स्नेह की डोर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
हेमराज और दिनों की तरह आज भी अपने पिता खेमराज से झगड़ रहा थ। उसका कहना था–"पड़ोसी हमारी बैलगाड़ी माँगकर ले जाते हैं। कभी पहिया तोड़ लाते हैं, कभी जूआ। भरपाई कौन करे?"
"अभी मैं जिन्दा हूँ। तू खुद को घर का मुखिया मत समझ। मैं जिन लोगों के बीच रह रहा हूँ, उनको कैसे मना कर दूँ। आखिरकार मेरी कुछ इज्ज़त है। तू है कि हर जगह मेरी पगड़ी उछालने पर तुला रहता है।"
"ठाली बैठे हुक्का गुड़गुड़ाने के सिवा कौन–सा काम करते हो? मैं कुछ काम करूँ तो उल्टे उसमें टाँग ज़रूर अड़ा देते हो। खेत में खाद की ज़रूरत हो, तो कहोगे कि खाद में सारी कमाई झोंक रहा हूँ। कुछ करूँ, तो मुसीबत, न करूँ तो मुसीबत।"
"मैं इस घर से ही चला जाता हूँ" - खेमराज ने कहा।
"हाँ–हाँ ठीक है। हेमराज ने माथा पकड़ लिया–" जाओ, जहाँ जी चाहे।"
"ठीक है, जा रहा हूँ। लौटकर इस घर में पैर नहीं रखूँगा।" खेमराज चादर काँधे पर डालकर चल दिया। हेमराज की पत्नी ठगी–सी ससुर और पति की चखचख सुन रही थी। तीन वर्षीया बेटी रमा उसका आँचल पकड़े सहमी खड़ी थी। उसने पूछा–"माँ, बाबा कहाँ जा रहे हैं?"
"तुम्हारे बाबा रूठ गए हैं। बहुत दूर जा रहे हैं बेटी। तुम रोक लो।"
रमा ने बाबा की अंगुली पकड़ ली–"बाबा, ना जाओ" -खेमराज कुछ नहीं बोले तो वह सुबकने लगी–"ना जाओ बाबा। मुझे कहानी कौन सुनाएगा? झूला कौन झुलाएगा?"
उसका सुबकना बंद नहीं हुआ। खेमराज ठिठक गया। उसके पाँव आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। हेमराज ने लम्बी साँस ली– "ठीक है। तुम्हारी बात ही ऊपर रही बापू। इस बच्ची की बात मान लो। लोग मुझ पर थूकेंगे कि मैंने बाप को घर से निकाल दिया।"
खेमराज पोती का हाथ पकड़कर चौपाल में लौट आए– "ठीक है, तू कहती है, तो नहीं जाएँगे। चले जाएँगे तो मुझे कहानी कौन सुनाएगा?" खेमराज की आँखें डबडबा आईं॥ रमा ने एक बार बाबा की आँखों में देखा और खरगोश की तरह उनकी गोद में दुबक गई।