सौ बटा सौ / अंजू खरबंदा
रामू बगिया में पिता के साथ पौधे रोपने और गुड़ाई करने में मदद कर रहा था।
"क्यूं रे रामू, पेपर मिल गये क्या!"
बड़ी मालकिन ने अचानक आकर पूछा तो रामू सकपका गया।
"जी... जी... मिल गये!"
हकलाते हुए उसने जवाब दिया।
"कितने नम्बर आए!"
रोबीली आवाज़ में पूछा गया।
"35..."
"सिर्फ 35... कुछ शर्म हया है कि नहीं! देखता भी है कि सारा दिन तेरा बाप खटता है! क्या ज़रा भी दया नहीं तेरे मन में!"
जोरदार डांट पड़ी और अभी जाने कितनी ही देर पड़ती रहती कि अचानक से बापू बीच में आ गये।
"मालकिन! सारा दिन ये भी तो खटता है मेरे साथ! स्कूल से आते ही कपड़े बदल जल्दी-जल्दी खाना खा, मेरे लिये खाना लेकर आता है और फिर मेरे साथ ही काम पर जुट जाता है और फिर घर पहुँच कर देर रात तक पढ़ता भी है।"
"पढ़ाई के बिना आजकल कुछ नहीं। इसके भले के लिये ही समझाती हूँ!"
बड़ी मालकिन ने समझाने के लहजे में कहा।
"जो बच्चा अपने पिता के प्रति दयाभाव रखे, उससे बड़ी बात और क्या होगी मालकिन!"
"और नम्बर...!"
"भले ही इसके पढ़ाई में 35 नम्बर आये... पर मेरी तरफ़ से तो सौ बटा सौ ही हैं।"