स्त्री संघर्ष: यात्रा और प्रस्तावना / कृष्ण किशोर
स्त्री संघर्ष पिछले लगभग सौ सालों में एक सुनियोजित संघर्ष के रूप में उभरा है। एक तर्कशील सोच भावावेश पर धीरे-धीरे हावी होती गई विश्व-स्तर पर। प्रारम्भ में यह सोच करीब-करीब पुरुष विरोधी सोच के रूप में ही सन्दर्भित हुई, आक्रामक और क्रोधित मनःस्थिति द्वारा संचालित, लगभग विपरीत और विद्रोही।
फिर पुरुष जैसा होने, दिखने, स्वतन्त्र होने की आत्मवाहक स्थिति आई। वैसे कपड़े, वैसी भाषा, वैसा हावभाव, भंगिमा लेकर। ऐसी सोच कि जैसे पुरुष में कुछ अतिरिक्त है जो स्त्रियों में नहीं है और इस अतिरिक्त को पा जाने से वह पूर्ण स्त्री या पूर्ण इन्सान बन जाएँगी। विभ्रम की हद तक इस स्त्रीहीनता ने स्त्रियों पर कब्ज़ा किया और काफी हद तक अर्धविकसित देशों में अब भी यही स्थिति है। लेकिन अन्य समाजों में काफी वक्त से (1970 के दशक से) सोच बदलने लगी है। आधुनिक नारीवादी आन्दोलन इसके समानान्तर एक सोच विकसित कर रहे हैं कि स्त्रियों का स्त्रीपन एक सम्पूर्ण स्थिति है।
सोच शुरू हुई है कि यह यौन युद्ध नहीं है। यह अपनी-अपनी यौन स्थितियों में रहते हुए समानता प्राप्त करने की लड़ाई है। हर क्षेत्र में समानता प्राप्त करने के संघर्ष की स्थिति है। आज बेशुमार साहित्य हिन्दी में लिखा जा रहा है जो कमोबेश तीनों स्थितियों का चित्रण करता है। लेकिन व्यावहारिक रूप में तीसरी स्थिति जिसमें हर क्षेत्र में समानता का संघर्ष ज़्यादा स्वीकृत है - योरोप और अमेरिका में अधिक मान्य है। लेकिन चिन्तन अभी जारी है। युवा लोग यहाँ भी मार्गदर्शन करेंगे अपने व्यवहार से और अपने आत्म-विश्वास से। एक विश्व-संस्कृति का निर्माण अभी नहीं हुआ है। वैश्विक मानसिकता एक जैसी सामाजिक स्थितियों, अनुभवों और कई दूसरी तरह की आर्थिक और वैचारिक सांझेदारी से आती है। सिर्फ़ मीडिया के प्रभाव से, बाहर की Entertainment Industry के प्रचार-प्रसार से और सिर्फ़ एक दर्शकीय भागीदारी से कोई वास्तविक, गहरे मानसिक बदलाव नहीं आते। जिस व्यक्तिगत और सामाजिक साहस की ज़रूरत होती है, दूसरी संस्कृति की अंतरंगताओं को अपनाने के लिए, वह नैतिक साहस और सामाजिक ईमानदारी हमारे घरों में नहीं आई है। कुछ वर्गों में नई आर्थिक सम्पन्नताओं ने हमें एक शारीरिक उच्छृखंलता तो दी है लेकिन सोच और मानसिकता के स्तर पर असली खुलेपन से जो सहनशीलता आती है, वह अभी नहीं आई है। गहन सांस्कृतिक स्वीकृतियों से जो व्यावहारिक सहनशीलता आती है वह अभी नहीं आई। हमारे दैनिक जीवन में वे तत्व अभी शामिल नहीं हुए जिनसे वास्तविक आचरण की शुद्ध शारीरिक व मानसिक उदारता हमारे स्वभाव का हिस्सा बनते हैं। हर छोटे मोटे उत्सव पर नृत्य और संगीत जैसी मामूली स्थितियाँ भी अभी सिर्फ़ साज-सिंगार और प्रदर्शनात्मक प्रवृत्ति का ही हवाला बने हुए हैं। स्त्री-पुरुष के सहज शारीरिक स्पर्शों से पैदा होने वाली स्फूर्तियाँ अभी कामुकता से निकल कर संवेदनात्मक धरातल पर नहीं आईं। किसी का भी हाथ थामकर नाचने की निस्संग और निष्काम स्थिति अभी हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं बनी हैं। इस तरह की व्यावहारिक सहजता के बगैर हम शारीरिक क्षोभ और आक्रामकता से बाहर नहीं आ सकते। उस विसंगति से जुड़े रहेंगे जो टूटने को ही मुक्ति समझती है और समान धरातल पर खड़े होकर जुड़ने को सिर्फ़ एक चालाक कल्पना या फिर महज वैचारिक अय्याशी कह दिया जाता है।
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साधन-सम्पन्न समाजों की अपनी विकृतियाँ हैं जो स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को लेकर एक तनाव की स्थिति बनाए रखती हैं। उनके अपने ही षड्यन्त्र, शारीरिक महत्वाकांक्षाएँ और आर्थिक सम्पन्नताएँ उन्हें मारे रखती हैं। अपने भीतर ही बेशुमार स्वचालित, स्वीकृत या आत्मविरोधी शक्तियाँ दृश्य-अदृश्य रूप से हर वक्त काम करती रहती हैं। ऐसे समाजों में कोई भी एकांतिक, मौलिक इंसानी मुद्दों की लड़ाई जल्दी ही एक पाखंड का रूप ले लेती है या हास्यास्पद बन जाती है। क्योंकि हर रोज़ की ज़िन्दगी में वो जानलेवा क्रूर स्थितियाँ वहाँ की स्त्रियों की ज़िन्दगी में नहीं होतीं। इतना निहत्थापन भी नहीं होता। इस तरह की लाचारी, बेचारगी और चुप रहकर देखते, सहते रहने की दयनीयता भी नहीं होती। किसी को मरते, जुल्म सहते देखकर आसपास की भीड़ की चुप्पी भी नहीं होती। कानून संरक्षक संस्थाओं की एकतरफा भ्रष्टता भी नहीं होती। हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक उक्तियाँ, फब्तियाँ, आश्वस्तियाँ भी नहीं। फिर भी उन समाजों में नारी शोषण को लेकर शोर-शराबा कम नहीं है। शोर-शराबा शब्द में एक कार्यकारी ऐश्वर्य का बोध छिपा है। ऐश्वर्य उनके हर संघर्ष में शामिल रहता है। इसका सीध कारण होता है उन समाजों में अवसरों की बहुलता। अवसर दोनों के लिए उपलब्ध हैं। पूरे समान रूप से तो नहीं लेकिन काफ़ी हद तक प्रत्यक्ष रूप से। अप्रत्यक्ष रूप से स्त्रियों को कमज़ोर समझ कर उनको कई जगह वंचित भी कर दिया जाता है। लेकिन उन स्थितियों का विरोध खुलकर किया जा सकता है। पुरुष सत्ता बेशर्मी से अपने आपको ज़्यादा सक्षम कहने में समर्थ नहीं है। उन्हें तरह-तरह के हथकंडे इस्तेमाल करने पड़ते हैं स्त्रियों को नज़र अंदाज़ करने के लिए। बारीकियों में जाकर देखने से वहाँ की स्थितियाँ भी भयानक दीख सकती हैं। मीडिया ऐसा ही सूक्ष्म दर्शक बना रहता है, हर बात को उछालता रहता है। इसलिए बाहर या दूर से देखने पर लग सकता है कि स्त्री जीवन की दैनिक स्थितियाँ यहाँ भी इतनी ही निर्मम हैं। कुंवारी माताओं की संख्या को नारी के कुचले होने का आंकड़ा मानकर पेश किया जाता है। लेकिन इसे अपना रास्ता स्वयं चुन सकने की सामर्थ्य के रूप में भी देखा जाना चाहिए। वैसा करने से हम कतराते हैं, इस तरह की सोच से आँखें चुराते हैं।
दरअसल वास्तविक मौलिक आज़ादी जो इन समाजों में है वह एक बड़ी सुविधा, एक बड़ी शक्ति और मानसिक स्वायत्तता है जो स्त्री और पुरुष दोनों को कई तरह से नैतिक निर्भीकता प्रदान करती है। आज़ादी मात्र शरीर की भी हो, व्यक्ति को व्यक्ति बने रहने में मदद करती है।
लेकिन मात्र शारीरिक स्वायत्तता एक सर्वमान्य मानवीय मूल्यसंहिता का निर्माण नहीं कर सकती जिसके बिना हमारी आत्मस्थितियाँ खंडित, विभाजित और अशक्त ही रहेंगी और उन स्थितियों का सामाजिक जोड़ एक पाखण्डी, धूर्त, चालाक और अन्ततः क्रूर मानसिकता में ही स्थित रहेगा। पश्चिमी समाज, ख़ासतौर पर अमरीकी समाज में स्त्रियों की आर्थिक और शारीरिक स्वतन्त्रता ने उनको एक बराबर सम्मान की स्थिति में लाकर बिल्कुल नहीं खड़ा किया है। आधी रात को पैट्रोल पम्प पर अकेली काम करने वाली लड़की, रात को दो बजे घर से उठकर कहीं भी जाने की या फिर घर वापिस आने की आज़ादी प्राप्त किसी भी उम्र की औरत या किसी भी पुरुष के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध रखने की एक अविवाहित स्त्री की आज़ादी, या सबके साथ बैठकर मदिरापान कर सकने की निस्संकोच स्थिति की सामाजिक मान्यता, ट्रक चलाना, बस चलाना जैसे कामों से लेकर कुछ भी काम कर लेने की सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता - यहाँ की औरत को बराबर शक्ति और सम्मान की स्थिति में लाकर नहीं खड़ा करती। इसीलिए यहाँ भी एक उत्कट संघर्ष जारी है।
चाहे कोई भी समाज हो, इतिहास की और स्त्री-पुरुष के आपसी सम्बन्ध की विडम्बना यही है कि जिस व्यक्ति से तरह-तरह से हम बँधे हैं, उसी की क्रूरता से मुक्ति या उसी की एकरसता से निजात पाने का संघर्ष हमारी सभ्यता की व्यर्थता का चिन्ह बना हुआ है। यह हमारी सभ्यता की सबसे पहली इकाई यानि परिवार को एक हास्यास्पद और काफी हद तक एक अवांछित स्थिति में लाकर खड़ा कर देता है।
घर को सहेज सँवार कर रखने वाली नारी घर में ही सबसे अधिक प्रताड़ित है और घर से अलग किसी और तरह जी पाने की शक्ति सहेजना अलग-अलग घरों में बिखरी हुई अकेली अकेली औरतों के लिए आज भी सम्भव नहीं, अलग-अलग संघर्षकथा चारदीवारी से बाहर अगर आती भी है तो उसका अन्त एक व्यक्तिगत व्यर्थता में होता है किसी सामाजिक विमर्श में नहीं। जिस शरीर से औरत जुड़ती है वही शरीर उस पर सबसे ज़्यादा जुल्म भी करता है। दैनिक स्थितियों की बात हम यहाँ कर रहे हैं। दिन-प्रतिदिन की अपमानजनक स्थितियाँ घर के भीतर ज़्यादा हैं। ताड़नाएँ, क्रूरताएँ, लंपटताएँ, शारीरिक दंड की स्थितियाँ घर के भीतर ज़्यादा हैं। घर के भीतर परिवार में रहकर स्त्री की सकुचाहट और अकुलाहट दयनीय होती है। घर की देहरी से कदम बाहर निकाल कर औरत फिर भी मुक्ति की सांस ले सकती है। बाहर जाकर, असमय इधर-उधर जाने में सुरक्षा ज़रूर कम हो जाती है। मान-मर्यादा के उल्लंघन का खतरा भी कभी-कभी बढ़ जाता है। काम पर भी अवमानना की स्थितियाँ स्त्रियों को आती हैं। लेकिन हर रोज़ का अपमान, अमान्यता, प्रताड़ना, शरीर दंड, रेप, गालीगलौच, अपना भी और अपने स्वजनों का लगातार अपमान सिर्फ़ घर के भीतर ही स्त्रियों को मिलता है, बाहर नहीं। पुरुषसत्ता घर के भीतर ज़्यादा ज़ालिम, ज़्यादा बेशर्म, ज़्यादा बे-रोकटोक होती है। बाहर तो बाहर की शर्म, लोकलाज है। नंगा होने का डर है। असभ्य कहलाए जाने का घर में कोई डर नहीं। घर औरत को निगल जाता है। घर हमारे समाज की हर बेहयाई का अड्डा बना हुआ है। यह सच किसी एक घटना की तरह का सच नहीं है, जिस पर उंगली रखने लायक कारणों को खोजा जा सके और जिसके आधार पर किसी एक व्यक्ति या समूह को दंडित किया जा सके। यह एक विरोधी स्थिति है जो शुरू से रही है। शरीरों का संरचनात्मक विरोध जिसे आमने-सामने रहकर दूर नहीं किया जा सकता था। दूर रहकर ही दूर किया जा सकता था। या चालाक तरीके खोजे जा सकते थे इकट्ठे रहने के। या इकट्ठे न रहकर इकट्ठे काम करने के। तरह-तरह की नोच-खसोट किसी काम नहीं आई।
हमारी जाति का हज़ारों वर्षों का संघर्ष हमारे सामने है जिस जिस दौर मंं हम विश्व के किसी भी हिस्से से गुज़रे हैं - हमारे सामने है, काफी कुछ जीवन्त रूप में। ऐसा प्रमाणित अतीत जिसे हम अपनी अकर्मण्यता से, कट्टरपंथी से, अज्ञान से, पक्षधरता से या किसी बहुत सोचे-समझे हुए षड्यन्त्र से झुठला नहीं सकते। इस स्थूल घटनाक्रम ने शुरू से ही स्त्री को पुरुष की अधीनस्थ परिस्थिति में ला खड़ा किया। शारीरिक संरचना, संतानोत्पत्ति की ज़िम्मेवारी और देह को सुख देने वाली स्वाभाविक स्थितियों का वीभत्स दुरुपयोग करते हुए पुरुष ने स्त्रियों की घेराबन्दी की और फिर उसे घेरों में ही बन्द कर दिया। नारी की तीनों शक्तियाँ पुरुष की भी थीं। उनके ज़िन्दा रहने, आगे बढ़ने और सुख प्राप्त करने की शक्ति के रूप में। लेकिन यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि अपनी शक्ति को सम्पत्ति बनाकर प्रयोग करनेवाली जाति देखते-देखते अशक्त होकर घुटने टेक देती है। और यह काम इन्सानियत के इतिहास में देखते देखते ही हो गया।
अपने प्रारम्भिक आदिवासी पूर्वजों को देखते हैं - घुमन्तू जनसमूह, जंगलों, पहाड़ों, घाटियों में एक जगह से दूसरी जगह घूमता फिरता जनसमूह! सिर्फ़ पेट भर भोजन ढूँढना ज़िन्दगी का उद्देश्य। आखेट और वनस्पति दोनों प्रकार का भोजन उन समूहों को मान्य था। घने वक्षों की छांह, बड़े पत्थरों की ओट, गुफाएँ - रहने के या जान बचाने के शरण-स्थल। जीवन के नियम-अनियम लगभग कुछ नहीं। जनसमूह चलता था आखेट की तलाश में। स्त्रियाँ अपने बच्चों को और दूसरे छोटे-मोटे बोझ संभाले हुए पीछे-पीछे। पुरुष के दोनों हाथ आखेट के लिए खाली। या उन हाथों में नुकीली लकड़ी जैसा कोई हथियार। यह एक स्थिति। दूसरी स्थिति स्त्री अपने बच्चों के साथ शरण-स्थल पर, वनस्पति भोजन इकट्ठा करते हुए और पुरुष समूह आखेट पर। स्त्रियों के अधिक बच्चे समूह के लिए बोझ। बहुत से बच्चों को कहीं-कहीं खड्ड-खाई में उछाल दिया जाता। फिर स्त्री गर्भ - यानि काफी समय तक शारीरिक अशक्तता। महीने में दोचार दिन रक्तस्राव से शारीरिक अशक्तता। स्त्री कई तरह से सिर्फ़ खाने के लिए और मुँह पैदा करने वाला यंत्र मात्र, एक बोझ। या जो कुछ जीवित है उसे बचाए रखने की ज़िम्मेवारी आदमजात को समाप्त न होने देने का स्वाभाविक, प्राकृतिक कर्म। यह कोई अतिरिक्त काम जैसा काम नहीं, श्रम नहीं। प्रकृति के इस स्वाभाविक कर्म ने स्त्री को पुरुष की नज़र में शुरू से ही अशक्त और पिछलग्गू बना दिया। ज़िन्दगी को आगे बढ़ना पुरुष का हिस्सा। पत्थर का पहला हथियार पुरुष ने खूब मेहनत से जब तैयार किया होगा, उसकी छाती अपने काम की सफ़लता पर फूल गई होगी। एक ऐसी उपलब्धि जिसने आखेट आसान कर दिया। फिर इस पर खुशी का जश्न - पुरुष की चमकदार उपलब्धि। जश्न, नृत्य। स्त्रियाँ भी नृत्य में भागीदार लेकिन सिर्फ़ पुरुष की सफ़लता में मात्र शामिल। सिर्फ़ पुरुष का साथ, सिर्फ़ पुरुष का अनुसरण। यह सिर्फ़ एक हथियार ही नहीं था, एक सफ़लता का जश्न ही नहीं था - यह पुरुष की महत्वाकांक्षा का पहला कदम था। इस संसार की, प्रकृति की विजय-यात्रा का पहला चरण। पुरुष की मांस-पेशियों की उपलब्धियाँ बढ़ती गईं। महत्वाकांक्षाएँ भी बढ़ती गईं।
पुरुष की सफ़लताओं के नीचे स्त्री दबती चली गई। हाथ में हथियार लेकर पुरुष और भी बड़ा हो गया, और भी शक्तिशाली। बच्चों को संभालती, पीठ पर बोझा ढोती स्त्री और भी छोटी हो गई। एक विजेता - दूसरा सिर्फ़ उसकी विजय को संभाल कर रखने वाला अनुचर। पुरुष ने समूह के नियम, परम्पराएँ बनाईं। स्त्री सिर्फ़ उनमें शामिल हुई। उसकी अपनी कोई परम्परा नहीं। उसके बनाए कोई नियम नहीं। धीरे-धीरे आखेट में जोखिम बढ़ता गया। जीवित रहने का संघर्ष कम करने के तरीके पुरुष सोचता गया। स्त्री का सदुपयोग भी जिससे हो सके - ऐसे तरीके। लम्बी अवधि और सोच का परिणाम हुआ कि मानव ने ज़मीनों को साफ़ करके भोजन उगाने का आयोजन किया। इस काम में स्त्री की उपयोगिता बढ़ जाती है। सामूहिक रूप से खेती और आखेट दोनों चलने लगे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहने की मजबूरियाँ कम हुईं। जनसमूह कबीलों के रूप में रहने लगे। धरती अभी भी किसी की सम्पत्ति नहीं थी। कबीलों के बाद भी धरती सबकी थी। फिर कबीलों ने धरती पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया और सम्पत्ति का उदय हुआ। इस स्थिति तक स्त्री किसी की सम्पत्ति नहीं थी। वह कबीले का सदस्य थी। बस एक कमतर सदस्य, एक निम्नस्तरीय सदस्य। एक स्थितमें किसी शक्तिशाली, अतिमहत्वाकांक्षी पुरुष ने अपनी धरती का एक टुकड़ा अलग कर लिया। अलग स्वामित्व। एक अनुचर औरत या एक से अधिक औरतें। इससे पहिले बच्चे सिर्फ़ औरत के नाम से जाने जाते थे। अब पितृत्व भी बच्चों के साथ जुड़ गया। लेकिन बहुत लम्बे समय तक बच्चे स्त्रियों की ही सम्पत्ति जाने माने जाते रहे। बच्चों को लेकर मातृसत्ता प्रचलित रही। उससे आगे स्त्री की सत्ता गई भी नहीं। एक पुरुष के साथ जुड़ते ही, एक जमीन के टुकड़े के साथ जुड़ते ही, एक सामूहिक कबीलाई इकाई से टूटते ही, स्त्री की थोड़ी बहुत अपनी स्वायत्तता भी समाप्त हो गई। वह पुरुष के कामों में, पुरुष की कामनाओं, महत्वाकांक्षाओं में मदद करनेवाली यन्त्र मात्र बन गई जो कभी भी बदली जा सकती थी - जैसे और यंत्रों का जुगाड़ किया जा सकता था। पुरुष का स्वामित्व पूरी तरह स्थापित और स्त्री पूरी तरह एक सम्पत्ति मात्र। अलग-अलग मानव विकासशास्त्रियों ने इस स्थिति के बड़े रोचक वर्णन किए हैं।
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बाद के समाजवादी चिन्तक इस मत से सहमत होते हुए भी यह मानते हैं कि स्त्री की गुलामी अपनी चरम स्थिति में पूंजीवादी व्यवस्था की वजह से स्थापित हुई। पूंजीवादी व्यवस्था परिवार को प्रधान मानकर स्त्री को घर की ज़िम्मेवारी सौंपती है। बच्चों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी। वह व्यवस्था शारीरिक संरचना की कमज़ोरी की वजह से स्त्री को घर में रहने का आयोजन करती है। पैसा कमा कर लाने वाला पुरुष और बिना पैसे के घर में काम करने वाली स्त्री। यह स्थिति स्त्रियों को आत्मविश्वासरहित बनाकर पूरी तरह एक प्रजनन और पालन प्रक्रिया का यन्त्र-मात्र बना देती है। लेकिन औद्योगिकरण के बाद पूंजीवाद का यह पाखंड चला नहीं। सस्ते दामों उपलब्ध शारीरिक श्रम के लिए स्त्रियों को घर-कारखानों में झोंक दिया गया।
इसके विपरीत समाजवादी व्यवस्था में परिवार कोई महत्वपूर्ण संस्था नहीं है। बच्चों का पालन-पोषण अन्य संस्थाओं की भी ज़िम्मेदारी है। एंगल्स ने अपनी पुस्तक 'The Origins of the Family, Private Property and the State' उस वक्त लिखी जब यह मान्य था कि घर और बाहर का श्रम विभाजन बिल्कुल स्वाभाविक है, प्रकृति के नियमों के अनुकूल है। एंगल्स ने यह साबित करने की कोशिश की - कि स्त्री का शोषण निजी सम्पत्ति जैसी संस्थाओं का परिणाम है। उनके मतानुसार हमारे आदिमानव इतिहास में स्त्रियाँ इतनी गुलाम नहीं थीं। मार्क्स के सिद्धान्तानुसार शारीरिक संरचना स्त्री को व्यक्तिगत रूप से तो कमज़ोर बनाती है पर पूरे मानव समाज का विकास बाहर के वातावरण पर अधिक निर्भर करता है, शारीरिक बनावट पर नहीं। विकास किसी समाज की संस्कृति, तकनीकी ज्ञान, दूसरे क्षेत्रों में ज्ञान, परम्पराओं इत्यादि पर निर्भर करता है। अपने 'Theses on Feuerbach' में मार्क्स ने लिखा है - भौतिकवादी सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने हालात और परवरिश का नतीजा होते हैं। और अपने हालात बदलनेवाले भी व्यक्ति स्वयं ही होते हैं और कोई नहीं। बच्चों के अच्छे पालन-पोषण को भी समाजवादी चिन्तन सिर्फ़ माँ-बाप के संसर्ग का परिणाम नहीं मानता। एक माँ ज़्यादा अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभा सकती है अगर घर में रहने की थका देने वाली बोरियत से उसे मुक्ति मिले। घर का वातावरण और कामकाज जरा भी रचनात्मक सन्तुष्टि किसी औरत को नहीं देते। वे उबाऊ और सिर्फ़ शारीरिक काम हैं जो बाहर के कामों में बराबर की हिस्सेदारी के साथ ही ज़्यादा अच्छी तरह किए जा सकते हैं। सिर्फ़ घर में रहकर घर के काम भी अच्छी तरह नहीं हो सकते।
एंगल्स तो एक पुरुष-एक स्त्री की विवाहित संस्था को ही चुनौती देते हैं। वे मानते हैं कि एक स्त्री का एक पुरुष से विवाह स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में किसी समझौते का परिणाम नहीं था। बल्कि यह एक यौन ईकाई का दूसरी यौन इकाई पर पूर्ण कब्ज़े का षड्यन्त्र था। इसके साथ ही स्त्री की शारीरिक पवित्रता का भी अनुष्ठान हुआ। पितृसत्ता सिर्फ़ अपनी सन्तान को ही अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी। इसलिए औरत की पवित्रता उसकी पहली शर्त बन गई। पुरुष के लिए ऐसी कोई ज़रूरत नहीं थी। मातृसत्ता वाले परिवारों में भी पुरुष की एकनिष्ठता कोई महत्व नहीं रखती थी। स्त्री शरीर की पवित्रता हर सभ्य समाज की मानमर्यादा से जुड़ी रही। पुरुष ही अपवित्र करने वाला और पुरुष ही दंड देने वाला। पवित्रता सिर्फ़ शरीर की चमड़ी से जुड़ा विधान है, मन से उसका कोई सम्बन्ध नहीं। पुरुष की पाशविक शक्ति का सबसे ज्वलन्त उदाहरण है स्त्रियों के शरीर पर कब्ज़ा रख सकने में सफ़ल होना। अब उसकी बर्बर शक्ति का ह्रास शुरू हो चुका है क्योंकि पितृत्व को रोका भी जा सकता है और दुत्कारा भी जा सकता है। विज्ञान ने इस दिशा में स्त्रियों की काफ़ी मदद की है। अविवाहिता स्त्री के लिए शरीर की पवित्रता की न सम्भावना है, न ही सार्थकता, अगर उसे अपना साथी स्वयं चुनना है।
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ईसा पूर्व के रोमन समाज में गुलाम प्रथा के जोर पकड़ने के साथ ही स्त्री और गुलाम एक ही स्तर पर रखे जाने लगे। गुलाम किसी भी तरह खरीदे-बेचे जा सकते थे। शारीरिक रूप से दण्डित किए जा सकते थे। इस क्रूरता को रोकने वाले कोई कानून नहीं थे। यह क्रूरता अपनी परिधि लांघकर स्त्रियों तक भी उसी ज़ालिम रूप में पहुँची - सिर्फ़ मंडी में खरीद बेच नहीं हो सकती थी। गुलामों की तरह स्त्रियों का सम्पत्तिकरण भी संस्थागत हो गया। कोई कानून इसके विरुद्ध नहीं था। स्त्रियों ने निजी रूप से इसका विरोध किया, अकेले-अकेले। अपने-अपने घरों में और फिर एक सामूहिक विरोध प्रर्दशन हुआ - ईसा के 200 वर्ष पूर्व। इन पाबंदियों के विरुद्ध एक रोमन अधिकारी का भाषण आज भी दर्ज है। रोमन संसद में उसने पुरुष-सत्ता को ललकारते हुए कहा था, 'रोमन पुरुषो, यदि रोम के प्रत्येक विवाहित पुरुष ने इस बात को निश्चित किया होता कि उसकी पत्नी उसकी सत्ता को सबसे ऊपर मानकर उसका सम्मान करे, तो आज हमें औरतों की वजह से इतनी मुसीबत नहीं उठानी पड़ती। हम औरतों के इस प्रर्दशन को अपने ऊपर हावी नहीं होने देंगे। औरत एक हिंसक और काबू में न आने वाला जानवर है। उसका लगाम ढीला करोगे तो वह दुलत्तियाँ मारेगी ही। अगर उनको तुम समानता का दर्जा दोगे तो उनके साथ रहोगे कैसे, कभी नहीं रह सकते।'
मानव-इतिहास में शायद यह पहला सामूहिक विरोध और प्रदर्शन था जो स्त्रियों ने पुरुष-सत्ता के खिलाफ़ किया। ऐसा कहना मुश्किल है कि इस विरोध का कुछ असर नहीं हुआ होगा। ईसाई धर्म अभी उदय नहीं हुआ था और बर्बरियत उस सारे इलाके में विजेताओं की संस्कृति का तत्व थी। पुरुष-सत्ता दूसरों पर विजय प्राप्त करने में ही अपने आपको सार्थक देख सकती थी। ऐसे दौर में स्त्रियाँ सिर्फ़ खेमों में पुरुष की मांसपेशियों की तुष्टि के साधन के इलावा और क्या रही होंगी - आसानी से सोचा जा सकता है। ईसाई धर्म के उदय ने कम से कम कुछ देर तक इस वृत्ति को शिथिल किया। थोड़ी ही देर बाद फिर एक और शक्ति-धर्मशक्ति की बर्बरियत शुरू हो गई जिसने मध्यपूर्व और योरोप को सैकड़ों सालों के लिए धर्म-युद्धों (Crusades) की आग में धकेल दिया - जिससे आज भी हम तप्त हैं और हमारे विश्व के कई हिस्सों में वही पुराना वैमनस्य खूनख़राबों का कारण बना हुआ है।
उन धर्म-युद्धों का स्त्रियों की स्थिति, सोच और व्यवहार पर सीधा असर पड़ा। व्यापक युद्धों की वजह से योरोप में पुरुषों की संख्या स्त्रियों के मुकाबले में कम हो गई। लेकिन धर्म का शिकंजा समाज पर, ख़ासतौर पर स्त्रियों पर ज़्यादा कड़ा हो गया था। उस समाज में स्त्रियों को बेहद कामुक, स्वार्थी और पाशविक प्रवृत्तियों वाली माना जाता था। ईसाई कान्वेंटस में औरतों पर बहुत अत्याचार होता था। इस सारे माहौल के खिलाफ़ फ्रांस और जर्मनी में सबसे पहले (बारहवीं सदी में) और फिर उसके बाद दूसरे देशों में भी औरतों का एक व्यापक आन्दोलन शुरू हुआ। औरतें अलग समूह में बिना मर्दों के रहने लगीं। इस आन्दोलन को बागीन (Beguine) मूवमैंट कहा जाता है। अपने घरों को त्याग कर, अपने साधन जुटाकर, अपने चर्च बनाकर, बिना आदमी पादरियों के, बिना शादी किए सैंकड़ों और कभी-कभी हज़ारों औरतें ‘Beguines’ में शामिल हो गईं। इसमें विवाहित औरतें भी थीं जो अपने बच्चों को साथ लेकर बागीन में आकर रहने लगीं। इनका कोई धार्मिक संविधान नहीं था। वे ईसा मसीह के सिर्फ़ मानवतावादी सिद्धान्त को मुख्य मानकर बाकी धार्मिक रीतिरिवाज़ों को नहीं मानती थीं।
उन्होंने इस तरह चर्च की सत्ता का विरोध किया। इसलिए उन्हें अधार्मिक या बागी (Heretics) के नाम से भी पुकारा जाने लगा। बागीन के कम्यूनज़ पूरी बड़ी बस्तियों जैसे होते थे। जीवन की सभी आवश्यकताएँ, स्कूल, चर्च, मार्किट सब कुछ था। कोई भी इस कम्यून को छोड़ कर जा सकती थी, शादी कर सकती थी। गरीबी में रहकर पवित्र ज़िन्दगी गुज़ारना इन औरतों का आदर्श था। चर्च के मुँह पर तमाचा था यह। चर्च व्यभिचार और ऐश्वर्य का अड्डा था। और बागीन ठीक इसके विपरीत। बागीन को दूसरे चर्च विरोधी आन्दोलनों से सहारा मिला जो इन दिनों योरोप में जगह-जगह शुरू हो रहे थे, चर्च की क्रूरता के विरुद्ध। एक आपसी तारतम्य न होने की कारण, साधनों की कमी के कारण और स्त्रियों की अकेले रहने की कमज़ोरियों के कारण यह आन्दोलन तेरहवीं शताब्दी में समाप्तप्राय हो गया। लेकिन इसके चिह्न अभी भी जर्मनी, फ्रांस और हंगरी में देखे जा सकते हैं।
इसी तरह का रोचक आन्दोलन स्त्रियों के अविवाहित रहकर अपनी आर्थिक स्वतन्त्रता की ज़िन्दगी जीने का चीन में हुआ। बीसवीं सदी के आरम्भ में चीन के गवांगडौंग इलाके में रेशम की खेती ने ज़ोर पकड़ा। देखते ही देखते इलाके में ऊबड़ खाबड़ ज़मीनें मलबैरी पेड़ों से भर गईं जिन पर रेशम के कीड़े पाले जाते थे। सारा काम स्त्रियाँ ही करती थीं - कीड़े पालने से रेशम का धागा बनाने तक का काम लाखों चीनी लड़कियाँ ही करती थीं। पहली बार चीनी औरतों ने अपने लिए आर्थिक आज़ादी की स्थिति देखी क्योंकि इस काम में उन्हें अच्छे पैसे मिलते थे। इस आर्थिक आज़ादी को पुरुषों के हाथों खो देने से बचने का एक ही तरीका था - विवाह मत करो। उन्होंने हज़ारों की संख्या में स्त्री संघ (Sisterhood) स्थापित किए। अविवाहित रहने की शपथें खाईं। अगर किसी स्त्री को जबरदस्ती शादी के बंधन में धकेले जाने की कोशिश की गई तो सामूहिक आत्महत्या की धमकी दी गई। कई व्यक्तिगत स्थितियों में इस धमकी को लागू भी किया गया। इस आन्दोलन का आधार 1930 के करीब ख़त्म हो गया जब चीन में रेशम की इंडस्ट्री समाप्तप्राय हो गई। यह वैश्विक आर्थिक असन्तुलन का परिणाम था। ये स्त्रियाँ बेरोज़गार हो गईं हांगकांग चली गईं। दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में मज़दूरी करने चली गईं, बहुत सी वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर हो गईं। लेकिन बहुत बड़ी संख्या में घरेलू नौकरानियाँ बन गईं। सिस्टरहुड कायम रखे और आजीवन अविवाहित रहकर काम किया। हांगकांग, सिंगापुर की प्रसिद्ध आमाएँ उन्हीं स्त्रियों में से हैं। गेल सुकीयामा (Gail Tsukiyama) के ‘Women of the Silk’ उपन्यास में इस स्थिति का प्रभावशाली वर्णन मिलता है।
सिर्फ़ अपने ही हितों के लिए स्त्रियों ने जोखिम उठाए हों, ऐसी बात नहीं। इतिहास में, ख़ासतौर पर फ्रांस की क्रांति जो अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में हुई ऐसी घटना थी विश्व इतिहास की जिसने सिर्फ़ आर्थिक लड़ाइयों से आगे जाकर व्यक्ति समूह की सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की लड़ाइयों की श्रृंखला शुरू कर दी। फ्रांस की क्रांति में स्त्रियों की भूमिका अविश्वसनीयता की हद तक चमत्कारी थी। करीब 8000 स्त्रियाँ 'Women Brigade' की सदस्य थीं जिन्होंने बिल्कुल आगे का मोर्चा संभाला हुआ था। उन्होंने वर्साई (Versailles) के किले पर धावा बोला और फ्रांस के बादशाह को लेकर पेरिस आईं। फिर उन्होंने क्रूरता के लिए मशहूर बेस्टील (Bastille) पर आक्रमण किया और राजा के महलों में घुसकर राजा की फौजों से युद्ध किया। उनके हाथों में सिर्फ़ लाठियाँ, बरछियाँ और तलवारें थीं। क्रांति के बाद इन स्त्रियों ने बहुत से स्त्री संगठन बना लिए जो क्रांति के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने में मदद करते। लेकिन समान अधिकारों का दावा करने वाली प्रजातन्त्रीय सरकार ने बाद में इन संगठनों पर रोक लगा दी और पुरुष सत्ता ने एक बार फिर औरतों को समानता का दर्जा देने से इन्कार कर दिया। उसके बाद भी 1871 में जब पेरिस कम्यून (Paris Commune) बने तो स्त्रियाँ ही इनका आधार बनीं। दूसरी बार फिर आज़ादी की लड़ाई में स्त्रियाँ आन्दोलन की आधारशिला बनीं। वेश्यावृत्ति को शायद पहली बार एक मानवीय संवेदना के साथ आंका गया और इसे आर्थिक समस्याओं का एक हिस्सा मानने पर औरतों ने ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि कोई बच्चा नाजायज़ नहीं होता, सब बच्चों को समान समझा जाना चाहिए। उस समय के समाज में धार्मिक अंधविश्वासों को लताड़ते हुए समाज की असली प्रक्रिया और प्रणालियों को समझने पर ज़ोर दिया। और जब इस 'Paris Commune' को बुर्जुआ सरकार से बचाने का समय आया तो इन स्त्रियों ने र्मोचे पर लड़ने के लिए खुद को संगठित किया। 1871 में वर्साई का किला ही राष्ट्रीय सरकार की राजधानी थी। आठ दिन तक गलियों में युद्ध चलता रहा। सैंकड़ों नहीं हज़ारों की तादाद में स्त्रियों और उनके बच्चों को पकड़ कर दीवारों के साथ खड़ा करके गोलियों से भून दिया गया। कर्मी स्त्रियों और उनके साथी पुरुषों को बड़ी संख्या (लगभग 30,000) में पेरिस की गलियों में मार गिराया गया। बराबर जीने और मरने के युद्ध में फ्रांस की स्त्रियों ने कम से कम शारीरिक संरचनात्मक कमज़ोरी की वजह से घर में बन्द रहने के तर्क को बहुत पहले ही ख़ारिज कर दिया था। स्त्रियों की यह क्रांतिकारिता दुनिया के इस कोने से लेकर उस कोने तक बेरोकटोक बहने वाली हवाओं का हिस्सा बन जाती है और इतिहास को कालातीत तर्क के रूप में स्थापित कर देती है।
योरोप के कुछ देशों ने संसार के बड़े भूभाग पर सदियों तक राज्य किया और उस दौरान अपनी आर्थिक लिप्साओं को पूरा करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे इस्तेमाल किए। दक्षिण-पूर्वी नाइजीरिया की स्त्रियों को सम्पत्ति मानकर उनकी मर्यादा का दोहन 1921 में आबा विद्रोह या (Ibo) स्त्री युद्ध में परिणित हुआ। उपनिवेशी सरकार ने औरतों को फल देने वाले पेड़ कहा और उन पर टैक्स लगा दिया। लगभग दो लाख स्त्रियों ने प्रदर्शन किया। बहुत कम कपड़े पहनकर हाथों में लाठियाँ उठाकर आक्रोश भरे गीत गाते हुए स्त्रियों ने योरोपियनों की दुकानों को लूटा, बरकली बैंक को लूटा, जेलों पर धावा बोलकर कैदियों को आज़ाद करा दिया।
सिनेगल में भी फ्रैंच उपनिवेशी सरकार के खिलाफ़ स्त्रियों ने इसी तरह का विरोध प्रदर्शन किया था। इस घटना को फिल्म-निर्माता आऊसमेन सम्बीन (Ousmane Sembene) ने बड़े नाटकीय अंदाज़ में फिल्माया है।
आधुनिक नारीवादी आन्दोलनों को इस तरह के सामूहिक विद्रोहों के उदाहरणों से बहुत शक्ति मिली है। अकेली-अकेली होकर स्त्रियाँ अपनी आवाज़ की आज़ादी के लिए या अपने अधिकारों के लिए तो हमेशा एक चुप लड़ाई लड़ती ही हैं। हर घर की दीवारें इस चुप लड़ाई की गवाह होती हैं। कहीं-कहीं ऐसे उदाहरण भी हैं कि अकेली स्त्री की लड़ाई इतिहास में दर्ज होकर अमर हो गई। मध्ययुग में ही जोन ऑफ़ आर्क - एक 17 वर्ष की युवती, अपनी धार्मिक आज़ादी की लड़ाई में चर्च द्वारा बीच-बाज़ार ज़िन्दा जला दी गई थी। परन्तु विस्तृत असर सामूहिक लड़ाइयों का ही पड़ता है। जोन ऑफ़ आर्क की कुर्बानी के बाद चर्च ने पश्चाताप किया और जोन को सेंट की उपाधि से विभूषित किया गया। इस तरह की धार्मिक या अन्य सत्ताधारियों की चालाकियों के उदाहरण जगह-जगह मिलते हैं। क्योंकि व्यक्ति या स्त्री समूह एक नियंत्रित रूप से संगठित नहीं थे, इन समूहों का कोई लम्बा एजेंडा नहीं था जो देर तक और दूर तक स्त्रियों की लड़ाई लड़ता, इसलिए ये लड़ाइयाँ एकदम भड़कने वाली आग की तरह उठीं और उसी तरह बुझा भी दी गईं जैसे एकदम उठनेवाली आग बुझा दी जाती है। आग के विपक्ष में सारा माहौल होता है। आग अकेली पड़ जाती है चाहे कितनी भी भीषण क्यों न हो।
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भारत में भी स्त्रियों से सम्बन्धित आन्दोलन को दो हिस्सों में बाँट कर देखा जा सकता है। एक मुख्य रूप से सुधारवादी आन्दोलन था जो पुरुषों ने सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध चलाया था। बालविवाह, सतीप्रथा, दहेज-प्रथा इत्यादि के विरोध में और स्त्री-शिक्षा, विधवा-विवाह के पक्ष में। दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ ठाकुर इत्यादि मुख्य रूप से आर्यसमाज और ब्रह्म समाज के मंच से बहुत बड़ी सामाजिक जागृति की आधारशिला बने। लेकिन पैतृक अधिकारों, नारी-पुरुष की समानता, श्रम विभाजन आदि की इन मनीषियों ने भी कोई बात नहीं की।
यह सच है कि कई देशों में जिस तरह गलियों से निकलकर आम औरतों ने बड़े उद्देश्यों के लिए हथियारबंद लड़ाइयाँ लड़ीं, उस तरह की मिसाल भारत में शायद नहीं मिलती। लेकिन 1857 के युद्ध में या उससे भी पहले बहुत सी स्त्री नेताओं ने अपने हाथ में कमान संभाल कर, सैनिक बनकर मैदान में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ युद्ध किया। 1817 में भीमा बाई होल्कर ब्रिटिश कर्नल मैलकाम के खिलाफ़ बहादुरी से लड़ी और गुरिल्ला युद्ध में उसे हराया। 1824 में कित्तूर की रानी चेनम्मा ने अंग्रेज़ों की सशस्त्र शक्ति का सामना किया। 1857 की क्रांति में रानी रामगढ़, रानी ज़िन्दा कौर, रानी तेज बाई, बैजा बाई, तपस्विनी महारानी ने बहादुरी से अपने सैनिकों का नेतृत्व किया। रानी झांसी इनमें सबसे प्रेरणादायी और ज्वलंत उदाहरण हैं स्त्रियों की वीरता का।
लेकिन ये आम स्त्रियाँ नहीं थीं। आम अधिकारों की लड़ाई भी नहीं थी। एक राज्य सुरक्षा की या राजनैतिक लड़ाई थी। इन विजयों या पराजयों का घर में कपड़े धोतीं, बर्तन मांजतीं, सड़क पर पत्थर कूटतीं, बोझा ढोतीं, खेतों में घुटने तक कीचड़ में खड़ी होकर धान रोपतीं, कच्ची दीवारें लीपतीं, पुरुषों से मार खातीं, शरीर नुचवातीं औरतों को कोई फर्क पड़ा या नहीं - इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। उनका भाग्य वही रहा।
देश की आज़ादी के संघर्ष में महात्मा गांधी के नेतृत्व में जितनी अधिक संख्या में स्त्रियों ने भाग लिया, उसकी मिसाल भारत के इतिहास में नहीं मिलती। स्त्रियों ने जुलूसों में शामिल होकर पुलिस की लाठियाँ खाईं, सड़कों पर घसीटी गईं, जेलों में गईं, काम-रोज़गार छोड़े, अपमानित हुईं और वह सब एक बड़े उद्देश्य के लिए, एक बड़े सपने के लिए। एक ऐसे सपने के लिए जिसमें उनकी ज़िन्दगी से जुड़े छोटे-बड़े सब सपने शामिल थे। सारे रास्ते एक रोशन मंज़िल की तरफ जाते थे। मारग्रेट कजंज ने ‘Forwards Progress and Freedom’ में इस बात को उभारा है। मारग्रेट आयरलैंड की स्वतन्त्रता सेनानी थी जो ऐनी बेसेंट का साथ देने भारत आई थी। सरोजिनी नायडू और उनके साथ हज़ारों महिलाएँ इस आन्दोलन में अनथक काम करती रहीं। नमक आन्दोलन में उनका साहस दर्शनीय था।
इन ऐतिहासिक घटनाओं को नज़र में रखना ज़रूरी है। आदिम पुरुष की बलिष्ठता, स्त्रियों की प्रजनन और पालन-पोषण का प्राकृतिक दायित्व, शारीरिक संरचनात्मक कमज़ोरियाँ इत्यादि तथ्य और तर्क-धर्म भले ही अपनी धूर्तता कायम रखने के लिए प्रयोग करे - लेकिन हमारी आज की सामाजिक संरचनाओं में, सभ्यताओं और संस्कृतियों के निर्माण-विकास में इन घटनाओं का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।
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1950 के बाद का संसार और उससे पहिले के संसार में हर तरह से फ़र्क आया है। सारे विश्व इतिहास में दुनिया जितनी तेज़ी से दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बदली, उसके पहले कभी नहीं। विज्ञान और टेक्नालॉजी ने सिर्फ़ पुरुषों को ही नहीं स्त्रियों को भी व्यक्तिगत तौर पर बहुत आज़ाद किया है। आर्थिक आज़ादी के अवसरों ने स्त्रियों को एक अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ला खड़ा किया है। सबसे बड़ी चीज़ जो काफ़ी संख्या में स्त्रियों को मिली है, वह है अपनी ज़िन्दगी के महत्वपूर्ण फ़ैसले स्वयं कर सकने की आज़ादी। भारतीय समाज में भी घर से सहमति या विरोध की स्थिति में हर स्त्री कुछ कदम खुद उठा सकती है। घर का विरोध अभी भी भारतीय स्त्रियों के फ़ैसला ले सकने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है लेकिन फिर भी सक्षम स्त्री के सामने कई रास्ते खुले हैं। दुर्भाग्य यह है कि ये सब अवसर बालिग होने के बाद आते हैं। इससे पहिले लड़कियों को क्या मिलता है - यह उनके माँ-बाप तय करते हैं, समय और सरकार तय करती है। और यही संघर्ष हमारी भ्रष्टाचारी व्यवस्थाएँ समाप्त नहीं होने देतीं। एक बच्ची स्कूल जाती है या मजदूरी करती है या भीख माँगती है - यह बच्ची पर निर्भर नहीं करता। दस वर्ष की आयु में विवाह किसी शराबी, निकम्मे से हो जाता है, उस पर निर्भर नहीं करता। सरकार इन मामलों में कहीं-कहीं कानून बनाकर सो नहीं जाती, बल्कि देखती है कि भ्रष्टाचारी शक्तियाँ उन कानूनों को लागू न होने दें। संघर्ष या विरोध हो तो उसे किस तरह दबाया जाए - इस बात का ज़िम्मा सरकार बड़े गर्व से अपने ऊपर लेती है। हर सरकारी हाथ में कम से कम एक मोटी लाठी तो है ही। सो जब ये बच्चियाँ बड़ी होती हैं, इनके हाथ में करने को कुछ रह नहीं जाता। जिनको बचपन में अवसर मिलते हैं, उन्हीं को बड़े होकर भी ज्ञान-विज्ञान के दिए अवसर मिलते हैं। सो, दोहरा संघर्ष है। अवसर पाने और अपना फैसला खुद कर सकने की उम्र तक पहुँचने से पहले का संघर्ष और उस उम्र के बाद उस पुरुष वर्ग और मान्यताओं का विरोध जो स्त्री को आज भी व्यक्तिगत या सामाजिक सम्पत्ति मानते हैं। स्त्री सारे समाज की है और पुरुष सिर्फ़ अपना है। स्त्री की ज़रा सी चूक से सारा घर बदनाम होता है, पुरुष की डाकाजनी भी उसका अपना ही ज़िम्मा है। घर क्या जाने, गली-मुहल्ले वाले क्या जानें! विडम्बना यह है कि भारतीय समाज में अधिकारों, अवसरों, जीने के तरीकों या सामान-सुविधाओं की बात एक सीमित वर्ग के बारे में ही की जा सकती है, उनके बारे में नहीं जो बचपन में ही धूल चाट लेती हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि जिनके पास कुछ भी होने की सम्भावना या सोच है, जिन्हें अपना संघर्ष एकदम साफ़ दीखता है और जिनके मनों में अपने आपको आज़ाद और पूर्ण स्त्री के रूप में देखने की उत्कट आकांक्षा है, उनकी सोच में वह सब स्त्रियाँ मौजूद रहनी चाहिए जिन तक कोई विचार, कोई साधन, कोई अवसर-एक दूरदराज़ के सपने जैसा भी नहीं है। जो जानती ही नहीं हैं कि उनकी ज़िन्दगी उसके अलावा कुछ हो सकती है जो अब है। जिनके लिए परिवर्तन का मतलब और ज़्यादा मजबूर, और ज़्यादा कमज़ोर और ज़्यादा बूढ़े हो जाने के सिवाय कुछ नहीं। ऐसी खोहों और कोटरों में पड़ी अपनी उस स्वजाति को स्मरण रखें जब भी एक कदम किसी नई सोच, नए अवसर, नए विश्वास की तरफ बढ़ाएँ। अगर ऐसा नहीं होगा तो समाज में एक और अवसर-सम्पन्न स्त्री जनसमूह ही पैदा होगा। पीछे मुड़ कर पीछे छूट गयों को आवाज़ें लगाते रहने में ही आगे बढ़ने का सुख भी है और मानवीय उपयोगिता भी। संवेदनहीन वर्ग संघर्ष सिर्फ़ अवसरवादी तत्वों को जन्म देता है जैसा पीछे इतिहास में हुआ।
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स्त्रियों में बालिग होने के बाद की अविवाहित स्थिति बहुत महत्वपूर्ण होती है। उस उम्र के छोटे-से जज़ीरे पर खड़े होकर चारों तरफ़ आने वाली उम्र का जल-थल ही नज़र आता है। एक घर की संस्था टूटने और दूसरे घर की संस्था शुरू होने के बीच की स्थिति है यह। सब से महत्वपूर्ण निर्णय लेने की अवस्था। अपनी असली दिशाओं की लपक-झपक देखने और लुकाछिपी का ज़्यादा लम्बा न चल पाने वाला खेल। एक घर की देहरी से निकल कर एकदम से दूसरे घर की देहरी में प्रवेश करने की स्थिति के बीच की अपनी असली पहचान जो सब स्थितियों का सीधा सामना करने से ही बनती है, होनी चाहिए। एक महिला-एक छात्रा या कर्मी के रूप में सिर्फ़ अपने अविवाहित अकेलेपन की स्थिति में रहे जहाँ उसके अपने निश्चय शुरू होते हैं। बाहर निकल कर पुरुष का एक नए रूप में ही सामना होता है। पुरुष सत्ताकांक्षी होने के इलावा साथ चलने वाला हठी जिज्ञासु भी है। उसकी हठी जिज्ञासाएँ हर सीमा का अतिक्रमण करने की स्फूर्ति में रहती हैं। इस बात को पहचान कर चलने की ज़रूरत है। दो देहरियों के बीच का अन्तराल उस समानता का अर्थ समझने का सुनहरा अवसर हो सकता है जिसके लिए बाकी सारा जीवन संघर्ष करना पड़ता है। अपनी तमाम संरचनात्मक विवश्ताओं के साथ रहते हुए स्त्रियाँ इस अकेलेपन की स्थिति में शक्ति संचय कर सकती हैं। यह सामाजिक साहस उन सीमित साधनों और शारीरिक आज़ादियों से जो उस अविवाहित अकेलेपन की अनुभवपूर्ण चिंतन-शीलता से आता है, कभी-कभी बाद की लम्बी उम्र तक भी नहीं आता।
माँ-बाप और घर की सत्ता से स्वतन्त्र होकर, थोड़ी बहुत मात्रा में आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर होकर, अपने ऊपर शुरू से लाद दी गई मान्यताओं से मुक्त होकर, अकेली रहकर नारी अपने चिन्तन और शारीरिक अस्मिता के विकास का अवसर प्राप्त करती है। तथाकथित नारी सुलभ लाजतन्त्र से मुक्ति प्राप्त करती है। नारी शरीर में कुछ भी ऐसा नहीं है जिस पर लज्जा की जाए। उस उम्र तक आते-आते नारी-पुरुष दोनों जानते हैं कि एक-दूसरे का शरीर आवरण के नीचे कैसा है। प्रजनन क्रियाओं की उत्सुकता, जिज्ञासा और ऊर्जा बनी रहती है जो स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। शरीर सम्बन्धी बातचीत स्त्री-पुरुष के बीच बेझिझक होनी चाहिए। लाज सिर्फ़ एक ग्रंथि है जो उपयुक्त विकास की कमी की वजह से स्त्री-पुरुष दोनों को असुरक्षित रखती है। स्त्रियाँ अपनी यौन-सम्बन्धी प्राकृतिक प्रक्रियाओं की बातचीत का साहस नहीं जुटा पातीं पुरुषों के सामने। ऐसा करने से पुरुषों का दम्भ अपने पुरुषत्व में और पक्का होता है। उनका यह दम्भ तोड़ना बहुत ज़रूरी है। स्त्रियाँ अपने मासिक धर्म तक का ज़िक्र पुरुषों के सामने नहीं कर पातीं। शारीरिक आज़ादी का अर्थ क्रियाओं की आपाधापी नहीं है बल्कि वह उन क्रियाओं के आतंकवादी दृष्टिकोण से छुटकारा पाने की स्थिति है। स्त्रियों को स्वयं इस लोक-लाज से बाहर आकर अपने शरीर की सामाजिक स्वाभाविकता पुरुषों पर स्थापित करनी होगी।
अकेली अविवाहित स्थिति में रहकर इस तरह के निस्संग पुरुष संसार से सम्पर्क का अवसर स्त्रियों को मिल सकता है जो न पहिले घर रहकर मिला था न शादी के बाद मिलता है। अलग आर्थिक स्थितियाँ और अलग-अलग भूभागों के रीति-रिवाज़ शरीर से जुड़े मिथकों को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। इसलिए एक सर्वभौतिक और शक्ति-सम्पन्न शारीरिक व्यवहार एक धरातल निर्मित कर सकता है जिस पर स्त्री-पुरुष सिर्फ़ इन्सान रह जाते हैं। एक-दूसरे की मित्र स्वीकृतियाँ स्थापित होती हैं। एक संवाद जन्म लेता है जो शरीरातीत संवदेनाओं को जन्म देता है। जहाँ किसी पुरुष का मित्र-आलिंगन स्त्री को विचलित नहीं करता किसी स्त्री का हल्का सा अनावृत्त वक्ष पुरुष को आक्रामक कामुकता की मनस्थिति में नहीं लाता। एक मित्र संसार निर्मित करना उद्देश्य है नारी पुरुष संसर्ग का। यह संवाद अकेली रहकर, विवाह से पहले की अविवाहित स्थितियों और अनुभवों का परिणाम हो सकता है जिससे नारी को अपना पुरुष चुनने में कोई भी बनी-बनाई कसौटी का इस्तेमाल न करना पड़े और न ही अपने-आपको सामाजिक शतरंज का मोहरा बनाना पड़े।
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उन्नीसवीं सदी में फ्रायड की मनोवैज्ञानिक प्राप्तियों ने नारीवादी आन्दोलन को विशेष क्षति पहुँचाई। आन्दोलन की स्त्री नेताओं को काफी संघर्ष करना पड़ा उन मान्यताओं के खंडन में। फ्रायड ने अपने विक्टोरियन समय के भाव से नारियों में Penis-Envy की बात कहकर उन्हें पुरुष की तुलना में कुछ कम होने की भावना से ग्रसित माना था। यह भी माना कि बेटा पा जाने पर स्त्रियाँ इस भाव से किसी हद तक मुक्त हो जाती हैं। पुरुष में कुछ अतिरिक्त है जो नारी में नहीं है - इसका अहसास बचपन से ही नारी को हो जाता है - फ्रायड की मान्यता थी। फ्रायड ने अपनी पत्नी को जो पत्र लिखे हैं उनसे साफ़ ज़ाहिर होता है कि वे अपने समय और समाज की मान्यताओं का अतिक्रमण नहीं कर सके। आज ऐसी कुण्ठा देखने को नहीं मिलती जिसका ज़िक्र फ्रायड ने किया है। स्त्रियों को अपनी शारीरिक संरचना पर गर्व भी है और खुशी का एहसास भी। अपनी पूर्णता को वे खुलेआम संसार पर व्यक्त कर देना चाहती हैं।
अभी तक सभी विवाद पक्षों ने अपना अपना क्षीण या एकांगी चिंतन इस स्थिति को ले कर प्रस्तुत किया है। मार्क्सवादी और दीगर समाजवादी कभी एक मत नहीं रहे। अस्तित्ववादियों की व्याख्या अलग रही। सिमोन ने सैकिंड सैक्स (Second Sex) में उन का विस्तृत मत रखा। विकासवादी और ही कारण मानते रहे स्त्री की इस स्थिति का। तत्ववादी धार्मिकता अपने उसी अंधे कुंए से आज तक गूंज रही है। जेनैटिक साईंस (Genetic Science) भी कोई निर्णायक बात नहीं कह सकती क्योंकि सामाजिक विकास के और धरातल आड़े आते हैं। हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रेज़िडेन्ट ने अभी पिछले महीने एक सभा में खलबली पैदा कर दी जब उन्होंने मज़ाक में ही स्त्रियों के विज्ञान अध्ययन में पीछे रह जाने का कारण जीन्स (Genes) का अन्तर होना बताया। बेचारे को तीन बार खुली क्षमा याचना करनी पड़ी। सभी पासों के तर्क गलत या सही नहीं हैं। कुल मिला कर कारण यही है कि समूचे विश्व समाज ने इस परिस्थिति पर ईमानदारी से एक जुट हो कर कोई निर्णायक संवाद ही शुरू नहीं किया। फैमिनिस्ट आन्दोलन अपनी-अपनी डफलियां बजाते रहे। शारीरिक सम्बन्धों और प्रजनन व्यवस्थाओं को लेकर जो संस्थाएं हमने बना रखी हैं, संस्थाओं के रूप में जो भ्रम हमने पाल रखे हैं, उन के छिन्न-भिन्न हो जाने का डर अपने आप में एक संस्था बन गया है। एक सांस्कृतिक निर्लज्जता और सामाजिक दुस्साहस ज़रूरी हो गया लगता है इस भय-सिद्धान्त को तोड़ने के लिए।
अभी हाल में ही अमेरिका के एक हाईस्कूल की लड़कियों ने अपनी टी-शर्ट पर 'I enjoy my vagina' छपवाकर स्कूल जाना शुरू कर दिया। स्कूल अधिकारियों ने इसका विरोध किया तो अगले दिन लड़कों ने 'I support your vagina.' छपवाकर टी-शर्टें पहन लीं। नगरवासियों ने उन 18 साल के लड़के-लड़कियों का साथ दिया। एक भारतीय मूल की कालिज छात्रा ने इसी आशय की शर्ट किसी और शहर में पहनी और उसके माता-पिता ने उस पर कोई आपत्ति नहीं की। अपनी यौन स्थिति को महत्व देने का, किसी से कमतर न होने का खुला ऐलान थीं ये घटनाएँ जिन्होंने फ्रायड के Penis-Envy के तर्क को खारिज ही नहीं किया, इसके विपरीत यह चेतावनी दी कि शारीरिक अंगों के आधार पर लोगों के बीच लज्जा या निर्लज्जता आधारित नहीं हो सकती। सिर्फ़ यौन वास्तविकताओं पर स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का भविष्य निर्धारित नहीं किया जा सकता। प्रकृति के उद्देश्यपूर्ति के लिए नारी और पुरुष की अलग-अलग संरचनाओं की सार्थकता बचपन से ही आजकल बच्चों को स्पष्ट कर दी जाती है।
कुछ बातें ऐसी हैं जिनसे हमारी स्त्रियों को निकलना पड़ेगा और कुछ बातें ऐसी हैं जिनका जमकर विरोध करना पड़ेगा। प्रसाधनों की गुलामी से निकलना होगा। प्रसाधन शुरू से ही स्त्री-पुरुष दोनों ही प्रयोग करते आए हैं। लेकिन उत्तेजक प्रसाधनों का अतिशय प्रयोग शक्तिहीनता और विचार-न्यूनता का द्योतक बन जाता है। व्यावहारिक और शारीरिक उन्मुक्तता सब प्रसाधनों से अधिक आकर्षक होती है। नाममात्र प्रसाधन स्वाभाविक ही हैं जो सदा से रहे हैं। दूसरी बात जिसका जमकर विरोध होना चाहिए, वह है आजकल मीडिया द्वारा शरीरों का सिर्फ़ कामुक संप्रेषण। हमारी Entertainment और Advertisement Industry ने यौन सौन्दर्य का भाव समाप्त कर दिया है। स्त्री-पुरुष दोनों को आक्रामक अस्वीकृति इसके विरुद्ध दर्ज करानी होगी। 'लोग ऐसा ही चाहते हैं' कहकर बात टाली नहीं जा सकती। पता नहीं, वे किन लोगों की बात करते हैं। शुद्ध यौन क्रियाओं के प्रदर्शन कहीं बेहतर हैं इस असभ्य हाथापाई, मारा-मारी और जिस्म के कुछ हिस्सों की उछल-कूद की अपेक्षा।
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भारतीय समाज में दलित और नारी दोनों ही हमारी तमाम उपलब्धियों का, सांस्कृतिक ऊंचाइयों का, दार्शनिक चिन्तनों का दुर्दन्त शिकार हुए। हैरानी की बात है कि महाभारत की द्रौपदी और हार्डी के मेयर ऑफ़ कैस्टरब्रिज की सूज़न हैन्चर्ड में तीन हज़ार वर्ष से भी ज़्यादा समय का अन्तर है। लेकिन दोनों की नियति एक ही। दोनों ही अपने पतियों द्वारा दाव पर लगा दी गईं। इतिहास और साहित्य दोनों ही सामाजिक सत्य प्रस्तुत करते हैं। विश्व समाज या समाजहीन विश्व का सत्य यही रहा है। इस घने अपराधबोध का एलबेट्रस गले में लटका कर समय के महासमुद्र में कब तक हमारा समाज भटकता रहेगा। कोई स्पष्ट और कर्म का विचारपथ हमे खोजना ही होगा। खुलकर एक साहसी बेझिझक, एक हद तक निर्लज्ज संवाद का जोखिम हमें उठाना ही होगा।
भारतीय परिवेश में विवाहित जीवन विकृतियों का शिकंजा है। उन विकृतियों से निजात पाना बहुत ज़रूरी है। स्त्रियों के लिए कोई रोशनदान, कोई खिड़की खुली नहीं रहती। पुरुष के लिए कभी भी, कहीं भी घर से या शहर से बाहर आना-जाना पुरुषत्व का विशेषाधिकार है। आधी रात तक मित्रों के साथ बैठकर मदिरा पीना और किसी भी छोटे-मोटे काम के लिए स्त्री को नींद से जगा देना इत्यादि ऐसी बातें हैं जो स्त्री को पायदान की स्थिति में रख देती हैं। बहुत बातें हैं जो काम पर जानेवाली स्त्री को भी किसी विशेष शक्ति सम्पन्नता या स्वतन्त्रता की स्थिति में नहीं लातीं। इसलिए ज़रूरी है कि विवाह के बाद स्त्री की भी पुरुष के समानान्तर अपनी निजी दुनिया हो। वे भी अपने पुरुष या नारी मित्रों के साथ बाहर जा सकें। घर या घर के बाहर अपनी मित्रों की संगत में या अलग उन्हीं अवसरों का निस्संकोच उपयोग कर सकें। पुरुष के लिए जो भी समाजसंगत है वह सब कुछ स्त्रियों के लिए भी मान्य होना ही होगा। घर से अनुपस्थित रहना बहुत ज़रूरी है अपनी उपस्थिति को महत्वपूर्ण बनाने के लिए। ढेर सारे, घर से बाहर के सम्पर्क स्त्रियों के होने चाहिए - जैसे पुरुषों के होते हैं। घर से किसी न किसी कारण से बाहर जाने के अवसर हमारी स्त्रियों के पास होने चाहिए। अपनी मित्रों के साथ कुछ दिन के लिए स्त्रियों को अपनी तरह का अवकाश प्राप्त करने के साधन जुटाने होंगे। पुरुषों को भी आज़ादी चाहिए स्त्रियों की हर वक्त की उपस्थिति से। पति-पत्नी से अधिक वे दो अलग-अलग व्यक्ति भी हैं। स्वाधिकारी व स्वतन्त्र। बच्चे पालना एक व्यवस्था है, प्रबन्ध है जो माता-पिता दोनों को समान रूप से वहन करना होता है। यह सिर्फ़ थका देने वाला नारी धर्म नहीं हालांकि नारियाँ इसे अपना ही विशेषाधिकार मानती हैं।
विवाह को एक खुली, काफ़ी ढीली और लचकदार संस्था अगर स्त्री-पुरुष बनाकर नहीं चलेंगे तो इस संस्था का भविष्य खतरे में है। पूंजीवाद, औद्योगिकरण इसे पहिले से ही अवांछित बनाए दे रहा है। बिना शादी के सन्तानोत्पत्ति और अस्थायी अविवाहित सम्बन्ध एक साधारण बात बनते जा रहे हैं पश्चिमी दुनिया में। उस समाज की अपनी विकृतियाँ हैं जिनसे हमारा समाज बच सकता है। लेकिन उनकी स्वतन्त्रता को विकृति नहीं माना जाना चाहिए। तमाम मानसिक और शारिरिक समझौतों के बाद भी पुरुष का आतंक अगर बना रहता है, उसकी पत्नी पर आधिपत्य की वृत्ति अगर टूटती नहीं तो स्त्रियों को अपनी अविवाहित स्थिति में वापिस आ जाने में डर या शर्म नहीं होनी चाहिए। बच्चे तो वैसे भी स्त्रियों की ज़िम्मेवारी बने रहते हैं। पुरुषों को हर वक्त इस बात का धुंआ-धुंआ एहसास बना रहना चाहिए कि उनकी पत्नियाँ कभी भी उन्हें छोड़ने की मनस्थिति में आ सकती हैं। एक समानान्तर स्थिति ज़रूर लाई जानी चाहिए। पुरुष हमेशा इस डर में रहे कि उसे कभी भी छोड़ा जा सकता है। स्त्रियाँ अकेली रह सकती हैं, पुरुष अकेला रहने में उस तरह उतना समर्थ नहीं होता। पुरुष के अकेले रह सकने की एक मिथ है जिसे तोड़ा जाना चाहिए।
कुछ और भी क्षेत्र हैं जिनमें स्त्रियों की अगुवाई या कम से कम एक सक्रिय भागीदारी उनकी अपनी सामाजिक गरिमा और प्रतिष्ठा के लिए ज़रूरी है। ऐसे काम जो अभी तक पुरुषों की ही परिधि में आते हैं - वहाँ बड़े आत्मविश्वास से स्त्रियों को अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी। राजनीति में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना होगा। 10 पुरुषों के साथ 10 स्त्रियाँ भी हर जगह मौजूद रहें। हर तरह की सामाजिक संस्थाओं पर भी पुरुषों का ही कब्ज़ा है। वहाँ भी स्त्री-हस्तक्षेप उतना ही व्यापक होना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में सिर्फ़ अध्यापकीय रोल में ही नहीं, स्त्रियों को उनकी प्रबन्धक समितियों विशेषणों, श्रमदानियों की हैसियत से आगे आना होगा। स्वयंसेवी संस्थाओं का गठन करके हर क्षेत्र में हमारी सांस्कृतिक और नैतिक शक्तियों को स्वरूप देना होगा। ख़ासतौर पर धर्म के अन्ध-विश्वासी प्रलोभनों में अर्ध-शिक्षित महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक आकर्षित दिखती हैं। धर्म एक ऐसी कुशक्ति है, ऐसी राक्षसी संस्था है जो सिर्फ़ शोषण करती है। पहिले ही से शोषित इकाई ही उनके शोषण का ज़्यादा शिकार बनती है। स्त्रियाँ हमारे समाज की रीढ़ की हड्डी हैं। उन्हें मजबूत होकर अंधविश्वासी शिकंजों से स्वयं को मुक्त करना होगा। सत्य-नारायण की कथाओं और भगवे चोलों ने जीवन की किसी तर्कसंगत सोच को कभी उभरने नहीं दिया। आज उनकी पकड़ सारे विश्व में और भी मजबूत होती जा रही है। संसार के चारों मुख्य धर्म - हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई और यहूदी अपनी पूरी आक्रामकता की स्थिति में आए हुए हैं। स्त्रियों को इस बात का बीड़ा उठाना होगा कि घर और बाहर का वातावरण इस धार्मिक आतंक से मुक्त हो। वैसे भी धर्मों ने किसी भी और संस्था से ज़्यादा स्त्रियों को प्रताड़ित किया है। यहूदियों की प्रातः प्रार्थना ही यही है कि हे प्रभु मैं तुम्हारा धन्यवादी हूँ कि तुमने मुझे पुरुष बनाया। ईसाई स्त्री का अस्तित्व Adam का अकेलापन दूर करने के लिए ही हुआ। मुस्लिम धर्म एक पुरुष को चार स्त्रियाँ रखने की आज्ञा देता है। हिन्दू धर्म अपने पौराणिक काल में स्त्रियों के लिए सबसे ज़्यादा अपमानजनक स्थितियाँ प्रस्तुत करता है जहाँ नारी एक भोग्या मात्र है या पशु समान है। आत्मविश्वास और तर्कसंगत व्यवहार सौ धार्मिक अनुष्ठानों से ज़्यादा शक्तिदायक होता है।
स्त्रियों की उपस्थिति सिर्फ़ आंकड़ों के रूप में नहीं बल्कि शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के रूप में हर जगह महसूस होनी चाहिए। कुछ ऐसा आयोजन स्त्री शक्ति को करना होगा। घर में पुरुष के साथ श्रम की समानता स्त्रियों के सम्मान और अस्मिता की पहली शर्त है। स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध की पहली शपथ जीवन भर साथ रहने की हो या न हो, श्रम में बराबरी की शपथ ज़रूर होनी चाहिए। हर क्षेत्र में समानता की स्थिति को सहज बनाना किसी भी सभ्य और सुसंस्कृत होने का पहला मापदण्ड होना चाहिए। बाकी उपलब्धियों की सार्थकता इसके बाद शुरू होती है।
एक संक्रमण की स्थिति में हमारी स्त्रियों को इतिहास में बिखरी हुई सुनहरी शक्तियों को फिर से प्रयोग कर सकने के इरादों से भरा होना चाहिए। रोमन 'बागीन' की तरह अकेले समूहों में रहने या फ्रांस की नारियों की तरह सशक्त विरोध करने की मनःस्थिति मौजूद रहने से शक्ति के केन्द्र बने रहते हैं। सामूहिक और व्यक्तिगत विरोध या विद्रोह चमकदार उदाहरण हैं जो स्मृति से ओझल नहीं होने चाहिए। सारी लक्ष्मण रेखाएँ रेत पर उँगली से खिंची लकीरों में बदल सकती हैं। आँसुओं की तरह ही इन्हें भी हाथ के एक झटके से पोंछा जा सकता है। विश्वसाहित्य ऐसे स्त्री पात्रों से भरा पड़ा है। कहानियों में वे स्त्रियाँ घरों, गलियों, कस्बों और शहरों से ही आई हैं। पुरुष अगर स्त्री के साथ मिलकर घरों, दफ्तरों, कारखानों, सड़कों, गलियों को ज़्यादा रहने, काम करने, घूमने-फिरने योग्य स्थान नहीं बना सकता तो स्त्रियों को अपना रास्ता अलग चुनने का फैसला करना ही पड़ेगा शान्ति से या युद्ध से।
(अगस्त 2005)