स्त्री / प्रताप नारायण मिश्र
संसार मे ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसमें केवल गुण ही गुण अथवा दोष ही दोष हों। घी और दूध स्वाद और पुष्टि के लिए अमृत के समान हैं, पर ज्वरग्रस्त व्यक्ति के लिए महा दुखदायक हैं। संखिया प्रत्यक्ष विष है पर अनेक रोगों के लिए अति उपयोगी है। इस विचार से जब देखिएगा तब जान जाइएगा कि साधारण लोगों के लिए स्त्री मानों आधा शरीर है। यावत सुख दुखादि की संगिनी है। संसार पथ में एक मात्र सहायकारिणी है। पर जो लोग सचमुच परोपकारी हैं, स्वतंत्र हैं, महोदारचरित हैं, असामान्य हैं, जगत बंधु हैं, उन्नतिशील हैं, उनके हम में मायाजाल की मूर्ति कठिन परतंत्रता का कारण और घोर विपत्ति का मूल स्त्री ही है। आपने शायद देखा हो कि धोबियों का एक लौह यंत्र होता है जिसके भीतर आग भरी रहती है। जब कपड़ों को धोकर कलप कर चुकते हैं तब उसी से दबाते हैं। उस यंत्र-विशेष का नाम स्त्री है। यह क्यों? यह इसीसे कि धोए कपड़े के समान जिनका चित्त जगत चिंता रूपी मल से शुद्ध है उनके दबाने के लिए उनकी आर्द्रता (तरी वा सहज तरलता) दूर करने के लिए लोहे के सरिस कठोर अग्निपूर्ण पात्र सदृश उष्ण परमेश्वर का माया, अर्थात् दुनियाँ भर का बखेड़ा, फैलाने वाली शक्ति स्त्री कहलाती है। अरबी में नार कहते हैं अग्नि को, विशेषत: नरक की अग्नि को और तत्संबंधी शब्द है नारी। जैसे हिंदुसतान से हिंदुस्तानी बनता है वैसे ही नार से नारी होता है, जिसका भावार्थ यह है कि महादुख रूपी नर्क का रूप गृहस्थी की सारी चिंता, सारे जहान का पचड़ा केवल स्त्री ही के कारण ढोना पड़ता है। फारसी में ज़न (स्त्री) कहते हैं मारने वाले को-राहज़न, नक़बज़न इत्यादि। भला अष्ट मारने वाले का संसर्ग रख के कौन सुखी रहा है। एक फारस के कवि फर्माते हैं, 'अगर नेक बूदे सरंजामे जन, मजन नाम न जन नामें जन', अर्थात् स्त्रियों (स्त्री संबंध) का फल अच्छा होता तो इनका नाम मज्न होता (मा मारय)। अंग्रेजी में वीम्येन (स्त्री) Woman शब्द में यदि एक ई (E अक्षर) और बढ़ा दे तो Woe (वो) शब्द का अर्थ है शोक और म्येन (Man) कहते हैं मनुष्य को। जिसका भावार्थ हुवा कि मनुष्य के हम में शोक का रूप। धन्य! दुष्टा कटुभाषिणी कुरूपा स्त्रियों की कथा जाने दीजिए। उनके माथ तो प्रतिक्षण नर्क जातना हई है, यदि परम साध्वी महा मृदुभाषिणी अत्यंत सुदंरी हो तो भी बंधन ही है। हम चाहते हैं कि अपना तन, मन, धन, सर्वस्व परमेश्वर के भजन में, राजा के सहाय में, संसार के उपकार में निछावर कर दें। पर क्या हम कर सकते हैं? कभी नहीं! क्यों? गृहस्वामिनी किसको देख के जिएँगी। वे खाएँगी क्या? हमारा जी चाहता है कि एक बार अपनी राजराजेश्वरी को दर्शन करें! देश देशांतर की सैर करें! घर में रुपया न सही सब बेंच-खोंच के राह भर का खर्च निकाल लेंगे। पर मन की तरंगे मन ही में रह जाती है, क्योंकि घर के लोग दुख पावेंगे। हम पढ़े-लिखे लोग हैं। प्रतिष्ठित कुल के भये उपजे हैं। एक तुच्छ व्यक्ति की नौकरी करके बातैं कुबातैं न सुनेंगे। स्थानान्तर में चले जाएगे, दो चार रुपए की मजदूरी करके खाएँगे। गुलामी तो न करनी पड़ेगी। पर खटला लिए लिए कहाँ फिरेंगे? घर वाली को किसके माथे छोड़ जाएँगे? यही सोच साच के जो पड़ती है सहते हैं। इन सब तुच्छताओं का कारण स्त्री है जिसके कारण हम गिरस्त कहाते हैं, अर्थात् गिरते गिरते अस्त हो जाने वला! भला हम अपनी आत्मा की, अपने समाज की उन्नति क्या करेंगे। एक रामायण में लिखा है कि जिस्समय रावण मृत्यु के मुख में पड़े थे, 'अब मरते हैं, तब मरते हैं' की लग रही थी, उस समय भगवान रामचंद्रजी ने लक्ष्मीणजी से कहा कि रावण ने बहुत दिन तक राज्य किया है, बहुत विद्या पढ़ी है, उनके पास जाओ। यदि वे नीति की दो चार बातें बतला देंगे तो हमारा बड़ा हित होगा। हमें अभी अयोध्या चल के राज्य करना है। लक्ष्मणजी भ्रातृचरण की आज्ञानुसार गए और अभीष्ट प्रकाश किया। रावण ने उत्तर दिया कि अब हम परलोक के लिए बद्धपरिकर हैं। अधिक शिक्षा तो नहीं दे सकते पर इतना स्मरण रखना कि तुम्हारे पिता दशरथ महाराज बड़े विद्वान और बहुद्रष्टा थे, पर उन्होंने कैकेई देवी का वयन मानने के कारण पुत्र वियोग और प्राण हानि सही! और हम भी बड़े भारी राजा थे पर मंदोदरी रानी की बात कभी नहीं मानते थे। उसका प्रत्यक्ष फल तुम देख ही रहे हो। सारांश यह है कि स्त्री को मुँह लगाना भी हानिजनक है और तुच्छ समझना भी मंगलकारक नहीं हैं। हमारे पाठक समझ गए होंगे कि स्त्री संबंध कितना कठिन है। यदि हम इन्हीं के वश में पड़े रहें तो किसी प्रकार कल्याण की आशा नहीं है। जन्म भर नोन तेल लकड़ी की फिक्र में दौड़ना होगा। और यदि छोड़ भागे तौ भी लोक में निंदास्पद और परलोक में पापमार्गी होंगे। इससे उत्तम यही है कि विवाह केवल बर और कन्या ही की इच्छा से होना ठीक नहीं तो दोनों की जीवन जात्रा में बाधा पड़ना संभव है। ईसाई और मुहम्मदीय ग्रंथों में लिखा है कि ईश्वर ने आदम को अति पवित्र और प्रसन्न उत्पन्न किया और स्वर्ग की बाटिका में रक्खा था परंतु जब उसे अकेला समझ कर हौवा को साथ कर दिया उसके थोड़े ही दिन पीछे आदम ने शैतान से धोका खाया ईश्वर की आज्ञा उलंघन की, और बैकुंठ से निकल कर दुनियाँ की हाव-हाव में पड़े। जब परमपिता जगदीश्वर की इच्छा से विवाह का परिणाम यह है तो साधारण माता-पिता की अनुमति से ब्याह होने पर कौन अच्छे फल की संभावना है? जगत में लाखों मनुष्य ऐसे हैं कि यदि उन्हें घर के धंधों से छुट्टी मिले तो पृथ्वी का बहुत बड़ा भाग मंगलमय कर दें। पर भवबंधन में पड़े हुए अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं। ऐसों के लिए स्त्री क्या है? एक स्वेच्छाचारी सिंह के लिए हाथ भर को जंजीर जो आधी उस अभागी के गले में बँधी हो और आधी खूँटा में। हमारे रिषि लोग बहुधा अविवाहित थे। महात्मा मसी भी अविवाहित थे। आज उनके नाम से लाखों आत्माओं का उपकार हो रहा है। यदि वे भी कुटुंब की हाव-हाव में लगे रहते तो इतना महत्त्व कभी न प्राप्त करते।
सीता जी के समान स्त्रियाँ पूजनीया हैं जो पति प्रेम निभाने को बरसों के कठिन दुख को सुख से शिरोधार्य कर लें, राज्य सुख को पतिमुखदर्शन के आगे तुच्छ समझें। सती जी सी गृहदेवी माननीया हैं जो पति का अपमान न सह सकें चाहे सगे बाप का मुलाहिजा टूट जाए, चाहे प्राण तक जाते रहें। पर ऐसी गृहेश्वरी होती कहाँ हैं सतयुग त्रेतादि में भी एकही दो थीं, अब तो कलिकाल है! यदि मान लें कि कदाचित् कहीं कोई ऐसी निकल आवैं तो उस पुरुष का जीवन धन्य है! वह चाहे जैसा दीन हीन हो पर आत्मपीड़ा से बचा रहेगा और जो लोग साम दाम दंड भेद से अपनी अनुकूल बना सकें वुह भी धन्य हैं। पर वह दोनों बातें असंभव न हों तो महा कठिन हुई हैं। पहिली बात तो 'राम कृपा बिन सुलभ न सोई'। दूसरी बात के अनुसार भारत की वर्तमान दशा से कोसों दूर देख पड़ते हैं। न जाने इतने देशभक्त, इतने व्याख्यानदाता, इतने पत्र संपादक स्त्रियों के सुधार में बरसों से क्यों नहीं सन सकते। पुरुषों के लिए सब कहीं पाठशाला, इनके लिए यदि है भी तो न होने के बराबर। यदि आज सब लोग इधर झुक पड़ें तो शायद कुछ दिन में कुछ आशा हो, नहीं आज दिन के देखे तो हमें यही जान पड़ता है कि अर्धांगी स्त्री का नाम इसलिए रक्खा गया है कि जैसे अर्धांगी नामक बीमारी से स्थूल शरीर आधा किसी काम का नहीं रहता वैसे ही इस अर्धांगी के कारण मन, बुद्धि, आत्मा, स्वातंत्र्य, उदारचित्ततादि आधी (नहीं, बिलकुल) निकम्मी हो जाती है! मनुष्य केवल भय निद्रादि के काम का रह जाता है, सो भी निज बस नहीं।