स्कूटर / सुकेश साहनी
एक बहुत बड़ा कमरा है-उसमें अनगिनत स्कूटर खड़े चमचमा रहे हैं। उनके बीच वह फटी जेबों में हाथ डाले खड़ा कुछ सोच रहा है। कमरे के तापमान के साथ ही उस पर एक विचित्र दबाव भी बढ़ता जा रहा है। तभी उसे लगा कि वह अपने शरीर पर नियंत्रण खोता जा रहा है। पैरों की तरफ से उसका शरीर एक स्कूटर में तबदील होने लगता है। पहले पिछला पहिया, बॉडी,सीट....फिर उसके हाथ हैण्डिल के रूप में और सिर माइलोमीटर में बदल जाता है। माइलोमीटर वाले भाग से वह अपने चारों ओर देख सकता है।
सुनील ने उसे अपने घर के बाहर सड़क पर खड़ा कर रखा है। नया स्कूटर पाकर वह बहुत खुश है। वह मस्ती में गुनगुनाता हुआ ‘किक’ मारता है। उसे इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं है कि स्कूटर के रूप में ससुर महोदय सामने खड़े हैं। सुनील से थोड़ा हटकर सरोज भी खड़ी है। वह अत्यन्त उदास है। सुनील उसे गेयर में डालता है और वह उन दोनों को बिठाए सड़कों पर दौड़ने लगता है। रिज़र्व का संकेत देने के बावजूद सुनील उसे दौड़ाता रहता है, पर चाहे स्कूटर हो या आदमी, बिना पेट्रोल या खून के कौन कितना दौड़ सकता है।
‘‘तुम्हारे बाप ने स्कूटर के नाम पर ये खटारा मेरे पल्ले बाँध दिया है....’’सुनील पत्नी पर चिंघाड़ रहा है-‘‘अपने बाप से कहो, इसे दुरुस्त कराए। छह महीने से पेट्रोल के पैसे भी नहीं भेजे, साले धोखेबाज!’’
‘‘इसे दौड़ना ही होगा!!’’ सुनील ज़ोर से स्कूटर पर लात जमाता है-‘‘वरना...मैं....’’ वह कोने में रखी मिट्टी के तेल की केन की ओर देखता है।
‘‘नहीं!!’’ वह बेबसी से अपने बूढ़े जर्जर शरीर को देखता है-‘‘उसे मत मारना....’’
वह जाग गया। शरीर पसीने-पसीने हो रहा था। वह बुरी तरह हाँफ रहा था। दिल की धड़कन अनियंत्रित होकर कनपटियों पर हथौड़े-सी चोट कर रही थी।
‘‘क्या हुआ जी? कोई बुरा सपना देखा है क्या?’’ पत्नी घबराई-सी उसकी ओर देख रही थी।
सपने के प्रभाव से वह अभी तक मुक्त नहीं हुआ था। उसने दीवार घड़ी की ओर देखते हुए सोचा....सुबह के पाँच बज गए....दिल्ली से आने वाली सभी गाड़ियाँ निकल गई होंगी।
‘‘सुनील आज भी नहीं आया!’’ काँपती कमज़ोर आवाज़ में उसने कहा।
‘‘लगता है तुम्हारी गिड़गिड़ाती चिट्ठियों का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ है।’’ दीर्घ निःश्वास के साथ वृद्धा ने कहा-‘‘आज पूरे छह महीने हो गए सरोज को यहाँ आए।....अब तो उसकी सूरत देखकर कलेजा फटने लगता है...’’
कमरे में विचित्र-सा सन्नाटा पसर गया। दोनों ने एक-दूसरे से नज़र चुराते हुए अपने आँसू पोंछ लिये।
(हंस, फरवरी, 1990)