्यकता के अनूरूप उत्पादन करना जानता है। मनुष्य सौन्दर्य नियमों के अनुसार ही सृजन करता है।” इसके अलावा मनुष्य द्वारा उत्पादन-प्रक्रिया की एक और विशेषता यह है कि वह सारा कुछ केवल उपयोगिता को ही ध्यान में रखकर नहीं करता बल्कि वह उपयोगिता से परे जाकर अपने संतोष, सुख एवं आनंद के लिए भी काम करता है और कई बार, ‘स्वांत: सुखाय’ किया गया उसका कार्य ‘बहुजन हिताय’ भी सिद्ध होता है। उपयोगिता से परे जाकर कार्य करने की मनुष्य प्रवृत्ति के मूल में सौन्दर्यतत्त्व की प्रेरणा को स्वीकारते हुए मार्क्स उसे मानवजाति का ऐसा क्रियाकलाप मानते हैं जिसे मनुष्य सामाजिक-ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के अन्तर्गत आत्मोपलब्धि की दिशा मे सदा प्रगति के रूप में संपन्न करता है।

मार्क्स के सौन्दर्य-तत्त्व विषयक उपर्युक्त मंतव्य को और अधिक स्पष्ट रूप में समझने के लिए यहाँ मुक्तिबोध को उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा जिन्होंने हिन्दी में कदाचित पहली बार मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र के संदर्भ में सूत्रवाक्य प्रस्तुत करते हुए ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा था कि ‘कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण। दूसरा क्षण है अनुभव का अपने कसकते दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक फैन्टेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैन्टेसी अपनी आँखों के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्द-बद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता।” कहना न होगा कि रचना-प्रक्रिया को लेकर भाववादी रचनाकारों/विचारकों द्वारा साहिेत्य-चिन्तन के क्षेत्र में उहापोह पैदा करने वाले जो भारी-भरकम वक्तव्य दिये जाते हैं उनकी रहस्यमयता को तोड़ने में मुक्तिबोध का यह वक्तव्य कितना कारगर रहा है। इसी प्रकार सौन्दर्यानुभूति के सन्दर्भ में भी उनकी धारणा भाववादी विचारकों के मुकाबले ज्यादा साफ और मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण है। सौन्दर्यानुभूति को वास्तविक जीवन की मनुष्यता बताते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं... “अपने से परे उठने और परे जाने की यह जो प्रवृत्ति है, उसी की एक विशेष शाखा है सौन्दर्यानुभूति। यह सौन्दर्यानुभूति केवल कलाकार की विशेषता नहीं है, वरन् वह उन सबकी विशेषता है जिन्हें हम मनुष्य कहते हैं। वह मनुष्यत्व का एक लक्षण है।......घर में दिनभर मेहनत करने वाली माँ और पत्नी, मारा-मारा फिरने वाला नवयुवक, अपने माँ-बाप का बोझ हल्का करने के लिए नौकरी ढंूढ़ने वाली बेटी -- इनको मानव जीवन का यह रस प्राप्त होता रहता है। इसीलिए वे जीते हैं, अपने लिए और दूसरों के लिए। सौन्दर्यानुभूति केवल कलाकार की निधि नहीं है। वह वास्तविक जीवन में, वास्तविक भावना और कल्पना का उच्चतर स्तर पर ऐसा एकाएक उत्स्फूर्त और विकसित विस्तार है, जिसमें मनुष्य की व्यक्तिसत्ता का विलोपन हो जाता है। किंतु आत्मबद्ध दशा का यह परिहार वास्तविक जीवन में, वास्तविक जीवन ही का अंग है, जिसकी सहायता के बिना वास्तविक जीवन अधिक सुखकर तथा सुगम नहीं होगा, जिसके बिना यथार्थ मानव संबंध अधिक स्निग्ध और सार्थक नहीं होंगे, जिसके बिना हम दूसरों में घुलमिल सकने के आनंंद को सघन नहीं करेंगे। संक्षेप में, सौन्दर्यानुभूति की अधिकतमता और बारंबारता जिस व्यक्ति में अधिक होगी वह अधिक मनुष्य होगा।........अपने से परे उठने और परे जाने की मनुष्य क्षमता से उसका पूरा और सीधा संबंध है। अपनी एक कविता में जब मुक्तिबोध कहते हैं कि-

समस्या एक
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों के
सभी मानव
सुखी, सुन्दर व शोषणमुक्त
कब होंगे।

- तो स्पष्ट ही यह एक एसे मानवतावादी कवि की चिंता है जो आत्मबद्ध दशा का परिहार कर मनुष्य-मात्र को ऐसी स्थिति में देखना चाहता है जिसमें कि उसे मानवोचित जीवन जीने की तमाम अनिवार्य शर्तें उपलब्ध हों। रचनाकार का यह स्वप्न, उसकी यह उदात्त अनुभूति और कुछ नहीं, सौन्दर्यानुभूति ही है। सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता को स्वीकारते हुए मुक्तिबोध ने ‘मानसिक द्रवण के क्षण को सौन्दर्यानुभूति का क्षण’ माना है। उनके अनुसार सौन्दर्यानुभूति के दो लक्षण हैं - आत्मबद्ध दशा का परिहार तथा आनन्दात्मक अनुभव।

जब ‘नयी कविता’ के बुर्ज से एकजमाने में कला-संस्कृति के क्षेत्र में शोषक वर्ग की सौन्दर्याभिरूचि के पोषक रचनाकारों द्वारा जनपक्षधर रचनाओं को सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि से विद्रूप करार दिया जाने लगा तो इसका प्रतिवाद करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा था- “ये सौन्दर्यवादी लोग भूल गये हैं कि बंजर काले स्याह पहाड़ में भी एक अजीब वीरान भव्यता होती है, गली के अंधेरे में उगे छोटे से जंगली पौधे में भी एक विचित्र संकेत होता है। विशाल व्यापक मानव-जीवन में पाये जाने वाले भायानक संघर्ष के रौद्र रूप तो उनकी सौन्दर्याभिरूचि के फ्रेम से बाहर थे। आप मुझे क्षमा करेंगे अगर मैं यह कहूँ कि ‘नयी कविता’ में आवेश के पंख काट दिये गये, कल्पना को अपने पिंजरे में पालकर रखा गया। उसे मानव-जीवन को मूत्र्त और साक्षात् करने वाली रचनात्मक-शक्ति के रूप में उपस्थित नहीं किया गया, क्योंकि वह एक विशेष प्रकार की भद्रजनोचित सौन्दर्याभिरुचि के फ्रेम के खिलाफ जाती थी।”

कहना न होगा कि वह “भद्रजनोचित सौन्दर्याभिरूचि” और कुछ नहीं सांस्कृतिक क्षेत्र में किसी युग विशेष में ऐतिहासिक तथा आर्थिक-राजनीतिक कारणों से वर्चस्व प्राप्त कर लेने वाले अभिजनों की वर्गाभिरुचि ही है, जो संस्कृतिकर्मियों को अपने विभिन्न हथकंडो द्वारा अनुकूलित करने की निरन्तर चेष्टा करते रहते हैं। जो कवि-लेखक सत्ता-व्यवस्था के द्वारा प्रदान किये जाने वाले विभिन्न पुरस्कारों एवं सुविधाओं के प्रलोभन से अपने को बचाकर अनुकूलन से जूझते हैं, उन्हें अनेकानेक विपन्न परिस्थितियाँ झेलनी पड़ती हैं और जो रचनाकार इस सत्तानुकूल का शिकार हो जाते हैं, उनकी सौन्दर्याभिरूचि प्राय: जड़ीभूत हो जाने को अभिशप्त होती है। अपनी कविताओं में ऐसे समझौतापरस्त शब्दकर्मियों की बखिया उघेरते हुए मुक्तिबोध कहते हैं-

1

राजनीति, साहिेत्य और कला के प्रतिष्ठित महासूर्य
बड़े-बड़े मसीहा
सरकस के जोकर से रिझाते हैं निरंतर
नाचते हैं कूदते हैं
शोषण में सिद्धहस्त स्वामियों के सामने।

2

दुनिया को हाट समझ
जन-जन के जीवन का मांस काट
रक्त-मांस विक्र य के
प्रदर्शन की प्रतिभा का
नया ठाठ,
शब्दों का अर्थ जब
नोच-खसोट लूट पाट।

(मुक्तिबोध रचनावली, भाग 2, पृ 44)

कला, साहिेत्य, संस्कृति ही नहीं; मानव-सक्रियता के किसी भी क्षेत्र से जुड़ा मनुष्य जब व्यवस्थानुकूल के इस शैतानी ढँाचे में फिट होने से इंकार कर देता है तो भले ही यह कुछ लोगों के लिए ‘सिनिकपन’ हो किंतु उसका इंकार वस्तुत: व्यवस्था द्वारा निर्धारित एवं स्वीकृत तमाम मूल्यों एवं मानदण्डों के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। ये मूल्य-मानदण्ड सामाजार्थिक और राजनैतिक ही नहीं, सांस्कृतिक एवं सौन्दर्यशास्त्रीय भी होते हैं जिन्हें प्रतिबद्ध कवि बेहिचक नकार देता है-

नामंजूर उसको
जिन्दगी को शर्म की सी शर्त नामंजूर।

(मुक्तिबोध रचनावली, भाग 2, पृ 391)

अदोल्फो सांचेज वास्कवेस ने ‘सौन्दर्य बोध के रुाोत और स्वरूप के बारे में मार्क्स के विचार’ का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि- “सौन्दर्यशास्त्र को मार्क्स महान योगदान मनुष्य और यथार्थ के बीच एक विशिष्ट संबंध के रूप में सौन्दर्यबोध के बारे में उनकी वह धारणा है जिसके अनुसार सौन्दर्यबोध प्रकृति का रूपांतरण करने और मानवीय वस्तुओं का जगत निर्मित करने की प्रक्रिया में ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से विकसित हुआ है।” अपने इसी निबंध में आगे वे मनुष्य की सौन्दर्य-संवेदना तथा सौन्दर्यपरक संबंध के सामाजिक स्वरूप पर प्रकाश ड़ालते हुए उसे उपयोगितावाद से पृथक बताते हैं- “सौन्दर्य-संवेदना तभी प्रकट होती है जब मानवीय संवेदना इस हद तक समृद्ध हो चुकी होती है कि वस्तुएँ प्रमुखत: और सारत: मानवीय यथार्थ, सारभूत मानवीय शक्तियों का यथार्थ बन जाती हैं। वस्तुओं के गुणों को सौन्दर्यपरक गुणों के रूप में तभी देखा जाता है जब उन्हें प्रत्यक्ष उपयोगितावादी अर्थ में नहीं समझा जाता, जब वे खुद मनुष्य की अभिव्यक्ति और उसका सार हो जाते हैं। खास तौर पर कला-रचना आमतौर से वस्तुओं के साथ बनने वाले सौन्दर्यपरक संबध मानवता के समूचे इतिहास के फल हैं और इसके साथ ही ये दोनों उन सर्वाधिक विकसित साधनों में हैं जिनसे मनुष्य वस्तु जगत में अपने को स्थापित करता है।”किंतु, इसका मतलब यह नहीं कि मार्क्सवादी विचारक साहिेत्य, कला आदि को अनुपयोगी मानते हैं। ‘1844 की आर्थिक एवं दार्शनिक पाण्डुलिपि’ में मार्क्स ने साफ लिखा है कि श्रम के किसी ऐसे उत्पाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती जो भौतिक अर्थ में अनुपयोगी हो। भाववादी तथा यांत्रिक भौतिकवादी सौन्दर्यशास्त्र से भिन्न मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र श्रम के उच्चतर रूप में कला साहिेत्य आदि को मनुष्य की सौन्दर्यबोधात्मक क्रिया की अभिव्यक्ति के रूप में मान्यता देता है जिसकी मानवीय और सार्वभौम उपयोगिता होती है। दूसरे शब्दों में यदि कहें तो मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र के अनुसार साहिेत्य एवं कला-सृजन मनुष्य द्वारा संपन्न ऐसा सांस्कृतिक क्रिया-व्यापार है जो कुदाल को कलम से ओछा मानने के बजाय श्रम में सौन्दर्य की सत्ता देखता है। काव्य-क्षेत्र में उपलब्ध इस बात के अनेकानेक प्रमाणों में एक मुक्तिबोध एवं केदारनाथ अग्रवाल की नीचे उद्धृत काव्य पंक्तियाँ हैं, जिनमें शारीरिक श्रम एवं शब्दकर्म के बीच द्विभाजकता को साफ तौर पर नकारा गया है-

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय
चांद उगता है व
पानी में झलमलाने लगता है
ह्मदय के पानी में. -मुक्तिबोध

2

छोटे हाथ परिश्रम करते,
र्इंटों पर ईटे धरते हैं.
मधुमक्खी से तन्मय होकर
मधुकोषों से घर रचते हैं

। । ।

छोटे हाथ गुनी-ग्यानी हैं,
मौलिक ग्रंथों को रचते हैं

। । ।

मानव की सुन्दरतम कृतियां
मानव को अर्पित करते हैं.

- केदारनाथ अग्रवाल

इस संदर्भ में अंतत: जार्ज लुकाच को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा जिन्होंने ‘समाजवादी मानवता’ को ‘मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र’ का सार बताया है- “समाजवादी मानवता ही प्रगतिवादी सौन्दर्यशास्त्र एवं वस्तुवादी ऐतिहासिक चेतना का सार है। यह वस्तुवादी चेतना सामग्रिक भाव से मूलाधार का संधान करती है किंतु पुष्प के आह्लादकारी सौन्दर्य की उपेक्षा नहीं करती, बल्कि ठीक इसके विपरीत इतिहास की वस्तुवादी चेतना एवं प्रगतिवादी सौन्दर्यशास्त्र इस मूलाधार एवं फल के सजीव संपर्क को अविच्छेद मानने के पक्ष को मजबूत बनाता है।” एक अन्य स्थान पर लुकाच ने साफ लिखा है कि “मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र उस प्रश्न का हल ढूंढ़ लेता है, जिससे महान लोग एक अरसे से उलझे रहे हैं। (और जो प्रश्न छोटे लोगों की समझ में इसलिए नहीं आता था कि वे लोग छोटे थे)। यह प्रश्न है, किसी कलाकृति के स्थायी सौन्दर्यमूल्य को उस ऐतिहासिक प्रक्रिया का अंग बनाना जिससे वह कृति अपनी पूर्णता और सौन्दर्यमूल्य में ही वस्तुत: अविभाज्य होती है।......चूँकि महान कलाकार गतिहीन वस्तुओं और स्थितियों को नहीं प्रस्तुत करता, बल्कि प्रक्रिया की दिशा और रूझान को व्यक्त करने की कोशिश करता है, इसलिए उसे इस प्रक्रिया के स्वरूप की अच्छी समझ होनी चाहिए और इस प्रकार की समझ बिना पक्षधरता के नहीं आ सकती।”

समग्रत: यह कहा जा सकता है कि ‘मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र’ कला का विरोधी नहीं कलावाद का विरोधी है। वह ‘शैलीवाद’ का विरोधी तो है किंतु शैली के किसी प्रकार-विशेष से उसका विरोध नहीं है। इसी तरह ‘प्रकृतवाद’ से विरोध होने के बावजूद वह किसी प्रकृत-सत्य का विरोधी नहीं है। वह कला-साहिेत्य आदि के क्षेत्र रूपवादी रूझान का जितना विरोधी है, सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता में विश्वास रखने के बावजूद ‘वस्तुवाद’ से उतना ही अलग है। सौन्दर्य को लेकर वह किसी भी प्रकार के अमूर्तन या अतीन्द्रीयता की धारणा को स्वीकार भले न करता हो पर कला-साहिेत्य के लिए सौन्दर्य तत्त्व को अपरिहार्य मानता है। निराला के एक काव्यांश से विचारसूत्र लेकर यदि कहें तो वैज्ञानिक यथार्थवादी लेखक की रचनादृष्टि में ‘चारु चयन’ (ॠड्ढद्मद्यण्ड्ढद्यत्ड़ च्ड्ढथ्ड्ढड़द्यत्दृद) की वही अनिवार्य भूमिका है जो हरे पत्ते में जल की, पुष्प में सुरभि की, फल में बीज की तथा उपवन में पक्षियों के कलरव को होती है-

“पल्लव में जल, सुरभि सुमन में
फल में दल, कलरव उपवन में
लाओ चारु चयन चितवन में”. - -निराला

किंतु, इस संदर्भ में यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि आज के बदलते माहौल में हम ‘चारुता’ की पुरानी धारणा से चिपक कर नहीं रह सकते। यदि इस कड़वे सत्य से हम मुंह चुरायेंगे वो हमारी ‘चारूता’ कभी ‘प्रियषुसौभाग्यफला’ नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में कहें तो हम उस जड़ीभूत सौन्दर्याभिरूचि के शिकार हो जायेंगे जिससे मुक्ति का आह्वान करते हुए सन् 1936 में ही प्रेमचंद ने कहा था - ‘हमें हुस्न का मेयार तब्दील करना होगा’ क्योंकि- ‘अभी तक उसका मेयार अमीराना, ऐशपरवाना था।’ उन्होंने ‘जीवन संग्राम में सौन्दर्य का परमोत्कर्ष’ देखने की जो राय दी थी वह आज भी हमारे लिए उतनी ही प्रासंगिक है। यह सुखद है कि हमारे समय-समाज के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण शब्दकर्मी अपने जमाने की ‘हाइपर रियालिटी’ से पूरी तरह वाकिफ हैं। ब्रोख्त की शब्दावली में कहें तो वे ‘अंधकार के युग में भी अंधकार के बारे में कविता’ लिख रहे हैं। इस रुाोत सामग्री से ही मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र को अपने भावी विकास के लिए ऊर्जा प्राप्त हो सकती है। इसको नजरअंदाज करके या इससे कटकर यदि कोई सौन्दर्यशास्त्र विकसित होता है तो वह ब्रोख्त के शब्दों में कालान्तर में ‘उत्पादन का शत्रु’ ही सिद्ध होगा, उसकी भूमिका सृजन-विरोधी होगी।