स्त्री–पुरुष / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
आज नीलम ने कक्षा से बाहर आकर कुछ पूछने का प्रयास किया। मैंने उसे उपेक्षा से टरका दिया। मुझे उसका रिक्शावाले से धुलमिल कर बतियाना बुरी तरह अखर गयाँ मैं उसके पास से ही निकला था पर ऐसा क्या कि उसे पता ही नहीं चला।
न चाहकर भी मैंने उसे टोक दिया–"नीलम, मैं तुम्हें एक अच्छी लड़की समझता हूँ। किसी रिक्शावाले से इतना धुलमिल जाना ठीक नहीं है।"
वक कुछ उत्तर न देकर फफक–फफककर रो पड़ी। उसका रोना और भी बुरा लगा। जवान लड़की, कहीं कुछ ग़लत न कर बैठे, वह आशंका मेरे मन में बार–बार फन उठा रही थी।
वह भरी आँखों से बोली–"ठीक है सर, अब मैं कभी आपसे कुछ नहीं पूछूँगी।"
मुझे लगा–जैसे वह मेरी उपेक्षा करने के लिए कमर कसकर तैयार हो गई है।
"मेरी बला से।" मैंने क्रुद्ध होकर कहा।
मैं छुट्टी के बाद घर के लिए लौट रहा था। स्कूल गेट के बाहर जमा भीड़ देखकर ठिठक गया...नीलम के रिक्शावाले के सिर से खून बह रहा था। वह अपने दुपट्टे का छोर फाड़कर पट्टी बाँध रही थी।
"क्या हुआ नीलम?" अनायास मेरे मुँह से निकल गया।
"एक स्कूटर वाला पिताजी को टक्कर मारकर भाग गया।"