स्तब्ध / सत्या शर्मा 'कीर्ति'
मेरे दरवाजे खटखटाने से पहले ही पीले चेहरे और अस्त-व्यस्त से कपड़ों में फीकी हँसी के साथ दरवाजा खोल उन्होंने सहज भाव से पूछा—"आ गईं आप।"
"पर आपको कैसे पता चला मैं अभी आऊँगी?"—चौंककर पूछा मैंने।
"चिंता लगी रहती है न बच्चों की। कोई ढंग की टीचर मिल जाए, तो बच्चों की अच्छी पढ़ाई-लिखाई हो जाए. बच्चे अच्छे संस्कार सिख लें बस।
फिर मैं भी इत्मीनान से चली जाऊँगी "-गहरी चिंता में डूब कर उन्होंने कहा।
"हाँ, मैंने भी सुना है बच्चों की माँ कई दिनों से गायब है अब कोर्ट ने भी उन्हें मृत मान लिया है।" एक ठंडी आह भरकर कहा मैंने।
हम्म ...कह कर उन्होंने अपने होठों को भींच लिया। चन्द ही पलों में जाने कितने भाव उनके चेहरे पर आए और चले गए.
"गायब हो गई या ससुराल वालों ने गायब कर दी?"-लगा जैसे किसी गहरे कुएँ से आवाज आ रही हो।
मैंने चौंककर पूछा "क्या कहा आपने? क्या आप सब कुछ जानती हैं?"
सामने दीवार की ओर देखते हुए उन्होंने कहा-"हाँ, सब कुछ जानती हूँ।"
मेरी नजर दीवार की ओर गई और जैसे मेरा सर्वांग हिलइ-सा गया हो। वही पीले चेहरे बाली स्त्री सजी-धजी खूबसूरत-सी साड़ी में दीवार में लगे फ्रेम में चंदन की माला पहने मुस्कुरा रही थी।
डर और घबराहट से मेरी नींद खुल गई.
आज मुझे उसी पते पर बिना माँ के बच्चों को पढ़ाने जाना था।