स्नेह की 'भूमिका' / रामचन्द्र शुक्ल
मनुष्य की भावप्रेरित मनोवृत्तियों का जितना परिचय कवियों को रहा है उतना मनोविज्ञानियों की पहुँच के बाहर समझना चाहिए। इसी से प्रसिध्द मनस्तत्ववेत्ता शैण्ड (Shand) ने भावदशाओं की अनेकरूपता के समस्त बोध के लिए शेक्सपियर आदि महाकवियों की वाणी की ओर संकेत किया है। एक प्रसिध्द समीक्षक का कहना है-”मनोविज्ञान ने अभी तक यही किया है कि जिन बातों को हम लोग यों ही जानते हैं उनका बहुत ही माथापच्ची और गड़बड़झाले के साथ अस्पष्ट रूप में वर्णन किया है।” (“साइकालाजी हैज मियर्ली कंट्राइव्ड टु से लेबोरेसली एंड विथ लेस प्रेसिजन ह्नाट वी आल नो विदाउट इट्स एड आलरेडी”) अत: किसी भाव के स्वरूप की विवृत्ति के लिए यदि हम कवियों की उक्तियों का सहारा लेते हैं अथवा अपने अनुभव या अन्तर्दृष्टि से काम लेते हैं तो ठीक ही करते हैं।
इस पुस्तक में त्रिपाठीजी (श्री काशीपति त्रिपाठी) ने यही किया है। पूर्वार्ध में रसपध्दति में प्रेम का स्वभाव दिखा कर आपने हिन्दी के ऋंगारी कवियों की सुनाई हुई उसकी नाना अन्तर्दशाओं के प्रदर्शन का प्रयत्न किया; फिर उत्तरार्ध में जीवनचर्या पर उक्त प्रबल मनोविकार का प्रभाव सूचित करते हुए समाज और परिवार के बीच उसके व्यवहार पक्ष पर विचार किया है। जो प्रेम पारिवारिक और सामाजिक परिस्थिति में घोर असामंजस्य उपस्थित करता है या व्यक्ति के जीवन को भार-स्वरूप और किरकिरा कर देता है उसकी शान्ति या निरोध की भी कुछ विधियाँ बतलाई गई हैं। सारांश यह कि पूर्वार्ध में प्रेम के स्वरूप का निरूपण समीचीन पध्दति पर है और उत्तरार्ध में जीवन की एक समस्या के रूप में उसका विवेचन हुआ है।
'प्रेम' ऐसे विश्वव्यापी और प्रबल भाव की सुसंगत और व्यवस्थित व्याूख्याक साहित्य-क्षेत्र में एक बहुत ही आवश्यक वस्तु है। हिन्दी में इस प्रकार की विवेचनात्मक पुस्तकों की बहुत कमी है। अत: त्रिपाठीजी को इस कृति के लिए साधुवाद देते हुए हम उनसे इसी प्रकार की और पुस्तकों की आशा करते हैं। यह सोच कर कि हिन्दी में आपका यह प्रथम प्रयत्न है, इस आशा का स्वरूप और भी उज्ज्वल दिखाई पड़ताहै।
(कृष्णजन्माष्टमी, सं. 1981, सितम्बर, 1924 ई )
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]