स्पर्श / से.रा. यात्री
शान्ता घर में रहकर प्राइवेट बी.ए. की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। चाचा-चाची नौकरी पर चले जाते थे और उनके बच्चे भी स्कूल चले जाते थे। बाद में घर पर वही अकेली रह जाती थी। उसे यानी शान्ता को गली-मोहल्ले के लोग बहुत दिनों तक एक नौकरानी के रूप में जानते थे। जब तक वह दस-बारह साल की हुई-शायद ही किसी को मालूम हुआ हो कि वह बहुगुना साहब की भतीजी है। उस बच्ची से पड़ोसी प्रायः खीझे रहते थे क्योंकि वह सुबह-सुबह जाकर किसी का द्वार खटखटा देती थी। लोग आंखें मलते हुए उठते थे और अलसाये स्वर में उससे पूछते थे कि क्या बात है तो पता चलता कि वह अंगीठी या स्टोव जलाने के लिए दियासलाई की तीलियां मांगने आयी है या चाय की पत्तियां अथवा थोड़ा-सा दूध। अगर वह जरा दिन चढ़े दरवाजा पीटती तो सब समझ जाते कि हल्दी, धनिये या नमक की फरमाइश है। उस गरीब के लिए हर तरफ से दुरदुराहट ही दुरदुराहट थी। वैसे साधारण से साधारण परिवारों में इन मामूली चीजों को ताले में बंद करने रखने का रिवाज नहीं है पर बहुगुना साहब के परिवार की हर बात ही अनोखी थी। उनके यहां क्राकरी से लेकर तेल, क्रीम, कंघे-शीशे, अचार-मुरब्बे, घी और यहां तक कि साधारण मसाले तक भी ताले के भीतर सुरक्षित रखे जाते थे।
बहुगुना साहब के दो पुत्र, जो कठिनाई से शान्ता से कुछ ही वर्ष छोटे होंगे, इस काम को करने में शान्ता के बराबर ही समर्थ थे मगर बहुगुना साहब को अपनी सामाजिक मर्यादा का बहुत खयाल रहता था। पत्नी एक महाविद्यालय में अपने विषय की विभागाध्यक्षा थीं और स्वयं वह भी एक फर्म में एकाउंटेंट थे। अजीब बात है कि लोग स्वयं दूसरों के सामने छोटी-छोटी चीजों के लिए हाथ फैलाते हुए शर्माते हैं परंतु नौकरों से मंगवाने में उन्हें कोई लज्जा अनुभव नहीं होती। मसलन नौकर को किसी ने इच्छित वस्तु देने से इंकार कर दिया या डांटकर भगा दिया तो इसमें वह अपनी मानहानि नहीं समझते। इसे वह नौकर का अपमान समझकर चुप लगा जाते हैं। शायद उनकी दृष्टि में नौकर इतना हेय है कि उसका मान-अपमान कुछ नहीं होता।
सुबह नौ बजे के करीब अगर कोई उनके यहां पहुंच जाता तो उसे कुछ इस प्रकार की झांकियां दिखलायी पड़तीं-बहुगुना साहब चाय का एक बड़ा-सा मग लिये मेज के सामने बैठे हैं, अखबार उनके सामने फैला है, एक पैर में स्लीपर है और दूसरा जांघ पर रखा हुआ है। आसपास के वातावरण से बेखबर होकर परम दार्शनिक मुद्रा में वह अखबारी खबरों का रसपान कर रहे हैं। बीच-बीच में एक विशेष व्यवधान के बाद चाय का मग उठाते हैं और एक घूंट भरकर फिर उसे वहीं मेज पर टिका देते हैं। उनके दोनों लड़के अपेक्षाकृत एक छोटी-सी मेज पर बैठे नाश्ता कर रहे हैं। मिसेज बहुगुना नहा-धोकर साफ कपड़े पहने अब उस विशेष अलमारी के सामने खड़ी हैं जहां राशन डिपो जैसा दृश्य है। चीनी, दाल, आटा, घी और मसाले नाप-तौलकर शान्ता के हाथ में देती जाती हैं और शान्ता उन्हें रसोई घर में रखकर फिर दूसरा सामान लेने आ पहुंचती है। बीच-बीच में मिसेज बहुगुना ऊंची और कर्कश आवाज में उसे कुछ आदेश भी देती जा रही हैं, जिन्हें सुनने का बहुत सर्तक भाव शान्ता के चेहरे पर बना हुआ है। यह दृश्य बड़ा विचित्र लगता है, जैसे कोई दुकानदार अलमारी से सामान तौल-तौलकर निकाल रहा हो और उसका नौकर काउण्टर पर खड़े लोगों को मुहैया कर रहा हो।
मोहल्ले-भर की उतरन पहन-पहनकर यह लड़की परवरिश पाती रही है। किसी का स्वेटर, किसीका फ्राक और किसीका गरारा बेरहम सर्दी-गर्मी से उसे बचाते रहे हैं। कुछ वर्ष पहले तक शान्ता को पहचानना बहुत आसान था क्योंकि एक तो उसका स्थान घर से ज्यादा बाहर मोहल्ले के घरों में था दूसरे उसकी ताड़-सी लंबी देह पर बिना नाप का कोई बेढंगा कपड़ा ऐसा जरूर होता था जो थोड़े दिनों पहले तक देने वाले के अपने घर में उपेक्षित होकर पड़ा हुआ था। यह लड़की दीवारों के भीतर कितनी प्रताड़ना पाती होगी इसके विषय में केवल इसी आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि कई बार महाविद्यालय की विभागाध्यक्षा हाथ में बेंत, कपड़े पीटने की मोंगरी या मच्छरदानी का बांस लेकर चुड़ैल-हरामजादी से आगे की ओर जाने वाले कुछ श्रेष्ठ संबोधन मार-पीट के साथ बतौर दक्षिणा देती नजर आ आ जाती थीं। नुकसान कोई करे मगर दंड की भागी प्रायः वही होती थी। और इस माहौल में यह सख्त जान लड़की बड़ी हो रही थी।
पिछले दिनों सुना गया कि शान्ता की कहीं शादी पक्की की जा रही है। लड़का भाग्य से किसी किस्म का इंजीनियर ही मिल गया है। अगर शान्ता बी.ए. कर जाय तो उसका विवाह इसी साल कर दिया जाय, साथ के पड़ोसी होने के कारण बहुगुना साहब के परिवार का मेरे यहां भी आना-जाना था। एक दिन उन्होंने मुझसे याचना की, “वर्मा जी, अगर कुछ दिनों आप शान्ता को 'कोच' कर दें तो यह बी.ए. कर सकती है। अब लड़की बड़ी हो गयी है, इसे कालेज-वालेज क्या भेजें।” मेरे मन में जो प्रतिक्रिया हुई वह यह थी कि कहूं-क्या हर्ज है। आपकी पत्नी तो कालेज जाती ही हैं, इसको साथ ले जाकर नियमित पढ़ाई की व्यवस्था कर सकती हैं। किंतु मैंने यह नहीं कहा। मैं जानता था कि शान्ता ने सभी परीक्षाएं प्राइवेट पास की हैं और शायद यह आखिरी सीढ़ी भी वह इसी तरह पार कर जायेगी। शान्ता कालेज चली जाती तो घर में फैला काम, जिसे दो नौकर संभालते, उसे कौन करेगा? मैंने उनसे कह दिया कि शान्ता को कभी-कभी भेज दिया कीजिए।
अगले दिन शान्ता हाथ में पांच-छह किताबें थामे मेरे कमरे में दाखिल हुई। मेरा खयाल था कि शान्ता इतने अरसे तक कुटने-पिसने और घुटन के बाद निहायत संजीदा हो गयी होगी मगर शान्ता के व्यक्तित्व पर घुटन की रुग्णता का कोई लक्षण नहीं था। वह हाथ की धुली शमीज और सलवार पहने हुए थी और उसके गले में जो काला दुपट्टा पड़ा था शायद मेरी पत्नी का ही था क्योंकि इस दुपट्टे से मैं बहुत दिनों तक अपने घर में विविध सेवाएं लिये जाते देखता रहा था। जब मेरा बच्चा काफी छोटा था तो मेरी पत्नी उसे मक्खियों से बचाने के लिए यही दुपट्टा उढ़ा दिया करती थी। शान्ता की लम्बाई बढ़ने के साथ-साथ बदन भी गुदाज और कसा हुआ हो गया था और रंग भी निखर आया था। उसे देखकर अब किसी-को यह ख्याल नहीं हो सकता था कि इस लड़की को कभी खाने-पहनने का बड़ा कष्ट रहा है। मेरी दृष्टि अभी भी उसमें एक छोटी-सी मरगिल्ली लड़की तलाश कर रही थी किन्तु उस अनाथ लड़की का उसमें कोई निशान बाकी नहीं था। अकेले कमरे में, अगर मेरे स्थान पर कोई और अनजान उसे देखता तो उसे न जाने कितनी खुशगवार बहारों की याद दिलाने वाली कल्पनाएं और खुमारी आने लगती किन्तु मैं किसी और व्यक्ति की नजर अपने अन्दर न ला सका। उसे देखकर मुझे बस स्टैण्ड पर समूह में खड़ी उन अनेक लड़कियों का ध्यान हो आया जिनमें से शायद कई शान्ता की स्थिति में परवरिश पाकर बड़ी और जवान होती हैं लेकिन जवान होते हुए वह आदमी की दृष्टि में एक इन्द्रजाल बुनती हैं और बरबस उसको अपनी ओर खींच लेती हैं। यह बात उनकी ओर आकर्षित होते हुए किसीके दिमाग में नहीं आती कि उनमें से कई ने निरन्तर ताड़ना और अपमान का सामना किया है। आदमी की तकलीफ आदमी को हमेशा तोड़ती नहीं है, कभी-कभी कष्टों में ही जवानी परवान चढ़ती है। यौवन में वह आध्यात्मिक खूशबू होती है कि तंग कोठरियां, सील, बदबू और गाली-गलौज उसे बन्दी बनाकर नहीं रख सकते। यह जवानी मनुष्य को न केवल खतरे उठाने को मजबूर करती है बल्कि कई बार विचारों और खुशियों के सातों आकाश भेदने की प्रबल शक्ति भी दे जाती है।
शान्ता की मैंने सारी किताबें उलट-पलट कर देखीं, सभी पर कन्या महाविद्यालय की मुहर लगी हुई थी। स्पष्ट था कि यह सभी पाठ्य पुस्तकें श्रीमती बहुगुना ने अपनी कालेज लाइब्रेरी से लाकर दी थीं और अगर यह लाइब्रेरी वाली सुविधा न होती तो शान्ता के इम्तिहान देने का प्रश्न ही न उठता। किताबें मेरे पास छोड़कर शान्ता अन्दर कमरों में भाभी-भाभी का शोर मचाती घूम रही थी। जब मेरी पत्नी उसे कहीं दिखाई न पड़ी तो वह मुझसे पूछने आयी, “भाई साहब, भाभी जी किधर हैं?”
यह कहकर वह स्वयं ही हंसने लगी। शायद मुझसे यह पूछने के बाद उसे खयाल आया होगा कि उसकी भाभी को मैंने कहीं नहीं छिपाया है। मैंने किताबें एक ओर सरकाकर उसकी ओर देखा और बोला, “तुम्हारी आंटी के साथ ही घर से निकली हैं; शायद बाजार गयी हैं।”
“बबलू भी उनके साथ ही गया है?”
मेरे हां कहने पर वह रहस्यमय ढंग से मुस्कराने लगी। मैं उसकी मुस्कान का भेद समझ गया। वह अपनी चाची का स्वभाव जानती थी कि वह कभी अकेली बाजार नहीं जातीं। बाजार जाते समय वह किसी न किसी पड़ोसिन की तलाश में रहती थीं; रिक्शे का एक तरफ का किराया वह स्वयं देती थी और दूसरी तरफ का पड़ोसिन से दिलवाती थीं और इस शर्त का निर्वाह करने वाली कोई न कोई साथिन उन्हें अवश्य मिल जाती थी। मैं फिर किताबें देखने लगा। मैं एक स्थल पर पेंसिल से निशान लगाने जा रहा था कि वह बोली, “आपने चाय पी ली?”
मैंने कहा, “ढाई-तीन के करीब तेरी भाभी गयी हैं। मैं उस वक्त घर पहुंचा ही था, मेरा खयाल है अब वे लोग लौट ही रही होंगी।”
“मैं चाय बना दूं?”
“तू बैठकर पढ़।”
“आप पढ़िए, मैं तब तक चाय बनाकर लाती हूं।” मुझे किताबों में उलझा देखकर वह अन्दर चली गयी और जब लौटी तो उसके हाथ में चाय का प्याला था। मेरे हाथ में चाय का प्याला देकर वह बिना बात मुस्कराने लगी। मैंने उससे पूछा, “तेरी चाय कहां है?”
वह इस बार खुलकर हंस पड़ी...मानो हंसी उसके रोम-रोम में थी तो बोली, “मैंने सिर्फ आपके लिए दो प्याले चाय बनायी है, आप इसे खत्म कीजिए, अभी एक प्याला चाय और रखी है।”
मैंने माथे पर त्यौरियां डालकर कहा, “दो प्याले की बच्ची, चल उठकर ला, मैं एक प्याला ही पीता हूं।” वह खड़ी कुटिलता से मुस्कराती, रही और फिर अन्दर भाग गयी। मैं चाय पीते हुए सोचता रहा... शायद एक उम्र ऐसी होती है जब बात-बेबात हर वक्त हंसी आती रहती है। कुछ देर बाद वह लौटी तो उसके हाथ में चाय का प्याला नहीं था मैंने हाथ के संकेत से पूछा तो बोली, “आप क्या इतना भी नहीं जानते कि हम लोग छुपकर और ज्यादा खा-पी लेती हैं। मैं किचन में जाकर सारी चाय पी आयी।"
उसके पढ़ने का सिलसिला नियमपूर्वक नहीं चल पा रहा था। कभी वह शाम को आती, कभी रात का खाना समाप्त करके। किताबें पढ़कर मैं उसे कुछ समझाने की कोशिश करता तो वह खाली दृष्टि से देखती रह जाती। शायद घर पर उसे पुस्तकें देखने का अवसर नहीं मिल पाता था। मेरे सामने भी वह ठीक से नहीं पढ़ पाती थी क्योंकि सभी पाठ्य पुस्तकों की केवल एक-एक प्रति थी। जब मैं पढ़ता था तो वह खाली बैठती थी और अगर पुस्तक उसके हाथ में थमा देता तो मैं उसके शब्द पकड़ने की कोशिश करता। किसी स्थल को दोबारा पढ़ने के लिए कहता तो वह पुस्तक मेरे हाथ में लौटाकर कहती, “आप ही पढ़कर समझा दीजिए...मेरे से नहीं पढ़ा जायेगा।”
पाठ्यक्रम की उन नीरस पुस्तकों में उसे कोई आनन्द नहीं आता था। कहीं कोई सरस बात होती तो वह उसे सुनने की चेष्टा करती और मासूमियत से कोई ऐसा टेढ़ा सवाल करती जिसका उत्तर पाठ्य पुस्तक और परीक्षा से किसी भी प्रकार ताल-मेल न बिठा पाता। एक दिन जब मैं उसे साहित्य की कोई पुस्तक पढ़ा रहा था तो वह मूल विषय से हटकर बोली, “क्यों भाई साहब, क्या वास्तव में कृष्ण जी राधा को छोड़कर चले गये थे और फिर कभी वापस नहीं लौटे?” फिर यकायक उसे कुछ याद आया और कौतुक से बोली, “सुना है कृष्ण जी ने मथुरा जाकर एक ऐसी औरत से शादी रचा ली जिसकी पीठ में कूबड़ निकला हुआ था...अच्छा भाई साहब, आप ही बताइए कभी ऐसा हो सकता है?”
मुझे उसकी जिज्ञासा-भरी मुद्रा देखकर हंसी आ गयी। मैंने कहा, “शान्ता, कूबड़ का शादी से कोई सम्बन्ध नहीं है। अब तू अपनी ही मिसाल ले, तेरी पीठ में न सही दिमाग में तो कूबड़ निकला ही हुआ है।”
मैंने उसकी जिज्ञासा-भरी मुद्रा की नकल उतारकर कहा, “अच्छा शान्ता जी तो, अब आप ही बताइये, क्या आपकी शादी नहीं होगी?”
वह मेरे हाथ की किताब पर अपना हाथ मारकर शर्म से लाल पड़ गयी और बोली, “हटिए, आप बेकार की बातें करते हैं।” मैं देख रहा था कि पढ़ने से उसकी तबीयत उचटती जा रही थी। वह अजीब-अजीब सवाल करती थी और बीच-बीच में उठकर अन्दर चली जाती थी और मेरी पत्नी से झख मारने लगती थी। उसकी सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि उसे कुछ याद नहीं रहता था। एक दिन उसके रवैये से ऊबकर मैंने कुछ कटु होकर कहा, “अच्छा शान्ता, अब तू जा, तेरी पढ़ाई हो चुकी। इन किताबों से तू सिर्फ अंगीठी सुलगाने का ही काम ले सकती है। पढ़ने-पढ़ाने का काम तेरे लिए नहीं बना, तुझे तो जिन्दगी भर चूल्हे में सिर मारना है।”
मेरे खीझने और नाराज होने से उसका हंसता हुआ चेहरा निस्तेज पड़ गया। वह हतप्रभ हो गयी और उसके मुख पर गम्भीरता के बादल छा गये। मुझे अपने व्यर्थ आक्रोश पर बहुत अफसोस हुआ। क्या यह चूल्हे और गृहस्थी का ही झंझट नहीं था जो उसे किताबों की दुनिया तक पहुंचने ही नहीं देता था? मैंने उसकी विवशता पर चोट करके वास्तव में अनजाने में क्रूरता का परिचय दिया था। उसकी बेबसी सुबकियों में फूटती देखकर मैंने उसकी पीठ पर सान्त्वना-भरा हाथ रखकर कहा, “अच्छा छोड़, मैं तुझे कुछ ऐसी सहायक पुस्तकें मंगा दूंगा कि तेरी पढ़ाई बिल्कुल आसान हो जायेगी।” और इस तरह उसकी पढ़ाई का सिलसिला टूट गया।
इस घटना के बाद शान्ता का किताबें लेकर आना बन्द हो गया। वह यों ही जब मौका मिलता चली आती और पत्नी से गप्पें मारती रहती। पत्रिकाएं और उपन्यास मांगकर ले जाती। एक रात मेरी पत्नी ने मुझे बताया कि उसकी सगाई टूट गयी है क्योंकि बहुगुना साहब ने लड़के के बाप से साफ बातें करने की कोशिश में यह बतला दिया कि शान्ता वास्तव में उनकी लड़की नहीं है, उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है और उसकी मां सदमे के कारण पागल हो गयी थी जो अब लम्बे अर्से से पागलखाने में है। उन्होंने शान्ता को पाला-पोसा जरूर है मगर उनके पास शादी में खर्च करने के लिए ज्यादा रुपया नहीं है। वह बहुत मामूली स्तर की शादी कर सकते हैं। उन लोगों पर शान्ता के चाचा की साफगोई का यह असर पड़ा कि उन्होंने इस शादी से इन्कार कर दिया।
पिछले कुछ दिनों से मैं देख रहा था कि बहुगुना साहब के घर एक लड़का आने लगा था। यह लड़का बी.ए. में पढ़ता था पर किसी कारण नाम कट जाने से यह गत वर्ष परीक्षा में सम्मिलित नहीं हो पाया था इसका नाम कटने पर मुझे कोई अफसोस नहीं हुआ था क्योंकि कई विद्यार्थियों के डिफाल्टर होने से नाम कट जाते थे परन्तु जब मुझे मालूम हुआ कि यह लड़का दैनिक समाचारपत्र तथा पत्रिकाएं बेचकर अपना गुजारा करता है तो मुझे उसके लिए वास्तविक दुःख हुआ था। मैंने अपने साथ के कई लोगों के घर उसे अखबार देने का काम भी दिलवाया था। बहुगुना के घर वह कैसे पहुंचने लगा, यह मेरी समझ में नहीं आया-बहुगुना परिवार में अखबार या पत्र-पत्रिकाएं खरीदकर पढ़ना पैसे का अपव्यय माना जाता था। हां, यह बात अलग थी कि बहुगुना साहब अपने दफ्तर से कुछ रद्दी किस्म के अखबार उठा लाते थे या शान्ता कभी-कभी अलमारी, मेज या सूटकेस की तली में लगाने के लिए मोहल्ले-पड़ोस के मकानों से दैनिक अखबारों को बटोर लाती थी। मैंने सोचा, शायद शान्ता अपने चाचा-चाची से छिपाकर पत्रिकाएं खरीदती है, लेकिन थोड़े दिनों बाद ही मुझे पता चल गया कि वह शान्ता को पुस्तकें लाकर देता था। अखबार वह सुबह बांट जाता था और दस-ग्यारह बजे फिर लौटता था उसके दोबारा लौटने तक अधिकांश घरों के लोग दफ्तर चले जाते थे और शान्ता का घर भी सूना हो जाता था। वह साइकिल के कैरियर पर किताबें रखकर लाता और साइकिल बराण्डे में खड़ी करके धीरे से दरवाजे पर दस्तक देता था। दरवाजा तत्काल खुलता और वह मकान के अन्दर दाखिल हो जाता। मेरे मन में इस लड़के के लिए सहज सहानुभूति थी क्योंकि मैं उसे निरन्तर संघर्ष करते देखता था। यह लड़का देखने में भी अच्छा था और विनम्र तो हद दर्जे का था। मुझे घर से निकलते देख लेता फौरन साइकिल से नीचे उतर पड़ता और क्षण भर वहीं ठहरा रह जाता। चूंकि वह किताबें देकर फौरन नहीं चला जाता था इसलिए मान लेने की पूरी गुंजाइश थी कि वह शान्ता को गाइड भी करता था।
मुझे आशंका होने लगी थी कि अब जल्दी ही मोहल्ले-भर में कुछ अजीब-अजीब किस्म की चर्चाएं शुरू हो जाएँगी। शान्ता मेरे यहां दिन में दो बार तो जरूर ही आती थी, मैं उसे आगाह भी करना चाहता था किंतु उसके चेहरे पर गंभीरता का स्थायी पर्दा पड़ा देखकर कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। मैं उसके भाव-परिवर्तन का प्रकट रूप में यही अर्थ लगाता था कि उसकी सगाई टूट जाने से उसे दुःख और अपमान का गंभीर रूप से एहसास हुआ है। वह मेरे सामने पड़ती तो मैं उसे छेड़ना चाहता किंतु यही सोचकर चुप लगा जाता कि कहीं मेरे किसी वाक्य से उसका दिल न दुख जाय। जिन लोगों को उसका रिश्ता टूटने की बाबत मालूम था वह बहुगुना साहब के यहां जाकर यह प्रसंग जरूर छेड़ते थे। मुझे इस युवक को शान्ता के पास आते देखकर खुशी ही हुई क्योंकि अब उसका ध्यान पढ़ाई की ओर चला गया था। थोड़े दिनों बाद वह परीक्षा देगी। तब तक शायद रिश्ते की बात भी कहीं जम जाय।
एक शाम जब मैं कुछ देर से घर लौटा तो मुझे अपने घर का वातावरण बहुत गंभीर दिखाई पड़ा। मेरी पत्नी उत्तेजित अवस्था में इधर-उधर चक्कर काट रही थीं। मैंने कपड़े बदलकर इत्मीनान से बैठते हुए पत्नी को हंसाने के लिए कहा, “अच्छा मैडम, तो आज की ताजा खबरें हो जाएं।” मेरे हल्के मूड का उनपर कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह अपने लटके हुए गंभीर चेहरे को और भी भारी बनाकर बोलीं, “खबरें! आपको मालूम है आज क्या हुआ है? मिसेज बहुगुना की नीचता देखी आपने? हमारे बच्चे को बुलाकर कह रही थीं, 'क्यों, बेटा तुमने हमारी डबल रोटी और मक्खन खाया था?' बेचारा जरा-सा बच्चा घिघियाकर रोने लगा। रोते-रोते ही बोला, "आंटी जी, मैं आज इधर आया भी नहीं।” एक सांस में चार प्रश्नचिह्न वाले कुछेक वाक्य बोलते-बोलते देवी जी का दम फूल गया तो विवश होकर रूकना पड़ा। परंतु पूरी बात कहने की बेचैनी इतनी बढ़ी हुई थी कि अगले पल बोलीं, “इसके बाद उन्होंने शान्ता की इतनी पिटाई की कि क्या कहूं।”
मेरी पत्नी ने तटस्थ होने की कोशिश करते हुए निष्कर्ष निकाला, “हमें क्या, वह शान्ता को मारे या काटें पर इनसे पूछिए, हमारे बच्चे से क्या मतलब? मैं तो कह आयी, 'आपका हमारे से कुछ लेन-देन नहीं। हम आपके लिए और आप हमारे लिए इसी मिनट मर गये। आपने आज हमारे बच्चे के नाम डबल रोटी की चोरी लगायी है। कल न जाने क्या करें। बाबा, हमें माफ करो।' “ और यह कहकर पत्नी ने आवेश में दोनों हाथ सिर के उपर ले जाकर प्रायः उसी मुद्रा में जोड़े जिस तरह कि मिसेज बहुगुना के यहां पांव पटकते हुए जोड़े होंगे।
पत्नी का आक्रोश शायद अभी कम नहीं हो रहा था या वह इस घटना पर मेरी प्रतिक्रिया जानना चाहती थीं। मुझे कोंचकर बोली, “क्यों जी, मैं आपसे पूछती हूं, क्या हमारी इतनी भी आबरू नहीं है कि हमारा बच्चा उनके यहां कुछ खा आये? क्या उनका यही धर्म है कि वह मोहल्ले-भर की औरतों के सामने हमारे बच्चे से ऐसी नीचता की बात तसदीक करें? ऐसी हजार डबल रोटियों पर मैं थूकती हूं।” डबल रोटी पर तो नहीं, हां फर्श पर उन्होंने वास्तव में पिच्च से थूक दिया। मैं सारी घटना की तह में जाने की कोशिश कर रहा था मगर अपने बच्चे के अपमान से मेरी पत्नी का हृदय बुरी तरह घायल हो चुका था। उन्होंने फिर सवालिया फिकरे बोलने प्रारम्भ कर दिये, “मालूम है क्या कहती थीं? अपने बन्नू-टोनी के लिए चार पीस डबल रोटी और मक्खन की एक टिकिया तीसरे पहर के नाश्ते के लिए छोड़ गयी थीं। डायन ने कालेज से लौटते ही बच्चों से पूछा कि क्या उन्होंने मक्खन-लगे टोस्ट खा लिये? बच्चों के मना करने पर इन्क्वायरी शुरू हुई। होते-होते हमारे बबलू की पेशी हुई। आपको मालूम है शान्ता पर क्या कहकर हाथ उठाया, 'हरामजादी, तूने खुद रोटी खाई और पड़ोस के बच्चों को बदनाम करती है। जूठ-मूठ के बहाने बनाकर पड़ोसियों से हमारी सिर फुटव्वल करायेगी! तेरी जबान को आग लगे।' और यह कहकर उन्होंने जवान लड़की को घूंसे-थप्पड़ों से इतना धुना कि बेचारी बेहाल हो गयी। मेरे जी में तो आया कि इतनी औरतों के सामने ही कहूं कि जब इतनी बड़ी लौंडिया को रोटियों से भी तरसाओगी तो यही सब होगा। फिर मैंने सोचा, हमें इससे क्या मतलब।” पत्नी अपने गहरे आक्रोश में-जो शान्ता की दुर्गति से संबंधित था या अपने बच्चों को लेकर था-बोले चली जा रही थीं, “ओह! शान्ता भी क्या लड़की है। मुंह से सांस तक नहीं निकाली। खड़ी-खड़ी पिटती रही। बस, मैंने तो आज से गांठ बांध ली, इस कुटनी के यहां कभी झांकूंगी भी नहीं। मुंहझौंसी, हमारे बच्चे पर इलजाम लगाती है!”
श्रीमती जी का गुबार कुछ कम हुआ तो उठकर अंदर चली गयीं। मैं सारी घटना पर विचार करके सिहर उठा। जो शान्ता मुझसे यह पूछ रही थी कि क्या वास्तम में कृष्ण जी राधा को छोड़कर चले गये थे और फिर कभी वापस नहीं लौटे थे....क्या वही लड़की डबल रोटी के चार टुकड़ों और मक्खन की इतनी लालची हो सकती है कि स्वयं खाकर दूसरे के बच्चों का नाम ले! मैंने दोपहर में कालेज जाते हुए उसी अखबार बेचने वाले लड़के को साइकिल के कैरियर पर कई किताबें लेकर आते देखा था। घर में उस समय केवल शान्ता ही थी। वह लड़का कुछ समय वहां ठहरा होगा तो शायद शान्ता ने शिष्टता के नाते उससे चाय के लिए पूछा होगा। जाहिर है कि ताले में बंद चीजों में से वह कुछ नहीं निकाल सकती थी। चाय की पत्तियां और शक्कर की अधिक से अधिक बाहर मिल सकती थी। चाय बनाने के बाद उसने बहुगुना के बच्चों के लिए रखी डबल रोटी और मक्खन उस युवक को यह सोचकर दे दिया होगा कि चाची से कह देगी...."दोपहर को वर्मा जी का बबलू आया था, खा गया।" उसे यह आश्वासन जरूर रहा होगा कि उसकी इस बात की तहकीकात नहीं की जायेगी। लेकिन उस गरीब को क्या पता था कि वह भले ही बड़ी और जवान हो जाय मगर अब भी उसकी चाची उसे विश्वसनीय नहीं समझती। वह उस मिट्टि की बनी हुई है जो शायद कुएं में सुई गिर पड़ने पर उसे भी खोज लायेगी।
मुझे उठते न देखकर पत्नी खाना कमरें में ही उठा लाई और हम दोनों खाना खाने लगे मगर मुझे खाने में कोई रस मालूम नहीं पड़ा। मेरी सारी चेतना शान्ता के साथ हुए दुर्व्यवहार पर केंद्रित हो गयी। इतनी बार यह लड़की हमारे यहां आती है, मैंने आज तक शान्ता को कुछ खाते नहीं देखा। जिद करने पर भी वह कुछ नहीं खाती है। सिर झुकाकर बैठ जाती है। मैं कई बार इस लड़की का व्यवहार देखकर यह गलत कल्पना करने को विवश हुआ हूं कि लड़कियां शायद कुछ खाती ही नहीं हैं। उनके शरीर किसी सुंदर विचार के द्वारा ही पोषित होते रहते हैं। लेकिन यह कितनी विरोधाभास भरी-स्थिति है कि उस जवान लड़की की पिटाई केवल इसी बात को लेकर हुई है कि डबल रोटी के कुछ टुकड़े और दो तोले मक्खन की टिकिया नाश्ते की मेज से नदारद पायी गयी। क्या इतने अपमान और लांछना को अपने सिर लादकर कोई चेतनासंपन्न प्राणी जीवित रह सकता है! जिस घर में बेपनाह डांट-फटकार खाकर यह लड़की बड़ी हुई है-उस घर में उसकी मर्यादा एक कुत्ते के बराबर भी नहीं है। बिल्ली-कुत्ते भी अगर इतना नुकसान कर देते हैं तो लोग दरगुजर कर जाते हैं किंतु यहां इन भले लोगों ने एक ऐसी लड़की को दो कौड़ी की बात पर मार-पीटकर अपमानित किया है जिसकी शादी की कोशिश में सुना है ये लोग बहुत परेशान हैं।
रोटी का कौर चबाते-चबाते मैं दांतों में इस तरह किसकिसाहट महसूस करने लगा गोया रोटियां रेत की बनी हों। शान्ता का निरीह चेहरा और उसके पिटने का दृश्य मेरी आंखों के सामने आ गया। अपमानित करने के लिए कोई संगत कारण तो होने चाहिए मगर क्या यह जरूरी है कि हमेशा सब बातें उचित कारणों को लेकर ही घटित हों? चार टुकड़े डबल रोटी और मक्खन की टिकिया का भी अपना एक वस्तुगत सत्य है जिसके आगे सारी भावनाएं और रिश्ते दम तोड़ जाते हैं। केवल पात्र बदल जाते हैं, मगर घटनाएं बार-बार दुहराई जाती हैं।