स्त्री पक्ष / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1
कथासार / समीक्षा
प्रभा खेतान का अंतिम और काफी उद्वेलन भरा उपन्यास 'स्त्री पक्ष` सन् १९९९ में 'जनसता सबरंग` में क्रमश: छपा। प्रभा के अन्य उपन्यासों में स्त्री का संघर्षमय जीवन और मारवाड़ी (उच्चवर्गीय) परिवारों से उठाए गए कथानक हैं परंतु 'स्त्री पक्ष` में इससे अलग हटकर मध्यमवर्गीय परिवारों से कथा का सूत्रपात किया गया है।
यह उपन्यास किशोरवय में प्रवेश करती हुई लड़की के भीतर-बाहर होते हुए मानसिक-शारीरिक परिवर्तनों को इंगित करता है। तूफान और आवेश की इस वय में लड़की वृंदा को अपने में होते परिवर्तन कभी लुभाते हैं तो कभी उसे एक साथ हजारों विरोधाभासी सवाल घेरकर भयाक्रांत कर देते हैं। बनते-टूटते सपनों के साथ वह इस दुनियां को पलभर में समझ लेना चाहती है परंतु उसका बौद्धिक स्तर अभी शैशवावस्था में ही विचरण करता है।
वृंदा स्वतंत्र विचारों की लड़की है। वह अपने जीवन को अपनी इच्छा से जीना चाहती है। इसीलिए शादी से इन्कार करती है। कॉलेज में अनीश से प्रभा की अच्छी दोस्ती है। वह उससे अपने दु:ख-सुख की, जीवन के ख्वाबों की बातें करती है मगर अपनी मर्यादा से आगे नहीं बढ़ती। एक रोज पार्टी में बीयर पीने के कारण वह कॉलेज में बदनाम हो जाती है। उस दिन वह घर तो सुरक्षित आ जाती है लेकिन उक्त घटना उसे समझा जाती है कि स्त्री कहीं सुरक्षित नहीं। वह कमजोर है, अकेली नहीं जी सकती, उसे एक पुरुष की जरूरत है क्योंकि पुरुष ही उसे सुरक्षा दे सकता है। वृंदा ने मां-बाप के कहने पर सुमित से शादी कर ली। शादी के बाद कुछ दिन सबकुछ सामान्य चलता है। पति डॉक्टर बन जाने और आय बढ़ने के बाद आशिक मिजाज व्यक्ति बन जाता है। वृंदा पति के इस रवैये से परेशान होती है, फिर भी संयमित रहने का प्रयास करती है।
यहां तक उपन्यास घरेलू दिनचर्या के साथ आगे बढ़ता है। उपन्यास में रोचकता मानो खो-सी गई है। अपने ही सवालों से घिरी वृंदा पाठक को अपनी ओर नहीं खींच पाती।
सुमित के तलाक देने के निर्णय के साथ ही उपन्यास में जबरदस्त मोड़ आता है। वृंदा थोड़ी जद्दोजहद के बाद तलाक के कागज पर दस्तखत कर देती है। उसी लैट में रहती हुई वृंदा अपना बुटीक खोल लेती है। अपनी आत्मनिर्भरता के बाद वृंदा अच्छा महसूस करती है। बच्चों को वह बड़े प्यार से पाल रही है। उनको हर सुविधा मुहैया कराने की कोशिश करती है और तभी ३२ वर्षीया वृंदा के जीवन में २५ वर्षीय युवक आर्जव आता है। आर्जव पेंटर है। बच्चे आर्जव को अपना लेते हैं। आर्जव भी घर, बच्चे सबको आगे बढ़कर संभाल लेता है।
वृंदा बच्चों को पिता से तोड़ती नहीं है और बच्चे पापा से मिलने भी कभी-कभी चले जाते हैं। पितृसत्ता की परम्परा यहां भी कायम रहती है। वृंदा का बेटा रचित अपने पिता की सुविधाभोगी जिंदगी को देखकर उसी के पास चला जाता है लेकिन बेटी रीमा ने अपनी मां का साथ दिया। रीमा अपनी मां का पूरा सहयोग करती है।
आर्जव को मुंबई में बड़ा काम मिलता है और वह वृंदा से कहता है कि हम सब वहीं चलें। वृंदा इस बात को सुनकर खुश नहीं हो पाती। वह अपने पिछले जीवन की तरह आज्ञाकारिणी पत्नी बनकर पति के पीछे लटकना नहीं चाहती। वह यह भी चाहती कि आर्जव जैसे अब तक रह रहा था वैसे ही मेरे घर को संभाले और मैं अपने कारोबार की मालकिन बनी रहूं। आर्जव को वृंदा यहीं रहने के लिए कहती है लेकिन जब आर्जव अपने बनते कैरियर को नहीं छोड़ना चाहता तो वृंदा उससे कह देती है कि पूरे जीवन कोई किसी से प्यार नहीं करता। दोनों में सहमति नहीं हो पाती और आर्जव मुंबई चला जाता है। दोनों का अहम् उन्हें एक नहीं रहने देता। वृंदा आर्जव को स्टेशन तक छोड़ने जाती है और वापिस आते समय वह अपना घर बनाने का निर्णय लेती है। एक ऐसा घर जिसमें किसी पुरुष की मेहनत का एक पैसा भी न लगा हो।
रोजमर्रा की छोटी-छोटी परेशानियां स्त्री को कितना झकझोर जाती हैं पुरुष को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं होती। उसको रोज अपने सभी सुविधाएं पूरी मिलनी चाहिएं। पत्नी ये सब कैसे करें इस बात से उसे कोई मतलब नहीं। वह कमाता है और मालिक है अत: उसका चाहा सब होना जरूरी है। इन सबके पीछे पत्नी का मन कितना आहत होता है और कैसे वह रोज अंधेरे कोने में अपने-आप को फिट करना शुरू कर देती है। यही सब प्रभा ने इस उपन्यास के माध्यम से व्यक्त किया है।
किशोरी होती लड़की से लेकर परिपक्व और आत्मनिर्भर स्त्री तक के सफर को प्रभा ने बड़ी ही सतर्कता से लिखा है। प्रभा ने स्त्री की छोटी-छोटी समस्याओं को पाठकों के सामने लाने का एक सफल प्रयास इस उपन्यास में किया है।