स्त्री-दर्शन / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत ही खूबसूरत एक देहाती लड़की मेला देखने आई। उसका चेहरा गुलाब और लिली की रंगत लिए था। उसके बाल शाम के धुँधलके-जैसे काले थे। उसके होंठ उगते सूरज-से लाल थे।

ज्यों ही वह अनजान लड़की वहाँ पहुँची, नौजवानों ने उसे घेर लिया। कोई उसके साथ नाचना चाहता था तो कोई उसके सम्मान में केक काटने को उतावला था। वे सब-के-सब उसके गाल चूमने को पागल थे। आखिरकार, था तो वह मेला ही।

लड़की सहमी और भौंचक थी। नौजवानों के लिए उसके मन में घृणा भर गई थी। उसने उन्हें झिड़क दिया। उनमें से एक या दो को तो उसने झापड़ भी रसीद कर दिए। आखिरकार वह वहाँ से निकल भागी।

घर लौटते हुए वह अपने दिल में सोच रही थी - "मुझे घिन आ रही है। ये लोग कितने असभ्य और जंगली हैं। यह सब बर्दाश्त से बाहर है।"

इस घटना को एक साल बीत गया। वह पुन: उस मेले में आई। लिली-गुलाब, शाम का धुँधलका, उगता सूरज - सब वैसे-के-वैसे थे।

नौजवानों ने उसे देखा और दूसरी ओर को पलट पड़े। पूरे दिन वह अनछुई, अकेली घूमती रही।

शाम के समय, अपने घर की ओर लौटते हुए उसका हृदय चीख-चीखकर कह रहा था - "मुझे घिन आ रही है। ये नौजवान कितने जंगली और असभ्य हैं। यह सब मेरी बर्दाश्त से बाहर है।"