स्त्री -पुरुष संबंधों की लघुकथाएँ / सुकेश साहनी

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स्त्री-पुरुष सम्बंधों पर लिखी गई लघुकथाओं में लघुकथाकारों ने विभिन्न स्थितियों का बहुत ही बारीकी से विश्लेषण किया है। प्रमुख बात यह है कि लघुकथाकारों के पात्र निराशावादी नहीं हैं, वे क्षणिक उत्तेजना एवं भावुकता से काम नहीं लेते। ये रचनाएँ ताजगी का अहसास कराती हैं, ये मानवीय संवेदना और परम्परागत भारतीय संस्कृति की उष्मा लिये हुए हैं। इनमें जीवन का सकारात्मक, सुखद एवं खुशबूदार पहलू परिलक्षित होता है। स्त्री-पुरुष सम्बंधों पर लिखी गई रचनाओं को निम्न रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है-

एक-सफल-असफल दाम्पत्य: विश्वास-डॉ. सतीशराज पुष्करणा, हिस्से का दूध-मधुदीप, संवाद-सतीश राठी, एक जीवन दर्शन-डॉ.श्याम सुन्दर व्यास, जिन्दगी-महावीर प्रसाद जैन, अयात्रा-राजकुमार गौतम, मोहभंग-कृष्ण शंकर भटनागर, आदमी-अशोक शर्मा 'भारती' , यन्त्रवत्-नंदल हितैषी, मौसम-कृष्ण गम्भीर, सभ्य-असभ्य-श्याम सुन्दर शास्त्री, अपना-अपना दर्द-श्याम सुन्दर अग्रवाल, इस्तेमाल-महेश दर्पण, लड़ाई-रमेश बतरा, कुन्दन-पवन शर्मा, मन्द-मन्द लौ-डॉ. अमरजीत सिंह, किसान और उसकी बीवी-बलवीर परवाना, सुधार-गुरजाड अप्पाराव, डबल बैड-दिनेश पालीपाल, उपचार-नीलम, आखिरी सफर-अज्ञात।

दो-प्रेम सम्बन्ध: वक्तकटी-पृथ्वीराज अरोड़ा, सच की धूप-शराफत अली खान, छोटे-बड़े हरे टुकड़े-कुमार नरेन्द्र, सांप और सांप-जगदीश बत्रा, आज का रांझा-कमलेश भारतीय, तस्वीर-कमल गुप्त, पीरीन पियारे पिराणनाथ-विष्णु प्रभाकर, जूठा सुच्चा-सुलक्खन मीत, अमिया-अशोक भाटिया, मर्सिया-डॉ. उपेन्द्र प्रसाद राय, नंगे-गम्भीरसिंह पालनी, मौली के तार-शान्ति मेहरोत्रा।

तीन-पति-पत्नी और वह अथवा प्रेम-त्रिकोण: भीड़ में-डॉ. सुरेन्द्र मंथन, तार-शकुन्तला किरण, अपने पार-राजेन्द्र यादव, अमीर देश की कथा-यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' , स्मृति-मोहनलाल पटेल, गूंज-सुकेश साहनी और सुबह हो गई-रामेश्वर काम्बोज ' हिमांशु, डल की सैर-अख्तर मोहीउद्दीन, आहत-विपिन जैन, खेल-कमल चोपड़ा, मैं मरा नहीं-जगरूप सिंह दातेवास।

चार-शिक्षा का अभाव: मीलों लम्बे पेंच-विक्रम सोनी।

पाँच-सामाजिक रूढि़याँ और धार्मिक अंधविश्वास: बंधनों की रक्षा-आनन्द मोहन अवस्थी, पति और पत्नी-भगीरथ, रूढ़ियाँ-रूपसिंह चंदेल, बेटी-मोहन सिंह सहोता।

छह-शिक्षित नारी: तलाक के बाद-कुवंर अजान, औरत और मोमबत्ती-दर्शन मितवा, शोषित-प्रतिमा श्रीवास्तव, जगमगाहट-रूप देवगुण।

सात-आधुनिकता के दायरे में: पतिव्रता-कमलेश भट्ट 'कमल' , किस्त दर किस्त-वीरेन्द्र जैन, स्वापिंग-डॉ. सतीश दुबे।

आठ-मनोवैज्ञानिक पक्ष: विष-पुत्र-सिमर सदोष, पहचान-विकेश निझावन, प्रदूषण-सूर्यकान्त नागर, ताल-जोगेन्दर पाल, क ख और एक बच्चे की माँ-माहेश्वर चुम्बन-डॉ. शंकर पुणताम्बेकर।

एक-आज पति-पत्नी के सम्बंध भी अन्य सम्बंधों की भाँति अर्थ-केन्द्रित हो गए हैं। अर्थाभाव के कारण न जाने कितने परिवारे टूटे हैं। पति-पत्नी के बीच तलाक की स्थिति आम होती जा रही है। इसका मुख्य कारण पति-पत्नी में समझदारी एवं आपसी विश्वास की कमी है। पति-पत्नी के बीच अर्थाभाव के धरातल पर जो लघुकथाएँ लिखी गई है। उनका सुखद पहलू यह है कि पति-पत्नी समझदार हैं, तमाम परेशानियों के बावजूद उन्होंने अपने सम्बंधों को तलाक की हद तक बिगड़ने नहीं दिया है।

सीमित आय को देखते हुए पति-पत्नी निर्णय लेते हैं कि कम से कम पाँच वर्ष तक अपने बीच बच्चा नहीं आने देंगे। बहुत एहतियात के बावजूद पत्नी गर्भवती हो जाती है। जिस सुखद क्षण की प्रत्येक पति-पत्नी को बेकरारी से प्रतीक्षा रहती है, आर्थिक संकट के कारण वही क्षण उनके घर में मातम जैसी स्थिति पैदा कर देता है। पति-पत्नी समझदार हैं, जीने के लिए जिस संघर्ष की आवश्यकता है उसका एकाएक भान होते ही अपने हर सुख-दुख में एक में एक और नाम शामिल होने की खुशी महसूस करने लगते है।

(जिन्दगी-महावीर प्रसार जैन)

एक दूसरे पर समर्पित पति-पत्नी और एक गिलास दूध...पत्नी चाहती है, पति दूध पी ले। पति बहाना बनाता है कि बीड़ी के ऊपर चाय-दूध नहीं पिया जाता। वह पत्नी के लिए चिन्तित है जिसने एक बच्चे को जन्म दिया है। यदि वह खुद दूध नहीं पिएगी तो बच्चे को क्या पिलाएगी। ऐसे क्षणों में कोई लेनदार आ धमकता है। खाली जेब के कारण वह लेनदार की खातिर करने को विवश है। वह उसी दूध से पत्नी को चाय बनाने का आदेश देता है।

(हिस्से का दूध-मधुदीप)

इस श्रेणी में विश्वास (सतीशराज पुष्करणा) , संवाद (डॉ. सतीश राठी) , एक जीवन दर्शन (डॉ. श्याम सुन्दर व्यास) , अ: यात्रा (राजकुमार गौतम) आदि लघुकथाएँ रखी जा सकती है।

पति-पत्नी के सम्बंधों में निष्ठा और विश्वास की कमी हुई है। कहीं-कहीं तो पति-पत्नी का रिश्ता शारीरिक सुख प्राप्त करने तक सीमित रह गया है-पति, पत्नी को मायके से ले आने के लिए उतावला है; क्योंकि वह पत्नी के बगैर नहीं रह सकता, उसकी जुदाई उसे सालने लगी है। डॉक्टर को दिखाने के बाद पत्नी कहती है-

"यूटरस और ओवरी में सोजिश है-और तीन माह तक पूरी छुट्टी ...समझे!"

"ओह..." वह गम्भीर मुद्रा बनाकर बोला, "ठीक है, तुम तीन महीने यहीं पर रह लो...मैं किसी तरह काट लूँगा।"

(मोहभंग-कृष्ण शंकर भटनागर)

जहाँ पति के पत्नी से सम्बंध केवल शरीर तक सीमित है वहाँ उससे किसी भी प्रकार की क्रूरता की अपेक्षा की जा सकती है।

(आदमी-अशोक शर्मा 'भारती' )

अहं के अतिरेक एवं समझदारी के अभाव में पति-पत्नी के सम्बंध यांत्रिक हो गए हैं (यंत्रवत्-नन्दल हितैषी) । सम्बंधों के इस ठण्डेपन को 'मौसम' में कृष्ण गम्भीर ने भी उठाया है। मूसलाधार बारिश में पत्नी को डर है कि छत किसी भी क्षण बैठ जाएगी। वह अपने बेटे को गोद में लिए इस कोने से उस कोने में शरण ले रही है और पति के बारे में बेहद चिन्तित है, जो ऐसे मौसम में घर नहीं आया। पति लौटकर लापरवाही से कहता है-कहीं छत ही न बैठ जाए इस ख्याल से ही वह चुन्नी बजाज के तख्त पर सो गया है। एकाएक पत्नी को लगता है बारिश में इतने मकान कभी नहीं ढहते जितने कि धूप निकलने पर। हैरानी उस समय होती है जब पति-पत्नी अपनी ज़िन्दगी के अन्तिम पड़ाव पर पहुँच जाते हैं और उस समय भी एक-दूसरे के दर्द से अनभिज्ञ होते हैं। साठ वर्षीय मिस्टर खन्ना की कोई फिक्र नहीं है। मिस्टर खन्ना का दर्द यह है कि वह जल्दी से जल्दी पत्नी की प्लास्टिक सर्जरी कराकर उसे फिर सुन्दर और जवान बनाना चाहते हैं।

(अपना-अपना दर्द-श्याम सुन्दर अग्रवाल)

पति-पत्नी के सम्बंधों के ठण्डेपन को 'सभ्य-असभ्य' (श्याम नन्दन शास्त्री) में भी उजागर किया गया है।

पति-पत्नी समझदारी से काम लें तो ज़िन्दगी के प्रत्येक क्षण को खुशियों से भर सकते हैं। वेश्या सुधार आन्दोलन में शामिल गोपाल का मन वेश्या सुधार के बजाय उनके नाच-गानों में ज़्यादा रमने लगा है। वह रात एक-एक बजे घर पहुँचता है। नई-नवेली कमलिनी आम औरतों की तरह कुढ़कर मायके के लिए सामान नहीं बाँध लेती बल्कि मायके जाने का धमकी भरा पत्र लिखकर खटिया के नीचे छुप जाती है और इस प्रकार पति को अपनी गलती का अहसास बहुत ही प्रभावशाली ढंग से करा देती है।

(सुधार-गुरजाड अप्पाराव)

लघुकथा डबल बैड (दिनेश पालीवाल) का पति मिस्टर खन्ना की तरह अपनी पत्नी की प्लास्टिक सर्जरी करवाने की ज़रूरत महसूस नहीं करता क्योंकि उसे मालूम है कि खूबसूरती तो एक-दूसरे की नजरों में है। तभी तो पत्नी के साथ दिल से की गई थोड़ी-सी चुहल के बाद उसे लगता है कि पत्नी की सूखा छुआरे जैसा चेहरा अचानक ही चालीस साल पीछे लौट गया और उसकी पत्नी कोई सोलह-स़तरह बरस की नवविवाहिता है जो उसके साथ चलने और खड़े होने तक में लजा रही है।

उपचार (नीलम) लघुकथा में भी यही दर्शाया गया है कि पति-पत्नी एक-दूसरे पर अटूट विश्वास रखें तो 'पंगु गिरि लंघे' की तर्ज पर अस्थायी रूप से हृील चेयर पर बैठी पत्नी बिना किसी उपचार के उठ खड़ी हो सकती है।

हमारे समाज में ऐसे स्त्री-पुरुष की कमी नहीं है जो अपने व्यक्तिगत हितों के ऊपर उठकर अपना सर्वस्व देश एवं समाज के लिए होम कर देते हैं। ससुर के नाम आया तार बहू लेकर पढ़ लेती है कि उनका फौजी बांका बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गया है। बहू आम औरतों की तरह रोती-धोती नहीं है, सास-ससुर से झूठ बोलती है कि पति ने लिखा है-हम जीत रहे हैं, हमेशा की तरह इस बार घर नहीं आ पाएगा। बहू कमरे में आकर फौजी की हर चीज को देखती है। फौजी ने पहली बार जिस जोड़े में उसे देखा था, प्यार किया था, उसे पहन लेती है। फिर फौजी की बन्दूक को बगल में लिटाकर उसे चूमते-चूमते सो जाती है। सतही सोच वाली पत्नी आत्महत्या की बात सोच सकती थी पर फौजी की पत्नी को मालूम है-उस जैसी स्त्री की बहुत ज़रूरत है-देश को, समाज को, उसके सास-ससुर को (लड़ाई-रमेश बतरा) , 'कुन्दन' लघुकथा (पवन शर्मा) की अंजु जैसी पत्नी हर घर में हो तो न जाने कितने संयुक्त परिवार टूटने से बच जाए. इसी श्रेणी में 'मंद-मंद लौ' (डॉक्टर अमरजीतसिंह) और किसान और उसकी बीबी (बलबीर परवाना) नामक लघुकथाओं को रखा जा सकता है।

पति-पत्नी गृहस्थी के दो पहिए हैं। अन्त में एक-दूसरे से बिछुड़ना ही पड़ता है। उसके बाद जीवन साथी की यादें ही रह जाती हैं। प्रश्न यह है कि ये यादें कैसी हैं! खचाखच भरी हुई बस में बैठा बुजुर्ग अपनी बगल की एकमात्र खाली सीट पर झोला रखे हुए है। तमाम पैसेन्जर उस सीट पर बैठने के लिए किट-पिट कर रहे हैं। बुजुर्ग का एक ही जवाब है-'सवारी बैठी है'। वह कहीं गहरे डूबा है। कण्डक्टर के हस्तक्षेप करने पर बुजुर्ग अपनी जेब में से दो टिक्ट निकालकर कण्डक्टर को पकड़ा देता है। आँसू पोंछते हुए कहता है, "दूसरा टिकट मेरे जीवन साथी का है। वह अब इस दुनिया में नहीं रही। ये उसके फूल है...यह जीवन साथी के साथ मेरा आखिरी सफर है..." (आखिरी सफर-अज्ञात) इस लघुकथा को पढ़कर सहज ही उस बुजुर्ग के अपने जीवन साथी के साथ बिताए गए सम्पूर्ण जीवन का अनुमान लगाया जा सकता है।

दो-स्त्री-पुरुष के प्रेम सम्बंधों के बारे में युगों से लिखा जा रहा है। स्त्री-पुरुष सम्बंधों की धुरी पर ही दुनिया कायम है। आधुनिक शिक्षा एवं सभ्यता के कारण प्रेम सम्बंधों को समाज में विवाह के रूप में स्वीकृति भी मिलने लगी है। नारी मुक्ति के युग की स्त्री-पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। उसमें आत्म विश्वास पैदा हुआ है। पुरुषों ने झूठा प्यार जताकर पर सहज सदियों से नारी का शोषण किया है। आज वह पुरुष के प्यार परसहज ही विश्वास नहीं कर लेती। चेहरे पर सड़ी हुई झिल्ली लगाकर वह प्रेमी की परीक्षा लेना जानती है (आज का रांझा-कमलेश भारतीय) पुरुष केप्रेम में पहले की भांति जल्दी ही सम्पूर्ण समर्पण नहीं कर देती बल्कि पुरुषों द्वारा नारी के पूर्व में किए गए शारीरिक शोषण को ध्यान में रखते हुए पूर्ण सजग है (सांप और सांप-जगदीश बतरा, छोटे बड़े हरे टुकड़े-कुमार नरेन्द्र) , दूसरी ओर मंच सितारा संस्कृति में पले बढ़े पुरुष ने स्त्री के शारीरिक शोषण के नए-नए रास्ते खोज निकाले है जिनमें फंसकर नारी के पास आत्महत्या के अलावा और कोई चारा नहीं रहता (तस्वीर-कमल गुप्त) महानगरों में एक ऐसा नारी वर्ग बहुत तेजी से पनप रहा है जो पुरुषों को अपने समकक्ष मानने में शर्म महसूस करता है। इस प्रकार की नारी मनचाही ज़िन्दगी जीने, प्रेम या विवाह करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है। वक्त काटने के लिए यह वर्ग विवश पुरुषों के साथ चूहे-बिल्ली काखेल खेलने में आनन्दित होता है, साथ ही जहाँ तक सम्भव हो आर्थिक शोषण भी करता है (वक्त कटी-पृथ्वीराज अरोड़ा)

वक्तकटी उस समय और भी भयानक रूप ले लेती है जब स्त्री-पुरुष रक्षाबन्धन जैसे पवित्र बंधन की आड़ में शिकार करने की फिराक में रहते हैं (नंगे-गम्भीरसिंह पालनी, मौली के तार-शान्ति मेहरोत्रा)

हमारे देश की युवा पीढ़ी के आस-पास पनप रही भोगवादी संस्कृति गाजर धास की तरह बढ़ रही है, जो न केवल उपजाऊ विचारधारा को खाती जा रही है, बल्कि अपना विस्तार भी अपरिचित रूप से कर रही है। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति की मजबूत जड़ों के कारण सच्चा प्यार करने वालों की कमी नहीं है। पाश्चात्य सभ्यता की दौड़ में जहाँ विवाह से पूर्व किसी किशोरी का माँ बन जाना सामान्य-सी बात है, वहीं सच्चे प्यार की मधुर भावनाओं में रची-बसी भारतीय किशोरी को अपने प्रेमी को आँख भरकर देख लेने से ही लगता है कि बहुत कुछ ग़लत हो गया है। (अमिया-अशोक भाटिया)

भरा हुआ मुख, गदराए कपोल, बड़ी-बड़ी चंचल आँखें और रहस्यमय आत्मीयता से पूर्ण गहन गम्भीर वाणी वाली नारी उस अबोध बालक से पीरीन पियारे पिराणनाथ से शुरू होने वाली चिट्ठी पढ़वाती है। उस मू़ढ़ बालक को प्रेम का रहस्य समझाती उस नारी में कुछ तो विशेष बात होगी जिसके कारण लगभग साठ वर्षों बाद भी उसका चेहरा मस्तिष्क में उसी तरह अंकित है। (पीरीन-पियारे पिराणनाथ-विष्णु प्रभाकर)

तीन-नगरों अथवा महानगरों में आधुनिक शिक्षा ग्रहण करती नारी अपने ढंग से जीवन जीने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है। जीवन-यात्रा में पति-पत्नी अथवा प्रेमी-प्रेमिका के बीच किसी तीसरे स्त्री या पुरुष का आ जाना स्वाभाविक है।

डैडी के मित्र का लड़का उसे चकोर की तरह चाहता है, जबकि वह उसे छोटे भाई के रूप में देखती है। इस तरह के अति भावुक प्रेमी किसी के शान्त-सुखी वैवाहिक जीवन में भी आग लगाने से बाज नहीं आते (तार-शकुन्तला किरण)

समाज में एक ऐसा धनी वर्ग बड़ी तेजी से पनप रहा है, जो स्वयं को अत्याधुनिक समझता है और इसने आधुनिकता के नाम पर पंच सितारा होटलों, क्लबों में अय्याशी के लिए तरह-तरह के रास्ते खोज निकाले हैं। इस वर्ग में पति पत्नी के सम्बंध किस कदर ठण्डे हो गए हैं, इसका चित्रण अमीर देश की कथा (यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' ) में किया गया है-पत्नी किसी ' तीसरे के साथ हमबिस्तर है। पेशेवर हत्यारा कोठी में घुसता है और पत्नी को बुलाकर कहता है, "मैं तुम्हारी नहीं तुम्हारे पति की हत्या करना चाहता हूँ। यदि तुम बाधा बनी तो तुम्हें भी यमलोक पहुँचा दूँगा।"

पत्नी ने अपना पसीना पोंछते हुए एक आह छोड़ी-"ओह, मैं तुम्हारे बीच में बाधा क्यों बनूँगी? पर सुनो, मेरा पति उस सामने वाले कमरे में सोया हुआ है, तुम उधर इत्मीनान से चले जाओ."

हत्यारे की आँखें फटी कीफटी रह गई. वह हैरानी से बोला, "फिर यह कौन है तुम्हारे पास?"

महिला चिढ़ गई, झुँझलाकर बोली, "तुम हत्या करने आए हो या जासूसी करने? जाओ अपना काम करो।"

पति पत्नी के सम्बंधों के इस ठण्डेपन की परिणति किसी अपराध के रूप में भी सम्भव है। पत्नी और उसका प्रेमी मिलकर पति की हत्या कर देते हैं और सुख से जीने का भ्रम पालते हैं। किए गए अपराध की गूँज ऐसे लोगों को चैन से जीने नहीं देती (गूँज-सुकेश साहनी)

पति-पत्नी के बीच उस तीसरे स्त्री या पुरुष के आ जाने से संतान के मन एवं मस्तिष्क पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है इसे 'अपने पार' में राजेन्द्र यादव जी ने बहुत ही सशक्त तरीके से व्यक्त किया है-पति-पत्नी अलग हो चुके हैं। पति ने दूसरी शादी कर ली है। पत्नी अपने बच्चे के साथ अलग रह रही है। यहाँ भी पत्नी के साथ 'वह' गले में हाथ डालने वाले अंकल के रूप में मौजूद है। अपने अतीत में डुबकियाँ खाती पत्नी और मासूम बच्चे की मन: स्थिति का बहुत सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है:

वापस आकर मैं पाँव पटकता हूँ, गिलास फोड़ता, बात नोचता हूँ। मम्मी कहती है, "बिल्कुल अपने पापा की तरह कर रहा है।"

फिर रोने लगती है, पलंग पर लेटकर। उसे रोते देखकर, मैं भी रोने लगता हूँ। उसे चूमता हूँ। उससे लिपटता हूँ। उसकी छातियों पर लदकर, उसके पल्ले से आँखें पोंछता हूँ। मम्मी मुझे अजीब आँखों से देखती हैं लगता है, वह मुझे पहचानती है। ध्यान से देखकर कुछ याद करने की कोशिश कर रही है। पता नहीं, मम्मी को देखते देखकर मुझे क्या हो जाता है। लगने लगता है जैसे मैं, मैं नहीं, पापा हूँ...

फिर हम दोनों चिपकर सो जाते हैं...

इस प्रकार खेल (कमल चोपड़ा) में वीनू का अपनी माँ से किया गया सवाल हमें झकझोर कर रख देता है।

और सुबह हो गई (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु) में भी' वह लालसिंह के रूप में उपस्थित है परन्तु यहाँ परेश केा शालू पर पूर्ण विश्वास है और वह उसके आगे विवाह का प्रस्ताव रख देता है। अत: पति-पत्नी एक दूसरे पर विश्वास करना सीखें तो पति-पत्नी के बिखरते सम्बंधों को काफी हद तक रोका जा सकता है।

चार-शिक्षा के अभाव में परिस्थितियों से समझौता ही पत्नी की निर्यात है। पाँच रुपये देकर मालिक उसकी इज्जत से खेलता है। घर लौटने पर पति कहता है, " तो साली गाँव गोहार क्यों मचा रही है...यें? ससुरी तिरिया चरितर दिखाती है। मालिक के बेटे की चुगली खा रही है...ये? और पाँच का नोट उठाकर बाहर निकल जाता है। (मीलों लम्बें पेंच-विक्रम सोनी)

पाँच-इस श्रेणी में पति-पत्नी के सम्बंधों का पारम्परिक रूप से ही चित्रण अधिक हुआ है। सामाजिक रूढ़ियों एवं धार्मिक अंधविश्वास से जुड़ी पत्नी पति के प्रति आस्थावान एवं समर्पित है चाहे पति उसपर कितने ही जुल्म क्यों न ढाए-निठल्ला शराबी पति घर में घुसता है और पत्नी पर रोटी न बनाने के लिए बरसता है और उसे रांड कहकर पुकारता है। पुत्र के हस्तक्षेप से क्रोधित होकर लकड़ी का टुकड़ा पुत्र को फेंक मारता है। तभी पत्नी बाहर से लौटती है। उसके ओढ़णे में बँधी पोटली में आटा है, वह दिन भर मजदूरी करके आटा लाई है। शराबी पति अपनी पत्नी पर यारों के साथ मौज-मस्ती करके लौटने का आरोप लगाता है। बेटा माँ को अपनी चोट दिखाते हुए दूसरा घर बसा लेने के लिए कहता है। माँ कहती है, "नहीं बेटा! तू तो अलग हो सकता है, मेरे तो करम इससे बँधे है।"

(पिता, पति और पत्नी-भगीरथ)

छह-आधुनिक शिक्षा के कारण स्त्री प्रगति के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर चल रही है, महानगरों की भाग दौड़ में जीती नारी ने अपनी परम्पराओं को तोड़ा है। अब उसके तन और मन पर उसका अपना अधिकार है और वह पुरुषों को इस बात का अहसास कराने में स़क्षम है कि वह अब मोमबाी नहीं है।

(औरत और मोमबत्ती-दर्शन मितवा)

वह दो बार नौकरी छोड़ चुकी है, कारण-बॉस की वासनात्मक दृष्टि। तीसरी जगह वह मुकाबला करने का निर्माण करती है। बॉस उसे फाइलें चेक करवाने के लिए एक कमरे में ले जाता है। वह अपने पिछले अनुभवों के कारण सोचती है, ज्यों ही बॉस उसे छुएगा वह शोर मचा देगी। बॉस की ओर से कोई हरकत नहीं होती। एकाएक बिजली गुल हो जाती है और बॉस हँसते हुए कहता है, "देखो, तुम्हें अँधेरा अच्छा नहीं लगता होगा। तुम्हारी भाभी को भी अच्छा नहीं लगता। जाओ तुम बाहर चली जाओ."

उस युवती को लगता है कि अँधेरे कमरे में हजार-हजार पावर के कई बल्ब जगमबा उठे हैं। लेखक ने इस लघुकथा के माध्यम से उस 'अच्छाई' की ओर संकेत किया है जिसने सदैव 'बुराई' पर जीत हासिल की है।

(जगमगाहट-रूप देवगुण)

सात-पाश्चात्य सभ्यता के अंधे अनुसरण के दुष्परिणाम ही सामने आए है। अति-आधुनिकता के नशे में क्लबों में अपनी पत्नियों को बदलने का खेल खेलते हुए रघुवीर अपनी सुशीला पत्नी से हाथ धो बैठता है।

(स्वापिंग-डॉ. सतीश दुबे)

आठ-स्त्री-पुरुष सम्बंधों के मनोवैज्ञानिक पक्षों का विश्लेषण करती बहुत-सी सशक्त लघुकथाएँ लिखी गई हैं। पवित्रता की लक्ष्मण रेखा को लांघना आसान नहीं है-

एक शर्मीला-सा लौंडा झिझकते हुए कोठेवाली के करीब आकर बोला, "क्या आप स्टूडैन्ट कन्सेशन देती हैं?"

कोठेवाली उस स्टूडैन्ट को बड़ी ममता भरी आँखों से देखकर मुस्कराने लगी और उनके मुँह से बेइख्तियार निकल गया, " हाँ बेटे, क्यों नहीं? '

(ताल-जोगेन्दर पाल)

आज हमारे देश के कम उम्र युवक-युवतियाँ फ़िल्मों के मायाजाल में बुरी तरह जकड़कर स्वप्नजीवी हो गए हैं। पिता मोची से जूते सिलवाते हुए अपनी बेटी के मुँह से टीचर के लिए कहे गए शब्द सुनता है, "मुझे तो बहुत प्यारा लगता है...बिल्कुल अमोल पालेकर जैसा!" लेखक ने बहुत ही सशक्त तरीके से फ़िल्मी प्रदूषण के शिकार युवावर्ग की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।

(प्रदूषण-सूर्यकान्त नागर)

ऊपर ये कुछ चुनी हुई लघुकथाओं के नाम दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त बहुत सारा लघुकथा साहित्य सामने है। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि लघुकथा में विषय या दृष्टि की व्यापकता की कमी है। लघुकथा ने जीवन के हर क्षेत्र को छुआ है। वह अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से न तो कल विमुख थी और न आज विमुख है। -0-