सौ के नोट / तुषार कान्त उपाध्याय

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विष्णुदत्त आज भोर हीं से कुछ-कुछ बेचैन बाड़े। गर्मी के ऐह घोर दोपहरिया में उनका ए।सी। लगल कमरा थोड़कियो ठंडा करे में हार जाता। देह त ठंडाता बाकि मन के बेचैनी कतहूॅं चैन नइखे लेवे देत। तीन महीना में इ प्रोजेक्ट बंद हो जाई।

इ अंर्तराष्ट्रीय एनजीओ दुनियां के तमाम पिछड़ल देशन में अलग-अलग विचार व मुद्दा के 'प्रोजेक्ट' ले के आवे ली। सरकार व समाज के बड़ा मदद मिले ला। बाकि कुछ ही दिन में उनकर समय खतम अउरी प्रोजेक्ट बंद। जैसे खंभा पर टिकल कउनो झोपड़ी के खंभा हट जाए अउरी झोपड़ी धड़ाम से गिर जाय। फिर उन मुद्दन के देखे वाला केहू ना रह जाइला। अउरी उ प्रोजेक्ट में काम करे वाला लोग फिर दूसरा जगह जाए के जोड़-तोड़ में लाग जाले।

अठाहरह साल से विष्णुदत्त अइसहीं एनजीओ के प्रोजेक्टन में नौकरी करे ले। ऊंचा तन्ख्वाह, बढ़िया सुख-सुविधा आ जीवन के हरेक ज़रूरत के पूरा करेके साजो-समान। बाकि प्रोजेक्ट के बंद होइला पर फिर उहे उहा-पोह। त अब विष्णुदत्त के प्रोजेक्ट के भी अंतिम समय आ गईल बा। बहुत से साथी-संगी दूसरा जगह निकल गइले। जौन लोग के कहीं मौका न मिलल उनकर बेचैनी उ हे समझत बाढ़े। उनकर कुल संगी लोग कमोबेश ऐही दशा से गुजर रहल बा।

कोठरी में अनायस ऐने से ओने टहलत उन कर माथा भिनभिना जाता। अतना किश्त, बच्चन के पढ़ाई लिखाई, घर के खर्च कइसे चली। बचा के कुछ रखले ना। उनकर आँख सामने रखल किताबन के अलमारी पर टिक जाता। ऐने से ओने किताबन के उलटत। अचके में उनकर नजर कोना में रखल ऐगो लाल रंग के डायरी पर टिक जाता। पूरा जिनगी में विष्णुदत्त इहे ऐगो डायरी लिखले बाड़े। न कौउनो साल, ना कौउनो समय के महत्त्व। बस जीवन के कुछ घटना। डायरी के पन्ना पलटत उनकर हाथ में "सौ के ऐगो नोट" आ जाता। संभाल के दो पन्ना के बीच में रखल जइसे छाती करेजा के संभार के रखेले। उलट-पुलट के नोट के सहलावत विष्णुदत्त पच्चीस साल पहले चल जातरे।

आपन साइकल लिहले विष्णुदत्त प्रो। तिवारी के नया बन रहल मकान प पहुंच गइले। जून के दोपहरिया में अपना कॉलोनी से प्रो। तिवारी के घर आ फेर उनका नया बन रहल मकान तक जाय में उन कर जैसे खून निचूड़ गइल होके। साइकिलो त बाबूजी के जमाना के मरम्मत कराके कइसहूँ चढ़े लाइक बनल रहे। बाकि पैदल से त ढ़ेरे निमन रहे। समय त कम से कम बाच जात रहे। सिविल सेवा के परीक्षा के धुन कउनो निशा से कम थोड़े होला। एकरा आगे का जाड़ा, का गरमी अ बरसात। बस एगो धुन परीक्षा के तैयारी।

प्रो। तिवारी अपना विश्वविद्यालय के चर्चित प्रोफेसर रहले। आ उ सिविल सेवा के परीक्षा के तइयारी खातिर एगो कोचिंग खोल देले रहल। जइसे जइसे उनकर विद्यार्थी लोग सफलता के झंड़ा गाड़स। कोचिंग में भीड़ बढ़ते जात रहल। अउर प्रो। तिवारी के नाम और यश दिनों दिन दूर तक फैइले लागल रहे। उ जतने विनम्र रहले उतने व्यवहारिक। हिसाब किताब भी बड़ा साफ राखस।

विष्णुदत्त के बाबूजी सरकारी नौकरी में ऊंचा पर रहले। पूरा जिनगी सम्मान अ ईमानदारी से बितोउले। परिवार अउर हितनाता खातिर जतना हो सकल सब कइले। लेकिन तबीयत एइसन बिगड़ल कि बरिस गुजर गइल बिछावन अ अस्पताल में। तन्ख्वाह बन्द। रखल पइसा डॉक्टर अउर दवाई में अउर बाकि घर चलावे में। घर अब धीरे-धीरे फांका मस्ती की ओर बढ़े लागल रहे। सरकार त प्रार्थना अपना हिसाब से सुने ले। हित नाता कहाँ भुला गइले पता ना।

बड़ा उम्मीद लेके विष्णुदत्त प्रो। तिवारी से मिले के हिम्मत जुटउले रहले। उनका पता रहे कि उनकर फीस देवे के औकात नइखें। तबो थोरकी त स्वजातीय होकला के चलते अनहरा में अजोर के एगो किरिन लौकत रहे। भर रास्ता उ मन ही मन आपन एकक गो शबद के चुनत जात रहले। उ अइसे कुछ बात रखिहें कि प्रोफेसर साहेब पढ़ावे खातिर ज़रूरे तइयार हो जइहें। अगर उ परीक्षा में चुना गइले त सुद मूर के साथ कुल फीस उनकर गोड़ पर राखि देहें। पूरा जिनगी उनकर ऐह अहसान के कइसे भुलावल जा सकेलें।


प्रोफेसर तिवारी के चेहरा अचानक तमतमा गइल। बड़ा धीरज से उ पूरा बात सुनले रहले।

'आजकल के लइका लइकी तनिका-सा पइसा बचावे खातिर कइसन कइसन कहानी गढ़ ले तारे। आ भेषो भूषा अइसन बना लिहें कि अचके में विश्वास करे के मन हो जाइ। लेकिन हमनि के रात दिन इहे त देखत बानी जा युर्निवसिटी में।' अपना बगल में बइठल ऐगो परचित की ओर मुंह करके प्रोफेसर तिवारी बड़ा खिस भरल भाषा में कहले। उनका चेहरा लाल हो आइ रहे। अउर देह तमतमा गइल रहे।

विष्णुदत्त के मालूम रहे कि इ कुल बात उनके से कहल जा रहल बा। चुपचाप उठले प्रोफेसर तिवारी के गोढ़ छूअले आ अपना घर के ओर। अब तो उनका संगे अकसरे अइसन होत रहे।


“कुछ लेवे के बा सर! “ घरेलू साजो-समान बेेचे वाला उ बड़का शो रूम में प्रोफेसर तिवारी के गोड़ छूअत सामने आके खड़ा होगइले। प्रोफेसर थोरकी-सा दिमाग पर जोर देके पहचान गइले।

“अरे शुक्ला! विष्णुदत्त ना? कुछ लेबे आइल बाड़ा का। हम तो अपना घर खातिर कुछ गीजर खरीदे आइल रहनि ह। घर में बच्चा बड़ा जिद करत रहले ह।” साथे आइल अपना बेटी की ओर इशारा करत प्रोफेसर ऐके सांस में बोल गइले।

'जी ना सर।'

'त'

'सर! हम अइजा सेल्समैन के नोकरी करेनी।'

'अरे!' जइसे प्रोफेसर के कुछ सुनात ना होखे। उ धीरे-धीरे शो रूम की ओर कोना में जाके चुपचाप खाड़ हो गइले।

'दस मिनट खातिर छुटटी मिल सकेला का विष्णुदत्त' जइसे उ अपन दुनियां से वापस लौटत। विष्णुदत्त से पूछले।'

'जी! का करे के बा सर।'

'कुछ ना हमरा संगे बगल के रेस्तरां में ऐगो एक कप कॉफी।'

विष्णुदत्त शो रूम के मालिक से छुटटी लेके प्रोफेसर तिवारी आ उनका बेटी के पीछे-पीछे हो लिहले। रेस्तरां के लाउंज में बइठत प्रोफेसर तिवारी कॉफी अउर पनीर पकौड़ा के ऑर्डर दे दिहले। अउ जब तक बेयरा सामने टेबल पर इनकर आदेश के पूरा करे तब तक सब लोग चुपचाप बैठइल रहले।

'ओह! त रउवा ठीके कहत रहनी ह' थोड़ी देर के बाद प्रोफेसर तिवारी जइसे अपना आपे से बात करत होखस।

पनीर पकौड़ा के टुकड़ा उठावत विष्णुदत्त कनखी से देखले, प्रोफेसर तिवारी आपना आँख के भिजत कोर अउर ओकरा के रोके के नाकाम कोशिश में चेहरा गिल क लेले रहले।

'रउवा के छुटटी कब मिलेला विष्णुदत्त'

'जी ऐतवार के।'

'तब ऐतवार के हमरा घर पर ज़रूर आइब।'

विष्णुदत्त आँख झुकउले अपना भिंगत मन में चुपचाप उनकर बात मान लिहले।

ऐतवार के प्रोफेसर तिवारी ऐगो नया रूप में मिल ले। पूरा स्नेह अधिकार के साथ। आखिर पढ़ाई कइसे होखे पावत होई विष्णुदत्त। आपन वाजिब चिन्ता जतावत विष्णुदत्त के सारा नोट और ढ़ेर सारा किताब एक साथे पकड़ा देहले।जिद करके खाना खिउले आ चले के बेर पूछ लेहल।

'कइसे अइनी ह घर से।'

'जी, बीचे बीच पइदले चल अइनी ह।'

'प्रोफेसर तिवारी पॉकेट से”सौ रूपया के नोट”विष्णुदत्त के पॉकेट में बरियारी ठूसत। आदेश भरल लहजा में कहले। ऐने से टैम्पू से जाइब।'

विष्णुदत्त घरे आ गइले। लेकिन उ सौ रूपया के नोट आज भी उनका पास ओईसहीं पड़ल बा।

'पापा! चाय पी लीजिये' पता न कितना देर के बाद विष्णुदत्त के तंदरा टूटल रहे बेटी के आवाज सुनकर।

आह! जब ओह दिन से निकल अइनी तो कुछ न कुछ रास्ता बन ही जाइ।

ओ नोट के डायरी के बीच में सुरक्षित राखल विष्णुदत्त के चेहरा फिर से ऐगो नया उम्मीद से भर गइले रहे।