स्पेस / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
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आज उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। उसको स्टडी टेबिल सरप्राइज गिफ्ट में मिली थी। वह छोटे बच्चे की तरह चहक रहा था। टेबल के ऊपर बने तीन रैक में ज़रूरी किताबें लगाईं। सामने लैपटॉप रखा। नीचे के रैक में ज़रूरी पुस्तकें रखीं।

एक दिन उसका लैपटॉप वहाँ से हटा दिया। वह बाहर डाइनिंग टेबल पर लैपटाप रखकर काम करने लगा।

अगले दिन लैपटॉप का प्लग निकाल दिया। वह एक डेस्क लेकर काम करने लगा, तो वह भी हटा दिया।

इसके बाद वह एक बिल्कुल छोटी टेबल पर झुककर काम करने लगा।पीठ और कंधों में दर्द शुरू हो गया। दर्द कहीं और भी था, जिसे उसके सिवाय न कोई जानता था, न ही महसूस करता था।

वह सोचने लगा-सुदर्शन होते हुए भी उसने कपड़े लत्तों पर उतना ध्यान नहीं दिया, जितना अध्यवसाय पर दिया। कोई पुर्जा भी मिल जाता, तो उसको भी उठाकर पढ़ने की कोशिश करता।

अच्छी किताब पढ़ने से उसका नशे की तरह जुड़ाव था। रुपये-पैसे से मोह नहीं था। उसके अपने भी पीठ पीछे किताबी कीड़ा कहकर उसका उपहास किया करते।

आज उन किताबों के लिए वह टुकुर-टुकुर देख रहा था। उसकी कुछ प्रिय पुस्तकें उसके सामने पुर्ज़े-पुर्ज़े कर दी गईं। हारकर कुछ अनचाहे लोगों तक बाँटनी पड़ीं। तब से आज तक उसे याद ही नहीं कि वे किताबें किसके पास हैं, किस हालत में हैं। पर वे सभी उसके ज़ेहन में जिन्दा हैं। उनके फटे पन्ने आज भी सपने में देखकर वह चिहुँक जाता है। जागने पर बाणाहत पक्षी की तरह फड़फड़ा उठता है। एक वह भी समय था, जब परीक्षा पास करने के लिए उसके पास पर्याप्त पुस्तकें न थीं। जेब में पैसे भी नहीं थे। कॉलिज की तरफ़ से डोनेशन में पुस्तकें मिल रही थीं। वह निर्धारित समय पर नहीं पहुँचा। उसने देना सीखा था, लेना या माँगना नहीं। अपने दिए गए उधार पैसे माँगने में भी उसको लज्जा आती थी।

आज उसके पास उत्कृष्ट पुस्तकों का संग्रह था; पर रखने की जगह घटती जा रही थी। कुछ शोधपूर्ण दुर्लभ पुस्तकें समीप वालों को दे दीं, तो कुछ पुस्तकालयों में दे दीं। जो पुरानी पड़ गईं, जिनसे जीवन जुड़ा था, आत्मा जुड़ी थी, उनकी इच्छा के विरुद्ध वे कबाड़ी को दे दी गईं।

किसी भी कोने में आज उके लिए भी स्थान नहीं बचा था। आज वह घर के बीचों-बीच ऐसे बैठा था, जैसे किसी श्मशान में बैठा हो। नितांत अकेला। डूबते सूरज की तरह, श्रीहीन।

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