स्टीवन स्पिलबर्ग की नई फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
स्टीवन स्पिलबर्ग की नई फिल्म
प्रकाशन तिथि :20 मई 2016


स्टीवन स्पिलबर्ग की नई फिल्म 'बीएफजी' कॉन फिल्म समारोह में दिखाई गई। यह रोनाल्ड डॉल के उपन्यास से प्रेरित फिल्म है, जिसमें एक मित्रवत दैत्य केंद्रीय पात्र है और वह शाकाहारी भी है। संभव है कि स्टीवन स्पिलबर्ग यह संकेत दे रहे हैं कि रक्त के प्यासे, हिंसक विचारों वाले लोग सत्ता में हैं और ये शाकाहारी भी हैं। एक अघोरी ने विदेश में मैला खाने का तमाशा रचा। आधा दर्जन रकाबियों के मैल को खाने वाले अघोरी ने सातवीं प्लेट को खाने से यह कहकर इनकार किया कि इसमें मक्खी पड़ी है जैसे सांप्रदायिकता की हिंसा फैलाने वाला नेता स्वयं को शाकाहारी कहता है।

याद आती है जिया सरहदी की पांचवें दशक में प्रदर्शित दिलीप कुमार अभिनीत 'फुटपाथ' जिसमें अनचाहे नकली दवा के कारखाने में काम करने वाला व्यक्ति अदालत के कठघरे में खड़ा रहकर कहता है कि उसे अपनी सांसों में हजारों मृत देहों की दुर्गंध महसूस होती है। दिलीप कुमार ने यह संवाद भावना की इस गहराई से अदा किया था कि दर्शक की सांस रुक जाती थी और वह उस तरह की दुुर्गंध को अपनी सांसों में महसूस करता-सा लगता था। यह अदाकारी का जादू था। प्राय: तानाशाह शाकाहारी हुए हैं। वे उस अघोरी की तरह हैं, जो अन्याय आधारित संरचना करता है परंतु मक्खी पर उसे एतराज है। यह सृजन रहस्य की महिमा है। बहरहाल, स्टीवन स्पिलबर्ग कहते हैं कि दुनिया जितनी अधिक असहिष्णु होती जाती है, अवाम को उतना अधिक जादू पर विश्वास करना चाहिए, जिसका यह अर्थ भी हो सकता है कि हम तर्क से अन्याय को पराजित नहीं कर सकते तो जादू पर यकीन करें कि किसी दिन कोई जादूगर सामरी हमें न्याय आधारित, समानता पर आधारित संसार देगा। इस तरह जादू पर यकीन करना हमारी हताशा को अभिव्यक्त करता है। हम पूरी तरह नाउम्मीद हो चुके हैं। शम्मी कपूर निर्देशित 'बंडलबाज' में नायक और बोतल से निकला जिन्न नायिका को बचाने के लिए पहाड़ पर चढ़ रहे हैं। इस समय जिन्न की शक्तियां निरस्त की जा चुकी हैं, अत: वह सामान्य व्यक्ति की तरह पहाड़ पर चढ़ते हुए कहता है कि आज उसे मालूम हुआ कि आम आदमी की तरह जीना कितना कठिन है। हम उस तरह के नागरिक हैं, जिनके अधिकार निरस्त किए जा चुके हैं गोयाकि अघोषित आपातकाल में पहुंच चुके हैं।

इस बुनावट की गहराई पर ध्यान दीजिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जस की तस कायम होने का भ्रम रचा जा रहा है। एक बड़ा वर्ग ऐसा हो चुका है कि उसने अपने विचार तंत्र को निरस्त कर दिया है। वह पढ़े-लिखे शब्दों के बादलों से रस्मी तौर पर गुजरता है परंतु न तो उसके भीतर छुपी बिजली को थामता है और न ही उसकी आर्द्रता उसे छूती है। यह सबसे भयावह संरचना है कि संविधान के परे वैचारिक आतंकवाद का सृजन अत्यंत चतुराई से किया गया है। चाबी भरे खिलौनों की तरह हम थिरक रहे हैं। 'पाखी' पत्रिका के ताज़े अंक में प्रेम भारद्वाज ने कमाल का संपादकीय लिखा है! सूखेपन के सूखे का इंताजार आपको विचलित कर देता है। कई दशक पूर्व काफ्का ने संवेदनहीन पात्र की रचना की थी। आज हम वैसे ही जाने-पहचाने अजनबियों के संसार में विचरण कर रहे हैं। फिल्म विधा के जन्म के समय ही उसका रिश्ता जादू से हो गया। पेरिस में 1895 में प्रथम प्रदर्शन के समय जादुगर जॉर्ज मेलिएस दर्शक दीर्घा में मौजूद थे और उन्होंने कहा था कि इस विधा के प्रयोग से वे अपने जादू के तमाशे को अधिक आकर्षक बनाएंगे और जादू की ट्रिक्स से फिल्म विधा को सवारेंगे। जादुगर जॉर्ज मेलिएस ने 'ए ट्रिप टू मून' बनाकर फिल्म विधा में विज्ञान फंतासी का समावेश किया। फिल्म माध्यम का अपना जादू भी है, जो दर्शक के सिर पर चढ़कर बोलता है। तानाशाह हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स ने ऐसी प्रचार फिल्में रचीं, जिसमें हिटलर 'लार्जर देन लाइफ' लगे और दिव्यता के प्रकाश वृत्त में वह अवाम को नज़र आए। ये फिल्में लेनी रिफेंशताल नामक महिला ने शूट की थीं। आज टेलीविजन पर खबरें प्रसारित करने वाले चैनल भी उसी तरह का भ्रम रच रहे हैं और सत्तासीन लोगों को गौरवान्वित कर रहे हैं। तानाशाह के गिर्द दिव्यता का प्रकाश वृत्त रचा जा रहा है। गली के नुक्कड़ पर हुड़दंगी इसी प्रकाश वृत्त का लाभ उठाकर मनमानी कर रहे हैं। सारा खेल इस चतुराई से प्रस्तुत किया जा रहा ै कि व्यवस्था के नाम पर व्यवस्था टूटने का भ्रम ऐसा रचे कि लगे अवाम स्वयं चाहता है कि सफेद घोड़े पर सवार कोई तानाशाह आ जाए। यह तानाशाही को निमंत्रित करने का काम है, जो गणतंत्र व्यवस्था के तहत किया जा रहा है। ऐसी उलटबासी तो कबीर भी नहीं रच पाए।

भारत एक गूढ़ पहेली है। तर्क को तिलांजलि देकर जादू में विश्वास जगाने की प्रवृत्ति के कारण ही नीरद चौधरी ने अपनी किताब 'कांटिनेंट ऑफ सिरसे' रची। भारत को समझने से अधिक महत्वपूर्ण है, उसे महसूस करना। भारत एक भावना है। इसी भावना से मित्रवत दैत्य संचालित होता है और इसी से साधु सक्रिय रहता है। दैत्य और साधु की रचना का उद्‌देश्य मनुष्य को अर्थहीन सिद्ध करना है। यह भी जादू है, जो दरअसल, साहिबान, हाथ की सफाई और आंखों का भ्रम है।