स्नेह / पद्मजा शर्मा
हम संयुक्त परिवार में रहते थे। घर छोटा पडऩे और परिवार बढ़ जाने के कारण हाल ही में पास ही अलग घर में रहने आए थे। हम कहीं बाहर जाते तो देवरानी, देवर या फिर किसी बच्चे को घर छोड़ कर जाते। एक तो हमें घर में ताला जडऩे की आदत नहीं थी। दूसरे घर ऐसी जगह था जहाँ कोई अनहोनी घटना घट जाए तो अड़ौस-पड़ौस में पूछने या सहायता करने वाला कोई नहीं।
कृष्ण जन्माष्टमी थी। हम सबने व्रत रखा था। उधर देवर ने डायबिटीज के कारण व्रत नहीं रखा। देवरानी ने ही रखा था। उसने कहा अकेले के लिए क्या तो खाना बनाना और क्या तो खाना। मैं रात को सिर्फ़ पंजीरी खाकर सो जाऊंगी।
मैंने देवरानी के लिए सगाहार वाला खाना बना लिया और टिफिन तैयार कर लिया। वह खुश हुई कि मैंने अलग होने के बाद भी उसका इतना ख्याल रखा।
अचानक इन्होंने कहा कि चल कृष्ण मन्दिर चलते हैं।
कृष्ण के मनोहारी भजनों के कारण हमें घर आते-आते साढ़े बारह बज गए. घर आकर मैंने देवरानी के साथ ही व्रत खोला। देवरानी की आँखों में पानी आ गया यह देखकर कि उसके टिफिन वाली रोटियाँ अच्छी सिंकी हुई और गोल-गोल थीं जबकि हमारे टिफिन में कुछ रोटियाँ चिठी लगी हुई थीं।
इस घटना के बाद हमारे परिवारों के बीच परस्पर स्नेह और आत्मीयता का सूत्र पहले से अधिक गाढ़ा और मजबूत हो गया था।