स्थान काल पात्र... / राजकमल चौधरी

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अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक

कोई भी भद्र व्यक्ति

किस विषय पर सबसे पहले

बात करना चाहेगा?

उत्तर: अपने विषय में।

अतएव,

मैं अपने विषय में बात करूँगा।

—दस्तायेवस्की

जब भी मैं किसी ऊंचे मकान की छत पर एकदम किनारे खड़ा होता हूं, मेरे पांव थरथराने लगते हैं। मैं सामने नीचे की दुनियां का दृश्य देख नहीं पाता। यह सच नहीं है कि बचपन में किसी छत से मैं नीचे गिर पड़ा था, या किसी परिचित व्यक्ति को मैंने नीचे गिरते हुए देखा था। कई मंजिलों के मकान में रहने का, ऊपर की किसी मंजिल में रहने का मौका मुझे अब तक नहीं मिला है। हमेशा मैं ‘ग्राउंड फ्लोर‘ में ही रहता आया हूं। शायद, 1955 में हमलोगों ने सूसन हवाई को सातवीं मंजिल की खिड़की से कूद जाने की कोशिश करते हुए देखा था। तोशी, गट्टू, राज (अब इनके नाम मेरे लिए क्या अर्थ रखते हैं?), सभी सिनेमा-घर में चीखने लगे थे। मैं चुप था। मुझे मालूम था, सूसन हवाई नीचे नहीं आएगी। मेरी ही तरह टूट जाने के बाद भी वह जिंदगी को अपने पांवों में, और अपनी मुट्ठियों में बांधे रहना चाहती है।

धागे बेहद लंबे हैं, कई मीलों और कई मकानों तक फैले हुए। हम इन्हें तोड़ना नहीं चाहते। इनसे मुक्त होना चाहते हैं। लेकिन, तोड़कर नहीं। अपनी कलाइयों में धागों को बांधे रहकर मुक्त होना चाहते हैं। यह संभव नहीं है। मेरे पांव थरथराने लगते हैं। हैप्पी-वैली, मसूरी की उस कोठी का नाम था स्टेप्लेटन-होटल। जबकि, वह कोठी ही थी, होटल नहीं था। बाकी सारे कमरे जुलाई में खाली हो गए थे। ऊपर की मंजिल से नीचे उतरते हुए कई बार मैं लड़खड़ा गया! मनोविज्ञान के लोग इसे क्या कहेंगे? यह सिर्फ अंदर रुका हुआ कोई अनजान डर है, या कोई जटिल ग्रंथि? या, ऐसा नहीं कि ऊपर की मंजिल तक, या मकान की छत तक पहुंचते ही मैं भी (सूसन हवाई की तरह) बीते हुए गोश्त का लहूलुहान टुकड़ा बन जाने के लिए, नीचे सड़क पर कूद जाना चाहता हूं?

मुझसे नहीं हुआ। कूद जाना, और हत्या कर देना मुझसे नहीं हुआ। शशि प्रत्येक शनिवार की शाम को कालीघाट जाना चाहती थी। वैसे काली-मंदिर मुझे भी पसंद है। अपाहिज बने हुए भिखमंगों (जिनमें ज्यादातर मेरे इलाके की बूढ़ी औरतें हैं, जो हर महीने अपने गांव दो-एक मनिआडर जरूर भेजती हैं), और अपाहिज बनी हुई अमीर स्त्रियों को नजदीक से देखने के लिए यह मंदिर बेमिसाल है। एक बेमिसाल चीज और है, काली-माता की चार इंच चौड़ी, ग्यारह इंच लंबी, विशुद्ध चांदी की जीभ। इस जीभ के बारे में कविवर नागार्जुन ने एकबार बड़े ही भोलेपन से पूछा था, ‘कितनी चांदी लगी होगी, इसमें?‘ लेकिन, असली बात चांदी की नहीं है। बात यह है कि इन दिनों मैं डाली चक्रवर्ती के घर जाने लगा हूं। लगभग प्रत्येक शनिवार को हम दोनों डाली की बड़ी बहन के साथ एफ. रेस्तरां जाते हैं, बड़ी बहन बैरे को बुलाकर खाने-पीने की लंबी-लंबी चीजों का आर्डर देने लगती है। उसे मुर्गा-पुलाव पसंद है। आईस्क्रीम पसंद है। हम दोनों दस मिनट की फुरसत मांगकर रेस्तरां के अंदर का बरामदा पार करते हैं। बरामदे के बाद सीढ़ियां। फिर, ऊपर एक कतार में लकड़ी के बड़े बक्सों की तरह कई कमरे बने हैं। इनमें किसी भी कमरे के अंदर से दूसरे किसी भी कमरे की बातचीत सुनी जा सकती है। बातचीत देखी भी जा सकती है। डाली को यह देखना और यह सुनना बहुत पसंद है। प्लाई-उड की फांक से वह कभी दो-नंबर केबिन, और कभी चार-नंबर केबिन में झांकती रहती है। वह बहुत छोटी-सी लड़की है, मगर, उसके स्तन फुटबाल की तरह तीन-नंबर साइज के हैं, उनका सिरा बेहद सुर्ख है, और वह कलकत्ता शहर की सारी अश्लील बंगला-कहावतें जुबानी याद रखती है।

शशि के साथ कालीघाट जाने का सवाल ही नहीं उठता है। लेकिन मैं जाता हूं। मंदिर का भीतरी हिस्सा बहुत छोटा है। शनिवार की शाम को छह से आठ तक सैकड़ों-हजारों आदमी इस भीतरी हिस्से में काली-मूर्ति के करीब-से-करीब आने के लिए रेल-पेल करते हैं। रोशनी इतनी कम है, और भक्तों-भक्तिनों की भीड़ इतनी अधिक कि कोई भी मर्द दोनों हाथों में फूल-माला और प्रसाद के दोने उठाए आगे बढ़ती हुई शशि देवी का कोई भी अंग, सहारे के लिए, पकड़ लेता है। मैं उसके पीछे-पीछे सटकर चलता हुआ, उसे अपनी बांहों के घेरे में संभालता रहता हूं। सबसे बड़ी बात यहीं शुरू होती है, काली-मूर्ति के ठीक सामने।

सैकड़ों जोड़े हाथ लाल रेशम में छिपे हुए काली के पांव और घुटने छूने की कोशिश कर रहे हैं! बंगाली पंडों की चीख...पुजारियों के शाक्त मंत्रोच्चार ...शायद, किसी मारवाड़ी सेठानी का नेकलेस टूटकर नीचे गिर गया है...कोई बूढ़ा आदमी फूट-फूट कर रो रहा है कि उसकी पतोहू उसे खाना नहीं देती...मेरे पांव कुचल गए हैं...शशि दोनों आंखें बंद किए, अपने इष्ट-मंत्र का जाप कर रही है उसकी कमर के पास नाकेबंदी करती हुई मेरी बाहें ऊपर सरकतीं हैं, उसकी बांहों के इर्दगिर्द। मेरे पंजे ऊपर सरकते हैं। वैसे भी, इस गर्मी और इस अंधी भीड़ में उसका दम घुट रहा होगा। लेकिन वह रुकी हुई है, भगवती की मूर्ति से लगभग चिपकी हुई। शशि क्या चाहती है? क्या मांग रही है वह? मैं अपने पंजों की पूरी ताकत लगाकर उसका गला दबा दूं (गले की नसों और नलियों का कायदा मैंने जंगबहादुर सिंह से सीखा था) तो वह चीख भी नहीं पाएगी। और, जो वह चाहती है, उसे मिल ही जाएगा, भगवती-मूर्ति की छत्रछाया में इष्ट-मंत्र का जाप करते मोक्ष की प्राप्ति। इस स्त्री को और क्या चाहिए?

लेकिन मुझसे नहीं हुआ। एक सौ तीस शनिवार को वह मेरे साथ काली मंदिर के अंधकूप में गई, लेकिन, मुझसे नहीं हुआ। मेरे पांव थरथराने लगे। हत्या, अथवा आत्महत्या; मुक्ति के इन दो राजमार्गों में किसी एक पर भी चलने के काबिल मैं नहीं हूं। न उतनी दयनीयता मुझमें है, और न उतना बलविक्रम। और, मेरी मुक्ति का तीसरा कोई मार्ग, धर्म अथवा समाज के पास नहीं है।

शार्ल बोदलेयर के बारे में सार्त्र ने ठीक ही लिखा है कि वह अपने-आपको अकेला महसूस करता था, फिर भी, वह अपने स्त्री-बच्चों के बगैर रह नहीं पाता था, और इनके होने के बावजूद, वह अपना अकेलापन मिटाने के लिए शहर-कस्बों की गलीज से गलीज खानगी औरत के पास जाता रहता था। साद ने हमें बताया है कि कोई व्यक्ति कम स्वतंत्र या अधिक स्वतंत्र (यहां स्वतंत्र से अधिक उचित शब्द होना चाहिए-मुक्त) नहीं हो सकता। या तो वह स्वतंत्र होगा, या फिर, स्वतंत्र नहीं होगा। स्वतंत्रता (अथवा मुक्ति) को मात्राओं में बांटा नहीं जा सकता, वह एक एबसोल्यूट क्वालिटी है। लेकिन, साद की इस बात में मुझे यहीं तक विश्वास है। इससे आगे मैं यह मानता हूं; कि एबसोल्यूट होकर भी मुक्ति एक सापेक्ष गुण है। प्रश्न उठता है, मुक्ति किससे? फिर, ऐसा भी है कि शरीर से मुक्त होने के बाद भी बुद्धि से मुक्त होना संभव नहीं है। और, हमारे यहां तो मृत्यु को भी मुक्ति नहीं मानते हैं। इसीलिए, बुद्ध को महानिर्वाण की कल्पना करनी पड़ी।

पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होने के लिए निर्वाण। अश्वघोष के ‘बुद्धिचरित‘ की वह पंक्ति मुझे जयकिशोर बाबू ने बताई थी। अम्बपाली ने बुद्ध से पूछा-मृत्यु के उपरांत यह आत्मा कहां जाती है? किस दिशा में? कहां विलीन हो जाती है? नगरवधू के प्रश्न पर बुद्ध मुस्कराए थे।...दीपक के बुझ जाने से उसकी ज्योति कहां जाती है? ज्योति कहीं जाती नहीं, बस बुझ जाती है। निर्वाण प्राप्त कर लेती है ज्योति, बोधि-प्राप्त आत्मा की तरह। (क्या इसी बात को ध्यान में रखकर साद ने कहा था stifle, extinguish your soul…?) अर्थात् निर्वाण से पहले नहीं। निर्वाण से पहले मुक्ति का प्रश्न एक असंभव प्रश्न है।

यह महात्मा बुद्ध की बात हुई, मेरी नहीं। मैंने इसी जीवन में स्वतंत्र होने की चेष्टा की थी-अपने पारिवारिक संस्कारों से, और सामाजिक अर्थतंत्र से। क्योंकि, मुझे यह ज्ञात नहीं था कि मैं अपने शरीर और शरीर की सीमाओं का दास हूं। चेष्टा मैंने की थी अवश्य; क्योकि, मेरे पिता मुझे ब्राह्म-मूहूर्त्त में प्रतिदिन दस हजार गायत्री-मंत्र का जाप करने वाला ब्रह्मचारी बनाना चाहते थे। और, यह उस उम्र की बात है, जब मेरे क्लास के कई लड़के अपने गेम-टीचर से चॉकटेल-टॉफी पाते थे, और दोपहर में हमारे घर की नौकरानी मुझसे लाज-लिहाज किए बगैर नल पर नंगे बदन नाहने लगती थी, तो मेरा चेहरा लाल हो जाता था।

शायद, सच्ची बात यही थी। नौकरानी का नाम शकुन था। जात की कहारिन होकर भी वह गोरी-चिट्टी थी। दोहरे बदन की नाटी औरत। मुझसे दस साल बड़ी होगी। उसके बाएं गाल पर सतमी के चांद की तरह बड़ा-सा सफेद धब्बा था। एक बार वह जलते चूल्हे पर धकेल दी गई थी। शकुन नहाती रहती थी, और मैं दस हजार गायत्री-मंत्र के बारे में पिताजी के उपदेशों को सिलसिले से स्मरण करता रहता था। मुझे परिवार के ब्राह्मण-संस्कारों में दीक्षित करने के लिए, पिताजी के पास कुल तीन तरीके थे-आज्ञा, उपदेश और मार-पीट। आठ-साल की उम्र से सोलह की उम्र तक मैं लगभग हर रोज पिटता रहा हूं, और उसी औसत से ब्रह्मचर्य, ब्राह्मणत्व, परिग्रह, आज्ञाकारिता के विषय में उपदेश सुनता रहा हूं। मेरे पिता को वह आज्ञाकारी (मूर्ख?) लड़का सबसे प्यारा था, जो अपने पिता की आज्ञा के कारण जहाज के डेक पर पत्थर के बुत की तरह अचल खड़ा रहा था, और आग लगने पर जल-भुनकर खाक हो गया था। मुझे इस लड़के से बेहद दुश्मनी थी। पिताजी अपने प्रत्येक उपदेश में उसका नाम जरूर लेते थे, और मैं सोचता था कि ऐसे मूर्ख लड़के को सही सजा मिली।

मैं उस लड़के से, जिसका नाम भी अब मुझे याद नहीं है, मुक्त होना चाहता था। मैं अब भी उससे मुक्त हुआ हूं, या नहीं, मुझे पता नहीं है, लेकिन, चेष्टा मैंने की है। अपनी तीसरी मां की नई साड़ियां मैंने उसके ट्रंक से चुराकर शकुन को, और बाद में गर्ल्स मिडिल स्कूल की मास्टरनी ऊषा देवी को दी हैं। मैं चौक और स्टेशन रोड के मुसलमान छोकरों के साथ बरसों ताड़ी पीने में, ताश खेलने में, नौटंकी-कंपनी के लौंडों और लौंडियों के साथ ‘रात भरि रइयो, सुबेरे चले जइयो जी‘ का हुल्लड़ करने में मशगूल रहा हूं। अपने ही घर में आग लगाने की (यह मुहावरा नहीं है) मैंने कोशिश की है। पिताजी जब भी गुस्से में आते थे, चौक से महावीर हज्जाम को बुलवा कर मेरा सिर मुड़वा देते थे, क्योंकि मैं नौटंकी के लौंडों की तर्ज पर बड़ी-बड़ी जुल्फें रखता था। मैं घर से भाग जाता था, तीसरी मां की खास-खास चीजें चुरा लेता था या तोड़-फोड़ देता था, घरवालों की फजीहत के लिए बुरा से बुरा काम कर बैठता था, जब भी मैं गुस्से में होता था।

मुक्ति के इस सिलसिले में सबसे शुरू की घटना मेरे साथ चार साल की उम्र में हुई। कुछ ही दिनों पहले 1934 का प्रसिद्ध भूकंप हुआ था। वह भूकंप मेरे जीवन की सबसे पहली अविस्मरणीय घटना है। सोमवारी की पूजा में स्त्रियां एक सौ आठ दफा हाथ में सुपारी-पान लेकर सोम-देवता के चारों ओर चक्कर काटती हैं। धरती पहली बार कांपी, तो आंगन के उस पास की दीवार ढह गई। मेरी मां एक छन के लिए रुकी, एक बार उसने मेरी ओर, फिर पिताजी की ओर देखा, फिर, परिक्रमा के क्रम में आगे बढ़ गई। शायद, चार-छह चक्कर ही बाकी रह गए थे। उन्हें पूरा करके वह अल्पनाओं के घेरे से बाहर निकल ही रही थी कि बड़े जोरों का धड़ाका हुआ। भूकंप का असली दौर अब शुरू हुआ था। धरती पहले बाईं ओर झुकी, फिर दाईं तरफ झुककर थरथराने लगी। अचानक आंगन में बहुत बड़ी दरार फट गई, और अंदर से मटमैले पानी के फव्वारे छूटने लगे। पिताजी चीखकर मां की ओर लपके, और मां पिताजी से लिपट गईं।

पीली धोती और पीला कुर्त्ता पहने, गले में मूंगे के ताबीज और आंखों में काजल डाले, चार साल का उनका पुत्र वहीं पास ही खड़ा था, और प्रलयकाल आ गया था। लेकिन, एक-दूसरे की सुरक्षा के लिए वे दोनों एक दूसरे को अपनी बांहों में छिपा लेने की चेष्टा करते रहे, ...प्राण रक्षा के उस चरम क्षण में उन्हें मेरे अस्तित्व का ध्यान ही नहीं रहा। यह स्वाभाविक ही था। लेकिन, उसी एक क्षण में मैं हमेशा के लिए अकेला हो गया। कटकर अलग हो गया मैं, अपने और अपनी मां के जीवन और शरीर से-फिर उनमें मैं कभी किसी वक्त जुड़ नहीं पाया।

भूकंप के कुछ ही दिनों के बाद वह घटना हो गई। ...एक बंगाली संन्यासिन (जिसने एक युग बाद मेरे जीवन में कई विचित्र तमाशे किए) हमारे घर आई। दो-एक साल पहले वह किसी तीर्थ में मां से मिली थी। हमारे शहर में आई, तो पता पूछती हुई हमारे घर तक चली आई। मां को उसने रुद्राक्ष की माला और दक्षिणेश्वरी काली की एक छोटी-सी तस्वीर दी। फिर, मुझसे टूटी-फूटी हिन्दी में बातचीत करने लगी। मेरे दोनों हाथ उसने पकड़ लिए, मैं सिहर उठा। एक अजीब-सी बेचैनी...एक अजीब-सा नशा मेरे मन पर छाने लगा। उसने हंसते हुए, मुझसे पूछा, ”क्यों महाराज, हमारे साथ जायगा?“ इतना ही पूछा उसने। मां ने कहा, “कहां ले जाओगी इसे? ले चलना हो तो हमें भी साथ ले चलो।“ स्पष्ट है, मां उसे आदर भी दे रही थी और उससे भयभीत भी हो रही थी। पिताजी तांत्रिक पूजा-पद्धतियों का विधिवत् ज्ञान रखते हैं। संन्यासिन ने काफी देर तक उनकी बातचीत होती रही। इतनी देर में उसने मेरा हाथ छोड़ा नहीं था, और मुझे भी उससे सटकर खड़े होने में सुख और सुरक्षा का अनुभव हो रहा था। भूकंप के बाद मैं इतना डर गया था, और इसीलिए, इतना दुस्साहसी हो गया था कि मैं अकेले बरामदे में सोता था, और सारा दिन बाहर खुले मैदान में अकेला खेलता रहता था। मां या पिताजी से अपने अनजाने में ही मोह टूट गया था। उनके पास बैठना मुझे इसलिए भी अच्छा नहीं लगता था कि वे हमेशा भूकंप के बारे में बातचीत करते रहते थे, ...कहां कौन मर गया, अपने रिश्तेदारों में किन-किन के मकान धराशायी हो गए, गांधी जी कहां-कहां रिलीफ बांट रहे हैं। अतएव जब सन्यासिन जाने लगी, तो मैं उसके पीछे-पीछे बाहर जाने लगा। मां मुझे समझ गई। मां बड़ी लंबी-चौड़ी औरत थी, और बाघिन की तरह तेज! और उसका मिजाज भी बेहद तेज और तीखा था। उसने झपट्टा मारकर मुझे पकड़ लिया, और अपनी गोद में उठा लिया। मैं उसकी गिरफ्त से छूटने के लिए हाथ-पांव पटकने लगा। संन्यासिन ने एक बार मुड़कर मुझे देखा, मुस्कुराई, और बरामदा पार करके सड़क पर चली गई। मां को शायद इस बात का क्रोध हुआ कि मैं उसे छोड़कर एक अपरिचित औरत के साथ चला जाना चाहता था। रोने-चीखने की मुझे आदत नहीं थी। लेकिन, अपनी पूरी ताकत लगाकर मां की बांहों से कूदने की चेष्टा कर रहा था। पिताजी ने कहा, “अब कहां जाओगे? वह तो चली गई। फिर कभी आएगी तो उसी के साथ चले जाना।“ लेकिन मेरा छटपटाना बंद नहीं हुआ। अंत में मां मुझे खींचती हुई उस छोटे-से कमरे में ले गई, जहां घर की फालतू चीजें रखी जाती थीं। मुझे अंदर धकेलकर उसने बाहर से कुंडी चढ़ दी। यह मेरे लिए कैद की पहली सजा थी।

कमरे में बंद होने पर मुझे रुलाई आ गई। खिड़की एक भी नहीं थी, कमरे में अंधेरा था। रोते-रोते मुझे नींद आ गई। बहुत देर बाद, रात के नौ-दस बज गए होंगे, दरवाजा खोलकर मां अंदर आई।

पिताजी खाने पर बैठ चुके थे। मैं उनके साथ उन्हीं की थाली में खाता था। उन्होंने प्यार से मुझे पास बुलाया, लेकिन, मैं दो कमरों के बीच का गलियारा पार करके बाहर की ओर जाने लगा। पिताजी ने पूछा, ‘कहां जा रहे हो, फूलबाबू?‘ मैं रुका नहीं। मां हंसने लगी। उसकी हंसी में आश्चर्य भी होगा और वह कर भी रही होगी। मगर वह बहुत कड़ी औरत थी। उसने पिताजी से कहा, “चले जाने दीजिए। ...चार साल का लड़का इतना शैतान...मगर, जायगा कहां। बरामदे से नीचे उतरने की हिम्मत नहीं होगी। आप ही लौटकर आ जायगा।“

मैं बरामदे में नहीं रुका। सड़क पर भी नहीं। एक बार भी पीछे मुड़कर मैंने नहीं देखा कि मुझे कोई वापस ले जाने के लिए आ रहा है या नहीं। मैं सीधी सड़क पर, अंधेरे में सीधे चलता गया-जबकि मुझे यह भी सोचने-समझने की अक्ल नहीं थी, मैं किधर जा रहा हूं, और क्यों जा रहा हूं। इतनी देर में मैं उस संन्यासिन को भी भूल चुका था। और मैं सिर्फ इतना जानता था कि मां ने मुझे रोका है, इसलिए मुझे जाना ही चाहिए, इस अंधेरी, काली सड़क पर चलते ही जाना चाहिए। ...इसके बाद की बात मुझे याद नहीं है। कई वर्ष बाद पिताजी एक बार मेरे ‘भगोड़े‘ चरित्र का वर्णन करते हुए कई लोगों को यह घटना सुना रहे थे। उन्होंने बताया था कि जब मुझे गए हुए दस-बीस मिनट हो गए तो मां की छाती कांपने लगी। वह लालटेन लेकर बाहर दौड़ी, मगर मैं बरामदे में नहीं था, सड़क पर नहीं, सामने मैदान में भी नहीं। तब घर के नौकरों और पड़ोसियों की मदद से बाकायदा मेरी खोज शुरू हुई। और कई घंटों तलाश के बाद मैं स्टेशन रोड के सुनसान चौराहे के पास, पान की एक बंद दुकान के सामने पड़ी बेंच पर बेखबर सोया हुआ पाया गया।

पिताजी के मुंह से एक उदाहरण के रूप में अपने बचपन की यह घटना मैं कई बार सुन चुका हूं। हर बार मुझे यही दुख हुआ है कि संन्यासिन उस रात मेरे लिए रुकी क्यों नहीं, उसने मुझे साथ क्यों नहीं लिया...उसने मुक्त क्यों नहीं किया मुझे...मैंने चार साल की उम्र से अब छत्तीस साल की उम्र तक केवल मुक्त होने की ही चेष्टा की है, लेकिन न तो बुद्ध की तरह, और न मार्क्विस द साद की तरह। मुक्त होने की मेरी चेष्टा मेरी अपनी सीमाओं में की गई चेष्टा है। लेकिन...तब...मेरी अपनी सीमा क्या है?

अपने चेहरे पर र्प्याप्त गंभीरता लाकर मैं कह सकता हूं कि साहित्य मेरी सीमा है, अर्थात् साहित्य की रचना। मैं अपनी रचनाओं में अपने को मुक्त करता हूं... कम से कम मुक्त होने की चेष्टा करता हूं। लेकिन फिर भी यह प्रश्न रह ही जाता है कि क्या वाकई मुझे रचना के बाद मुक्ति मिल ही जाती है?

राजा (हनुमान प्रसाद अग्रवाल) के यहां मैंने वह चित्र देखा था। उसने बैठकखाने में सामने की दीवार पर वही एक चित्र था-लंबाई 72 इंच, चौड़ाई 45 इंच और मखमली बेलबूटों वाला सुनहला फ्रेम। जब भी मुझे बैठकखाने में जाने का मौका होता था, मैं उस चित्र से बंध जाता था। किसी चित्र से बंधना, उस तरह शायद, फिर कभी नहीं हुआ। समूची दीवार को, समूचे कमरे को अपनी शक्ति और अपनी विशालता से वह चित्र आक्रांत कर लेता था। उपाय नहीं रह जाता था, उसके प्रभाव से निकल भागने का।...मैं बंधा रह जाता था--मंत्र-मुग्ध, और कई मिनट बीत जाते थे, यानी (फिल्मी लहजे में कहें, तो) कई सदियां बीत जाती थीं। चित्र में मनीपुरी नर्त्तकियों की तरह सजी हुई राधारानी थी; कुंजों में, वृक्षों के नीचे, झरने के किनारे, यहां-वहां विभिन्न लास्य मुद्राओं में गोपियां बिखरी हुई थीं (मैंने कई बार गिना था, कुल 84 गोपियां थीं) और राधा के साथ और प्रत्येक गोपी के साथ अनुकूल भाव, अनुकूल कामना में श्री कृष्ण खड़े थे, वही मोर मुकुट, वही मुरली, और वही रेशमी पीतांबर।

रसिया श्री कृष्ण और रामलीला-नायिकाओं का वह पवित्र (?) कामचित्र मुझे विस्मय-विमुग्ध कर देता था। किसी अपरिचित बंगाली चित्रकार ने घोर परिश्रम से बरसों में वह चित्र तैयार किया होगा। उस वक्त तक मैंने विद्यापति या सूरदास या जयदेव का नाम भी नहीं सुना था। मुझे पता नहीं था, वास्तव में रासलीला क्या होती है। कुल एक किताब, ‘बाल-महाभारत‘ में श्रीकृष्ण और राधा के बारे में मैंने पढ़ा था। फिर भी, मैं उस चित्र के पीछे पागल हो गया।...चौरासी गोपियां हैं, और एक राधारानी भी है, और एक ही श्रीकृष्ण एक ही समय में सभी के पास हैं, किसी को मनाते हुए, किसी से रूठते हुए, किसी को प्यार करते हुए।...और, क्या मैं भी एक साथ अलग-अलग (पचासी न सही) पांच या दस आदमी हो जा सकता हूं? क्या यह किसी भी उपाय से संभव है?

मैंने उपेंद्र काका से पूछा। उन्होंने कहा कि आदमी से क्या संभव नहीं है, और दुनियां में क्या संभव नहीं है। ‘लेकिन, तुम एक फूलबाबू नहीं रहकर दस फूलबाबू क्यों बन जाना चाहते हो?‘ उन्होंने पूछा। इस प्रश्न का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। अब भी नहीं है। लेकिन वह चित्र मुझे पागल करता रहा है।...बाद में और भी कई रईसों के यहां, वेश्याओं के कमरों में, मंदिरों में, और पानवालों की दुकानों पर मैंने रासलीला की उसी दृश्यावली की तस्वीरें देखी हैं। हर बार मेरे अंदर वही छोटा-सा लड़का अपनी विस्मय-विमुग्ध आंखें फैलाए मुझसे वही प्रश्न पूछने लगा, जो मैंने कभी उपेंद्र काका जी से पूछा था।

मोपासां ने सिफलिस और विक्षिप्तता में मरने से कुछ दिनों पहले अपनी एक वीभत्स (और असंभव) इच्छा प्रकट की थी। वह चाहता था कि उसको अनेक सिर हो जाएं, अनेक बांहें और अनेक होठ; और वह एक साथ कई युवतियों से प्रेम-चर्चा करता रहे। पुराणों में लिखा गया है कि किसी ऋषि के शाप से एक बार देवराज इंद्र की जांघों में सैकड़ों लिंग पैदा हो गए थे। और पुष्करणी में स्नान के बाद ही वह पुनः एकलिंग हो सका था। रावण दसशीष था, और उसकी बीस भुजाएं थीं। दुर्गा की दस भुजाएं होती हैं, काली की आठ। ब्रह्मा के चार चेहरे हैं। महादेव की आंखें तीन। लेकिन मुझे इन कल्पनाओं ने कभी आकर्षित नहीं किया है। आकर्षित किया है केवल एक रासलीला के श्रीकृष्ण ने...और आसक्त किया है सम्मोहन और आत्मसमर्पण की भंगिमाओं में अंकित-चित्रलिखित राधा-गोपियों ने। मनुष्य-शरीर जैसा है, उसी रूप में मुझे प्रिय है। सामने की दो आंखों के साथ ही अगर मुझे सिर के पीछे भी दो आंखें दे दी जाएं, मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा। मनुष्य के मन से, मनुष्य का शरीर मुझे अधिक प्रिय है। क्योंकि, यह घृणित होकर भी, एक संगीत-संरचना, एक rythm में बंधा हुआ है। विद्यापति ने इस शरीर-रूप की अगाध-प्रशंसा अपने पदों में की है। स्वस्थ-सुंदर स्त्री और स्वस्थ-सुंदर पुरुष के शरीर से अधिक आकर्षक, उत्तेजनात्मक, सौम्य और प्रीतिमय दृश्य-वस्तु प्रकृति के पास नहीं है। इसीलिए मैं मनुष्य-शरीर को किसी भी विकृति, अथवा अन्य रूप में स्वीकार नहीं कर सकता, न तीन आंखों में और न एक हजार बांहों में। अंगभंग अथवा अतिरिक्त अंग मुझे नहीं चाहिए। कलकत्ते में कुछ दोस्त एक बार मुझे एक भारी-भरकम औरत के पास ले गए थे। उतनी स्वस्थ और काम्य औरत मैंने शायद ही फिर कहीं देखी हो। मगर विधाता की आज्ञा से धर्म-प्राण हिंदुओं ने (वह मुसलमान थी) उसका एक स्तन काट लिया था। जब हम परिचित हो गए, और खाना-पीना करके मेरे दोस्त लोग अपनी-अपनी औरतों के यहां चले गए-उसने प्लास्टिक का खोल हटाकर मुझे अपना स्तन दिखलाया। दायां स्तन नहीं था। वहां चमड़ी सिकुड़नों से भर गई थी, और जख्म के सफेद दाग कायम थे।

मेरा जी घृणा और अपमान से भर उठा। न तो मैं उसके लिए शाब्दिक सहानुभूति ही प्रकट कर सका; और न उसके पास वक्त बिताने की मुझे इच्छा ही रही। मुझे लगता है, अगर, किसी बीमारी या दुर्घटना के कारण मेरे शरीर का कोई अंग काट लिया जाए, जैसे एक पांव या एक कान, या एक हाथ (जिसके बिना भी आदमी अच्छी भली तरह जिंदगी गुजार सकता है) तो मुझे हमेशा के लिए अपनी देह से नफरत ही नफरत हो जाएगी; और हो सकता है। मैं इस साधारण-सी बात के लिए मैंने अपने साथ कोई असाधारण बात कर लेने को तैयार हो जाऊं।

फिर भी, कलकत्ते के ग्रैंड होटल आर्केड में होकर, या कमला नेहरू पार्क (बंबई) के सामने ‘नाज‘ रेस्तरां में कॉफी पीते हुए, या मसूरी-हिल के माल रोड पर किसी रेलिंग के सहारे खड़े होकर अकेले सिगरेट पीते हुए, मैंने बालिग और बूढ़ा हो जने के बाद भी, रासलीला के उस चित्र का ध्यान किया है। मुझे इच्छा हुई है कि मैं लंबी गाड़ियों से उतरती हुई, रेस्तरां में आइसक्रीम और नजाकत में डुबी हुई, बड़ी दुकानों में बड़ी चीजें खरीदती हुई प्रत्येक स्त्री की बांह या (आधुनिक प्रथा के अनुसार) कमर में हाथ डालकर अलग-अलग शरीर धारण करके घूमता रहूं, और मुझे इच्छा हुई है कि मैं एक ही साथ ‘सेराजेद‘ में खुली हवा के स्टेज पर और ‘ट्रिंका‘ के बंद, धुंधले, धुएं और एयर-कंडीशन के कोहरे से भरे हुए स्टेज पर चा-चा-चा, या ट्विस्ट करता रहूं; और एक ही साथ एक ही वक्त एक ही सपनों में डूबा हुआ, आदमी की कीमतों और मशीन की कीमतों के बारे में एक लंबी कविता भी लिखूं, और स्टाक-एक्सचेंज में जाकर टाटा-स्टील के सारे शेयर भी खरीद लूं और लोकसभा की आवश्यक बैठक बुलाकर यह कानून भी मंजूर करवा लूं कि अब इस देश में किसी आदमी या कंपनी से कोई टैक्स (इन्कम-टैक्स तक नहीं) नहीं लिया जाएगा; और मुझे इच्छा हुई है कि मैं अपनी हर शाम (यह शाम हर मौसम में सात बजे से दो बजे रात तक की होगी) पार्क स्ट्रीट, कलकत्ते की मेहर बाई की संगति में, और पटना शहर के अपने छोटे-से मकान में शशि और शशि के बच्चों की संगति में, और बनारस के अपने तीनों मित्रों की संगति में, दशाश्वमेध के बेहद सादे और बेहद रंगीन इलाके में, और रेणुजी के साथ सेंट्रल-होटल में, और मी. के साथ जुहू-होटल में, और संभव हो तो विलायत खां के सितार-वादन की महफिल में, और संभव हो तो स्वामी सत्यानंद महाराज के साथ ऋषिकेश की गंगा के किनारे-किनारे भटकते हुए गुजारता रह जाऊं-अपनी हर शाम सारे व्यक्तियों के साथ, अलग-अलग और एक साथ।

जैसे श्रीकृष्ण को चौरासी गोपियों और एक राधारानी के साथ इच्छा हुई थी। “लेकिन, श्रीकृष्ण और उनकी गोपियां तो भारतीय संस्कृतिकारों की कवि-कल्पनाएं हैं।“ -सत्यानंद महाराज ने मुझे समझाया था। संस्कृतिकारों की अथवा भारतीय संस्कृति की कल्पना वैष्णव-धर्म में और साहित्य में और चित्रकला में प्रत्येक गोपी के साथ एक-एक श्रीकृष्ण।

लेकिन, मुझे भी कल्पना करने से, सपना देखने से, या अंततः यह विश्वास ही कर लेने से क्यों रोका जाएगा कि मैं अपनी स्त्री और बच्चों को बहुत प्यार करता हूं और उनके बिना रह नहीं सकता हूं कि इसके साथ ही मेहर बाई और ‘सोलन‘ की क्वार्ट-बोतलें और महापुरुष मिश्र के तबले के साथ कत्थक के बोल और मेहर के सुडौल पांवों की जादूगरी को मैं बहुत प्यार करता हूं और उनके बिना रह नहीं सकता? क्या एक आदमी एक ही साथ अपने अंदर अलग-अलग जिंदगियां, अलग-अलग अस्तित्व जी नहीं सकता है? अर्थात् उसे इसका अधिकार नहीं है, या उसकी शारीरिक सीमाओं के कारण यह संभव ही नहीं है? पता नहीं क्यों, मेरी हर बात एक सवाल के साथ खत्म होती है, और सवाल का कोई जवाब मेरे पास नहीं होता। जवाब के लिए मैंने चार्ल्स बोदेलर और वान के गॉग और शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय और आलबेर कामू और ऐसे और और लोगों के जीवन और व्यक्तित्व को देखने-समझने की इच्छा थी...लेकिन, उनका जवाब मेरा जवाब क्यों होगा?

—युयुत्सा, अगस्त 1967