स्त्रीवादी उवाच: पालतू लड़की मत बन (रेखा अवस्थी) / नागार्जुन

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नागार्जुन की स्त्राी-जीवन से संबंधित मैथिली में लिखित दो कविताएं, ‘बूढ वर’ और ‘विलाप’ (जनवरी 1941) तथा हिंदी की चार आख्यान कविताएंμ ‘मिक्षुणी’ (1946/51), ‘पाषाणी’ (1947), ‘चंदना’ (1951), भूमिजा (1980) विशेष उल्लेखनीय हैं। यद्यपि बाद में रामकथा से संबंद्ध होने के कारण ‘पाषाणी’ को उन्होंने ‘भूमिजा’ काव्य पुस्तक के पूर्वार्द्ध के रूप में प्रकाशित भी कराया। इन कविताओं का अलग-अलग कविताओं के रूप में पाठ भी कम चुनौती भरा नहीं है। आज 2011 में इन कविताओं का विमर्शात्मक विवेचन कुछ ज़्यादा ही संगत लग रहा है। पिछले दसेक वर्षों से स्त्राीवादी लेखन के कारण महिला लेखिकाओं तथा नारीवादी विमर्श के प्रति तरह-तरह की बहसें, प्रतिक्रियाएं अशोचनीय ही नहीं कुत्सित मानसिकता की हदों में गाली-गलौज तक जा पहुंची हैं। सवाल बहुत वाजिब होगा कि इस सबसे नागार्जुन का क्या संबंध? नागार्जुन आजीवन वाम राजनीति और साम्यवादी विचारधारा से ‘प्रतिबद्ध’ रहे। स्वयं अपने ‘व्यामोह’ के प्रति निरतंर सजग रहे। परंतु आज तमाम प्रगतिशील, जनवादी या क्रांतिकारी लेखक अपने-अपने ‘व्यामोहों’ या अंतर्विरोधों को समझने और उनसे मुक्त होने के प्रयासों के बजाय महिला लेखिकाओं के लेखन की हदबंदी करने, लक्ष्मण रेखाएं खींचने या बदनाम करने के लिए अपने अखबारों, पत्रिकाओं, सरकारी पदों और संस्थानों का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग कर रहे हैं। संविधान के प्रावधानों या विभिन्न धाराओं की अवमानना कर दबंगई स्थापित की जा रही है। नागार्जुन ने लिखा: मैं न कभी मरने वाला हूं / मर-मर कर जीने वाला हूं। नागार्जुन इन सवालों के साथ ज़िंदा हैं। ऐसे माहौल में आज नागार्जुन की उल्लिखित कविताएं क्या कहती हैं? आत्मकथात्मक शैली में लिखी इन आख्यान कविताओं की भाव संवदेना क्या स्त्राी यौनिकता का पक्ष प्रस्तुत करती है? हम जानते हैं कि हमारे अभिजात समाज में पितृसत्ता के वर्चस्व के कारण रंगमंच पर क्रमशः स्त्रिायां वर्जित होती चली गयी थीं। भावाभिव्यक्ति का अभिनय वास्तविक मुक्ति का मंच न बन जाये इसलिए स्त्रिायों का अभिनय पुरुष करने लगे। विडंबना यह कि अभिनेताओं के अंदर स्त्रिायां समा गयीं। प्रसिद्ध अभिनेता जयशंकर सुंदरी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि प्रसाधन के जरिये स्त्राी सज्जा के साथ वे पेट के पास की मांसपेशियों से स्त्राी-वक्ष भी बनाते थे। अनेक स्त्राी दर्शक पत्रा लिखकर या मिलकर स्त्राी भावनाओं की सूक्ष्म से सूक्ष्म भावाभिव्यक्तियों से उन्हें परिचित करातीं या मशविरा देती थीं। जयशंकर सुंदरी स्त्रिायों के रोल मॉडल भी बने। 356 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 साहित्य में यही अवस्था ज्यों का त्यों नहीं मानी जा सकती। आधुनिक चेतना, शिक्षा और समानाधिकार के प्रसार से पहले स्त्राीलेखन नहीं के बराबर ही है। यदा-कदा थेरी गाथा, भक्तिन अंदाल, मीरा या अक्का महादेवी के नाम गिना दिये जाते हैं। गार्गी, मैत्रोयी, तिलोत्तमा के साथ क्या हुआ? उस इतिहास को दोहराना तेल के गर्म कड़ाह में गिरने जैसा ही पीड़ादायी होगा। 19वीं शती के अंत और 20वीं शती के पहले दो दशकों में समाज सुधारकों के स्त्राी मुक्ति संबंधी विभिन्न आंदोलनों एवं उनके लेखन की भूमिका अविस्मरणीय है। पंडिता रमाबाई, आनंदी बाई, सावित्राी बाई फुले, ताराबाई शिंदें इन्हीं आंदोलनों के बाद क्रमशः अपनी आवाज़ों के साथ स्त्रिायों की भूमिका के लिए समाज में जगह बनाती हैं। साहित्य लेखन के क्षेत्रा में महिला लेखिकाओं की प्रविष्टि काफी देर से हुई। यद्यपि जनचेतना से संपन्न हमारे अग्रज रचनाकारों ने स्त्राी जीवन की पीड़ा और उसके दुर्द्धर्ष एकाकी संघर्षों को अपनी रचनाओं की विषयवस्तु बनायी। इन रचनाओं का समाज पर व्यापक असर स्वीकार भी किया जाता है। नागार्जुन भी उन्हीं अग्रज रचनाकारों में से एक हैं। नागार्जुन स्त्रिायों के प्रवक्ता बने पर आधुनिक चेतना के कारण स्त्रिायां सशरीर उनकी मूल्यचेतना में पैठ गयीं। ‘कालिदास’ (1938) कविता में नागार्जुन की रचना प्रक्रिया से हमारा साक्षात्कार एक प्रश्न के माध्यम से होता है। प्रश्न है: कालिदास, सच-सच बतलाना! इंदुमती के मृत्युशोक से अज रोया या तुम रोये थे? इस प्रश्न के माध्यम से कवि का विषय के साथ तदाकार होना और पाठक-श्रोता तक अपनी भावानुभूति को संप्रेषित करने की रचना प्रक्रिया का स्पष्टीकरण होता है। कवि पत्नी वियोग की भावानुभूति को कविता का केंद्रीय भाव बनाता है। वह दुख अज, कालिदास और नागार्जुन से प्रवाहित होता हुआ अनेकानेक पाठकों, मनुष्यों (सामाजिक) को इस प्रकार विस्तृत भावभूमि पर ले जाता है कि पत्नी प्रेम के साथ प्रेम की महत्ता, प्रेम का सम्मान उसके भावसंस्कार का हिस्सा बन सके। विचार, भाव और शिल्प की एकता ही रचनात्मकता को ऊंचाइयों तक ले जाने का सुगम रास्ता माना जाता है। नागार्जुन की रचना प्रक्रिया का यह पहला सबक है कि विषयवस्तु, भावधारा और रचनाशिल्प-इन तीनों का समाहार किसी सामाजिक, भावनात्मक या वैचारिक सोद्देश्यता के लिए होना चाहिए। इस अर्थ में यह कविता सार रूप में पितृसत्ता के विरुद्ध है। सामंती समाज में पत्नी की मृत्यु पर पति रोता नहीं है। दूसरे, तीसरे या चौथे विवाह की योजना के सपने बुनता है या रनिवास की अन्य रानियों के बीच एक स्त्राी को भूल जाता है। रचनावली में संग्रहीत यह तीसरी कविता है। उस वक़्त नागार्जुन की उम्र 27 साल रही होगी। 1939 में रचित ‘बादल को घिरते देखा है’ कविता में कवि ‘शैवालों’ की हरी दरी पर प्रणय कलह छिड़ते देखता है। प्रेमी जोड़े की मान-मनुहार का प्रतीक बनता है एक पक्षी युगल। कवि की चेतना स्त्राी-पुरुष की बराबरी, उसके सहजीवन यानी मानयुक्त साहचर्य को ही दाम्पत्य की धुरी मानती है। कवि की यह मूल्य चेतना, ऐसी रागात्मक संवेदना के साथ चित्रित होती है कि पाठक का रोम-रोम प्रेम से पुलकित हो सके: मदिरारुण आंखों वाले उन उन्मद किन्नर-किन्नरियों की नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 357 मृदुल मनोरम अंगुलियों को वंशी पर फिरते देखा है। प्रेम और साहचर्य के सम्मिलन के इस अद्भुत संगीत को हम बांसुरी पर बिना बजाये मन के कानों से सुन लेते हैं। इस स्वर लहरी में इस सत्य की पहचान भी छिपी है कि यह आलौकिक प्रेमगान लौकिक तभी होगा जब स्त्राी दासी, अनुगता, बंदिनी नहीं होगी। बंधनों से मुक्त अपने तन और मन के संगीत को वह भी सुन पाने का परिवेश पाये जो अमल धवल गिरि के शिखरों पर किन्नर-किन्नरियों के बीच है अर्थात नागर सभ्यता से दूर आदिवासी जनजाति सभ्यताμजहां श्रम और संपत्ति दोनों में स्त्राी-पुरुष बराबर माने जाते हैं। वहां ब्राह्मणवादी व्यवस्था का लिंगभेद नहीं है। नागार्जुन ‘सिंदूर तिलकित भाल’ (1943) में प्रेम की इसी गहन अनुभूति का प्रतिलोम रचते हैं। विपन्नता प्रेमपूर्ण सहज जीवन की एक बड़ी बाधा है। आर्थिक खुशहाली के बीच प्रेम के उल्लास का एक चित्रा पाठक की आंखों में तैर जाता है। पर कवि ने इस कविता में उस मर्दवादी विमर्श की निंदा की है जिसमें पुरुष आत्मलीन रहते हैं, वेदना ही नहीं उसके पास/ फिर-उठेगा कहां से निःश्वास। इस मानसिकता वाले जीवन व्यवहार से अपने को अलगाते हुए कहते हैं: तभी तो तुम याद आतीं प्राण / हो गया हूं मैं नहीं पाषाण। अर्थात स्त्राी की इच्छा, आकांक्षा और मुश्किलात को समझने की ज्ञानचेतना या भावतंत्रा जिसमें नहीं है वह व्यक्ति पाषाण है। ऐसी ही कई अन्य कविताओं में नागार्जुन ने स्त्राी-पुरुष के सहज जीवन प्रेम का घनीभूत प्रभाव रचा है। नागार्जुन प्रेम के उदात्त मूल्यों के साथ जीवन के जितने बड़े कवि हें उतने ही बड़े कवि वे भग्नावशेषों और खंडहरों के भी हैं। पितृसतात्मक अहम्मन्यता का सोच और आचरण पुरुष को क्रूरता के शिखर पर पहुंचा देता है, जहां वह न्याय और विवेक बुद्धि को साथ नहीं रख पाता। 1946 में प्रकाशित ‘पाषाणी’ कविता लोक प्रसिद्ध कथा महर्षि गौतम के शाप से अभिशप्त उनकी पत्नी अहल्या पर आधारित है। दो संतानों की जननी अहल्या को युवा राम के स्पर्श से संज्ञान प्राप्त होता है और तत्क्षण उसे अपने पति के अभियोग का ही स्मरण होता हैः ‘पर नर दूषित, पुंश्चलि, तेरी देह/, हो जाये निस्पंद कुलिश-पाषाण। ’ पूरी कविता में अहल्या का यह प्रश्न गूंजता रहता है: धर कर पति का आकृति-रूप-स्वभाव यदि आवे कोई पत्नी के पास ... कहो तात फिर इसमें किसका दोष? नारी देह की शुचिता का प्रश्न पुरुषप्रधान समाज का वह सांघातिक अस्त्रा है जिसने स्त्राी को नैतिकता के सीखचों के पीछे क़ैद करके उसे ज्ञान, शक्ति और संपदा से वंचित कर दिया। ज़रखरीद गुलाम बना लिया है। बलात्कारी के लिए कोई दंडविधान नहीं। दंडविधान केवल स्त्राी के लिए: पत्नी के प्रति पति का यह अन्याय हुई अहल्या जो पाषाण प्राय यह नागार्जुन की स्त्राी चेतना है जो अहल्या को यह साहस देती है कि वह कह सके कि पुरुषों पर भी मुझको घृणा अपार। 358 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 अहल्या का राम पर भी संदेह करना और राम का ‘प्रतिज्ञाबद्ध’ होना यह बताता है कि स्त्राी पराधीनता के प्रश्नों और स्त्राी मुक्ति के विकल्पों में वे समानता के पक्षधर हैं। क्या ‘पाषाणी’ का अर्थ शुद्ध शाब्दिक है जैसा कि हमारी पुराकथाओं में कहा जाता है या समाज बहिष्कृत, एकाकी, परित्यक्ता, अथवा बंदिनी के रूप में लेना अधिक उचित होगा? गौतम ऋषि के आश्रम में उत्तर की ओर एक झोपड़ी में भू-लुंठित थी नारी-प्रतिमा को देख राम शिर से लेकर तलवे तक प्रत्यंग / लगे फेरने मनोयोग से हाथ / ... पाषाणी में किया प्राण संचार में यह आवाज़ साफ़ सुनी जा सकती है कि अहल्या समाज बहिष्कृत एकाकी जीवन आश्रम में बिताने को बाध्य थी। आज के जेलों के सॉलिटरी सेल की तरह। स्त्राी दमन के विरुद्ध राम-लक्षमण का उनसे मिलना (‘हाथ फेरना’) और बात करना वास्तव में उस प्रतिबंध को तोड़ना है। जो काम अहल्या के बच्चे सामाजिक दबाव के चलते नहीं कर सके उसे राम-लक्ष्मण ने किया यानी अहल्या का पुनः समाज स्थापन। पर नागार्जुन उद्धारवादी नहीं स्त्राीवादी हैं। इसीलिये अहल्या का यह सुचिंतित वक्तव्य स्त्राी विरोधी पुरुष मानसिकता को बेनकाब करता है: असुर क्रूर तो सुर होते हैं धूर्त क्षणमति होते किन्नर औ’ गंधर्व, दुर्विदग्ध संशयी, हृदय से हीन होता मानव, तुम हो उससे भिन्न युवा राम का स्त्राी विरोधी मान्यताओं को तोड़ना नागार्जुन की विचार दृष्टि का वैशिष्ट्य है। कवि समाज की वर्चस्ववादी ताक़तों के विरुद्ध प्रतिरोधी ताक़तों की तरफ़ से हस्तक्षेप करता है। अहल्या की यह आशंका भी सच साबित होती है जब राम राजा बनने के बाद सपने में भी स्त्राी का ‘अपमान’ न करने की प्रतिज्ञा के बावजूद गर्भवती पत्नी सीता का परित्याग करते हैं। कवि ने ‘भूमिजा’ (1980) की अंतर्वस्तु में लोक और धर्म की मान्यताओं पर आधारित राम की स्त्राी विरोधी मुहिम का प्रत्याख्यान किया है। स्वयं सीता ने अपनी भावना और तार्किकता से, त्रिजटा ने सखी भाव से और महर्षि वाल्मीकि ने संरक्षण भाव से पितृसत्ता को आत्मकथात्मक शैली में (इन सभी पात्रों के माध्यम) प्रश्नांकित किया है। यहां तक कि राम की विवशता का वर्णन इस प्रकार किया है कि पूरी तरह स्पष्ट हो जाये कि पितृसत्ता का मानसिक अनुकूलन पुरुषों के लिए भी कितना कष्टदायी है। नागार्जुन की स्त्राी दृष्टि को सीता के साथ एकाकार होते देख पाना सुकून देता है। प्रश्न यहां भी स्त्राी देह की शुचिता का ही उठाया गया है: प्रमाणित क्या करना है मुझे? पावनता अपनी? अपना शील? प्रमाणित क्या करना है मुझे? गुह्य शुचिता? चारित्रिक ओज? हाय रे राजा! हाय री नीति? हाय री रूढ़िबद्ध जन-भीति? हाय रे पुरुष! हाय रे दंभ। सीता के लिए देह शुचिता के साथ पुत्रों के उत्तराधिकार की भी आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं: नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 359 होगा शासक कलंकिनी का पुत्रा! प्रजा करेगी क्या इनको बर्दाश्त? ‘प्रजा’ का तात्पर्य यहां शासक वर्गों से उसी प्रकार संप्रेषित होता है जैसे आज हमारे देश में 300 से अधिक सांसद (प्रजासेवक) अरबपति हैं और नीति निर्माता भी हैं प्रजा के चुने प्रतिनिधि। ऐसा व्यंग्य सीता के मुख से नागार्जुन ही संभव कर सकते थे। सत्ता का कोई दबाव उन्होंने स्वीकार नहीं कियाμयही मिसाल उनकी ऊर्जा का स्रोत भी रही। स्त्राी विमर्श में स्त्राी यौनिकता के अति विवादास्पद मुद्दे से रू-ब-रू होने के लिए नागार्जुन की तीन कविताओंμबूढ़ वर (मैथिली), विलाप (मैथिली) और भिक्षुणी (हिंदी) के विवेचन से वर्तमान महिला लेखिकाओं के स्त्राीवादी लेखन की तर्कसंगति और अनिवार्यता को समझना आसान हो सकेगा। कुतर्कों से मुक्ति मिल सकती है। 1941 और 1946 में लिखित ये तीनों कविताएं स्त्रिायों की आत्मकथाएं हैं। ‘बूढ़ वर’ में धनधान्य से भरपूर स्त्राी के जीवन में ‘हाहाकार’ है क्योंकि पति बूढ़ा है। अंदर से कलेजा धू-धू करके जलता है क्योंकि यौनाकांक्षा की अतृप्ति की पीड़ा को वह एकाकी इस प्रकार झलेती हैः जारे राक्षस, जारे पुरुष-जात तेरी ही मारी मर रही हैं हम कराह रही हैं, कुहर रही हैं हम... सुने कौन आज, किससे क्या कहूं? कविता में ‘कराहना’ और ‘कुहरना’ शब्द स्त्राी यौनाकांक्षा का महाआख्यान सृजित करते हैं। ‘विलाप’ में बालिका का तेरहवां चढ़ा था और ‘आशा का मल्हार गा रहा था मन’ कि तभी वज्रपात होता है, बालिका विधवा हो जाती है। आशाओं और सपनों का संगीत विलाप की करुण ध्वनियों में बदल जाता है: मुंह सीये रहती हूं जाबी लगाये धीरे-धीरे भूसे की आग की तरह जलती हूं मन-ही-मन मैं भी फटती रहती हूं ईख के पोर की तरह चैत की पछिया में ओठ की तरह। स्त्राी पुरुष संबंध शारीरिक ज़रूरत है, भूख-प्यास की तरहμइस बात को नागार्जुन यहां ‘भूसे’ की तरह जलना और ‘ईख की पोर’ की तरह फटना के बिंबों में स्पष्ट रूप से कह देते हैं। पर यहां वे यह बताना नहीं भूलते हैं कि ऐसी स्थितियों का फायदा उठाना पुरुष समाज में लोग खूब चतुराई से जानते हैं: चाहती हूं धर्मपूर्वक जीवन बिताना तब भी करना चाहते हैं तुझे लाचार बड़े-बड़े चंदन टीकाधारी करते ऐसा व्यवहार वैसों के साथ जो जा गिरूं गढ़े में वे गुमनाम ही रहेंगे .... उसकी चलेगी बात, समाज उसका ही होगा।’ 360 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 सामाजिक, धार्मिक रूढ़ियों की गिरफ़्त में तड़फड़ाती स्त्राी के यौन शोषण के इस सबसे जघन्य रूप की सीवन नागार्जुन ने उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ में भी उधेड़ी है। इन दोनों कविताओं में प्रकारांतर से, नियंत्रित तरीके से स्त्राी भावनाओं को चित्रित किया गया है। इनसे उलट ‘भिक्षुणी’ (1946) बौद्ध विहार की धर्म दीक्षित एक युवा भिक्षुणी की आत्मगाथा है। परिवार और सामाजिक जीवन के बंधनों से मुक्ति धर्म में मानी जाती है। एक ज़माना था जब माता-पिता लड़कियों को पुण्य प्राप्ति के लिए मंदिरों में या बौद्ध संघों में दान कर देते थे। ऐसी ही एक बालिका ‘भिक्षुणी’ अब युवती हो गयी है। सहज जीवनेच्छा का अंकुरण हो रहा है: काया यह तुम्हारी कितनी सुडौल है! भले ही कुछ दिन सुलभ रहा जिसको तुम्हारा यह बाहुपाश अंकुरित यौवना वह धन्य यशोधरा इस नैसर्गिक और अवश्यंभावी पृष्ठभूमि में वह बौद्ध दर्शन, सभी सूत्रापिटक जानने के बावजूद ‘मानव-मानवी के सहज यान’ को समझने के लिए भगवान बुद्ध से अनुमति चाहती है। अनुमति का यह निवेदन बहुत ही व्यंजक है। बौद्ध दर्शन की सीमाओं को भी इंगित करता है: वंचित हूं अवसर दो देख ली यह अति, वह अति भी देखूं तभी तो मेरी समझ में आयेगा तुम्हारा यह मध्यमार्ग भगवान अमिताभ। बार-बार बुद्ध की काया पर रीझती वह भिक्षुणी अंततः स्पष्ट कहती है: सहचर मैं चाहती चाहती अवलंब, चाहती सहारा देकर तिलांजलि मिथ्या संकोच को हृदय की बात लो, कहती हूं आज मैं कोई एक होता कि जिसको अपना मैं समझती पूरी कविता का एक-एक शब्द भिक्षुणी की स्त्राी-पुरुष साहचर्य और मातृत्व की प्राकृतिक एवं कथित(?) अनिवार्य इच्छा को भावोदीप्त करता है। नागार्जुन ने इन तीनों कविताओं को स्त्राी मुख से उसके हृदय की चीख, क्रोध और प्रतिरोध के भावों और विचारों को स्त्राी विमर्श की वैचारिक अवधारणाओं के आधार पर प्रस्तुत किया है। पित्तृसत्ता से कोई समझौता नहीं है। स्त्राी यौनिकता को प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों तरह से प्रस्तुत किया गया है। आत्मकथात्मक शैली से अलग ढब की ‘चंदना’ (1956) में वाचक ने कथा कही है। राजकुमारी वसुमति युद्ध में पिता की पराजय के बाद सैनिकों द्वारा अपहृत करके बाजार में बेच दी जाती है। नये नामकरण में क्रीतदासी चंदना को निस्संतान व्यापारी धनावह खरीद लेता है। धनावह के पितृवत स्नेह नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 361 को भी कुत्सित दृष्टि से देखने वाला हमारा समाज-परिवार चंदना को क्रूरतम यातनाएं देता है। ईसा पूर्व छठी सदी की इस काव्य-कथा में जैन परिव्राजक महावीर काल के धर्म और समाज का वस्तुगत वर्णन किया गया है महावीर का यह संकल्प था कि वह उसी स्त्राी से भिक्षा ग्रहण करेंगे जो रो रही हो, पद दलित हो और दुर्गति झेल रही हो। स्त्राी की महादुर्दशा का यह आख्यान प्रेम, करुणा और अपरिग्रह के लिए ख्यात जैन धर्म की संकीर्णता और वैचारिक सीमाओं से पाठक को परिचित करता है: दीन-हीन उपेक्षित दुर्गत पददलित अश्रुमुख क्रय-क्रीत दासी के हाथ से होगा यदि मिक्षा लाभ करूंगा आहार तभी अर्थात जैन धर्म के अस्तित्व की रक्षा के लिए दास प्रथा, उसमें भी स्त्राीदासी की उपस्थिति को तो बनाये ही रखना होगा अन्यथा करुणा का संचार कैसे होगा? क्या विडंबना है कि दुनिया के लगभग सभी धर्म औरत की कुर्बानी पर टिके हैं। ‘पूर्ण हुआ अभिग्रह’ के बाद तीर्थंकर महावीर की महाशक्ति, जो पुरुषसत्ता की प्रतीक है, से चंदना को त्रास एवं गुलामी की ज़ंजीरों से मुक्ति मिलती है। धनधान्य मिल जाने के बावजूद चंदना जैन-धर्म की शरण ग्रहण करती है: हो गयी अनुगृहीत मिल गया आश्रय। कविता का पूरा स्थापत्य इस तरह निर्मित है कि देश-काल, और उसके साथ जैन धर्म का संबंध चलचित्रा की तरह उभरता रहता है। सिनेमोटोग्राफी की शब्दावली में कहें तो कविता का हर दृश्य क्लोजअप्स में अंकित किया गया है। पर कविता की अंतिम पंक्ति ‘मिल गया आश्रय’ की ध्वनि से कवि के मंतव्य को ध्यान से पढ़ना होगा। नागार्जुन ने इसे चंदना की मुक्ति नहीं आश्रय कहा है अर्थात अनाथ युवती को मालिक के घर की चहारदीवारी से धर्म की चहारदीवारी में ठिकाना मिल गया है। स्त्राी घर से निकले तो धर्म गृह में ही प्रवेश करे, उसकी यही नियति निर्धारित कर दी है पितृसत्ता के बाजू के रूप में सक्रिय धर्मसत्ता ने। घर-परिवार समाज की रुढ़ियों और अंधविश्वासों के स्थान पर धर्म की रूढ़ियों, अंधविश्वासों और पाखंडों का पालन करना होगा उसे। अतः ‘चंदना’ स्त्राी जीवन की शाश्वत त्रासदी की वह गाथा है जहां उसके बंधनों के, दासत्व के केंद्र बदलते रहते हैं। ‘भूमिजा’ (1980) में सीता का प्रखर रूपांकन आधुनिक विद्रोहिणी स्त्राी की तरह पितृसत्ता के सभी मुखौटों को नोच लेता है। उसमें स्त्राीदेह की शुचिता का मखौल उड़ाने का साहस है। तुलसी और वाल्मीकि की रामकथा से आगे जाकर ‘भूमिजा’ की सीता ने अपने अधिकारों के साथ अपनी संतान (लव और कुश) के उत्तराधिकार का प्रश्न भी उठाया है। पुरा-कथा की सीमा के बावजूद धरती में समा जाने का सीता का निर्णय अवसाद के साथ स्वनिर्णय करने के साहस का परिचायक माना जा सकता है। यहीं से उस परिवर्तनकामी सोच की शुरुआत होती है कि फिर ‘हमें’ कैसी जिं़दगी चाहिए: सोच रही हूं परिवर्तित वह काल कैसा होगा, क्या होगी युग-रीत 362 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 नागार्जुन का स्त्राी विमर्श संवेदनशील हृदय और तर्क प्रज्ञा का अद्भुत संगम है। मुक्ति प्राप्ति के लिए आज स्त्राी को पितृसत्ता से अनुकूलित पुरानी आकांक्षाओं की परिधि को तोड़ना होगा। शिक्षा और आत्मनिर्भरता पाने के लिए दृढ़ता और संकल्प के साथ, अपनी स्वतंत्रा पहचान के निमित्त जाग्रत बुद्धि रखनी होगी। ‘शकुंतला’(1961) में नागार्जुन ने ब्याज निंदा से परिवर्तन का रास्ता इस प्रकार चिद्दित किया है: अंगूठी? सोने की अंगूंठी क्या हुआ लेकर सोने की अंगूठी प्रीति की प्रतीक। मूर्ख थी शंकुलता (महर्षि की पालतू लड़की) शोहदे की अंगूठी पर किया था भरोसा कविता की ध्वनिव्यंजना से स्पष्ट तौर पर निम्नलिखित अर्थ निकलते हैं: 1. वस्तु का लेन-देन नहीं है प्रेम। 2. प्रेम और विवाह क्रय-विक्रय से दूर बराबरी के स्तर पर पारस्परिक बौद्धिक प्रक्रिया से होना चाहिए। 3. वस्तु नहीं व्यवहार प्रेम का द्योतक होता है। 4. भावना और तर्क का संगम प्रेम है। ‘क्या हुआ लेकर सोने की अंगूठी’ पंक्ति का अभिप्राय गहरी व्यंजनाओं की सुगंध से भरपूर है। अति संरक्षण क़ैद है। गुलामी है। पालतू जीवन स्वीकार मत करो। स्वतंत्राता और आत्मनिर्भरता से ही विद्रोह और मुक्ति का रास्त मिलेगा। नागार्जुन के स्त्राी उवाच की अंतिम दो पंक्तियों की व्यंजना से भाव व्यक्त होता है, मत बन पालतू लड़की; मत कर शोहदे पर भरोसा। ‘शोहदे’ की अनगिनत अर्थछटाएं समझी जा सकती हैं। कहने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि किसी पर भी आंख मूंद कर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। महिला लेखिकाओं को भी इसके दूरगामी आशयों के प्रति सचेत रहना होगा। पिछले अरसे में महिला लेखिकाओं की आत्मकथाओं में लिखे गये स्त्राी यौनिकता के प्रसंगों या विवरणों पर कुछ समकालीन रचनाकारों की प्रतिक्रियाओं और अश्लील टिप्पणियांे का यदि नागार्जुन के स्त्राीवादी सोच के साथ तुलना करें तो आश्चर्य होता है कि सन् ’41 में भी कितने भविष्योन्मुखी थे नागार्जुन! संभवतः यह फ़र्क़ वर्ग भेद के कारण भी हो सकता है। क्योंकि बाबा फ़क़ीरी में ही रहे, न अफसर बने न ही कुलपति या किसी संस्थान के उपाध्यक्ष या किसी पूंजीपति की पत्रिका के संपादक। वे हरदम मसिजीवी दिहाड़ी मजदूर रहे, इसीलिए स्त्राी-जीवन को निरभ्र दृष्टि से जाना और पहचाना। मो.: 09818183255