स्त्री / अन्तरा करवड़े

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"अब मैं ऐसा क्या करूँ जो तुम खुश रहोगी?"


सुधीर हड़बड़ाकर उठ बैठा। माथे पर पसीने की बूँदें। तेजी से चलती हुई साँसें। ड़रा हुआ सा अंतर्मन। मस्तिष्क में असंख्य प्रश्न लहरों का उतार चढ़ाव। उसने घड़ी देखी¸ रात के दो बज रहे थे।


"ये रीमी के खयालात! नींद भी जकड़े बैठे है।" और उसके समक्ष¸ चम्पई आभा की मलिका¸ साधारण नैन नक्श वाली ठिगने कद की युवती सजीव हो उठी। यही है रीमी। उसकी नई क्लायंट।


अपने वकालत के पेशे में सुधीर रोजाना कितने ही अजीबोगरीब व्यक्तित्व से मिला करता था। विचित्र परिस्थितियों से दो - चार हुआ करता। स्वयं संयुक्त परिवार से होने के कारण पारिवारिक मामलों की जटिलता से वह सहज परिचित था। कई त्रासद परिस्थितियों में जीती हुई महिलाओं को उसने धीरज बँधाया था। उनके परिवारजनों को समझाईश देकर बदलाव लाने में भी सफल रहा था। बेटी के घर आ जाने से दुखी माँ - बाप उसके दरवाजे आते और माथे की सलवटों के स्थान पर चेहरे की आसभरी मुस्कान ले लौटते। टूटन की कगार पर खड़े कितने ही घरौंदे आज उसके प्रयासों के कारण मजबूती से तने खड़े थे। कई बार उसे अपनी इन उपलब्धियों को देखकर¸ लोगों का उसके प्रति कायम विश्वास देखकर आनंद होता। आखिर जिस उद्‌देश को सामने रखकर वह वकालत जैसे जटिल पेशे से जुड़ा था¸ वह कुछ हद तक पूरा होता दिखाई पड़ता था।


इसी संतुष्ट जीवन में दो साल पहले कमल चरणों से आई पत्नी रेणु ने एक नवीन उजास¸ उल्लास और पूर्णता भर दी थी। वैचारिक स्तर पर उसे भी कई बार रेणु की आकलन शक्ति का लोहा मानना पड़ा था। ऐसे अवसरों पर वह उससे यही कहा करता कि रेणू को ही उसकी जगह पर वकालत के लिये आना चाहिये था।


रेणु हँसकर रह जाती। उसे तो शौक था केवल विद्या दान करने का। कितने ही गरीब विद्यार्थी उससे अपनी शैक्षणिक समस्याओं का समाधान पाते। धन के लालच में न पड़ते हुए सुधीर और रेणु¸ एक दूसरे के पूरक बने हुए कितने अच्छे से जी रहे थे।


और उन्हीं दिनों¸ आज से लगभग साल भर पहले¸ रीनी¸ एक कंकड़ के जैसी सुधीर के चित्त में आ गिरी थी। शून्य में तकती आँखें¸ अपने आप में ही गुम¸ दुनिया से त्रस्त सी रीनी। पच्चीस साल की थी। पोस्ट ग्रॅज्युएट। घर में सबसे छोटी। स्वाभाविक ही उसके माता पिता उसका विवाह कर बरी जिम्मे होना चाह रहे थे। अब इसमें उनकी तो कोई गलती नहीं थी। लेकिन रीनी को उनके इन विवाह संबंधी प्रयासों में अपने खिलाफ किसी किस्म की साजिश नजर आती थी।


कभी - कभी वह अपने ऑफिस के सहकर्मियों से नाराज रहती। यदा कदा वह अपने नैराश्यपूर्ण विचारों से सुधीर के मन में भी अवसाद भर देती थी¸ जो धीरे से रेणु तक पहुँचते हुए माथे पर प्रश्नार्थक सलवटें छोड़ जाता था।


असल में रीनी आई थी सुधीर के पास एक सलाह माँगने। क्या वह अपने माता - पिता के खिलाफ ऐसा कोई कदम उठा सकती है जिससे वे उसे शादी के लिये बाध्य न कर सके?


सुधीर पहली बार में तो ये सुनकर ही सन्न रह गया था। फिर धीरे - धीरे रीनी का सुधीर के कार्यालय में आना - जाना बढ़ने लगा था। वक्त बेवक्त उसके लंबे लंबे फोन आने लगे। बिना किसी ठोस कारण के वह सुबकने लगती। इस पूरे संसार के प्रति¸ समाज के प्रति अपने मन की कड़वाहट उगलने लगती। उसे लगता जैसे सब कुछ उसके खिलाफ ही हो रहा है। कई बार उसने बीच रास्ते से फोन कर सुधीर को अपने महत्वपूर्ण कार्यों के बीच से उठाकर नाममात्र के कारणों के लिये परेशान किया था। सुधीर को भी खीज तो आती लेकिन व्यस्तता के चलते वह इसपर सोचने के लिये समय नहीं दे पाता था।


आजकल रीनी बेवजह ऑफिस में आने लगी है। "बस! तुमसे मिलने को जी किया।" या फिर¸ "मुझे ऐसा लगता है कि जिस दोस्ती को मैं बरसों से तरस रही थी¸ वो मुझे तुम्हारे रूप में मिल गई है।" ऐसे कुछ जुमले कहती और फिर एक अंतहीन¸ तथ्यहीन बातों का सिलसिला शुरू हो जाता। सुधीर जब इन बातों का ओर - छोर तलाशने जाता तो फिर वही खालीपन हाथ लगता। और फिर वह समय बर्बाद होने और काम समय पर न होने के कारण झुँझला उठता। लेकिन तब तक रीनी¸ विषय को बदलकर समय की कमी का बहाना बनाकर¸ सुधीर पर ही वक्त का ध्यान न रखने का जुमला फेंकते हुए रवाना होने लगती थी।


वह किसी भी तरीके से यह दिखाना चाह रही थी कि सुधीर को ही उससे मिलने¸ बतियाने में रस आता है। वह एक एक कर अपनी समस्याओं का पुलिंदा सुधीर के समक्ष खोलकर बैठ जाती। सुधीर एक के बाद एक उनके समाधान सुझाया करता। हर एक समाधान में कोई न कोई मीन मेख निकालती हुई वह¸ उसे बढ़ाते हुए¸ असंभव से नासूर में बदल देती और लाख कोशिशों के बावजूद हमेशा स्वयं को उपेक्षित¸ हालात की मारी हुई¸ निराशा से भरी हुई¸ इस दुनिया की अनचाही मेहमान के रूप में प्रस्तुत करती रहती।


उसकी ऐसी हरकतों से परेशान सुधीर उस रात को सोते से जाग पड़ा था। बगल में लेटी रेणु शांत भाव चेहरे पर लिये पड़ी थी। पानी पीने क लिये लैंप जलाने पर सुधीर आश्चर्यचकित रह गया। रेणु जाग रही थी। मंद - मंद मुस्काती हुई¸ जो कि उसकी हमेशा की आदत है¸ उसे एकटक देख रही थी। सुधीर पानी पीना भूल अपराधी सा माथे पर हाथ धरे बैठ गया। वह बखूबी जानता था कि रेणु की यह परिपक्व दृष्टि ही काफी है स्थिती को सम्हालने के लिये।


सुधीर मुखर हो उठा। रीनी और उसकी बातें¸ उसके विचार¸ अजीब सी अभिव्यक्ति। कभी भी और किसी भी तरीके से खुश न हो पाने वाली रीनी को सुधीर ने एक पहेली की भाँति रेणु से पूछ ही तो लिया था।


अपने आश्वस्त मुखमण्डल और अनुभवी विचारों से रेणु ने सुधीर को समझाया और एक छोटी सी तरकीब सुझाई। रेणु इस उम्र और पड़ाव की लड़कियों के फितूर बड़े अच्छे से जानती थी। वह समझ गई थी कि रीनी को शादी करनी तो है लेकिन अपने ठिगने कद और साधारण रूप रंग के कारण वह अवसादग्रस्त है। उसकी बड़ी बहनें और सहेलियाँ गोरे रंग¸ सुंदर नैन नक्शों की स्वामिनी और अपने समय में "हॉट प्रॉपर्टी" मानी जाती थी। उनके समक्ष रीनी लगभग शून्य ही थी।


तरकीब के अनुसार सुधीर ने रीनी से दूसरे ही दिन बात की।


"देखो रीनी! मैं तुम्हारी प्रतिभा की¸ तुम्हारे विचारों की कद्र करता हूँ । यदि तुम मेरे जीवन में रेणु से पहले आ जाती तो में तुम्हारे साथ भी उतना ही सुखी रह पाता जितना आज रेणु के साथ हूँ।"


रीनी चुपचाप सुनती रही। जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो। सुधीर कहता चला।


"मुझे ऐसा लगता है कि तुम अपना कीमती समय और शक्ति यहाँ व्यर्थ कर रही हो। जहाँ पहले से ही देर हो चुकी हो वहाँ कितनी भी सफाई देने के बाद भी बात तो बन नहीं सकती ना? तुम्हें अब यह देखना चाहिये कि जहाँ बात बन सकती हे वहाँ तुम बेवजह देर न कर दो!"


सुधीर धीरे से मुस्काया। रीनी पर मानों घड़ों पानी गिर गया हो। वह वहाँ से चलती बनी। छ: महीनों तक उसका कोई पता नहीं था।


फिर एक दिन डाक से एक कार्ड आया। रीनी और संजय शादी कर रहे थे। संजय उसके ऑफिस का सहकर्मी था। सुधीर हँसे बिना न रह सका। आखिर रीनी सही समय पर सही जगह पर मेहनत करके अपना उद्‌देश पा चुकी थी।