स्फुट प्रश्न् समालोचना / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

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अहिंसैकपरा नित्यमप्रतिग्राहिणस्तथा।

सत्रिणो दाननिरता ब्राह्मणा: पंक्‍तिपावना:। - बृ. उशना:।

यद्यपि पूर्व के दो प्रकरणों में युक्‍ति और प्रमाणों द्वारा ब्राह्मणों का वास्तविक स्वरूप और धर्मों के प्रदर्शन कर देने, याचक और अयाचक दलवाले ब्राह्मणों का परस्पर प्रसिद्ध विवाह सम्बन्ध एवं खान-पान दिखला देने और अज्ञान तथा द्वेषमूलक अयाचक ब्राह्मणों के ऊपर किए गए निर्मूल अतएव मिथ्या आक्षेपों को विविध उपायों द्वारा विधिवत निर्मूल कर देने से अयाचक ब्राह्मणों का सर्वोत्तम और शास्त्र सिद्ध वास्तविक स्वरूप अच्छी तरह विदित ही हो गया। अत: अब कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। तथापि दो-एक प्रसिद्धतर प्रश्नों की मीमांसा करते और बंगदेशीय कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में से दो-चार प्रसिद्ध घरों के साथ भी विवाह सम्बन्ध दिखलाते हुए अत्यंतोपयोगी और नित्य कर्तव्य संध्योपासन एवं श्राद्धादि विषयों की आवश्यकता और उनमें भोजन कराने योग्य ब्राह्मणों का निरूपण कर के इस ग्रन्थ को संपूर्ण करना है। इसीलिए थोड़ा सा यह यत्‍न और भी कर दिया जाता है। यद्यपि जिन प्रश्नों की मीमांसा यहाँ की जावेगी उनकी भी सामान्य रूप से प्रथम ही आलोचना हो चुकी है, तथापि वे बहुत प्रसिद्ध या प्रचलित हैं, इसीलिए उनका विशेष रूप से विचार किया जाता है।

प्रथम और सबसे प्रचलित प्रश्‍न तो यह है कि जब कभी और जहाँ कहीं भी ब्राह्मणों के स्वरूप या धर्म का विचार उपस्थित होता है, वहाँ लोग झट से यह कह बैठते हैं कि अजी साहब! जैसी कान्यकुब्ज और सर्यूपारी आदि ब्राह्मणों की उत्पत्ति शास्त्रों में मिलती है, एवं क्षत्रिय वगैरह की भी, वैसी भूमिहार आदि ब्राह्मणों की उत्पत्ति का तो कहीं भी पता नहीं है, फिर यदि इनके विषय में कुकल्पनाएँ न हों तो और हो क्या? और यदि आप इनके विषय में किसी प्रकार का दावा करते हैं तो बस, इनकी उत्पत्ति कहीं दिखला दीजिए, हम आपकी सब बातें मानने को तैयार हैं। इस पर यदि उन लोगों से यह कहा जावे कि अच्छा, तो फिर प्रथम आप ही बतलाइए कि कान्यकुब्ज, सर्यूपारी या गौड़ आदि की उत्पत्ति कहाँ लिखी है? तो वे लोग झटपट बोल बैठते हैं कि 'ब्राह्मणस्य मुखमासीत्' इस वेद मन्त्र, 'लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुख बाहूरुपादत:। ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्रवत्तायत्'। इस मनुवाक्य और समस्त पुराणों में ही लिखी है। इसमें पूछने की क्या बात है? परंतु विचारने की बात है कि जिन वचनों का नाम ऊपर लिया गया है, उनमें केवल ब्राह्मण शब्द ही आया है, न कि कान्यकुब्ज या गौड़ आदि शब्द आए हैं। वहाँ 'कान्यकुब्जोस्य मुखमासीत्' 'गोडोस्य मुखमासीत्' ऐसा तो लिखा हुआ है नहीं। अब यह देखना चाहिए कि उस ब्राह्मण शब्द से कान्यकुब्ज या गौड़ आदि ब्राह्मण ही लिए जावेंगे और भूमिहार, त्यागी, पश्‍चिम आदि ब्राह्मण नहीं, इसमें प्रमाण ही क्या है? क्या इसकी कोई रजिस्टरी या हुलिया उनके पास खासतौर पर है कि वहाँ ब्राह्मण शब्द उन्हीं का वाचक है, कि त्यागी आदि ब्राह्मणों का भी? यह अंधा पक्षपात या मिथ्या अभिनिवेश नहीं हैं तो और है क्या?

दूसरी बात यह है कि जब कान्यकुब्ज लोग स्वयं ही इस बात को स्वीकार करते हैं कि काश्यप गोत्रवाले सभी कान्यकुब्ज मदारपुर के अधिपति भूमिहार ब्राह्मणों के ही वंशज हैं और उन काश्यप गोत्रवाले कान्यकुब्जों का खानपान या विवाह सम्बन्ध सभी गोत्रवाले कान्यकुब्जों से से होता है और सर्यूपारी लोग भी उन्हीं कान्यकुब्जों की एक शाखा अपने को स्वीकार करते हैं। तो फिर हमारा इस विषय में केवल इतना ही वक्‍तव्य है कि आप सर्यूपारी या कान्यकुब्ज ही अपनी-अपनी उत्पत्तियाँ बतलावें, उसी से भूमिहार आदि ब्राह्मणों की उत्पत्ति का भी पता चल जावेगा, क्योंकि वे लोग भूमिहार ब्राह्मणों के ही वंशज है। अथवा संक्षेपत: इस उत्पत्तिवाले प्रश्‍न का यही उत्तर है कि भूमिहार आदि ब्राह्मण कान्यकुब्ज आदि ब्राह्मणों के पिता या पूर्वज हैं। जैसी कि उनकी राय और सिंह वगैरह पदवियाँ दूबे और चौबे आदि पदवियों की जन्मानेवाली प्रथम ही सिद्ध की गई है। कान्यकुब्ज और भूमिहार आदि शब्दों का विचार करते हुए यह बात प्रथम प्रकरण में ही सविस्तार वर्णित है। अत: इसका विशेष ज्ञान वहीं से प्राप्त कर लेना चाहिए।

दूसरा प्रश्‍न हुआ करता है कि यदि दान लेना ब्राह्मणों का धर्म नहीं है, तो भूमिहार ब्राह्मण कन्यादान को क्यों स्वीकार करते हैं? वाह! वाह! क्या ही अच्छा प्रश्‍न है! हमने यह कब कहा है कि दान लेना सर्वथा ही ब्राह्मणों का धर्म नहीं है? किंतु उसे केवल आपद्धर्म बतलाया है, जिसका तात्पर्य यह है कि जब जिस दान ग्रहण किए बिना काम किसी प्रकार भी चल नहीं सकता, तो उस समय उसका स्वीकार ब्राह्मण कर सकता है। और कन्यादान के स्वीकार किए बिना किसी प्रकार भी काम नहीं चल सकता, प्रत्युत वंश या संसार का ही उच्छेद हो जावेगा और महान उत्पात मच जावेगा। इसलिए अगत्या उसके करने की शास्त्र ने भी आज्ञा दी है। परंतु वह भी हमारी इच्छा पर निर्भर है, चाहे हम उसे ले या न। दूसरी बात यह है कि हम सामान्य रूप से दान का निषेध करते हैं, न कि नाम ले कर एक-एक का। ऐसी दशा में यदि कोई विशेष वचन किसी कन्यादान आदि विशेष दान के स्वीकार की आज्ञा देता है तो उससे उस सामान्य निषेध का विशेष अंश में संकोच हो कर यह तात्पर्य सिद्ध होगा, कि कन्यादानादि से भिन्न दानों का स्वीकार शास्त्र निषिद्ध है, क्योंकि सामान्य शास्त्र को विशेष शास्त्र बाँध लेता है। न कि उस कन्यादान स्वीकारवाले शास्त्र के विशेष वचन के बल से सभी दानों का ग्रहण करना सिद्ध हो जावेगा। यदि ऐसा होने लगे तो फिर शास्त्रों में बड़ा ऊधम मच जावेगा और 'मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि' अर्थात किसी भी प्राणी की हिंसा न करें।' यह जो वचन सामान्यत: सभी हिंसाओं का निषेध करता है, उसके विरोधी 'अग्नीषोमीयं पशुमालभेत' अर्थात 'अग्नीषोमीय याग में पशु की हिंसा (वा स्पर्श) करना चाहिए' इस वचन के होने से उस सामान्य वचन का संपूर्ण बोध होने पर सभी प्रकार की हिंसाएँ शास्त्र विहित हो जावेंगी। इसीलिए भगवान पतंजलि ने महाभाष्य में कहा है कि :

प्रकल्प्य चापवादिविषयं तत उत्सर्गो निविशते।

इसका तात्पर्य वही है जो पूर्व दिखला चुके हैं कि विशेष वचन के होने पर सामान्य शास्त्र का विशेष अंश में संकोच हो जाया करता है। बड़ी खूबी तो इस प्रश्‍न में यह है कि जिस कन्यादान के स्वीकार से आप लोग दान लेना ब्राह्मणों का उच्च धर्म सिद्ध किया चाहते हैं, उसे ब्राह्मण से ले कर चांडाल पर्यंत सभी करते हैं। तो फिर क्या आपकी इस दलील के अनुसार चांडाल पर्यंत सभी जातियों को दान ग्रहण करना चाहिए? तो फिर आप इस युक्‍ति से इतना भी कदापि सिद्ध नहीं कर सकते कि जो दान न ले वह श्रेष्ठ ब्राह्मण ही नहीं हैं।

तीसरा प्रश्‍न यह किया जाता है कि जैसे अन्य जातीय याचक, भिक्षु या पुरोहित दलवाले ब्राह्मणों को पूजते या प्रणाम करते हैं, वैसे ही आपके अयाचक या भूमिहार आदि ब्राह्मण भी किया करते हैं। तो फिर इनके विषय में संदेह या कुकल्पनाएँ क्यों न हों? परंतु इस प्रश्‍न को भी सुन कर हँसी आती है क्योंकि यदि इसी दलील के अनुसार अयाचक ब्राह्मणों के विषय में संदेह किया जावे अथवा वे ब्राह्मण ही समझे न जावें, तो फिर सभी ब्राह्मण कहलाने वालों को अपनी ब्राह्मणता का बाजी दावा लिखना या उससे हाथ धोना पड़ेगा। क्योंकि ऐसा प्रश्‍न करनेवाला जो ही याचक दलवाला ब्राह्मण होगा वही अपने गुरु या पुरोहित को वैसे ही प्रणाम करता, या उनकी पूजा करता होगा जैसे कि अयाचक ब्राह्मण किया करते हैं। क्योंकि गुरु या पुरोहित तो सभी के हुआ करते हैं। तो फिर वह याचक दलवाला ब्राह्मण भी इसी दलील के मुताबिक ब्राह्मण न ठहरा। इसी प्रकार उसके गुरु या पुरोहित के भी गुरु और पुरोहित होंगे और फिर उनके भी वैसे ही होंगे और वे लोग भी अपने-अपने गुरुओं और पुरोहितों के पूजन और प्रणाम करने से ब्राह्मण न ठहरे। इसका अन्त में नतीजा यह निकलेगा कि कोई भी ब्राह्मण सिद्ध न हो सकेगा। यह तो वही 'सूद के लिए मूल के भी गँवाने' वाली बात हुई।

बात तो असल यह है कि अधिकतर अयाचक ब्राह्मण तो पुरोहिती वगैरह करते ही नहीं। ऐसी दशा में अगत्या याचक ब्राह्मणों को पुरोहित वगैरह बना कर यदि अयाचक ब्राह्मण उन्हें प्रणाम आदि करते हैं तो इसमें हानि ही क्या है? यदि कोई ऐसा कहने का साहस करे कि सभी अयाचक ब्राह्मण सभी याचक ब्राह्मणों को प्रणाम आदि करते हैं, तो यह बात कभी भी मानी नहीं जा सकती। जैसा कि प्रथम ही कह चुके हैं कि ऐसे-ऐसे अयाचक दलीय ब्राह्मण वंश पड़े हुए हैं जिन्हें याचक दलवाले प्रथम ही प्रणाम करते हैं। यहाँ तक कि उस दल के राजे-महाराजे भी प्रणाम करते और पत्र वगैरह में भी लिखा करते हैं। इसके लिए प्रमाण स्वरूप बहुत से पत्र और व्यवस्थाएँ प्रथम ही प्रकरण में प्रदर्शित कर दी गई है। जिन्हें इस बात का आग्रह हो उन्हें हम ऐसे-ऐसे लाखों दृष्टांत दिखला सकते हैं। यदि कहीं-कहीं पुरोहितादि से भिन्न याचक दलवालों को भी अयाचक ब्राह्मण लोग प्रणाम करते हों, तो इससे भी पुरोहित दलवालों की उत्तमता सिद्ध नहीं हो सकती, किंतु इसका कुछ और ही कारण है। वह यह कि जिन गुरु या पुरोहित से भिन्न किसी-किसी याचक ब्राह्मणों को अयाचक ब्राह्मण कहीं-कहीं प्रणाम कर देते हैं, उनके पूर्वज प्रथम बड़े-बड़े तपस्वी और शास्त्रज्ञ थे। जिससे 'विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठयम्' अर्थात ब्राह्मणों में अधिक ज्ञानवाला ही ज्येष्ठ समझा जाता है, न कि अधिक अवस्था वाला' इस मनुवचन के अनुसार उन्हें ज्येष्ठ समझ कर गुरु या पुरोहित न होने पर भी अयाचक ब्राह्मणों के पूर्वज प्रणाम कर दिया करते थे। जैसा कि करना उचित ही है और याचक दलवाले भी किया करते थे और करते भी हैं। परंतु सभी घुरहू कतवारू को आँख मूँद कर प्रणाम न तो याचक ही और न अयाचक ही किया करते थे, या किया करते हैं। काल पा कर यद्यपि उनके वंशजों में वह योग्यता न भी रह गई जिससे उन्हें प्रणाम करना उचित था, परंतु लोक तो अन्धपरम्परा है। जो बात एक बार चल पड़ी उसे रोकना सहज नहीं हैं, जैसाकि नीतिकारों ने कहा है कि :

गतानुगति को लोको न लोक: पारमार्थिक:।

अर्थात ‘संसार अन्धपरम्परा की तरह देखा-देखी किया करता है न कि सच्ची या झूठी, अथवा योग्य, अयोग्य, बातों का विचार किया करता है।’ इसीलिए अब तक उनके वंशजों को कहीं-कहीं लोग प्रणाम कर दिया करते हैं। इसके लिए दृढ़तर प्रमाण एक तो याचकों का आचरण ही हैं और दूसरा यह है - जैसा कि सभी लोग जानते और देखते हैं कि प्राय: प्रत्येक गाँवों में जो गोसाईं हुआ करते हैं, जिन्हें लोग घरबारी गोसाईं या अतीथ कहा करते हैं और जिनके लड़केवाले भी होते हैं उन्हें प्राय: सभी जाति के लोग जहाँ-तहाँ 'नमो नारायन बाबा!' कह कर प्रणाम करते हैं। परंतु यदि विचार दृष्टि से देखा जावे तो वास्तव में वे किसी के प्रणाम के योग्य नहीं है, क्योंकि जैसा कि लिखा है कि जो संन्यासी हो कर स्त्री रख लेता या विवाह कर लेता है, वह और उसके वंशज पतित हो जाते हैं। वे वचन इस प्रकार है :

चाण्डाला: प्रत्यवसिता: परिव्राजकतापसा:।

तेषां जातान्यपत्यानि चाण्डालै: सह वासयेत्। द.। 4। 20॥

येतुप्रव्रजितापत्या याचैषांवोजसंतति:।

विदुरानामचाण्डाला जायन्तेनात्रासंशय:। अ.। 35। 165॥

यस्तु प्रव्रजिताज्जातो ब्राह्मण्यांशूद्रतश्यच:।

द्वावेतौ विद्धि चाण्डालौ सगोत्राद्यस्तु जायते। ग.। 42। 21॥

अर्थात ‘दक्षस्मृति का वचन है और अग्निपुराण में भी लिखा है कि जो चांडाल, अन्य के छूने के अयोग्य, संन्यासी और तपस्वी (वानप्रस्थ) है, इन चारों के लड़के बराबर ही होते हैं। अत: उन्हें चांडालों के साथ ही रखना या खाना-पीना चाहिए। जो लोग संन्यास ले कर स्त्री से भोग करते हैं और उससे जो लड़के उत्पन्न होते हैं वे सभी विदुर नामवाले चाण्डाल होते हैं इसमें संशय नहीं हैं। गरुड़ पुराण के प्रेतखण्ड में लिखा है कि जो संन्यासी से जन्मा हो, जो ब्राह्मण में शूद्र के वीर्य से पैदा हो, जो सगोत्र में ब्याह से पैदा हो उन्हें चांडाल जानो।’ अग्निपुराणवाला ही श्‍लोक अत्रिस्मृति के 8 वें अध्याय का 18 वाँ है। इसीलिए इन लोगों का यात्रा वगैरह में दर्शन निषिद्ध मानते हैं। न कि संन्यासी (दंडी) का दर्शन निषिद्ध है क्योंकि वह तो नारायण स्वरूप है। जैसा कि लिखा है कि :

दंडग्रहणमात्रोण नरोनारायणो भवेत्।

अर्थात ‘ब्राह्मण दंड धारण करने से ही नारायण स्वरूप हो जाता है।’ और नारायण का दर्शन सिवाय मंगल के अमंगल हो सकता नहीं। अस्तु, फिर भी लोग उन्हें प्रणाम करते ही हैं। इसका कारण यह है कि इन गोसाइयों के पूर्वज प्रथम सच्चे संन्यासी थे। इसी से लोग उन्हें 'ओम नमोनारायणाय' कह कर प्रणाम किया करते थे। परंतु यद्यपि काल पा कर वे या उनके बाद के जो साधु (संन्यासी) उस स्थान पर रहते थे; वे भ्रष्ट भी हो गए और स्त्री-लड़केवाले हो गए। परंतु लोग वही पुरानी लकीर के फकीर हो कर अब तक वैसे ही प्रणाम करते चले आते हैं, और वही 'ओम नमोनारायणाय' बिगड़ कर 'नमोनरायन बाबा!' हो गया। तो क्या इतना होते रहने पर भी वे गोसाईं वास्तव में उन प्रणाम करने वालों से श्रेष्ठ हो सकते हैं? बस, यही दशा अन्य याचक ब्राह्मणों की भी समझ कर संतोष कर लीजिए।

चौथा प्रश्‍न जो प्राय: हुआ करता है कि यदि अयाचक ब्राह्मण लोग उत्तम ब्राह्मण हैं तो फिर दान ले कर क्यों नहीं पचा लेते? परंतु यह भी निरी अनभिज्ञता को प्रकट करता है। क्योंकि दान ले कर हज्म करना तो प्राय: श्रेष्ठ ब्राह्मणों का कर्म है ही नहीं, प्रत्युत वे लोग उसे निंदित कर्म ही समझते हैं, यह बात प्रथम ही सिद्ध की जा चुकी है। और यदि वास्तव में पूछा जावे तो जो याचक ब्राह्मण दान ले कर हज्म करने का अभिमानवाले हैं वे भी यह नहीं समझते कि वे लोग दान ले कर उसे हज्म कर लेते हैं अथवा अपनी हज्म करनेवाली शक्‍ति का कुछ भी विचार न कर इतना दान ले रहे हैं कि जिससे उन्हें बदहजमी हो रही है और अन्त में पेट के फट जाने से मर जावेंगे। अर्थात उन्हें परलोक में नरकवासी होना होगा। क्योंकि प्रथम ही यह सिद्ध कर चुके हैं कि बिना तप करने और वेद पढ़नेवाले के जो दूसरा ब्राह्मण प्रतिग्रह की इच्छा भी करता है वह दान को ले कर ही पत्थर की नाव की तरह डूब जाता है। जैसा कि मनु भगवान ने कह दिया है कि :

अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।

अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥

तो फिर कैसे कहा जा सकता है कि आजकल के निरक्षर भट्टाचार्य लोग दान को हज्म करनेवाले हैं? किंतु हार कर यही मानना पड़ेगा कि उन्हें बदहजमी हो रही है। परंतु अयाचक ब्राह्मण लोग तो प्राय: कीचड़ में पाँव डाल कर पीछे से धोना और बदहजमी से तंग होना नापसंद करते थे और करते हैं, क्योंकि बुद्धिमान उसे ही कहते हैं जो कभी हीन कार्य न करे। यदि दान को हज्म करने के ही अभिमान से आप श्रेष्ठ बनने की डींग हाँकते हैं, तो फिर महापात्र या महाब्राह्मण तो आपसे भी श्रेष्ठ सिद्ध हो जावेंगे, क्योंकि जिस शय्यादान आदि को आप भी हज्म नहीं कर सकते, उसे वे पचा जाने का दावा करते हैं। इतना ही क्यों? शायद आपकी इस दलील के मुताबिक चांडाल सभी ब्राह्मणों से अथवा सारे संसार से श्रेष्ठ ठहर गया, क्योंकि जिस ग्रहण काल के दान को आप लोग कोई भी पचाने की शक्‍ति नहीं रखते, उसे वह हाँक दे कर पचाने का दावा रखता है। इसलिए ऐसे-ऐसे प्रश्नों की चर्चा भी नहीं करनी चाहिए, प्रश्नों से दूर रहें, नहीं तो लेने के देने पड़ जावेंगे। ये सब प्रश्न अत्यन्त प्रसिद्ध है, अत: इनका स्वतन्त्र विचार कर दिया। ब्राह्मण तो दस प्रकार के ही हैं, ग्यारहवें कहाँ से आ गए? इसका तो उत्तर हो ही चुका है कि अयाचक ब्राह्मण दशविधा ब्राह्मणों से बाहर है नहीं। इसके अतिरिक्‍त 'सारस्वता: कान्यकुब्जा:' इत्यादि श्‍लोक आधुनिक है। क्योंकि वे जितनी जगह मिलते हैं उतने ही प्रकार से उलटा-पलटा लिखे हैं और किसी-किसी ने उनमें सर्यूपारी आदि पद घुसेड़ कर अन्य पद निकाल दिए हैं। जैसा कि पं. दुर्गादत्त के दिग्विजय और ब्राह्मणोत्पत्तिर्मात्तण्ड आदि से विदित है। यथा :

ब्राह्मणोत्पत्तिर्मात्तण्ड

कार्णाटकाश्‍च तैलंगा द्राविडा महाराष्ट्रका:।

गुर्जराश्‍चेति पंचैव द्राविडा विन्धयदक्षिणे॥ 16॥

सारस्वता: कान्यकुब्जा गौडा उत्कल मैथिला:।

पंच गौडा इतिख्याता विन्धयस्योत्तारवासिन:॥ 17॥ पृ. 3॥

त्रिहोत्राह्यग्निवैश्याश्‍चण् कान्यकुब्जा: कनौजिया:।

मैत्रायणा: पंचविधा एते गौड़ा: प्रकीर्त्तिता:। 3। पृ. 349॥

शैवब्राह्मणोत्पत्ति

सारस्वता: कान्यकुब्जा गौडाश्‍च मैथिलोत्कला:।

गौडा: पंच समाख्याता विन्धयस्योत्तारवासिन:॥ 23॥

महाराष्ट्रा द्राविडाश्‍च तैलंगा गुर्जरास्तथा।

कार्णाटा द्राविडा: पंच विन्धयदक्षिणवासिन:। 24। पृ. 12॥

पं. दुर्गादत्तदिग्वि

महाराष्ट्राश्‍च तैलंगा द्राविडा गुर्जरास्तथा।

कारणाटाश्‍च पंचैते दक्षिणात्या: प्रकीर्त्तिता:॥

सरय्वा: कान्यकुब्जाश्‍च सारस्वताश्‍च मैथिला:।

नागराश्‍चेति पंचैते पंच गोडा: प्रकीर्त्तिता:॥ पृ. 2॥

यदि शक्‍तिसंगमतन्त्र के भी होते तो उनकी ऐसी दुर्दशा न होती। अथवा उसमें मानने पर भी वह भी आधुनिक ही है। साथ ही, यदि दस प्रकार के ही ब्राह्मण माने जावेंगे तो सर्यूपारी, सनाढ्‍य जिझौतिया और बंगाली आदि ब्राह्मणों की क्या व्यवस्था होगी? वैसी ही यहाँ भी जान लीजिए। अवशिष्ट सब प्रश्नों या बातों का विचार तो अच्छी तरह से प्रथम ही किया जा चुका है।