स्त्रियाँ / बालकृष्ण भट्ट
स्त्रियाँ किसलिये हैं-हमारे शास्त्रों के अनुसार मर्द को सुख पहुँचाना इनका मुख्य काम है-'न स्त्रीस्वातन्त्र्यमर्हति' मनु के इस वाक्य का भी यही प्रयोजन सिद्ध होता है। मर्द हर हालत में और तीनों पन में स्त्रियों का मुहताज रहता है। बचपन से बुढ़ापे तक बिना इनके अपना काम न चलता देख मनु महाराज ने यह लिख दिया कि मर्द इनको अपने ताबे में रख इनसे काम निकाला करे। स्त्री और पुरुष दो जाति के बीच जैसा परस्पर का बर्ताव है उससे हमारी ऊपर की बात कि स्त्रियाँ पुरुषों के सुख के लिये हैं अच्छी तरह स्पष्ट है। अलावे मुहब्बत के माता अपने पुत्र को पालना, रोग-दोख, घाम-छांव से बचाये रखना अपना मुख्य काम समझती है। बहन अपने भाई का, देवरानी अपने देवर का सब काम कर देना अपना धर्म मानती है। स्त्री अपने पति को आराम और हर्ष पहुँचाना अपने लिये सबसे श्रेष्ठ काम वरन् अपने जन्म की सफलता मानती ही है इसे कौन न स्वीकार करेगा।
किसी-किसी देश में जहाँ सभ्यता अपनी चरम सीमा को पहुँची है स्त्रियों को मरदों के बराबर का दावा है यहाँ तक कि अमेरिका में स्त्रियाँ फौज तक में भरती हैं। इंग्लैण्ड में कितनी स्त्रियाँ बैरिस्टर हैं किन्तु हमारे यहाँ इसकी चलन नहीं है इसलिये स्त्रियों की दशा के परिवर्तन पर बहुत जोर होना व्यर्थ है। मकान की दुरुस्ती, लड़को का आराम, रसोई इत्यादि कई एक काम इनके सुपुर्द किया गया है जिस घर में स्त्रियाँ सुशील और सुघर हैं वहाँ इन सब बातों का आराम है उस पर में जाते ही चित्त प्रसन्न होता है-
माता यस्य गृहे नास्ति पत्नी वा पतिदेवता।
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम्।।
सब सुख की खान माँ जिसके न हो अपना परम पूज्य देवता मानने वाली पतिव्रता पत्नी घर में न हो उसे चाहिये घर त्याग वन को सिधारै क्योंकि उसके लिये जैसा घर वैसा बन। सच है घर की स्त्रियाँ सुलक्षणा लक्ष्मी-रूप हुई तो उस गृहस्थ की गृहस्थी के सुख के सामने स्वर्ग सुख भी अल्प है। वही फूहर और कर्कशा हुई तो घर क्या वरन मुहल्ला और जाति भर को क्लेश और हानि पहुँचती है वह घर क्या वरन नरक से भी बुरा है। चार में एक भी जहाँ इस ढंग की हुई तो एक उस कर्कशा और चण्डी के कारण तीनों का सुलक्षण और सुघरपन सब खाक में मिल जाता है। प्राणी-प्राणी का जी ऊब उठता है। यही जी चाहता है घर छोड़ कहाँ भाग जायँ। घर से वन को अच्छा इसी दशा में कहा है-
स्मारं स्मारं स्वगृहचरितं दारूभूतो मुरारि:
इन कर्कशाओं का कुछ ढंग ही निराला है। ये किस बात से प्रसन्न हैं और क्या चाहती हैं इसका भेद जानने में कदाचित उशना और बृहस्पति की बुद्धि भी थक कर गोठिल पड़ गई। सास से लड़ै, सुसर से लड़ै, ननद से लड़ै, मर्द मुआ तो इनका गुलाम ही ठहरा, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी की कोई हकीकत ही नहीं, बहन-बहन लड़ै परोसी से राह चलने वालों से लड़ै, न कोई मिलै तो हवा से लड़ै। जब तक पेट भर के न लड़ लें अन्न न पचे। शकल देखा तो भूतनि-सी मानो सब चुड़ैंलों की अम्मा श्मशान से उठी चली आ रही है। चाल-ढाल, बोल-चाल किसी में जरा शऊर और सुघरपन का दखल नहीं, कसीफ और मैली ऐसी कि पास से निकल जाय तो दिमाग के रेजे-रेजे उड़ने लगे, घर में जाकर देखिए तो भिन-भिनाहट और मैलेपन से ओकाई आने लगे।
देखिए! अब उधर भी नजर फैलाइये-स्वरूप देखिये मानो साक्षात् लक्ष्मी से बोल निकला मानो फूल झर रहा हो। अंग-अंग की सजावट कोमलता सलोनापन और सुकुमारता से मन हरे लेती है। चाल-ढाल, रहन-सहन में कुलांगनापन और भलमनसाहत बरस रही है। धन्य है उनका जीवन और महापुण्यभूमि है वह घर जिसे असूर्यपश्या ऐसी स्त्रियाँ सती सावित्री समान अपने पादन्यास से पवित्र करती हुई दीपक समान प्रकाश कर रही हैं-
"दृष्ट्या खंजनचातुरी मुखरुचा सौधाधरी माधुरी।
वाचा किंच सुधासमुद्रलहरी लावण्यमामन्त्र्यते
अन्यच्च
'गतागतकुतूहलं नयनयोरपांगाधि-
स्मितं कुलनतभुवाभर एव विश्राम्यति:।
वच: प्रियतमश्रुतेरतिरेव कोपक्रम:।
कदाचिदपि चेत्तदा मनसि केवलं मज्जति।"
इनकी देहप्रभा सफाई लवनाई और निकाई देख किसका मन नहीं मोहता। इसी से स्त्रियाँ गृहस्थी की सार समझी गई हैं। सभ्य और शाइस्ता मुल्कों में जहाँ औरतें पढ़ी-लिखी है वहाँ इनमें सखुन आराई और गप्प कोई आश्चर्य नहीं वरन् हम लोगों के समाज में भी जहाँ औरतों की हालत बड़ी लचर हो रही है पर बात करने में हजार मर्दों का कान काटे हुए है।
लोग कहते हैं औरतें बड़ी बातूनी होती हैं। हम कहते हैं केवल कहने ही में क्यों? कौन-सी चीज है जिसमें औरतें मर्द से अधिक बढ़ी-चढ़ी नहीं हैं। जहाँ कहीं वे पढ़ाई-लिखाई जाती हैं वहाँ स्त्रियाँ पुरुषों के ऊपर हो गई हैं। हमारे यहाँ के ग्रन्थकार और धर्मशास्त्र गढ़ने वालों की कुण्ठित बुद्धि में न जाने क्यों यही समाया हुआ था कि स्त्रियाँ केवल दोष की खान हैं गुण इनमें कुछ हई नहीं। इसी से चुन-चुन उन्हें जहाँ तक ढूँढ़े मिला केवल दोष ही दोष इनके लिख गए और जहाँ तक इनके हक में बुराई और अत्याचार करते बना अपने भरसक न चूके और उन्हें हर तरह पर घटाया। कानून में इनका सब तरह का हक मार दिया, धर्म संबंध में इन्हें प्रधान न रखा, दरजे में इन्हें और महा जघन्य शूद्रों को एक ही माना और किसकी कहैं मनु जिसके समान चोखा और हर समय में बरतने के पक्षपात-विहीन, शस्त्र-प्रेरणताओं में किसी दूसरे का धर्म शास्त्र ऐसा नहीं है उन्होंने शुद्र और स्त्रियों की सब तरह पर रेढ़ मारी है। खैर, आर्यों के मुकाबले जो शुद्रों को घटाया सो तो उनकी पालिसी थी जेता और जित दोनों एक ही क्यों कर हो सकते हैं किन्तु हमारी निपट ललनाओं का जो सब भाँत सत्यानाश किया। इसे कौन न कहैगा कि उनके धर्मशास्त्र में यह एक कलंक का टीका है।
अस्तु, हमारा पूर्वगत प्रस्ताव यह था कि स्त्रियाँ पुरुषों में सब तरह पर चढ़ी बढ़ी हैं यह बात बहुत ही सटीक और सच है। मुहब्बत और स्नेह जैसा इनमें हैं सबों के कदर कलेजे में कभी समा ही नहीं सकता। धर्म और दया की तो वे मूर्ति होती हैं। हमारा हिन्दू धर्म जिसे सब लोग लचर कह कर धकियाये फिरते हैं इस अबलाओं ही की दया के सहारे से किंचित टिक रहा है। मुन्तजिम ऐसी कि टोडरमल की अकिल भी इनके इंतजार के आगे चक्कर में आती है। पुरखिन पुरनिया स्त्रियों का उनके घर का इन्तजाम मोटी-मोटी सल्तनत का नमूना है। सिवा इसके अब भी हम लोगों में ऐसी-वैसी बुद्धिमती चतुर सयानी स्त्रियाँ पड़ी हैं जो कोठी और इलाके का वरन् राज का भी सब काम सम्हाले हैं। लज्जा, धैर्य, सबर, सहिष्णुता, गमखोरी इत्यादि गुणों में जो ये एकता हुई तो कोई विशेष तारीफ की बात नहीं क्योंकि हया, दया, मया, गम आदि स्त्रियों ही के गुण हैं। हम कहते हैं वीरता आदि बहुत से पौरुषेय गुण जिनमें मर्द डींग मार-मार अपना दर्जा स्त्रियों के ऊपर कायम रखते हैं उनमें भी ये स्त्रियाँ कितनी आगे बढ़ी हैं। चाँद सुल्तान, अहिल्याबाई, बैजाबाई आदि जो पहले हो गईं उन्हे कौन गिनावे। हाल में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसी हो गई कि बड़े-बड़े, वीर-बाँकुरों से भी ऐसा कभी न हो सकता
अपने सौन्दर्य को बढ़ाना और अपने को दिखलाना इनमें स्वाभाविक होता है। यह धर्म बुरा भला सबों में एकसा होता है। कुछ बुरे ख्याल से नहीं किन्तु यह स्वाभविक धर्म इनका है। कोइला-सी काली-कलूटी भी अपने को बन-ठन एक बार तिलोत्तमा और उर्वशी को अपनी रूप की सजावट में दबाना चाहती है तब उनकी कौन कहै जो रूप गर्विता हैं। इत्यादि ललनाओं का गुणगान ऐसा सरस विषय है कि इसे जहाँ तक पल्लवित करने जायें हमारे पाठकों का मन ललक-ललक कर पढ़ने से कभी न थकेगा।
हम सिद्ध कर चुके कि पुरुषों की कट्टर जाति की अपेक्षा निर्दोष और निष्पाप स्त्री-मात्र विशेष गौरव के योग्य हैं। अब हम यह दिखाना चाहते हैं कि अबलाओं में भी हमारी भारत की ललना गुण गौरव में प्रथम और सर्वश्रेष्ठ हैं। अपना तन मन जलाकर और सर्वस्व सुख से हाथ धो कुल की मर्यादा का निर्वाह कर देना आर्य कुल गामिनी ही जानती है। जो यूरोप की सुशिक्षित रमणी सौ बार जन्म लेकर भी नहीं कर सकती।
गोल्डस्मिथ अपने एक हास्य प्रधान लेख में लिखते हैं-मैंने एक बार कब्रिस्तान की सैर करता हुआ एक कोने में जाकर देखा तो एक नौजवान सुन्दरी टटकी बनी हुई कबर पर कोमल करकमलों से पंखा झल रही है। मेरे जी में इस समय अनेक भाव उदय हुए मन में कहने लगा सच्चा प्रेम इसी का नाम है। पास जा सलाम कर बोला निस्संदेह आपका प्रेम संसार में एक उदाहरण होने योग्य है। परलोक में इस मृतक की आत्मा को न सन्तोष हुआ होगा जिसके लिये आप अपने कर कमलों को इतना श्रम दे रही हैं। वह बोली इसके सन्तोष से मुझे अब क्या मिलेगा। अब यह फिर से जी सकता ही नहीं मुझे अपने सन्तोष की पड़ी है। समाज में प्रचलित रीति के अनुसार जब तक यह कबर न सूखेगी तब तक मैं अपने ऊपर से इस रण्डापे का बोझ नहीं टाल सकती। इसीलिये पंखा झल रही हूँ कि जितनी ही जल्द यह कबर सूखेगी उतना ही जल्द मेरा सुहाग फिर से जगेगा। मुझे इस सुन्दरी की बात सुन ताज्जुब हुआ। भीतर से तो इसकी व्यर्थ चेष्टा पर अत्यन्त क्रोध आया पर ऊपर से हँस कर उससे विदा हो घर की राह ली।
यह किस्सा गोल्डस्मिथ की एक कल्पना मात्र है किन्तु इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि उनकी सभ्यता का धब्बा वहाँ स्त्रियों में स्वतंत्रता इसी दरजे तक पहुँची हुई है जिसका चित्र गोल्डस्मिथ ने इस ढंग से उतार हँसी उड़ाया है। भारत-ललनाओं में बन्धकी और कुलटायें भी इतना साहस करने की हिम्मत नहीं करेंगी जैसा वहाँ अच्छे-अच्छे घरानों की कुलांगनायें करती हैं। हमारी ललनायें करती हैं। हमारी ललनायें पढ़ी-लिखी नही होतीं पर शालीनता, धीरापन, सबर और सहनशीलता में पृथ्वी भर की स्त्रियों के बीच एक उदाहरण हैं। पुरुषों में शुद्ध चरित्र और पवित्र आचरण ढ़ूढ़ना चाहो तो सौ में पंचानबे अत्यन्त निकृष्ट और पतित पायें जायेंगे जिसके गुप्त या प्रकट चरित्र से घिन होती है। वहीं इन आर्य-ललनाओं में सौ में कदाचित पाँच भी ऐसी हों या न हों जिनके चरित्र को हम दूषित कहने का साहस कर सकेंगे और पंचानबे ऐसी होंगी जो सौन्दर्य और सौभाग्य लक्ष्मी में साक्षात् शची-सी होकर भी नवनता, भलपन, साहस, सिधाई और सख्त भाव में मानो भवानी की मूर्ति हैं। कुलीनता की नाक, लज्जा की खान, श्रद्धा, दया और शान्ति की मूर्ति, घर की सर्वस्व संपत्ति, हमारी गृहेश्वरी वामा जन भारत की इस गिरी दशा में कौम का जेवर और आर्य जाति का श्रृंगार है।
हम अपनी सती, सच्चरित्र, अबलाओं का जितना अभिमान करें सब थोड़ा है। विशेष कर ऐसी दशा में जब हम अपनी अशिक्षित कुलांगनाओं का यूरोप की सुशिक्षित सभ्यता की सरताज रमणी जनों के साथ मिलान करते हैं। साहब बहादुर हजार रुपया भी लावें तो मेम साहब के एक गौन में उड़ जाते देर न लगेगी। साहब एक-एक पैसे की किफायत करते हैं, मेम साहब को अपने फैशन की सजावट में सैकड़ो फूँक देते आह नहीं आती। साहब एक कोने में पड़े भिन-भिनाया करते हैं। मेम साहब अपनी चंचलता और चुलबुलेपन के कारण बंगले में कूदती फिरती हैं। साहब मेम साहब की चरण सेवा में हरदम हाजिर रह कर भी जरा सा चूके कि उनकी खातिरशिकनी होते देर नही। वहीं हमारी स्त्रियाँ परकटा पखेरू की भाँति घर रूप पिंजरे में बन्द रूखा-सूखा भोजन और मोटा-झोटा कपड़ा मात्र से सतीत्व पालन करते बैठी रहती हैं। बाहर बाबू साहब अपने सुख और आराम के लिये सैकड़ों रुपये बहाय देते हैं; नई-नई कलियों के रस का स्वाद लेते डोलते फिरते हैं। पति-देवता हमारी गृहेश्वरियों को उनके पतित पति कभी धोखे से भी एक बार उन पर चितै दें तो इतने ही से निहाल हो जाती हैं। धन्य है इनके धैर्य और सबर को। देश की दुर्गति के बहुत से कारणों में स्त्रियों की ओर से मर्दों का निरपेक्ष होना भी एक कारण है। मनु महाराज लिख गये हैं।
जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिता:।
तानिकृत्याहतानीवं विनश्यन्ति समन्तत:।।
भली-भाँति आदर न पाय बहू लोग जिस घर को शाप देती हैं वह घराना कृत्याहत के समान सब ओर से नष्ट हो जाता है। सच है असंख्य घराने इन्हीं स्त्रियों की निरपेक्षता के कारण निरवंशी हो गये कि कौड़ी-कौड़ी को मुहताज भूखों मर रहें हैं।
सचमुच ये कुलांगना वधूजन लक्ष्मी का रूप होती हैं। अंगरेज जो इनकी खातिरदारी और हर तरह इन्हें प्रसन्न रखते हैं उसका फल प्रत्यक्ष देखा जाता है कि दिन-दिन उनकी श्री-वृद्धि चौगुनी होती जाती है। वहीं हम लोगों ने जो जब तरह पर इन्हें घटा दिया और दुर्गत में रखा उसका फल भी प्रत्यक्ष है। आर्य-ललनाओं की दशा का परिवर्तन हम तरक्की की पहली सीढ़ी कहेंगे और समाज-संशोधन तो कभी सम्भव नहीं कि इन्हें छोड़ हम कभी एक कदम भी आगे बढ़ सकें। स्त्रियाँ जो निरंकुश और स्वतन्त्र हुआ चाहें तो नदी समान कुलरूपी कगारे को एक दम में ढहाय दूर फेंक सकती हैं। यह उन्हीं की कृपा और भलमनसाहत है जो भीतर-भीतर अपना कुलांगनापन निभाती हुई हमें बाहर इस लायक बनाये हुए हैं कि कुलाभिमान में अग्रसर हो मोछा तरेर-तरेर बड़े कुलीन और इज्जतदार बनते हैं-दर्पदलन में क्षेमेन्द्र कवि ने इसी तात्पर्य को बड़ी लियाकत और कविता चातुरी के साथ प्रकट किया है।
कुलाभिमान: कस्तेषां जघन्यस्थानजन्मनाम्।
कुलकूलंकषा येषां जनन्यो निम्नगा: स्त्रिय:।
कुलं कुलं कलयताम् मोहन्मिथ्याभिमानिनाम्।
लग्न: को यं न जानीम: लब्धग्रीवाग्रहग्रहे:।
धनयौवनसंपात दर्पकालुष्यविप्लवा।
केनोन्नतसरिभ्रष्टा वार्यन्ते निम्नगा: स्त्रिय:।।
जुलाई, 1891 ई.